इन्तिहा प्यार की...!
हमारा चाहने वाला भी बेवफा निकला ;
वक़्त मेरा बुरा आया तो दूर जा निकला . आसमाँ दूर से , बाहों की हद में दिखता था ; लाख पीछा किया , पर पहुँच से बाहर निकला . साथ चल , रौशनी भर , गुम हुआ अँधेरे में ; हमसफ़र समझा जिसे, वो महज साया निकला . मै आज भी , उसी मुकाम पर निहारूं उसे ; जहाँ पे छोड़ कर ,वो मुझसे आगे जा निकला . है क्या नसीब , उसी ने मुझे ठोकर मारी ; बेड़ियाँ पाँव की , जिसके मै खोलने निकला . मैंने जिससे भी , जख्मे जिगर की दवा मांगी ; वो ला इलाज , खुद ही प्यार में घायल निकला . मै जिसको पाने की हसरत में ,उमर भर भटका ; बड़ा गजब हुआ , वो ही मेरा कातिल निकला . इन्तिहा प्यार की समझो , या इबादत कह लो ; खुदा तराशा जब भी , उसकी शक्ल का निकला . रचनाकार ~~ डॉ. राकेश श्रीवास्तव लखनऊ , इंडिया. |
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