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-   -   बाबू लोहा सिंह (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=2067)

arvind 25-01-2011 04:31 PM

बाबू लोहा सिंह
 
आकासबानी पटना से एगो प्रोग्राम होता था “चौपाल”. ई देहाती प्रोग्राम था. इसमें एगो मुखिया जी थे, जो हिंदी में बात करते थे, उनके अलावा बुद्धन भाई भोजपुरी में, बटुक भाई मैथिली में और गौरी बहिन मगही में. फॉर्मेट अईसा था कि बिहार का सारा भासा उसमें आ जाए. इसी में सुकरवार को बच्चा लोग का प्रोग्राम होता था हिंदी में “घरौंदा”. लेकिन चौपाल कार्यक्रम का सबसे बड़का आकर्सन था भोजपुरी धारावाहिक नाटक “लोहा सिंह”. ई नाटक बिबिध भारती के हवा महल में होने वाला धारावहिक “मुंशी एतवारी लाल” के जईसा था. लोहा सिंह, एक रिटायर फौज के हवलदार थे, जिनके पास फौज का सारा कहानी काबुलका मोर्चा पर उनका पोस्टिंग के दौरान हुआ था.

लोहा सिंह के परिवार में, उनके साथ लगे रहते थे एगो पंडित जी, जिनको लोहा बाबू फाटक बाबा कहते थे, नाम त उनका पाठक बाबा रहा होगा. उनकी पत्नी जिनका असली नाम कोई नहींजानता था, काहे कि लोहा बाबू उनको खदेरन का मदर कहकर बुलाते थे. इससे एतना त अंदाजा लगिए गया होगा आप लोग को कि उनका बेटा का नाम खदेरन था. खदेरन के मदर के साथ उनकी सहेली अऊर घर का काम करने वाली एगो औरत थी भगजोगनी. एगो करेक्टर त भुलाइये गए, लोहा सिंह का साला बुलाकी. घर में सब लोग भोजपुरी भासा में बतियाता था, लेकिन लोहा सिंह हिंदी में बात करते थे. ई पोस्ट हम जऊन हिंदी में लिखते हैं,बस एही भासा था बाबूलोहा सिंह का. ई धारावहिक का सबसे बड़ा खूबी एही था कि ई समाज में प्यार, भाईचारा अऊर मेलजोल का संदेस देता था. हर एपिसोड, गाँव में कोनो न कोनो समस्या लेकर सुरू होता था, अऊर अंत में लोहा सिंह जी के अकलमंदी से सब समस्या हल, दोसी पकड़ा जाता.
ई सीरियल का सबसे बड़ा खासियत था उनका बोली. एही बोली से बिहार का सब्द्कोस में केतना नया सब्द आया. फाटक बाबा, मेमिन माने अंगरेज मेम, बेलमुंड यानि मुंडा हुआ माथा, बिल्डिंग माने खून बहना ( ऐसा फैट मारे हम उसको कि नाक से बिल्डिंग होखने लगा), घिरनई माने घिरनी ... अऊर बहुत कुछ. हर नाटक का अन्त उनका ई डायलाग से होता था, देखिए फाटक बाबा, फलनवा का बेटी को अच्छा बर भी दिला दिए, ऊ दहेज का लालची को जेल भेजवा दिए, अऊर गाँव का बेटी को सब घर परिवार का सराप (श्राप) से मुक्ति दिला दिए. इसपर फाटक बाबा कहते कि को नहीं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो. अऊर नाटक खतम.

उनका एगो सम्बाद आजो हमरे दिमाग में ताजा है, जइसे कल्हे सुने हैं:
“जानते हैं फाटक बाबा! एक हाली काबुल का मोर्चा पर, हमरा पास एगो बाबर्ची सिकायत लेकर आया.
उसका पट्टीदारी में कोई मू गया था इसलिए ऊ माथा मूड़ाए हुए था. हमको बोला –
बाबू लोहा सिंह, बताइए त, आपका होते हुए कर्नैल हमरा माथा पर रोज तबला
बजाता रहता है. हम बोले कि हम बतियाएंगे. हम जाकर करनैल को बोले कि उसका घर
में मौत हो गया है, अऊर आप उसका बेलमुंड पर घिरनई जईसा तबला ठोंकते हैं. ई
ठीक बात नहीं है. करनैल बोला कि ठीक है, हम नहीं करेंगे. जानते हैं फाटक
बाबा, जब ई बात हम ऊ बाबर्ची को बताए त का बोला. ऊ बोला कि ठीक है बाबूसाहब
ऊ तबला नहीं बजाएगा त हम भी उसका मेमिन का नहाने का बाद जो टब में पानी बच
जाता है, उससे चाह बनाकर नहीं पिलाएंगे उसको.”

ई नाटक के लेखक अऊर लोहा सिंह थे श्री रामेश्वर सिंह कश्यप, अऊर खदेरन को मदर थीं श्रीमती शांति देवी. कश्यप जी
पहले पटना के बी.एन. कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे, बाद में जैन कॉलेज आरा के प्रिंसिपल बने. लम्बे चौड़े आदमी, नाटक में कडक आवाज, लेकिन असल जिन्नगी में बहुत मोलायम बात करने वाले. एक दिन पुष्पा दी के ऑफिस में आए और बैठ गए. हम बगले में बैठे थे. पुष्पा दी पूछीं, “चाह (चाय) पीजिएगा, मंगवाऊं?” कश्यप जी बोले, “आपकी चाह छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए.” आज दोनों हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ई लोग अपने आप में इस्कूल थे. कोई ट्रेनिंग नहीं, लेकिन अदाकारी देखकर कोई बताइए नहीं सकता है कि केतना गहराई है. बहुत कुछ सीखे हैं इन लोगों से, तब्बे एतना तफसील से चार दसक बाद भी लिख पा रहे हैं. अईसा लोग मरते नहीं हैं. ईश्वर उनके आत्मा को शांति दे!!

एगो बात त छूटिये गया:
खदेरन का मदर का तकिया कलाम था "मार बढ़नी रे" और फाटक बाबा का था "जे बा से बीच के बगल में".

(चला बिहारी ब्लॉगर बनने से साभार)

arvind 25-01-2011 04:58 PM

Re: बाबू लोहा सिंह
 
लोहा सिंह के बोले गए कुछ डायलॉग अभी भी मुझे याद है:

"जानते है फाटक बाबा, जब हम काबुल का मोर्चा पर था, तब साहेब का मेम और मेमीन लोग हमको बिस्कुट का मोरब्बा खिलाता था आउर लोटा मे चाह पियाता था।"

"ये बुलाकी, आज गाव मे आपरेशन का कारपोरसन (ऑपरेशन का कार्यक्रम) है आउर कनटोपर (कमपाउंडर) बाबू अबही तक नहीं आए है।"

amit_tiwari 25-01-2011 05:00 PM

Re: बाबू लोहा सिंह
 
अच्छी रचना पढवाई बंधू |
थोडा दुबारा आ के जुगाली करनी पड़ेगी पूरा समझने के लिए किन्तु सोंधी महक तो आ ही रही है |

abhisays 30-01-2011 08:41 AM

Re: बाबू लोहा सिंह
 
बहुत ही बढ़िया रचना है. एकदम मज़ा आ गया. :bravo:

Nitikesh 30-01-2011 09:52 AM

Re: बाबू लोहा सिंह
 
बहुते बढियाँ पिरोगराम बनाया है है.......

Sikandar_Khan 30-01-2011 09:57 AM

Re: बाबू लोहा सिंह
 
बहुत ही बढ़ियां मजा आ गया
लगे रहो ....

khalid 30-01-2011 10:37 AM

Re: बाबू लोहा सिंह
 
की बात छै अरविन्द भैया हमर्र मजा आगेले पढी क

ndhebar 31-01-2011 11:42 AM

Re: बाबू लोहा सिंह
 
चौपाल के एक ठो डायलोग हमरो याद है

"राम राम मुखिया जी
राम राम बटुक भाय"
बस आगे सब भूल गया
यहाँ तक की कार्यक्रम का नाम भी, आपके दिलाये याद आया की उ चौपाल था


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