मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
ब्लैक सेंट अलैक महोदयके द्वारा जारी किये गए सूत्र “राजस्थानी कहावतों का अद्भुत संसार” में शेखावाटी क्षेत्र के ज़िक्र से प्रेरित हो कर ज़िंदगी का हिस्सा बन गए शहरों पर आधरित यह नया सूत्र आरंभ कर रहा हूँ.
सबसे पहले मेरा चयन “चूरू” नामक शहर है (जो राजस्थान के शेखावाटी अंचल का ही एक नगर है). देहरादून के डी.ए.वी. पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज से शिक्षा प्राप्त करने के बाद मैं दिल्ली चला आया. यहाँ कुछ छोटे मोटे काम करने के बाद मेरी नियुक्ति एक बैंक में हो गयी. मैं बताना चाहता हूँ कि मुझे राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के अन्तर्गत चूरू नामक नगर में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जहाँ सन् १९७४ में एक बैंक कर्मचारी के रूप में मुझे दिल्ली से भेजा गया था. वहाँ मैं सन् १९८० तक अर्थात् छह वर्ष तक रहा. ये छह वर्ष आज भी मेरे दिल में किसी अमूल्य धरोहर की तरह सुरक्षित हैं. जिस शहर का नाम तक मैंने कभी न सुना था और न ही नक़्शे में उसका स्थान मालूम था वह मेरी आत्मा तक में इतना गहरा समा जाएगा कभी सोचा न था. वास्तव में मेरे जीवन का यह एक स्वर्ण युग था. प्रचलित धारणा के विपरीत वहाँ उन दिनों यथार्थ में घी दूध की नदियाँ बहती थीं (जो समय के अंतराल में लुप्त हो गयीं). इन्हीं छह वर्षों के दौरान ही मेरी शादी हुई और फिर वहीँ एकमात्र संतान प्राप्त हुई. वहीँ से पदोन्नत हो कर मैं श्रीनगर (जम्मू – कशमीर) चला गया लेकिन वहाँ के बारे में फिर बताऊंगा. चूरू अंचल के लोगों के मन प्यार से भरे होते हैं. चूरू ने मुझे कुछ ऐसे मित्र दिए जिनकी मित्रता पर मुझे आज भी गर्व है जैसे हरी भाई जी, नवनीत व्यास, ज़हूर अहमद गौरी तथा मेरे साहित्यिक मित्र हितेश व्यास (वर्तमान में कोटा नगर में हिंदी प्रोफेसर) और मंसूर अहमद ‘मंसूर’ (राजस्थान उर्दू अकादमी द्वारा सम्मानित शायर). रेत के टीलों और धोरों के अलावा वहाँ की भित्ति-चित्रों वाली विशाल आकार वाली पुरातन लेकिन उजाड़ हवेलियाँ जैसे साँस लेती हुई प्रतीत होती हैं, ऐसा लगता है जैसे तपस्या में निमग्न तपस्वी हों. वहाँ के तांगे, ऊँट गाड़ियां, गधा गाड़ियां (जिन्हें मिनिस्टर गाड़ी भी कहा जाता था), वहाँ की ढफ, भांग और सांग में भीगी होली, गोगो जी का मेला तथा अन्य बहुत से मेले ठेले भूले नहीं भूलते. इसके अलावा दोस्तों के साथ रेडियो पर तामीले इर्शाद सुनना और प्रतिदिन रात को खाना खाने के बाद रेत के टीलों में सैर करने जाना. धीरे धीरे वहाँ काफी बदलाव आ गए जैसे तांगे, ऊँट तथा गधा गाड़ियों का अंत और ऑटो रिक्शा का वर्चस्व. |
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बहुत अच्छी शुरुआत ! उम्मीद है, बहुत कुछ रोचक पढने को मिलेगा ! धन्यवाद ! :bravo:
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
अभिसेज़ जी एवं रणवीर जी तथा अन्य अज्ञात पाठकों का आभारी हूँ कि उन्होंने ‘मेरी ज़िंदगी : मेंरे शहर’ सूत्र के शुरुआती अंश पढ़े/ पसंद किये. सेंट अलैक जी का विशेष रूप से आभारी हूँ कि सूत्र पर अपनी सकारात्मक टिप्पणी दे कर उत्साहवर्धन किया. आइन्दा भी सूत्र में मनोरंजक सामग्री दे सकूं ऐसी आशा करता हूँ.
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यदि आप शेखावाटी क्षेत्र की यात्रा पर जायें तो देखेंगे कि पूरे अंचल में नगरों की बसावट लगभग एक जैसी है. एक जैसी सड़कें और गलियों, एक जैसी बड़ी बड़ी हवेलियाँ जो बाहर से अंदर तक वर्षों पुराने भित्ति चित्रों से अलंकृत की जाती थीं, एक जैसी छतरियाँ, एक ही आकार के कुँए, एक जैसी दुकाने व बाजार आदि. जिन भित्ति चित्रों का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ उनमें अधिकतर तत्कालीन समाज तथा परंपरागत जन जीवन, पौराणिक कथाओं के प्रचलित प्रसंग, राजनैतिक माहौल, अंग्रेजों तथा उनकी विलासिता एवं मशीनीकरण को दर्शाने वाले दृष्यों, की बहुतायत थी. हवेली में प्रवेश करने से पहले दो पट वाले एक विशाल फाटक से हो कर जाना पड़ता था. इस विशाल फाटक में एक छोटा दरवाजा भी होता है ताकि आने जाने के वक्त बार बार बड़ा फाटक न खोलना पड़े. फाटक लकड़ी के बने होते थे जिन पर बाहर की तरफ़ पीतल की बड़ी नुकीली कीलें ठोकी जाती थीं ठीक वैसी जैसे किलों के फाटकों पर दिखायी देती हैं. बड़े फाटक से हो कर अंदर जाने पर हमारे सामने लगभग दस-बारह या इससे भी अधिक सीढियां आती हैं जिन पर चढ़ कर ही हम हवेली में प्रविष्ट हो सकते हैं (देखें चित्र १ और २). |
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यदि आप इन चित्रों को ज़ूम करें तो यहाँ की भवन निर्माण कला तथा सुन्दर भित्ति चित्रांकन का आनंद ले सकते हैं. इन हवेलियों के भूतल (ground floor) पर आम तौर से तहखाने बनाए जाते थे. कभी खूबसूरत रहीं ये शानदार विशालकाय बहुमंजिली हवेलियाँ आज काफी खस्ता हालत में हैं. इनकी दीवारों पर अंकित चित्र भी काफी हद तक मौसम की मार तथा वक्त के थपेडों से क्षतिग्रस्त हुये हैं, धूमिल हो चुके हैं या नष्ट होने की कगार पर हैं. सुनते हैं कि राजस्थान पर्यटन विभाग की ओर से कुछ हवेलियों और उनके चित्रों के पुनरुद्धार का काम हाथ में लिया गया है. लेकिन यह काम इतना खर्चीला और व्यापक है कि वर्तमान में चल रहे काम को ऊँट के मुँह में जीरा ही कहा जाएगा. जिस प्रकार हम आज शहरों में सेरेमिक टाईलों का इस्तेमाल देखते हैं उसी प्रकार शेखावाटी की इन हवेलियों में दीवारों पर ऐसे सफ़ेद प्लास्टर का प्रयोग किया जाता था जिसकी चमक टाईलों से किसी प्रकार कम नहीं थी. जिन दीवारों पर यह प्लास्टर लगाया जाता था जो बीसियों साल तक ज्यों का त्यों बना रहता था और वहाँ बार बार सफेदी अथवा डिस्टेम्पर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. |
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लगभग तीन दशक के बाद, जब मैं कुछ अरसा पहले वहाँ फिर गया तो मैंने देखा कि श्री रावत मल पारख की जिस हवेली में मैं सन १९७८ तक रहा था उसके बाहरी जालीदार दरवाजे और ऊपर चढ़ती सीढ़ियों के बीचोंबीच पीपल का एक पेड़ उग आया था जिसका भरा पूरा तना देख कर मालूम पड़ता था कि पिछले तीस वर्षों से वहाँ किसी व्यक्ति ने कदम नहीं रखा.
चूरू शहर की प्रमुख और पुरानी हवेलियों में से माल जी का कमरा (जिसके दालान में इतालवी स्थापत्य कला के स्तम्भ और मूर्तिकला के दर्शन होते हैं यद्यपि इनमे काफी टूट फूट हो चुकी है), सुराणा हवा महल (इसका यह नाम कई मालों पर लगी इसकी सैकड़ों, शायद ११००, खिड़कियों के कारण पड़ा), कन्हैया लाल बागला की हवेली, बांठिया हवेली, जय दयाल खेमका की हवेली, पोद्दारों की हवेली आदि सैंकडों छोटी बड़ी हवेलियाँ देखने वालों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं. इस नगर की अधिकतर हवेलियाँ आज उजाड़ हालत में हैं और जर्जर हो चुकी हैं. इन में कोई नहीं रहता. जैसे विलियम डेलरिम्पल ने दिल्ली की प्राचीन और उजाड़ ऐतिहासिक इमारतों के कारण दिल्ली को ‘दि सिटी ऑफ जिन्न’ कहा है, उसी प्रकार यह संज्ञा चूरू (या शेखावाटी) के लिये और भी उपयुक्त लगती है. रात के समय इन भूतिया हवेलियों में घुसने के लिये लोहे का कलेजा चाहिए. |
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चूरू नगर प्रसिद्ध है अपने मारवाड़ी सेठों के लिये. ये लोग दशाब्दियों पहले यहाँ से व्यापार की खातिर महानगरों में पलायन करने लगे थे. कहते हैं की ये मारवाड़ी यहाँ से बंबई, कलकत्ता और अहमदाबाद आदि बड़े औद्योगिक – व्यापारिक केन्द्रों में जा कर बस गए थे. एक किम्वदंति के अनुसार यहाँ से जाते हुये इन मारवाड़ियों के पास केवल एक लोटा होता था. कालान्तर में उन्होंने अपनी व्यापारिक सूझ बूझ के बल पर अकूत धन सम्पदा अर्जित की और उन्होंने अपने पैत्रिक स्थान में बड़ी रीझ से व रुचिपूर्वक विशालकाय हवेलियाँ निर्मित कीं जिनमे उनकी रईसी के दर्शन होते थे. हवेलियों के निर्माण के बाद मालिकान अधिक समय तक नहीं रह पाते थे. मालिक सपरिवार ब्याह शादियों या इसी प्रकार के बड़े अवसरों पर यहाँ पधारते लेकिन कुछ दिन ठहरने के बाद वापिस चले जाते. इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी यह सिलसिला चलता रहा और बाद में वह भी बन्द हो गया.
रिहाइश न होने के कारण इन हवेलियों के सभी कमरों के दरवाजों पर सीलबंद ताले जड़ दिए गए (हवेलियों के सभी कमरे एक चौक में खुलते हैं). देख भाल की जिम्मेदारी एक विश्वासपात्र चौकीदार को सौंप दी जाती थी. आज स्थिति यह है कि अधिकतर हवेलियों में चौकीदार भी नहीं रहे. प्रवेशद्वार भी खुले रहते हैं और उनमे चमगादड़ और कबूतर निवास करते हैं. |
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रजनीश भाई
ये आपका जीवन दर्शन काफी रोचक है |
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bahut badhiya rajnish ji :cheers:
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रजनीश जी .....आपकी अगली प्रविष्टि की प्रतीक्षा कर रही हूँ ......!
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अत्यंत सजीव और मनमोहक शब्दचित्र।
चित्र के उल्लेख के बाद भी चित्र न पाकर, कुछ अधूरा-अधूरा सा लगा। रजनीश जी से आग्रह है कि संबन्धित चित्र भी प्रदर्शित करे। |
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भावना जी और ढेबर जी का बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने इस वृत्तान्त को पसंद किया और आगे लिखते रहने की भी प्रेरणा दी है. अन्य बहुत से अज्ञात पाठकों ने भी इस लेख को विज़िट कर मुझे प्रोत्साहित किया. उनका धन्यवाद करना चाहता हूँ.
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
मित्र, संभवतः आपको चित्र अपलोड करने में कुछ समस्या है। मैं मदद के लिए हाज़िर हूं। फिलहाल मैंने चूरू की हवेलियों के दो चित्र यहां प्रदर्शित कर दिए हैं, ताकि पाठक कुछ नज़ारा भी कर सकें। यदि आप यहां कोई विशेष चित्र प्रदर्शित करने के इच्छुक हों, तो कृपया बताएं, इन्हें तत्काल बदल दिया जाएगा। धन्यवाद।
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
मित्र, आपने शेखावाटी को बहुत ही सुंदर तरीके से पेश किया है ,सच में ही शेखावाटी क्षेत्र राजस्थान का बहुत ही मिलनसार क्षेत्र है ,यहाँ के लोग बड़े साफ़ दिल के व मेहनती होते है !
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सेंट अलैक जी, सर्वप्रथम तो चूरू की पृष्ठभूमि से दो चित्र यथा स्थान चस्पाँ करने के लिये मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें. इन चित्रों से मेरा प्रयोजन पूरा हो गया है. दरअस्ल, एक तो चित्र अपलोड न कर पाने की वजह से हतोत्साहित हो गया था, दूसरे, अन्यत्र व्यस्तता के कारण इस और ध्यान न दे पाया. आशा है इस सिलसिले को अब आगे बढ़ा सकूंगा. एक बार फिर आपका धन्यवाद और विलम्ब से आपसे मुखातिब हुआ, इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूँ. |
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प्रिय मित्रो, कुछ अन्तराल के पश्चात मैं आप के बीच पुनः उपस्थित हुआ हूँ इस सूत्र के अगले प्रसंगों के साथ. मुझे आशा है कि यह सिलसिला आगे चलता रहेगा और आपका स्नेह भी पहले की भांति मुझे प्राप्त होता रहेगा. तो मुलाहिज़ा करें मेरे प्रिय नगर चूरू का आगे का हाल:
यहाँ की हवेलियों का रंग रूप रेगिस्तान की रेत के भूरे रंग से मेल खाता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो ये हवेलियाँ रेत से ही उपजी हों. मेरी निम्नलिखित कविता उपरोक्त तथ्यों की ही निशानदेही करती है: उगा रेत से बालुआ ये शहर. ठिठुराया ठहरा हुआ ये शहर. श्री हीन होता गया पर बराबर, है दिल को लुभाता मुआ ये शहर. सदियों से कीलित मानचित्र जैसा, शहरों में ईसा हुआ ये शहर. शांत ऐसे जैसे तपोवन का कोना, फकीरों की अथवा दुआ ये शहर. नानक की सूखी रोटी तो है ही, न हो चाहे हलवा पुआ ये शहर. पछुआ पवन से छिटका हुआ गाँव, गावों से छिटका हुआ ये शहर. यह कविता चूरू शहर को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है. |
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मित्रो, चूरू शहर से जुड़ा संस्मरणों का अगला भाग प्रस्तुत है:
चूरू में बंधेज की रंगाई का काम काफी प्रसिद्ध था, छोटा नगर होने के बावजूद यह जिला मुख्यालय था जहाँ सांस्कृतिक तथा साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता था. शास्त्रीय संगीत का आयोजन भी वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य किया जाता था जिसमे वहाँ के स्थानीय संगीतज्ञों श्याम सुन्दर जी, मांगीलालजी कत्थक, किशन जी व्यास के अलावा बाहर से भी जाने माने संगीतज्ञों का आगमन होता था. |
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उन दिनों बम्बई (वर्तमान में मुंबई) में रहने वाले एक प्रवासी नवयुवक श्री पुरुषोत्तम (जिन्होंने बातचीत के दौरान अपना परिचय ‘मास्टर पुरुषोत्तम’ के तौर पर दिया था) जी कुछ दिनों के लिये चूरू, जो उनकी जन्मभूमि थी, में रहने के लिये आये हुये थे. कुछ मित्रों ने उनसे मेरा परिचय करवाया जो उनके भी घनिष्ट मित्र थे. मालूम हुआ कि वो पाँच-छ: वर्ष के बाद यहाँ पधारे थे. आने वाले लगभग एक माह तक वो हमारी मित्र मंडली के साथ ही रहे. चूरू में बिताये उनके बचपन के बारे में, उनके माता पिता के बारे में, भाई बहनों के बारे में और वर्तमान में (उस समय) वे बम्बई में क्या काम कर रहे थे? इत्यादि. वह मुझसे उम्र में लगभग पाँच वर्ष छोटे थे अर्थात उस समय वे २५ वर्ष के थे. उनका शरीर दुबला पतला तथा छरहरा था, रंग गेहुआँ था. सुरुचिपूर्ण वेशभूषा में रहते थे.
मैं उनके घर कई बार गया. यहाँ उनका घर तो कई कई साल बन्द ही रहता है, ताला ही लगा रहता है. जब कोई बम्बई से यहाँ आता ही तो ताले खुल जाते हैं और साफ़ सफाई हो जाती है. फिर उनके जाने के बाद अंदर और बाहर के दरवाजों पर फिर से ताले लटका दिए जाते थे. उन्होंने अपना एक छोटा सा फोटो अल्बम भी दिखाया जिसमे उनकी यहाँ बिताए बचपन की यादें सुरक्षित थीं. कुछ फोटो ऐसे थे जिनमे पुरुषोत्तम जी को स्टेज पर बैठे हुये और अपना संगीत कार्यक्रम पेश करते हुये दिखाया गया था. उन्होंने बताया कि मैं बम्बई में इसी तरह के प्रोग्राम दिया करता हूँ. इससे उनको कुछ आमदनी हो जाती थी. कई बार दूसरे बड़े कलाकारों के कार्यक्रम में भी वह शिरकत कर लेते थे. एक बार जब मैं उनके घर गया तो उन्होंने मुझे अपना एक पुराना ग्रामोफोन भी दिखाया. वह एक बड़े बक्से में बन्द था. उन्होंने उसको खोल कर बड़े प्यार से एक साफ़ कपड़े से उसकी सफाई की. उसे अच्छी तरह करीने से टेबल पर जमा कर रखा. अपने ग्रामोफोन रेकार्डों की भी धूल मिटटी को साफ़ किया. सभी रिकॉर्ड 78 rpm के थे और पुराने ज़माने के थे. |
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मेरे अनुरोध पर उन्होंने ग्रामोफोन में चाबी भरी, टर्न टेबल पर रिकॉर्ड रखा, स्टाइलस में एक नयी सुई डाली और उसे रिकॉर्ड के बाहरी ग्रूव में लगा दिया. और लीजिए गाना बजना शुरू हो गया. एक छोटे कमरे के हिसाब से आवाज़ काफ़ी ऊँची महसूस हो रही थी. इस मशीन का सारा सिस्टम यांत्रिक था और इसे चलाने के लिये बिजली या बैटरी की ज़रूरत नहीं होती. गाने की आवाज़ इतनी जोरदार थी कि आँखे बन्द कर लें तो ऐसा लगे जैसे मुकेश जी साक्षात हमारे सामने खड़े हो कर गा रहें हों. वह गाना तो मुझे अब याद नहीं लेकिन इतना जरूर याद है कि वो पहला गाना स्वर्गीय मुकेश जी का ही गाया हुआ था. जिस समय की यह घटना है उस समय तक मुकेश जी जीवित थे (मुकेश जी का निधन २७ अगस्त १९७६ को हुआ था).
एक विशेष बात की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ, वह यह कि पुरुषोत्तम जी गाते बहुत अच्छा थे. उनकी आवाज़ बहुत साफ़ और मधुर थी लेकिन बारीक थी. कभी कभी ऐसा लगता जैसे कोई अल्प वय का कोई लड़का गाना गा रहा हो. हम लोग एक दो दिन बाद कहीं नकहीं गोष्ठी करते और थोड़ी देर में संगीत का माहौल बन जाया करता. जैसा मैंने पहले कहा पुरुषोत्तम जी बहुत अच्छा गाते थे और साथ ही हारमोनियम भी उतना ही अच्छा बजाते थे. उनके द्वारा गाये जाने वाले गीतों में अधिकतर तो मशहूर फ़िल्मी गीत ही होते थे, लेकिन कभी कभी वो गज़ल अथवा राजस्थानी लोक गीत भी सुनाया करते थे. एक गीत के बारे में वो बताते थे कि यह किसी फिल्म में आने वाला है लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार ऐसा हुआ नहीं. बहरहाल, गीत की शुरू की पंक्तियाँ इस प्रकार थी: मेरा दिल टूटा तो ये ताज महल टूटेगा. धरती अम्बर का ये पावन रिश्ता छूटेगा. |
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यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे मास्टर पुरुषोत्तम के माध्यम से राजस्थानी लोक गीतों का परिचय मिला और उनकी मिठास का वास्तविक अनुभव हुआ. राजस्थानी लोक गीतों में वहाँ के जन जीवन की उमंग, तीज त्यौहार, पारिवारिक संबंधों की छेड़ छाड़, विरह-मिलन और मरू भूमि के कण कण में व्याप्त जिजीविषा के दर्शन होते हैं. ये राजस्थानी लोक गीत मुझे सर्वप्रथम मास्टर पुरुषोत्तम की आवाज़ में ही सुनने का सौभाग्य मिला. मेरे विवाह (१९७७) के बाद इन राजस्थानी गीतों को मैंने अपनी धर्मपत्नि को भी गा कर सुनाया तो वह भी इन गीतों से प्रभावित हुये बिना न रही. चूरू तो हम पति-पत्नि दोनों के लिये एक सपनों का शहर बन कर (सोने के मिथीकीय नगर एल डोरेडो – el dorado – की तरह) हमारे अस्तित्व में रच बस गया है.
हाँ, तो मैं बता रहा था कि मास्टर पुरुषोत्तम संगीत में इतने डूब कर गाते थे कि सुनने वालों को अपनी सुध बुध नहीं रहती थी. मुझे अफ़सोस इस बात का है कि उस समय मेरे पास कोई टेप रिकॉर्डर नहीं था अन्यथा उनकी आवाज़ में वो गीत अवश्य रिकॉर्ड करता और रिकॉर्डिंग को उम्रभर सम्हाल कर रखता. मगर ऐसा हो न सका. फिर भी उनके गाये वो गीत अभी भी मेरे ज़ेहन में ज्यों के त्यों सुरक्षित हैं विशेष रूप से उनके द्वारा गाये हुये राजस्थानी गीत जिन्होंने ने मुझे अभिभूत कर दिया था. |
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
मैंने उनसे अनुरोध किया कि वो अपने हाथ से मेरी डायरी में चुने हुए कुछ गीत लिख दें ताकि मैं उन गीतों का अभ्यास कर सकूँ और उन्हें ज़बानी याद कर सकूँ. ऐसा ही हुआ. उन्होंने मेरे अनुरोध को सहर्ष स्वीकार किया और कुछ गीत अपनी सुन्दर लिखाई में मेरी डायरी में लिख कर मुझे दिए. थोड़े ही समय में मुझे वे गीत कंठस्थ हो गए और मैं उन्हें यदा कदा गुनगुनाने लगा. मैं चाहता हूँ कि आप भी इन गीतों का रसास्वादन लें. मुझे खेद है कि वो गीत मैं आपको सुना तो नहीं पाऊंगा, लेकिन डायरी के पन्नों का अविकल टाईप किया हुआ रूप प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा है आपको अच्छा लगेगा:
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(१)
गणगोरया रे मेले पली आया रिज्यो जी. गणगोरया रे मेले पली आया रिज्यो जी. ढोला था बिन रंग रंगीलो फागण बित्यो जावे छे. ढोला था बिन रंग रंगीलो फागण बित्यो जावे छे. थारी नाज़ुक धण महलां बैठी आंसू छलकावे छे. थारी नाज़ुक धण महलां बैठी आंसू छलकावे छे. रोटी खाता हो तो पाणी अठे आय पीज्यो जी. गणगोरया रे मेले पली आया रिज्यो जी. म्हारी द्योरानी जेठाणी दोनू घूमर घाले छे. म्हारी द्योरानी जेठाणी दोनू घूमर घाले छे. म्हारा देवरिया जेठूता मिलकर रंग उछालें छे. म्हारा देवरिया जेठूता मिलकर रंग उछालें छे. छोटी नणदूली ने आय कर समझाय दीज्यो जी. गणगोरया रे मेले पली आया रिज्यो जी. धरती रंग रंगीली होकर मन ही मन मुस्कावे छे ...... (क्षमा करें डायरी में इससे आगे गीत अधूरा ही छोड़ दिया गया है) |
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(२)
खड़ी नीम के नीचे मैं तो एकली. जातोड़ो बटाऊ म्हाने छाने छाने देख ली. कोण देस से आया कोण देस थे जावोला कुण्या जीरा कँवर लाडला साँची बात बतावोला. कोण देस से आया कोण देस थे जावोला कुण्या जीरा कँवर लाडला साँची बात बतावोला. म्हें थाणे पूछूं ओ जी भंवर जी एकली. जातोड़ो बटाऊ म्हाने छाने छाने देख ली. परदेसां स्यूं आया सासरिये म्हें जावांला. म्हारी प्यारी गौरी धण न हँस हँस गले लगावां ला. परदेसां स्यूं आया सासरिये म्हें जावांला. म्हारी प्यारी गौरी धण न हँस हँस गले लगावां ला. इब क्यों शरमाओ म्हारी प्यारी गोरड़ी थे देखो कोई और बटाऊ म्हें तो थाणे देख ली. खड़ी नीम के नीचे मैं तो एकली. जातोड़ो बटाऊ म्हाने छाने छाने देख ली. |
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(३)
थाने काजलियो बणाल्यूं, थाने पलकां में रमाल्यूं. राज पलकां में बन्द कर राखूंली. राज पलकां में बन्द कर राखूंली. गोरी पलकां में नींद कैय्याँ आवेली. म्हारी पलकां पालनिये झुलावेली. म्हारे नैणां स्यूं दूर दूर कैय्याँ जावो ला जी, दूर कैय्याँ जावो? थाने तीमणियों बणाल्यूं म्हारे हिवड़े स्यूं लगाल्यूं राज चुनरी में ल्यूकाय थाने राखूंली. राज चुनरी में बन्द कर राखूंली. थाने काजलियो बणाल्यूं ... गोरी चुनड़ी में तपत सतावेली ढोला सौरी घणी नींद आवेली म्हारे हिवड़े स्यूं दूर दूर कैय्याँ जावो ला जी, दूर कैय्याँ जावो थाने मोतीड़ो बणाल्यूं, म्हारे होटां स्यूं लगाल्यूं राज नथली में बन्द कर राखूंली राज नथली में बन्द कर राखूंली. थाने काजलियो बणाल्यूं ... |
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(४)
एक गज़ल : अपना जिसे कहा वो बेगाना निकल गया. (शायर का नाम ‘अमीर’, इससे अधिक ज्ञात नहीं) अपना जिसे कहा वो बेगाना निकल गया. शायद वो दोस्ती का जमाना निकल गया. दिन ज़िन्दगी के मेरे अकेले गुज़र गए वो करके मुझ से कैसा बहाना निकल गया. बुलबुल की जिन्दगी सी हुई जिन्दगी मेरी सैय्याद का भी सच्चा निशाना निकल गया. टूटे हुये तारों का इक साज़ हूँ मैं ए दोस्त! इक चोट जो पड़ी तो तराना निकल गया. इक रोज़ उनकी राह से गुजरा जो मैं अमीर सब लोग कह उठे कि दीवाना निकल गया. |
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achchhi post
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फोरम के सबसे शानदार सूत्रों में से एक। :bravo::bravo::bravo:
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यह मशहूर है कि सन 1814 ई. में बीकानेर राज्य के अमरचंद से लड़ते लड़ते चाँदी के गोले तोपों से दागे गए थे. उस समय चूरू के शासक ठाकुर शिवजी सिंह थे. उनका लड़का अभी छोटा था. उसे किसी प्रकार वहां से निकाल कर जोधपुर की शरण में भेज दिया गया. वहा से बड़ा हो कर उसने अपनी जोड़ तोड़ की तथा बाद में चूरू गढ़ पर अधिकार करने के लिए उसने एक योजना तैयार की. बभूत पुरी व संभुवन गुसाईं से कडवासर के कान्हसिंह व हरी सिंह मिले और उन्हें गढ़ का फाटक खोलने के लिए राजी कर लिया. 13 नवम्बर 1817 की रात में गढ़ के फाटक उनके द्वारा खोल दिए गए. मेहता मेघराज, जो बीकानेर की ओर से सैनिक अधिकारी था, 200 सैनिकों के साथ गढ़ से बाहर निकला और 16 नवम्बर 1817 को बाजार के बीचो बीच वीरता पूर्वक लड़ता हुआ काम आया. इस प्रकार ठिकानेदारों की सहायता से उसने चूरू के गढ़ पर अधिकार कर लिया. यह 23 नवम्बर सन 1817 की बात है. सन 1808 ई. के अक्टूबर माह में एल्फिन्स्टन (जो बाद में 1819 से 1827 तक बम्बई के गवर्नर रहे)काबुल जाते हुए कुछ दिन के लिए चुरू रुके थे. उन्होंने अपने यात्रा विवरण में लिखा है – “यहाँ सभी मकान पक्के हैं और इन मकानों तथा उस नगर के परकोटे की चिनाई एक विशेष प्रकार के बहुत ही सफ़ेद चुने से हुयी है जिससे उसके द्वारा निर्मित सभी स्थक अत्यंत स्वच्छ दिखाई पड़ते हैं.” वह लिखता है कि यद्यपि वह (चूरू) नंगे रेतीले टीलों पर बसा हुआ है, तथापि देखने में अत्यंत हमवार है. वह 30 अक्टूबर 1808 के दिन चूरू से बीकानेर के लिए रवाना हुआ. अनेक वर्षों के प्रयत्नों के बाद महाराजा सूरत सिंह का चूरू पर अधिकार हो गया था, अतः उसके हाथ से निकल जाने का उसे बहुत अफ़सोस हुआ. वह व्यग्र हो उठा. चूरू को दोबारा हासिल करने का कोई उपाय न देख कर उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ 9 मार्च 1818 ईस्वी को एक 11 सूत्री समझौता किया. इस प्रकार चूरू की स्वतंत्रता का अपहरण करने के लिए महाराजा ने बीकानेर राज्य की स्वतंत्रता सदा के लिए अंग्रेजों के हाथ गिरवी रख दी. इसके तहत सहायता प्राप्त करने हेतु मेहता अबीर चंद को दिल्ली भेजा गया. वहां से ब्रिगेडियर जॉन एर्नोल्ड को बीकानेर के इलाके में भेजा गया. फतेहाबाद, सिधमुख, ददरेवा, सरसला और झटिया को फतह करती अंग्रेजी फ़ौज चूरू पहुँच गई. पृथ्वी सिंह, जो कि कुछ माह पहले ही गद्दी पर बैठा था, ने एक माह तक टक्कर ली. उसने एर्नोल्ड से सुरक्षा का तसल्ली-नामा लिया और किला खाली कर के बीकानेर दरबार में उपस्थित होने के बजाय वह रामगढ़ चला गया. |
Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
अच्छा सूत्र है
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Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
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चूरू का ‘पवित्र भोजनालय’ चूरू आने के दूसरे दिन से ही चुरू बाजार में स्थित एकमात्र ढाबे “पवित्र भोजनालय” पर मैंने नियमित रूप से भोजन करना शुरू कर दिया. खाना मेरी कल्पना से कहीं अधिक बढ़िया बनता था. मैं यह बिना अतिशयोक्ति के कह सकता हूँ कि ऐसा खाना मैंने अपने प्रवास - काल में कभी नहीं खाया था. यहाँ आने के बाद जो आरंभिक पत्र मैंने अपने मित्रों व स्नेही सज्जनों - आत्मीयों को प्रेषित किये थे उसमे लगभग हरेक में यहाँ के खाने की श्रेष्ठता एवं विविधता के बारे में खूब मजे से लिखता था. खाना था भी इतनी तारीफ़ के काबिल. पूरा भोजन देसी घी से तैयार किया जाता था. यहाँ देसी घी की अधिकता को देखते हुए यह स्वाभाविक ही था. तवे पर बनायी और चूल्हे की सुलगती लकड़ी की आग में फुलायी गई चपातियां भी घी से चुपड़ी होती थीं. सब्जियां और दालें वगैरह भी प्रतिदिन बदल बदल कर बनायी जाती थीं. सब्जियों के सम्बन्ध में कुछ मजेदार बाते अवश्य बताना चाहूँगा. एक सब्जी अमचूर (कच्चे आम के सुखाये हुए टुकड़े) और मेथी दाना की बनायी जाती थी जिसमे मीठेपन के लिए गुड़ का इस्तेमाल किया जाता था. यह मेरे लिए बिलकुल नवीन सब्जी थी. स्वादिष्ट भी थी. एक अन्य सब्ज़ी यहाँ पर ख़ास तौर पर बनती थी, वह भी मेरे लिए नयी थी. वह सब्ज़ी मुझे कभी पसंद नहीं आती थी हालांकि जो चीज मुझे उसमे पसंद नहीं आती थी वही उसका विशेष आकर्षण था. यह सब्ज़ी थी काचरी की, जो इस रेगिस्तानी इलाके में इतनी अधिक होती है कि सीज़न में हरेक टीले पर यही दीखती है. लोगबाग इसको सामान्य रूप से हजम कर जाते. लेकिन मुझे इसके बीज (जो कि सब्ज़ी में से निकाले नहीं जाते थे) पसंद नहीं आते थे और उनको बनी हुयी सब्ज़ी में से अलग करना संभव नहीं था. यह बीज खाने में मुझे ऐसे लगते थे जैसे कोई व्यक्ति खरबूजे के बीज बिना उसका सख्त छिलका उतारे ही चबाने लगे. इस सब्ज़ी को मैंने एक आकर्षक नाम दे दिया था – मिस्टर काचरू. रोज सुबह ही ढाबे में पहुंचाते ही मैं यह पूछा करता था, “क्या आज मिस्टर काचरू बने हैं?” आम तौर पर यहाँ पर 8 – 10 लोग ही एक समय में खाना खाते थे लेकिन कभी कभी वहां पर इधर उधर से भी लोग खाना खाने आते थे. उस समय यहाँ भीड़ का सा दृश्य उपस्थित हो जाता था. उस समय हम लोग (आम तौर पर शाम के समय) छत पर चले जाते थे. यह ढाबा स्वयं भी पहली मंजिल पर स्थित था. वहां बैठे बैठे बड़ी मजेदार बातें होती थीं. इसमें मुख्य रूप से शायरी और तुकबंदी होती थी जिसका विषय आम तौर पर खाने से जुड़ा होता था. इस प्रकार इंतज़ार का यह समय चुटकियाँ बाते उड़ जाता था. इन गोष्ठियों में मेरे अलावा जीवन जी सारस्वत (ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे!), मास्टर जी, गर्ग साहब और सुरेश शर्मा जी विशेष रूप से भाग लेते थे और इसको समय काटने का बड़ा मनोरंजक जरिया बना देते थे. इस ढाबे के प्रबंधक शंकर लाल शर्मा बड़े मस्त व्यक्ति थे, मेहनती भी बहुत थे. सुबह का भोजन खिला चुकने के बाद, ग्यारह बजे के बाद अपनी ठेली लगा लेते जिसमे पानी-बताशे, दही-भल्ले आलू की टिकिया आदि बेचा करते थे. शाम तक यही सिलसिला रहता और फिर भोजनालय का कार्यक्रम शुरू हो जाता. मेलों ठेलों में भी वह अपनी खान-पान की दुकान या रेहड़ी लगाना नहीं भूलते थे. शंकर लाल एक काम और करते थे वह था सुबह अखबार सप्लाई करने का. इस प्रकार वह अपनी मेहनत से अपने परिवार की आवश्यकताओं के लिए यथेष्ट कमा लिया करते थे. एक विशेष घटना मुझे और याद आती है. एक बार इसी भोजनालय में मुझे रद्दी कागजों में पड़ा "Illustrated Weekly Of India" का दिसंबर 1936 का एक अंक मिला (सप्ताह याद नहीं है) जिसमे बिटिश सम्राट एडवर्ड VIII के राजगद्दी छोड़ने का सचित्र समाचार छपा था. यह अंक जर्जर हालत में था और काफी समय तक मेरे पास रहा. ( नोट: सम्राट एडवर्ड अष्टम ने, जो 20 जनवरी 1936 को सिंघासनारुढ़ हुए थे, अपनी इच्छा से सत्ता को ठुकरा दिया क्योंकि वे अपनी अमेरिकन प्रेमिका वालिस वारफील्ड सिम्पसन से शादी करना चाहते थे. सुश्री सिम्पसन दो बार की तलाक प्राप्त महिला थी और एक सामान्य नागरिक थीं अर्थात किसी राजघराने से नहीं थीं. ब्रिटिश सरकार, वहां की जनता और वहां के चर्च ने इसका डट कर विरोध किया. अन्ततः सम्राट ने 11 दिसंबर 1936 को राजगद्दी छोड़ दी. उस दिन के अपने रेडियो सम्बोधन में एडवर्ड ने कहा, “अपनी महती जिम्मेदारियों के भार को उठाना और सम्राट के रूप में अपने कार्यभार का निष्पादन करना, जैसी कि मेरी हार्दिक इच्छा है, मेरे लिए तब तक असंभव है जब तक कि मुझे उस महिला की सहायता और समर्थन प्राप्त न हो जाए जिसे मैं प्यार करता हूँ.) (28/04/1976 के मेरे विवरण पर आधारित) |
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GANGA MAI KA MANDIR, CHURU |
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एक कुएँ की बुर्जियां बुर्जियों की सहायता से दूर से ही कुओं को देखा जा सकता था जो रेगिस्तानी इलाके में एक वरदान के समान था |
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