उपनिषदों का काव्यानुवाद
वैदिक साहित्य में चार वेदों के पश्चात उपनिषदों का स्थान है ! इनकी संख्या मुख्य रूप से 9 है, लेकिन इन्हें 108 तक माना गया है और ये सभी वेदों की तरह काव्य शैली में रचे गए हैं ! इस सूत्र में मैं सभी 9 उपनिषदों का मृदुलकीर्ति द्वारा किया गया हिन्दी भावानुवाद क्रमशः प्रस्तुत करूंगा ! सर्वप्रथम प्रस्तुत है 'ईशावास्य उपनिषद' का हिन्दी भावानुवाद !
ईशावास्य उपनिषद ॐ समर्पण परब्रह्म को उस आदि शक्ति को, जिसका संबल अविराम, मेरी शिराओ में प्रवाहित है। उसे अपनी अकिंचनता, अनन्यता एवं समर्पण से बड़ी और क्या पूजा दूँ ? शान्ति मंत्र पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये, पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु, यह जगत भी प्रभु पूर्ण है, परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से पूर्ण जग सम्पूर्ण है, उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है, परिपूर्ण प्रभु परमेश की यह पूर्णता ही विशेष है। |
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ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥ ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में, सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में। भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१] |
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥ कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर, सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर। निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा, कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [2] |
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असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥ अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं, जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं। पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें, जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [3] |
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अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥ है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है, ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है। स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे, अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [4] |
Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥ चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं, अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं। ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है, बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [5] |
Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥ प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके, फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके। सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है, अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [6] |
Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥ सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो, प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो। फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों, एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [7] |
Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥ प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है, सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है। वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है, उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [8] |
Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥ अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में, अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में। और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं, हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [9] |
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