डॉ. धर्मवीर भारती और श्रीमती पुष्पा भारती
श्रीमती पुष्पा भारती का इन्टरव्यू (एक अंश)
(साभार: मधु अरोड़ा) प्र. डॉ धर्मवीर भारती से जब आपका परिचय हुआ था तब तक आपका लेखन किस मुकाम तक पहुंच चुका था? उ. लेखन हमारा उसी स्तर का होता था जैसे कॉलेज़ स्कूल की प्रतियोगिताओं में लिखना। मुझे कहानी प्रतियोगिता का शौक था। एक प्रतियोगिता में मुझे तृतीय पुरस्कार मिला और मुझे थोड़ी तकलीफ हुई। कानपुर में आयोजित एक प्रतियोगिता में इलाहाबाद का प्रतिनिधित्व किया और प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया।मैने रिसर्च की ष्सि और नाथ का तुलनात्मक अध्ययन। पहले तो भारती जी गाइड करने के लिये तैयार नहीं हुए। जोर देने पर उन्होंने मुझसे काम शुरू करने के लिए कहा। जब उन्होंने मेरे सिनॉपसिस देखे तो धराशाई। तब उन्होंने पूरी दिलचस्पी से मेरा मार्ग दर्शन किया। मै पढ़ने में गंभीर हो सकती हूं तभी उन्होंने जाना और वे प्रभावित होते चले गए। प्र. आम तौर पर यह माना जाता है कि पति पत्नी को एक ही व्यवसाय में कभी नहीं होना चाहिए। उन दोनों के अहम टकराते हैं। ऐसे में पति जब डॉ धर्मवीर भारती जैसा ख्याति प्राप्त लेखक, कवि, संपादक और बेहद अनुशासनबद्ध व्यक्ति हो और पत्नी की भी साहित्य में अपनी जगह हो तो ऐसे में पुष्पा भारती क्या महसूस करती रहीं? उ. भारती जी मेरे लेखन के विषय में कहते थे कि मेरे पास बेहतर भाषा है और मै इसे उनके प्रेम का अतिरेक मानती हूं। एक बार धर्मयुग में मॉरीशस का विशेषांक निकला था। उसमें हम दोनों के लेख थे। विश्वास मानो मेरे लेख पर एक बोरी भरकर पत्र आए और यह प्रमाण उन्होंने मुझे दिखाया। मै साहित्य में उनके पैर के नाखून के बराबर भी नहीं हूं। वे मेरा बहुत आदर करते थे। जितना हम नहीं थे वे उससे बेहतर बताते थे। वे मेरी रुचि का ख्याल रखते थे। मेरी पसन्द की किताबों के ढेर लगा देते थे। मैने उन्हें जिन्दगी भर गुरू माना तो टकराव का सवाल ही पैदा नहीं होता। |
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प्र. आप आजीवन डॉ भारती की प्रेरणा, हमसाया, हमकदम, संगी साथी, सखी और सब कुछ बनी रहीं। वे आपके लिये क्या थे?
उ. तुम कनुप्रिया की कविता याद कर लो। जब मैने उनसे पूछा कि आप मेरे कौन है तो भारती जी ने उत्तर में “तुम मेरे कौन हो” कविता लिखी। वे मेरे गुरू पिता और भाई थे। पति तो बहुत बाद में थे। वह तो गौण रिश्ता है। वे मेरे सब कुछ थे। सबसे बढ़कर वे मेरे बच्चे थे। मुझमें उन्हें अपनी मां दिखती थी। हम दोनों ने एक दूसरे को पा लिया फिर और कहीं नजर जाने का सवाल ही नहीं उठता। यह अपने आप में संपूर्ण प्यार था। प्र. आमतौर पर कहा जाता है कि लेखन औरों का भला करे न करे, पर हमें खुद को एक बेहतर इन्सान बनाता है। आपका इस बारे में क्या मानना है? उ. यह शब्दश सत्य है। किताब का क्राइटीरिया ही यह है कि जिसे पढ़कर मै बेहतर बन सकूं। वह किताब वह संगीत जो मुझे सुख पहुंचाये, वह मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है। जिस वस्तु में मुझे व्यापक क्षितिज मिले वह मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है। प्र. आजकल आप भारती जी के रचनासंसार को एकत्र करने संपादित करने और सहेजने की मुहिम में जुटी हैं। ऐसे में आपके बच्चों का योगदान और रुख क्या है? उ. बच्चे हमेशा से यह जानते हैं कि हम दोनों एक दूसरे को कितना प्यार करते हैं। इसलिए जब मै व्यस्त रहती हूं तो छेड़ते नहीं। उन्हें पता है कि मुझे सुख देना है तो मुझे भारती जी में डूबा रहने दें। बेटी व्यावहारिक रूप से मेरी मदद करती है़, मुझे मुक्त रखती है कि मै काम कर सकूं। बच्चों को पता है कि मेरी बात में पिता और पति जरूर आएंगे। पहले भारती जी मुझे सुनते थे, अब मेरी बेटी प्रज्ञा है जो मुझे सुनती है। मै यह सोच कर काम नहीं कर रही कि भारती जी के लिए कर रही हूं। यह मेरे जीने का सबब है। भारती जी को पेड़ों से बहुत लगाव था। उनकी मृत्यु के बाद हमारे घर के कदंब के पेड़ों ने फूल देना बन्द कर दिया है। हां अभी रचनासंसार को कोई नहीं देख रहा पर उनकी किताबों का असली मूल्यांकन आगे होगा। अभी तो ईर्ष्या-द्वेष चल रहा है। मै कौन होती हूं। मै समुद्र में बूंद के बराबर हूं। प्र. उम्र के इस दौर में भी आपकी सक्रियता देखते बनती है। तो इस सक्रियता के पीछे कौनसी प्रेरणाशक्ति काम कर रही है? उ. निश्चित रूप से भारती जी का प्यार काम कर रहा है। मैने उन्हें पति समझा ही नहीं। दूसरे मैने कभी किसी का अहित नहीं चाहा, जिसने किया उसका भी नहीं। लेकिन अब उम्र थकाने लगी है। जब काम ज्यादा था तो थकान भी नहीं होती थी। काम कम होने के साथ ही शक्ति भी चुकने लगी है। मै अब भी उनके साथ ही जी रही हूं। मै मिस ही नहीं करती उनको। |
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प्र. आप संबंधों को किस तरह परिभाषित करती हैं और संवेदनशीलता को जिन्दगी में कितना महत्त्वपूर्ण मानती हैं?
उ. मै संबंधों को खून के नाते से नहीं जोड़ती। मुंबई पर-प्रान्त है। आज पूरी दुनिया बदली-बदली नजर आती है। जब संबंध बनाने चले तो सारे रिश्ते-नाते यहां के समाज में ही मिल गए। बनाये गए रिश्तों में देने का सुख मिलता है। खून के रिश्ते में अपेक्षाएं होती हैं। इसलिए बने बनाए रिश्ते अच्छे लगते हैं। रिश्तेदार यह देखते हैं कि हमने उनके लिए क्या किया, जब कि बनाये गए रिश्तों में मधुरता होती है। मै नाते-रिश्तेदारों की अवहेलना की बात नहीं कर रही पर फर्क साफ नज़र आता है। मुझे याद आता है राही मासूम रजा का वाक्य; उन्होंने एक बार कहा कि आप ही केवल मेरी भाभी हो। मैने कहा कि तुम्हारी और भी तो भाभी है। वे बोले कि और सब तो भाभी जी हैं केवल आप मेरी भाभी हो। तो कैसे भूल सकती हूं इस बात को? कितनी बारीक बात कह गए वे। मुझे मुंबई में सारे रिश्ते मिल गए। रही बात संवेदनशीलता की तो यह इतनी नाजुक होती है कि इस पर आसपास के परिवेश की संवेदनशीलता असर डालती है। पर आम संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। हम रिएक्ट भी नहीं करते। हमारे समाज का ढांचा इस तरह बनता जा रहा है कि जितना समाज बचा ले जाएं तो बहुत है। जहां तक संवेदनशीलता की बात है तो याद आता है वह वाक्या; जब भारती जी, मैं और बच्चे लोटस से फिल्म देख कर आ रहे थे और रास्ते में 34 लोगों द्वारा एक आदमी को पिटता देखकर उसे देखने जाने लगे तो मैने उन्हें मना करके घर चलने के लिए कहा। खैरघर आकर उन्होंने खुद को कमरे में बन्द कर लिया और थोड़ी देर में फूटफूटकर रोने की आवाज आने लगी। मै घबरा कर गई और पूछा तो बोले आज आपने मेरी संवेदनशीलता पर अंकुश लगा दिया। मै आदमी से पिटने का कारण भी नहीं जान पाया। मुझे बड़ी कोफ्त हुई। दूसरे दिन महालक्ष्मी के उस एरिया में बहुत से लोगों से पूछने के बाद पता चला कि पिटने वाले आदमी ने पीटने वाले की पत्नी के साथ गर्भावस्था में बलात्कार किया था। पीटने वाले लोग उस महिला के पिता पति और भाई थे। मै बहुत खुश हुई। आकर भारती जी को बताया तो वे बोले यह तो गलत है। एक अकेले आदमी को चार आदमी पीटें। माना गलत हुआ पर हमारे यहां कानून है, पुलिस है, वहां जा सकते थे। तो यह तो मात्र एक उदाहरण है संवेदनशीलता का। ** |
Re: डॉ. धर्मवीर भारती और श्रीमती पुष्पा भारती
बहित ही बढ़िया
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