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jai_bhardwaj 27-01-2013 08:21 PM

छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
बन्धुओं, पिछले दिनों मुझे इस ज्वलंत विषय पर एक ब्लॉग में विस्तृत लेख मिला। इस लेख में हिन्दू धर्म के कई सिद्धांतों, विचारों अथवा वैदिक सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये गए हैं। लेखक ने जितनी भी बातें लिखी हैं वे सभी श्री भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा रचित किताब पर आधारित हैं।

संभव है कि ब्लॉग लेखक अथवा श्री अम्बेडकर जी के तथ्य तर्क की कसौटी पर खरे उतर रहे हों किन्तु कहीं न कहीं इन तथ्यों से हिन्दू धर्मावलम्बियों को संताप पहुँच सकता है।

तर्क और तथ्य क्या हैं? ये इस सूत्र में आगे की प्रविष्टियों में पढ़े जा सकते हैं। यह तभी संभव है जब प्रबंधन इस विषय पर सूत्र आगे बढाने की अनुमति प्रदान करे।

सहमति के बाद ही अगली प्रविष्टि संभव है।

धन्यवाद।

abhisays 27-01-2013 09:54 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
जय भाई, कृपया सूत्र को गति प्रदान करिए। :iagree:

jai_bhardwaj 27-01-2013 09:58 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
सूत्र संचालन की सहमति के लिए प्रबंधन का हार्दिक अभिनन्दन।

jai_bhardwaj 27-01-2013 10:00 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
बन्धुओं, संदर्भित विषय की सम्पूर्ण प्रस्तुति के बाद मैं सम्बंधित सामग्री के मूल स्रोत का लिंक भी दूँगा।

ब्लॉग लेखक का मंतव्य

डॉ. बी आर अम्बेडकर की १९४८ की यह रचना काफ़ी चर्चा में रही मगर कम पढ़ी गई है.. सच देखें तो अम्बेडकर के समकालीन गाँधी और नेहरू बड़े लेखकों के रूप में प्रतिष्ठित हैं.. पर चन्द दलित विद्वान और दलित विषयों पर शोध करने वाले विद्यार्थियों के अलावा अम्बेडकर को पढ़ने वाले मिलने मुश्किल हैं..

एक समाज सुधारक, दलित समाज के नेता के तौर पर तो सवर्ण समाज उन्हे गुटक लेता है.. लेकिन विद्वान के रूप में अम्बेडकर की प्रतिष्ठा अभी सीमित है.. उसका सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही कारण है कि वे दलित हैं.. और हमारी जातिवादी, नस्लवादी, साम्प्रदायिक सोच, जिसके बारे में हम स्वयं सचेत नहीं होते, उनके प्रति हमें विमुख रखती है.. मैं खुद ऐसी ही सोच से ग्रस्त रहा हूँ.. हूँ.. पर उस से लड़ने की कोशिश करता हूँ.. इसी कोशिश के तहत मैंने अम्बेडकर साहित्य का अध्ययन करने की सोची..

बजाय इस किताब के बारे में अपनी राय आप के सामने रखने के मैं इस किताब का सार संक्षेप यहाँ छापना चाहूँगा.. ताकि आप को मोटे तौर पर न सिर्फ़ किताब का सार समझ आ जाये.. और साथ में अम्बेडकर कितने गहरे और सधे तौर पर अपने तर्कों को रखते हैं यह भी समझा जा सके..

jai_bhardwaj 27-01-2013 10:03 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
प्रस्तावना

यह मेरी पुस्तक जिसका प्रकाशन १९४६ में हुआ था, का अंतः परिणाम है। शूद्रों के अतिरिक्त हिंदू सभ्यता ने तीन और वर्णो को जन्म दिया। इसके अतिरिक्त किसी और वर्ग के अस्तित्व की ओर वांछित ध्यान नहीं दिया गया है। ये वर्ग हैं:

१. जरायम पेशेवर कबीले, जिनकी संख्या लगभग दो करोड़ है।
२. आदिम जातियां, जिनकी संख्या लगभग डेढ़ करोड़ है।
३. अछूत जिनकी संख्या लगभग पाँच करोड़ है।

इन वर्गों की उत्पत्ति के विषय में अनुसंधान अभी हुआ ही नहीं है। इस पुस्तकमें एक सबसे अभागे वर्ग अछूतों की दशा पर प्रकाश डाला गया है। अछूतों की संख्या तीनों में सर्वाधिक है, उनका अस्तित्व भी सर्वाधिक अस्वाभाविक है। फिर भी उनकी उत्पत्ति के विषय में कोई जानकारी इकट्ठी नहीं की गई। यह बात पूरी तरह से समझी जा सकती है कि हिंदुओं ने यह कष्ट क्यों नहीं उठाया। पुराने रूढि़वादी हिन्दू तो इसकी कल्पना भी नहीं करते कि छुआछूत बरतने में कोई दोष भी है। वे इसे सामान्य और स्वाभाविक कहते हैं और न ही इसका उन्हे कोई पछतावा है और न ही उनके पास इसका कोई स्पष्टी करण है। नए ज़माने का हिंदू ग़लती का एहसास करता है परंतु वह सार्वजनिक रूप से इस पर चर्चा करने से कतराता है कि कहीं विदेशियो के सामने हिन्दू सभ्यता की पोल न खुल जाय कि यह ऐसी निन्दनीय तथा विषैली सामाजिक व्यवस्था है

.. यह पुस्तक मुख्य प्रश्न के सभी पहलुओं पर ही प्रकाश नहीं डालती वरन अस्पृश्यता की उत्पत्ति से सम्बन्धित सभी प्रश्नों पर भी विचार करती है.. जैसे अछूत गाँवो के सिरों पर ही क्यों रहते है? गाय का मांस खाने से कोई अछूत कैसे बन गया? क्या हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया? गैर-ब्राह्मणों ने गोमांस भक्षण क्यों त्याग दिया? ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने? हो सकता है इस पुस्तक में उन प्रश्नों के उत्तर पढ़ कर सब के मुँह लटक जायं। फिर भी यह पता चलेगा कि यह पुस्तक पुरानी बातों पर नई दृष्टि से विचार करने का प्रयास अवश्य है..

.. अछूतों की उत्पत्ति की खोज करने और तत्सम्बंधी समस्याओ के बारे में मुझे कुछ सूत्र नहीं मिले हैं। यह सत्य है कि मैं ऐसा अकेला ही व्यक्ति नहीं हूँ जिसे इस समस्या से जूझना पड़ा है। प्राचीन भारत के सभी अध्येताओं के सामने यह कठिनाई आती है..

.. यह एक दुःखद बात है किंतु कोई चारा भी नहीं है। प्रश्न यह है कि इतिहास का विद्यार्थी क्या करे। क्या वह झक मार कर अपने हाथ खड़े कर दे और तब तक बैठा रहे जब तक खोए सूत्र नहीं मिल जाते? मेरे विचार में नहीं। मैं सोचता हूँ ऐसे मामलों में उसे अपनी कल्पनाशक्ति और अंतःदृष्टिसे काम लेना चाहिये ताकि टूटे हुए सूत्र जुड़ सकें और कोई स्थानापन्न प्राकलन मान लेना चाहिये ताकि ज्ञात तथ्यों और टूटी हुई कडि़यों को जोड़ा जा सके। मैं स्वीकार करता हूँ कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाने के बजाय मैंने टूटे सूत्रों को जोड़ने के लिए यही मार्ग अपनाया है..

.. मेरे आलोचक इस बात पर ध्यान दें कि मैं अपनी कृति को अंतिम मानने का दावा नहीं करता। मैं उनसे नहीं कहूँगा कि वे इसे अंतिम निर्णय माने लें। मैं उनके निर्णय को प्रभावित नहीं करना चाहता।वे अपना स्वतंत्र निर्णय लें.. मेरी अपने आलोचकों से यही आकांक्षा है कि वे इस पर निष्पक्ष दृष्टिपात करेंगे।

jai_bhardwaj 27-01-2013 10:06 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
अध्याय १: गैर हिन्दुओं में छुआछूत

आदि मानव अशुद्धि के निम्नलिखित कारण समझता था;

१. कुछ विशेष घटनाओं का घटना

२. कुछ वस्तुओं से सम्पर्क

३. कुछ व्यक्तियों से सम्पर्क

जीवन की जिन घटनाओं को प्राचीन मनुष्य अपवित्रता का कारण मानता था, उनमें निम्नलिखित मुख्य थीं;१. जन्म २. दीक्षा संस्कार ३. वयसंधि ४. विवाह ५.सहवास ६.मृत्यु

गर्भवती माताओं को अशुद्ध माना जाता था और उन्हे दूसरों में अशुद्धि फैलाने वाला माना जाता था। माता की अपवित्रता बच्चो तक मैं फैलती थी।

प्रारम्भिक मनुष्य ने यह सीख लिया था कि कुछ वस्तुए पवित्र हैं और कुछ अन्य अपवित्र। यदि कोई व्यक्ति किसी पवित्र वस्तु को छू दे तो यही माना जाता था कि उसने उसे अपवित्र कर दिया..

इस पवित्रता की भावना का सम्बंध केवल वस्तुओं से नहीं था। लोगों के कुछ ऐसे विशिष्ट वर्ग भी थे जो अपवित्र समझे जाते थे। कोई व्यक्ति उन्हे छू देता तो वह विशिष्ट व्यक्ति छूत लगा हुआ माना जाता था।अजनबी लोगों से मिलना, आदिम पुरुष द्वारा छुआछूत का स्रोत माना जाता था ।

यदि शुद्ध व्यक्ति को किसी सामान्य लौकिक व्यक्ति से दूषित कर दिया गया हो अथवा स्वजाति से ही अपवित्रता हुई हो तो एकांतवास होता ही है। सामान्य दूषित व्यक्ति को शुचि से दूर रहना ही चाहिये। सजातीय को विजातीय से दूर रहना चाहिये। इस से यह स्पष्ट है कि आदिम काल के समाज में अशुद्धि के कारण पृथक कर दिया जाता था।

अशुद्धि को दूर करने के साधन पानी और रक्त हैं। जो आदमी अशुद्ध हो गया हो उस पर यदि पानी और रक्त के छींटे दे दिये जायं तो वह पवित्र हो जाता है। पवित्र बनाने वालों अनुष्ठानों में वस्त्रों को बदलना, बालों तथा नाखूनों को काटन पसीना निकालना, आग तापना, धूनी देना, सुगंधित पदार्थों के जलाना, और वृक्ष की किसी डाली से झाड़फूंक कराना शामिल है।

ये अशुद्धि मिटाने के साधन थे। किंतु आदिम काल में अशुद्धि से बचने का एक और उपाय भी था। वह था एक की अशुद्धि दूसरे पर डाल देना। वह किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति पर जो पहले से ही वर्जित अथवा बहिष्कृत होता था, डाल दी जाती थी।

इसी तरह प्राचीन समाज की अशुद्धि की कल्पना आदिम समाज की अशुद्धि की कल्पना से कुछ भिन्न नहीं थी।

प्राचीन रोम में घर की पवित्रता की तरह सारे प्रदेश की प्रदक्षिणा करके बलि देकर प्रादेशिक शुद्धि का संस्कार पूरा होता था। वहीं की न्याय पद्धति में यदि शाब्दिक उच्चारण में कोई अशुद्धि रह जाती तो वादी अपना मुकदमा स्वयं ही हार जाता।

jai_bhardwaj 27-01-2013 10:10 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
अध्याय एक के सन्दर्भ में ब्लॉग में कुछ टिप्पणियाँ भी प्राप्त हुयी हैं ...

3 टिप्पणियां:

1. बहूत सुन्दर

आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा

2. प्राचीन अपवित्रता के बारे में मेरे विचार कुछ भिन्न हैं। चूंकि प्राचीन काल में "अन-हायजेनिक"ता व "संक्रमण" की संभावना अधिक थी अतः गर्भवती माताओं को इनसे दूर रखने के लिये उनसे अधिक कार्य व्यवहार पर पाबंदी लगाई गई। इससे वे माताएं एवं उनके नवजात बीमारियों से बचे रहते। कालांतर में ये पाबंदियां दूसरों के सिर से हट कर गर्भवती एवं नवप्रसूताओं के सिर आ गई तथा अपवित्रता कहलाई।

इसी प्रकार प्राचीन समय में मृत्यु होने पर मृत्यु के साधारणतयः कारण संक्रमण से बचाव के लिये संबंधित परिवार का सार्वजनिक कार्यें व स्थानों से सूतक की अवधि के लिये निषेध किया जाता था।
संक्रमण के इन्क्यूबेशन पीरियेड का बाद, जो कि 10-12 दिनों का अधिकतम हो सकता है, सूतक का समापन किया जाता था जिसका सार्वजनिक प्रदर्शन सामुहिक भोज, पगड़ी आदि के रूप में किया जाता था। यदि परिवार संक्रमण से प्रभावित होता तो इसी सूतक की अवधि में कोई अन्य सदस्य भी प्रभावित हो जाता। अन्यथा परिवार संक्रमण रहित मान लिया जाता।



3. एक नया जोश एक नया वक़्त एक नया सवेरा लाना है
कुछ नए लोग जो साथ रहे कुछ यार पुराने छूट गए
अब नया दौर है नए मोड़ है नई खलिश है मंजिल की
जाने इस जीवन दरिया के अब कितने साहिल फिसल गए

अत्यंत खूबसूरत प्रस्तुति

jai_bhardwaj 27-01-2013 10:13 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
अध्याय २ : हिन्दुओं में छुआछूत
अशुद्धि के बारे में हिन्दुओं और आदिम तथा प्राचीन समाज के लोगों में कोई भेद नहीं है।

मनु ने जन्म, मृत्यु तथा मासिक धर्म को अशुद्धि का जनक स्वीकार किया है। मृत्यु से होने वाली अशुचिता व्यापक और दूर दूर तक फैलती थी। यह रक्त सम्बंध का अनुसरण करती थी और वे सभी लोग जो सपिण्डक और समानोदक कहते हैं, अपवित्र होते थे। जन्म और मृत्यु के अतिरिक्त ब्राह्मण पर तो अपवित्रता के और भी अनेक कारण लागू थे जो अब्राह्मणों पर नहीं। शुद्धि के उद्देश्य से मनु ने इस विषय को तीन तरह से लिया है;

१. शारीरिक अशुद्धि
२. मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक
३. नैतिक अशुद्धि

नैतिक अशुद्धि मन में बुरे संकल्पों को स्थान देने से पैदा होती है। उसकी शुद्धि के नियम तो केवल उपदेश और आदेश ही हैं। किंतु मानसिक और शारीरिक अशुद्धि दूर करने के लिये जो अनुष्ठान है वे एक ही हैं, उनमें पानी, मिट्टी, गो मूत्र कुशा और भस्म का उपयोग शारीरिक अशुद्धि को दूर करने में होता है। मानसिक अशुद्धि दूर करने में पानी सबसे अधिक उपयोगी है।

उसका उपयोग तीन तरह से है। आचमन, स्नान तथा सिंचन। आगे चलकर मानसिक अशुद्धि दूर करने के लिये पंच गव्य का सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान हो गया। गौ से प्राप्त पाँच पदार्थों गोमूत्र, गोबर, दूध दही और घी से इसका निर्माण होता है।

व्यक्तिगत अशुचिता के अलावा हिन्दुओं का प्रदेशगत और जातिगत अशुद्धि और उसके शुद्धि करण में भी विश्वास रहा है, ठीक वैसी ही जैसी प्राचीन रोम के निवासियों में प्रथा प्रचलित थी।

लेकिन यहीं इतिश्री नहीं हो जाती क्योंकि हिन्दू एक और तरह की छुआछूत मानते हैं.. कुछ जातियां पुश्तैनी छुआछूत की शिकार हैं.. इन जातियों की संख्या इतनी है कि बिना किसी की विशेष सहायता के एक सामान्य व्यक्ति के लिये उनकी एक पूरी सूची बना लेना आसान नहीं.. भाग्यवश १९३५ के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के अधीन निकाले गये ऑर्डर इन कॉउन्सिल के साथ एक ऐसी सूची संलग्न है..

इस सूची में भारत के भिन्न भिन्न भागों मे रहने वाली ४२९ जातियां सम्मिलित हैं.. जिसका मतलब है कि देश में आज ५-६ करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके स्पर्श मात्र से हिन्दू अशुद्ध हो जाते हैं..हिन्दुओं की यह छुआछूत विचित्र है संसार के इतिहास में इसकी तुलना नहीं है..अहिन्दू आदिम या प्राचीन कालिक समाज से अलग इसकी विशेषताए हैं:

१. अहिन्दू समाज में यह शुचिता के यह नियम जन्म विवाह मृत्यु आदि के विशेष अवसरोंपर लागू होते थे किंतु हिन्दू समाज में यह अस्पृश्यता स्पष्टतः निराधार ही है।

२. अहिन्दू समाज जिस अपवित्रता को मानता था वह थोड़े समय रहती थी और खाने पीने आदि के शारीरि्क कार्यों तक सीमित थी। अशुद्धता क समय बीतने पर शुद्धि संस्कार होने पर व्यक्ति पुनः शुद्ध हो जाता था। परन्तु हिन्दू समाज में यह अशुद्धता आजीवन की है..जो हिन्दू उन अछूतों का स्पर्श करते हैं वे स्नानादि से पवित्र हो सकते हैं पर ऐसी कोई चीज़ नहीं जो अछूत को पवित्र बना सके। ये अपवित्र ही पैदा होते हैं, जन्म भर अपवित्र ही बने रहते हैं और अपवित्र ही मर जाते हैं।

३.अहिन्दू समाज अशुद्धता से पैदा होने वाले पार्थक्य को मानते थे वे उन व्यक्तियों तथा उनसे निकट सम्पर्क रखने वालों को ही पृथक करते थे। लेकिन हिन्दुओ के इअ छुआछूत ने एक समूचे वर्ग को अस्पृश्य बना रखा है।

४.अहिन्दू उन व्यक्तियों को जो अपवित्रता से प्रभावित हो गये हों, कुछ समय के लिए पृथक कर देते थे मगर हिन्दू समाज का आदेश है कि अछूत पृथक बसें। हर हिन्दू गाँव में अछूतों के टोले हैं। हिन्दू गाँव में रहते हैं, अछूत गाँव के बाहर टोले में बसते हैं।

jai_bhardwaj 27-01-2013 10:18 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
अध्याय दो के सन्दर्भ में ब्लॉग में प्राप्त टिप्पणियाँ


2 टिप्पणियां:


1. hi **** apko achoot ki yaad kaise aa gayi ...rahul sanskrityayan ke bad ek do hi mile hai tumhare tarah.....vaisa ..aacha kam hai...mai ek....chamar hon ok ....ple mail meeeeeeeeeeeeeeeeid is shanky****@gmail.com



2. this is a true fact of history we accept and do the development in our thinking. But I oberved so many people give the explanation tradition thiks are how good? this is not a correct way to think how old thinks r good?

jai_bhardwaj 27-01-2013 10:20 PM

Re: छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक
 
अध्याय ३: अछूत गाँव के बाहर क्यों रहते हैं?


स्वाभाविक तौर पर इस बारे में किसी का कुछ सिद्धान्त नहीं है कि अछूत गाँव से बाहर क्यों रहने लगे। यह तो हिन्दू शास्त्रों का मत है और यदि कोई इसे सिद्धान्त मान कर उचित कहे तो वह कह सकता है। शास्त्रों का मत है कि अंत्यजो को गाँव के बाहर रहना चाहिये;

मनु का कथन है;
चाण्डालों और खपचों का निवास गाँव से बाहर हो। उन्हे अपपात्र बनाया जाय । उनका धन कुत्ते और गधे हों।(१०.५१.)

मुर्दों के उतरन उनके वस्त्र हों, वे टूटे बरतनों में भोजन करें। उनके गहने काले लोहे के हों और वे सदैव जगह जगह घूमते रहें।(१०.५२.)

इस कथन के दो अर्थ लिये जा सकते हैं..
१. अछूत हमेशा से गाँव के बाहर रहते आये और अस्पृश्यता के कलंक के बाद उनका गाँव में आना निषिद्ध हो गया।
२. वे मूलतः गाँव के अन्दर रहते थे पर अस्पृश्यता का कलंक लगने के बाद उन्हे गाँव से बाहर किया गया।

दूसरी सम्भावना बेसिर पैर की कल्पना ही है क्योंकि पूरे भारत वर्ष में गाँव के भीतर बस रहे अछूतों को निकालकर गाँव के बाहर बसाना लगभग असंभव कार्य लगता है। यदि संभव होता भी तो इसके लिये किसी चक्रवर्ती राजा की ज़रूरत होती, और भारत में ऐसा कोई चक्रवर्ती राजा नहीं हुआ। तो इस दूसरी सम्भावना को छोड़ देने पर इस बात पर विचार किया जाय कि अछूत शुरु से ही गाँव के बाहर क्यों रहते थे।

आदिम समाज रक्त सम्बन्ध पर आधारित कबायली समूह था मगर वर्तमान समाज नस्लों के समूह में बदल चुका है। साथ ही साथ आदिम समाज खानाबदोश जातियों का बना था और वर्तमान समाज एक जगह बनी बस्तियों का समूह है। इस यात्रा में ही हमारे प्रश्न का उत्तर है।

आदिम लोग पशुपालन करते और अपने पशुओ को लेकर कहीं भी चले जाते। ये बात भी याद रहे कि ये कबीले और जातियां पशुओं की चोरी और स्त्रियों के हरण के लिये आपस में अक्सर युद्ध करते रहते। इन युद्धों दौरान जो दल परास्त होता वह टुकड़े टुकड़े हो जाता और इस तरह परास्त हुए लोग छितरे बिखरे हो कर इधर उधर घूमते रहते। आदिम समाज में हर व्यक्ति का अस्तित्त्व अपने कबीले से हो कर ही होता था, कोई भी व्यक्ति जो एक कबीले में पैदा हुआ हो वह दूसरे कबीले में शामिल नहीं हो सकता था। तो इस तरह से छितरे व्यक्ति (broken man) एक गहरी समस्या के शिकार थे।

आदिम मानव को जब एक नई संपदा- भूमि का पता चला तो उनका जीवन धीरे धीरे स्थिर हो गया। पर सभी घुमन्तु कबीले और जातियां एक ही समय पर स्थिर नहीं हुए। कुछ स्थिर हो गये और कुछ घुमन्तु बने रहे। तब घुमन्तु लोगों को बसे हुए लोगों की सम्पत्ति देख कर लालच होता और वे उन पर हमला करते। जबकि बसे हुए लोग, अपना घर बार छोड़कर इन घुमन्तुओ का पीछा करना और मारकाट करना नहीं चाहते थे, और वे अपनी रक्षा में कमज़ोर हो गए थे। उन्हे कोई ऐसे लोग चाहिये थे जो घुमन्तुओं के आक्रमण में उनकी पहरेदारी करें। दूसरी तरफ़ छितरे लोगों की समस्या थी कि उन्हे ऐसे लोग चाहिये थे जो उन्हे शरण और संरक्षण दे।

इन दोनों समूहों ने अपनी समस्या को कैसे सुलझाया इसका हमारे पास कोई दस्तावेज़ कोई प्रमाण नहीं है। जो भी समझौता हुआ होगा उसमें दो बाते ज़रूर विचारणीय होगीं- एक तो रक्त सम्बन्ध और दूसरी युद्ध नीति। आदिम मान्यता के अनुसार रक्त सम्बन्धी ही एक साथ रह सकते हैं और युद्ध नीति के अनुसार पहरेदार को चाहिये कि वह सीमाओं पर रहें।

पर इस बात का क्या कोई ठोस प्रमाण है कि अछूत छितरे हुए व्यक्ति ही हैं?


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