मुहावरों की कहानी
मुहावरों की कहानी
भाषा की सुंदर रचना हेतु मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग आवश्यक माना जाता है। ये दोनों भाषा को सजीव, प्रवाहपूर्ण एवं आकर्षक बनाने में सहायक होते हैं। यही कारण है कि हिन्दी भाषा में विभिन्न मुहावरों एवं लोकोक्तियों का अक्सर प्रयोग होते हुए देखा गया है। 'मुहावरा' शब्द अरबी भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ है- अभ्यास। मुहावरा अतिसंक्षिप्त रूप में होते हुए भी बड़े भाव या विचार को प्रकट करता है। जबकि 'लोकोक्तियों' को 'कहावतों' के नाम से भी जाना जाता है। साधारणतया लोक में प्रचलित उक्ति को लोकोक्ति नाम दिया जाता है। कुछ लोकोक्तियाँ अंतर्कथाओं से भी संबंध रखती हैं, जैसे भगीरथ प्रयास अर्थात जितना परिश्रम राजा भगीरथ को गंगा के अवतरण के लिए करना पड़ा, उतना ही कठिन परिश्रम करने से सफलता मिलती है। संक्षेप में कहा जाए तो मुहावरे वाक्यांश होते हैं, जिनका प्रयोग क्रिया के रूप में वाक्य के बीच में किया जाता है, जबकि लोकोक्तियाँ स्वतंत्र वाक्य होती हैं, जिनमें एक पूरा भाव छिपा रहता है। मुहावरा : विशेष अर्थ को प्रकट करने वाले वाक्यांश को मुहावरा कहते है। मुहावरा पूर्ण वाक्य नहीं होता, इसीलिए इसका स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता । मुहावरे का प्रयोग करना और ठीक-ठीक अर्थ समझना बड़ा कठिन है,यह अभ्यास से ही सीखा जा सकता है। कुछ प्रसिद्ध मुहावरे और लोकोक्तियाँ उनकी कथाओं सहित नीचे दिए जा रहे है। |
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न तीन में न तेरह में
एक नगर सेठ थे. अपनी पदवी के अनुरुप वे अथाह दौलत के स्वामी थे. घर, बंगला, नौकर-चाकर थे. एक चतुर मुनीम भी थे जो सारा कारोबार संभाले रहते थे. किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई. नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या. अपने पेश की ज़रुरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया. फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया. सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे. नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी. खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है. अब नगर-सेठ जब तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे. शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं. नगर भर में ख़बर फैल गई. काम-धंधे पर असर होने लगा. मुनीम की नज़रे इस पर टेढ़ी होने लगीं. एक दिन सेठ को बुखार आ गया. तबियत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई. कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके. इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया. सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए. निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ. मुनीम तो मुनीम था. ख़ानदानी मुनीम. उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी. उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी. उसने सेठ को समझाया कि वे भूल कर रहे हैं. बताने की कोशिश की, वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती, पैसों से करती है. मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं. लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया. उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ. मुनीम क्या करते. एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े. लेकिन रास्ते भर वे इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचते रहे. नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससेतुम सबसे अधिक प्रेम करती हो.” नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए. मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था. निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, “देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है.” नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई. सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी. उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा. उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए. तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था. लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया. ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए. नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी. उसने कहा कि उससे भूल हो गई है. लेकिन मुनीम चल पड़े. बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे. नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे. मुनीम पहुचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, “लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में न तेरह में. यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो.” सेठ की आँखें खुल गई थीं. इसके बाद वे कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े. |
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टेढ़ी खीर
एक नवयुवक था. छोटे से क़स्बे का. अच्छे खाते-पीते घर का लेकिन सीधा-सादा और सरल सा. बहुत ही मिलनसार. एक दिन उसकी मुलाक़ात अपनी ही उम्र के एक नवयुवक से हुई. बात-बात में दोनों दोस्त हो गए. दोनों एक ही तरह के थे. सिर्फ़ दो अंतर थे, दोनों में. एक तो यह था कि दूसरा नवयुवक बहुत ही ग़रीब परिवार से था और अक्सर दोनों वक़्त की रोटी का इंतज़ाम भी मुश्किल से हो पाता था. दूसरा अंतर यह कि दूसरा जन्म से ही नेत्रहीन था. उसने कभी रोशनी देखी ही नहीं थी. वह दुनिया को अपनी तरह से टटोलता-पहचानता था. लेकिन दोस्ती धीरे-धीरे गाढ़ी होती गई. अक्सर मेल मुलाक़ात होने लगी. एक दिन नवयुवक ने अपने नेत्रहीन मित्र को अपने घर खाने का न्यौता दिया. दूसरे ने उसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया. दोस्त पहली बार खाना खाने आ रहा था. अच्छे मेज़बान की तरह उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान बनाए. दोनों ने मिलकर खाना खाया. नेत्रहीन दोस्त को बहुत आनंद आ रहा था. एक तो वह अपने जीवन में पहली बार इतने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले रहा था. दूसरा कई ऐसी चीज़ें थीं जो उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी नहीं खाईं थीं. इसमें खीर भी शामिल थी. खीर खाते-खाते उसने पूछा, "मित्र, यह कौन सा व्यंजन है, बड़ा स्वादिष्ट लगता है." मित्र ख़ुश हुआ. उसने उत्साह से बताया कि यह खीर है. सवाल हुआ, "तो यह खीर कैसा दिखता है?" "बिलकुल दूध की तरह ही. सफ़ेद." जिसने कभी रोशनी न देखी हो वह सफ़ेद क्या जाने और काला क्या जाने. सो उसने पूछा, "सफ़ेद? वह कैसा होता है." मित्र दुविधा में फँस गया. कैसे समझाया जाए कि सफ़ेद कैसा होता है. उसने तरह-तरह से समझाने का प्रयास किया लेकिन बात बनी नहीं. आख़िर उसने कहा, "मित्र सफ़ेद बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि बगुला." "और बगुला कैसा होता है." यह एक और मुसीबत थी कि अब बगुला कैसा होता है यह किस तरह समझाया जाए. कई तरह की कोशिशों के बाद उसे तरक़ीब सूझी. उसने अपना हाथ आगे किया, उँगलियाँ को जोड़कर चोंच जैसा आकार बनाया और कलाई से हाथ को मोड़ लिया. फिर कोहनी से मोड़कर कहा, "लो छूकर देखो कैसा दिखता है बगुला." दृष्टिहीन मित्र ने उत्सुकता में दोनों हाथ आगे बढ़ाए और अपने मित्र का हाथ छू-छूकर देखने लगा. हालांकि वह इस समय समझने की कोशिश कर रहा था कि बगुला कैसा होता है लेकिन मन में उत्सुकता यह थी कि खीर कैसी होती है. जब हाथ अच्छी तरह टटोल लिया तो उसने थोड़ा चकित होते हुए कहा, "अरे बाबा, ये खीर तो बड़ी टेढ़ी चीज़ होती है." वह फिर खीर का आनंद लेने लगा. लेकिन तब तक खीर ढेढ़ी हो चुकी थी. यानी किसी भी जटिल काम के लिए मुहावरा बन चुका था "टेढ़ी खीर." |
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बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद
एक बंदर था। जंगल में रहता था। एक बार जंगल में एक पार्टी थी। वहाँ सभी जानवर आये हुये थे। पार्टी सियार के घर थी। सब ने छक कर खाना खाया। बंदर ने भी खाया। खाने-पीने के बाद सियार ने सबको सौंफ़ के बदले अदरक के छोटे छोटे टुकडे काट कर, उसमें नींबू और नमक लगा कर सबको दिया। सब ने एक-एक टुकडा उठाया और सब की देखा देखी बंदर ने भी। उसने पहले कभी अदरक खाया नहीं था। उसे बहुत पसंद आया अदरक का स्वाद। मगर और ले नहीं सकता था क्योंकि किसी ने भी एक-दो टुकडों से ज़्यादा लिया नहीं था । अदरक का स्वाद मुँह में लिये बंदर जी घर आये और आते समय बाज़ार से ढेरों अदरक ले आये। अदरक को ठीक उसी तरह छोटे छोटे टुकडों में काटा और नींबू और नमक लगाया। मगर इस बार उन्होंने जी भर के मुट्ठी पर मुट्ठी अदरक मुँह में डाल दिया। और बस फिर जो गत बनी बंदर मियाँ की वो आप सब समझ सकते हैं। तब से बंदर जी ने तौबा कर ली कि वो अदरक नहीं खायेंगे और सब से जंगल में कहते फिरे कि अदरक बडा बेस्वाद है और जंगल में अन्य जानवर एक दूसरे से " बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद" । |
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मूंछों की लड़ाई
(आलेख: राकेश कुमार आर्य) सन 1200 के लगभग भारत में कन्नौज में गहरवाड़ या राठौड, दिल्ली-अजमेर में चौहान, चित्तौड़ में शिशोदिया और गुजरात में सोलंकी-ये चार राजपूत वंश शासन कर रहे थे। इन राजपूत वंशों में परस्पर बड़ी ईर्ष्या बनी रहती थी। उसी ईर्ष्या भाव के कारण विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं को यहां शासन करने का अवसर मिला।एक बार की बात है कि गुजरात के सोलंकी राज परिवार के कुछ सदस्य रूष्ट होकर गुजरात से अजमेर आ गये। पृथ्वीराज चौहान उस समय अजमेर ओर दिल्ली के शासक नही बने थे। उनके पिता सोमेश्वर सिंह ने सोलंकी परिवार के अतिथियों का पूर्ण स्वागत सत्कार किया। अतिथि भी प्रसन्नवदन होकर रहने लगे। पृथ्वीराज चौहान व राजा तो अतिथियों के प्रति सदा विनम्र रहे और वह इन राजकीय परिवार के अतिथियों के महत्व को जानते भी थे, परंतु यह आवश्यक नही कि परिवार का हर सदस्य ही आपकी भावनाओं से सहमत हो और उसी के अनुरूप कार्य करना अपना दायित्व समझता हो। पृथ्वीराज व राजा सोमेश्वर के साथ भी यही हो रहा था, वह अतिथियों के प्रति जितने विनम्र थे पृथ्वीराज के चाचा कान्ह कुंवर उतने ही उनके प्रति असहज थे। एक दिन की बात है कि राजा की अनुपस्थिति में दरबार में एक सोलंकी सरदार ने अपनी मूंछों पर ताव देना आरंभ कर दिया। कान्ह कुंवर ने राजा सोमेश्वर व पृथ्वीराज चौहान की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए मूंछों पर ताव देते सरदार की यह कहकर दरबार में ही हत्या कर दी कि चौहानों के रहते और कोई मूंछों पर ताव नही दे सकता। कान्ह कुंवर ने मानो आगत के लिए आफत के बीज बो दिये थे। |
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जब पृथ्वीराज चौहान दरबार में आए और उन्हें घटना की जानकारी मिली तो वह स्तब्ध रह गये। राजकीय परिवार के लोगों के साथ हुई यह घटना उनको भीतर तक साल गयी। उन्हें कान्ह कुंवर का यह व्यवहार अनुचित ही नही अपितु सोलंकियों से शत्रुता बढ़ाने वाला भी लगा। इसलिए उन्होंने आज्ञा दी कि कान्ह कुंवर की आंखों पर पट्टी बांध दी जाए और सिवाय युद्घ के वह कभी खोली न जाए।
उधर शेष सोलंकी अतिथि इस घटना के पश्चात स्वदेश लौट गये। गुजरात के सोलंकी राजपरिवार को यह घटना अपने सम्मान पर की गयी चोट के समान लगी। राजा मूलचंद सोलंकी ने अजमेर पर चढ़ाई कर दी। सोमवती युद्घ क्षेत्र में जमकर संघर्ष हुआ। मूलराज सोलंकी ने दांव बैठते ही राजा सोमेश्वर की गर्दन धड़ से अलग कर दी। मूंछों की लड़ाई की पहली भेंट राजा सोमेश्वर चढ़ गये। आफत अभी और भी थी। इस घटना के बाद से चौहान और सोलंकी परस्पर एक दूसरे के घोर शत्रु बन गये। कालांतर में जब संयोगिता के स्वयंवर का अवसर आया तो सोलंकी राजा ने जयचंद का साथ दिया। पृथ्वीराज चौहान ने संयोगिता हरण के समय अपनी सुरक्षा में बताया जाता है कि अपने पक्ष के 108 राजाओं की सेना को कन्नौज से लेकर दिल्ली के रास्ते में थोड़ी थोड़ी दूर पर तैनात कर दिया था। उधर जयचंद की सेना भी अपने राजाओं की सेना को मिलाकर बहुत बड़ी बन गयी थी। कहा जाता है कि दोनों महान शक्तियों में घोर संग्राम कन्नौज से दिल्ली तक होता चला था। सयोगिता के डोले को सुरक्षा सहित दिल्ली पहुंचाने की व्यवस्था कर पृथ्वीराज चौहान स्वयं भी लड़ा। युद्घ तो जीत गया पर भारत माता के कितने ही वीर इस व्यर्थ की लड़ाई में नष्टï हो गये। मौहम्मद गोरी से लड़ने की शक्ति भी पृथ्वीराज की क्षीण हुई। पृथ्वीराज के 108 साथी राजाओं में से 64 राजा मारे गये। फलस्वरूप जब मोहम्मद गोरी आया तो उसने दोनों पक्षों को अलग अलग सहज रूप से पराजित कर दिया। इस प्रकार एक कान्ह कुंवर की मूर्खता और दम्भी स्वभाव के कारण देश घोर अनर्थ में फंस गया। व्यर्थ की लड़ाई ने भारी अनर्थ करा दिया। आज तक लोग इस व्यर्थ के अनर्थ को ‘मूंछों की लड़ाई’ के नाम से जानते हैं। इसीलिए हिंदी में यह मुहावरा ही बन गया है मूंछों की लड़ाई का। आज भी लोग जब किसी व्यर्थ की बात को अपने अहम के साथ जोड़ते हैं और कहते हैं कि मेरी मूंछों की बात है तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि अहम की लड़ाई से अनर्थ के अतिरिक्त और कुछ हाथ नही आता है। इसलिए विवेक और धैर्य के साथ आगे बढें और अहम भी बातों को पीछे छोड़ें। |
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मजेदार ज्ञानवर्धक मुहावरे............................. |
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बहुत बहुत आभार, डॉक्टर साहब. |
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मुहावरों की कहानी: नमक हराम
काशी नरेश ब्रह्मदत्त का पुत्र बचपन से ही दुष्ट स्वभाव का था। वह बिना कारण ही मुसाफिरों को सिपाहियों से पकड़वा कर सताता और राज्य के विद्वानों, पंडितों तथा बुजुर्गों को अपमानित करता। वह ऐसा करके बहुत प्रसन्नता का अनुभव करता। प्रजा के मन में इसलिए युवराज के प्रति आदर के स्थान पर घृणा और रोष का भाव था। युवराज लगभग बीस वर्ष का हो चुका था। एक दिन कुछ मित्रों के साथ वह नदी में नहाने के लिए गया। वह बहुत अच्छी तरह तैरना नहीं जानता था, इसलिए अपने साथ कुछ कुशल तैराक सेवकों को भी ले गया। युवराज और उसके मित्र नदी में नहा रहे थे। तभी आसमान में काले-काले बादल छा गये। बादलों की गरज और बिजली की चमक के साथ मूसलधार वर्षा भी शुरू हो गई। युवराज बड़े आनन्द और उल्लास से तालियाँ बजाता हुआ नौकरों से बोला, ‘‘अहा! क्या मौसम है! मुझे नदी की मंझधार में ले चलो। ऐसे मौसम में वहाँ नहाने में बड़ा मजा आयेगा!'' नौकरों की सहायता से युवराज नदी की बीच धारा में जाकर नहाने लगा। वहाँ पर युवराज के गले तक पानी आ रहा था और डूबने का खतरा नहीं था। लेकिन वर्षा के कारण धीरे-धीरे पानी बढ़ने लगा और धारा का बहाव तेज होने लगा। काले बादलों से आसमान ढक जाने के कारण अन्धेरा छा गया और पास दिखना कठिन हो गया। युवराज की दुष्टता के कारण इनके सेवक भी उससे घृणा करते थे। इसलिए उसे बीच धारा में छोड़ कर सभी सेवक वापस किनारे पर आ गये। युवराज के मित्रों ने जब युवराज के बारे में सेवकों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे जबरदस्ती हमलोगों का हाथ छुड़ा कर अकेले ही तैरते हुए आ गये। शायद राजमहल वापस चले गये हों। मित्रों ने महल में युवराज का पता लगवाया। लेकिन युवराज वहाँ पहुँचा नहीं था। बात राजा तक पहुँच गयी। उन्होंने तुरंत सिपाहियों को नदी की धारा या किनारे-कहीं से भी युवराज का पता लगाने का आदेश दिया। सिपाहियों ने नदी के प्रवाह में तथा किनारे दूर-दूर तक पता लगाया लेकिन युवराज का कहीं पता न चला। आखिरकार निराश होकर वे वापस लौट आये। इधर अचानक नदी में बाढ़ आ जाने और धारा के तेज होने के कारण युवराज पानी के साथ बह गया। जब वह डूब रहा था तभी उसे एक लकड़ी दिखाई पड़ी। युवराज ने उस लकड़ी को पकड़ लिया और उसी के सहारे बहता रहा। आत्म रक्षा के लिए तीन अन्य प्राणियों ने भी उस लकड़ी की शरण ले रखी थी- एक साँप, एक चूहा और एक तोता। युवराज ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था, बचाओ! बचाओ! लेकिन तूफान की गरज में उसकी पुकार नक्कारे में तूती की आवाज़ की तरह खोकर रह गई। बाढ़ के साथ युवराज बहता जा रहा था। थोड़ी देर में तूफान थोड़ा कम हुआ और बारिश थम गई। आकाश साफ होने लगा और पश्चिम में डूबता हुआ सूरज चमक उठा। उस समय नदी एक जंगल से होकर गुजर रही थी। नदी के किनारे, उस जंगल में ऋषि के रूप में बोधिसत्व तपस्या कर रहे थे। (आगे है ...) |
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युवराज की करुण पुकार कानों में पड़ते ही बोधिसत्व का ध्यान टूट गया। वे झट नदी में कूद पड़े और उस लकड़ी को किनारे खींच लाये जिसने युवराज और तीन अन्य प्राणियों की जान बचायी थी। उन्होंने अग्नि जला कर सबको गरमी प्रदान की, फिर सबके लिए भोजन का प्रबन्ध किया। सबसे पहले उन्होंने छोटे प्राणियों को भोजन दिया, तत्पश्चात युवराज को भी भोजन खिलाकर उसके आराम का भी प्रबन्ध कर दिया।
इस प्रकार वे सब बोधिसत्व के यहाँ दो दिनों तक विश्राम करके पूर्ण स्वस्थ होने के बाद कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने-अपने घर चले गये। तोते ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘महानुभाव! आप मेरे प्राणदाता हैं। नदी के किनारे एक पेड़ का खोखला मेरा निवास था, लेकिन अब वह बाढ़ में बह गया है। हिमालय में मेरे कई मित्र हैं। यदि कभी मेरी आवश्यकता पड़े तो नदी के उस पार पर्वत की तलहटी में खड़े होकर पुकारिये। मैं मित्रों की सहायता से आप की सेवा में अन्न और फल का भण्डार लेकर उपस्थित हो जाऊँगा।'' ‘‘मैं तुम्हारा वचन याद रखूँगा।'' बोधिसत्व ने आश्वासन दिया। साँप ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘मैं पिछले जन्म में एक व्यापारी था। मैंने कई करोड़ रुपये की स्वर्ण मोहरें नदी के तट पर छिपा कर रख दी थीं। धन के इस लोभ के कारण इस जन्म में सर्प योनि में पैदा हुआ हूँ। मेरा जीवन उस खज़ाने की रक्षा में ही नष्ट हुआ जा रहा है। उसे मैं आप को अर्पित कर दूँगा। कभी मेरे यहॉं पधार कर इसका बदला चुकाने का मौका अवश्य दीजिए।'' इसी प्रकार चूहे ने भी वक्त पड़ने पर अपनी सहायता देने का वचन देते हुए कहा, ‘‘नदी के पास ही एक पहाड़ी के नीचे हमारा महल है जो तरह-तरह के अनाजों से भरा हुआ है। हमारे वंश के हजारों चूहे इस महल में निवास करते हैं। जब भी आप को अन्न की कठिनाई हो, कृपया हमारे निवास पर अवश्य पधारिए और सेवा का अवसर दीजिए। मैं फिर भी आप के उपकार का बदला कभी न चुका पाऊँगा।'' सबसे अन्त में युवराज ने कहा, ‘‘मैं कभी-न-कभी अपने पिता के बाद राजा बनूँगा। तब आप मेरी राजधानी में आइए। मैं आप का अपूर्व स्वागत करूँगा।'' कुछ दिनों के बाद ब्रह्मदत्त की मृत्यु हो गई और युवराज काशी का राजा बन गया। राजा बनते ही प्रजा पर अत्याचार करने लगा। सच्चाई और न्याय का कहीं नाम न था। झूठ और अपराध बढ़ने लगे। प्रजा दुखी रहने लगी। यह बात बोधिसत्व से छिपी न रही। उसे राजा का निमंत्रण याद हो आया। उसने सबसे पहले राजा के यहाँ जाने का निश्चय किया। वे एक दिन राजा से मिलने के लिए काशी पहुँचे। बोधिसत्व नगर में प्रवेश कर राजपथ पर पैदल चल रहे थे। तभी हाथी पर सवार होकर राजा सैर के लिए जा रहा था। उसने बोधिसत्व को पहचान लिया और तुरत अपने अंगरक्षकों को आदेश दिया, ‘‘इस साधु को पकड़कर खंभे से बाँध दो और सौ कोड़े लगाओ और इसके बाद इसको फाँसी पर लटका दो। यह इतना घमण्डी है कि इसने जान बूझ कर मेरा अपमान किया था। ** |
Re: मुहावरों की कहानी
ज्ञानवर्धक संग्रह को साझा करने के लिए आभार बन्धु।
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Re: मुहावरों की कहानी
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Re: मुहावरों की कहानी
हास्य-व्यंग्य/ किस्सा कहावतों का
होता दरअसल ये था कि जब भी हम कहावतों के बारे में सोचते, तो वही दो-चार घिसी-पिटी कहावतें जेहन में उभरा करतीं- जैसे कि धोबी का कुत्ता घर का न घाट का, दिल्ली दूर है, आंख के अंधे नाम नयनसुख, नौ दो ग्यारह होना या फिर न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी वगैरह-वगैरह। इन मुहावरों का तड़का जब भी हम किसी रचना में लगाते, तो नतीजा ढाक के वही तीन पात। लगता था जैसे कहावतें लुट-पिट चुकी हैं, उनमें जो धार, जो तासीर हुआ करती थी, वह रफ़ूचक्कर हो चुकी है। हमें यह भी लगता कि जैसे वह घड़ी आ पहुंची है- जब जीर्ण-शीर्ण कहावतें त्याग कर नई कहावतें धारण की जाती हैं। मगर नई कहावतें आएं कहां से? वे कोई ख़ालाजान के घर में तो रखी न थीं कि गए और निकाल लाए। दिमाग़ के मरियल गधे-घोड़े चारों तरफ़ दौड़ाए। ध्यान आया बचपन के दोस्त वेदपाठी का। हमें तो फ्रेश कहावतों की जरूरत थी ही। सोचा- वेदपाठी जी के कहावत भंडार से कुछ नायाब मोती चुग लिए जाएं। वेदपाठी जी के भवन पर उनसे मिलते ही हमने पूछ लिया, ‘महाराज, सुना है, आजकल आप नई कहावतें रच रहे हैं।’ वेदपाठी जी के चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट दौड़ गई। बोले, ‘ठीक सुना आपने। वैसे मैं कहावतों की रचना स्वांत: सुखाय कर रहा था, मगर आप गुन के गाहक हैं। ख़ाली कैसे जाने दूं? कुछ न कुछ देकर ही विदा करूंगा। एक बिल्कुल मौलिक, अप्रकाशित व अप्रसारित कहावत है- अ़क्ल के कुत्ते फेल होना। यह आपकी रचनाओं से मेल भी खाती है।’ फिर वे मुस्करा कर बोले, ‘इस कहावत का ताल्लुक सीधा दिमाग़ से है। जब दिमाग़ का दही होने लगे, तो समझ जाइए कि अ़क्ल के कुत्ते फेल हो गए।’ |
Re: मुहावरों की कहानी
‘चलिए, एक मिनट को आपकी बात मान भी लें, मगर जनाब इस कहावत में नया क्या है। अ़क्ल पहले भी हुआ करती थी, अ़क्ल आज भी है। कुत्ते पहले भी थे, कुत्ते आज भी हैं। क्या यही लुटा-पिटा, थका-थकाया माल धरा था हमारे लिए?’ वेदपाठी जी बोले, ‘ऐसा नहीं है। चलो दूसरी कहावत देता हूं- उपभोक्ता का मोबाइल व्यस्त होना।’ मुस्कुरा कर हमने कहा, ‘ये हुई न बात! मोबाइल तो वाक़ई पहले नहीं थे। पर जनाब, मतलब इसका भी शून्य बटा सन्नाटा है।’ वेदपाठी जी बोले, ‘मतलब साफ़ है। स्वार्थ न होने पर उपेक्षा करना। आप लाख चाहते रहें बतियाना, मगर जनाब, हमारी इच्छा न होगी तो हर बार व्यस्त रहेगा हमारा मोबाइल।’
तभी गृहयुद्ध की कर्णभेदी ध्वनियां सुनाई पड़ीं। एक बच्चा गरज रहा था, ‘बत्तीसी उखाड़ कर हाथ में दे दूंगा।’ दूसरा गुर्रा रहा था, ‘चुप कर बेमौसम की भविष्यवाणी। गरजता तो ऐसे है कि जाने कितना बरसेगा। मगर कभी छींटा तक नहीं पड़ा। ज्यादा मत रेंकियो मेघदूत की औलाद। बता दिया। हां।’ हमने पूछा, ‘वेदपाठी जी, ये सब क्या है? समझाते क्यों नहीं?’ ‘क्या बताऊं वर्मा।’ वेदपाठी कराहे, ‘चावलों का मांड़ बन चुका है। नहीं मानते उल्लू के पट्ठे। कहता हूं- सुबह उठ कर मुंह-हाथ धो लो। कहते हैं- शेर मुंह नहीं धोते। कहता हूं- क़िताब निकाल कर पाठ याद करो। कहते हैं- बूढ़े तोते रटा नहीं करते। लो कल्लो बात।’ तभी चाय लिए आती काकली रुककर बोली, ‘अरे पापा, क्यों समझाते हैं? हैं तो ये कल के जोगी, पर पेट में जटा पूरी है।’ फिर भुनभुनाने लगी, ‘गधों के पीछे जाना, अपनी कब्र खुलवाना।’ बच्चों के मुखारविंद से ऐसी नायाब कहावतें सुन, हमारे सब संदेह मिट गए। हमने काकली का सिर सहलाते हुए कहा, ‘चाय रहने दे बेटी, ये तो घर में भी पी लूंगा। बस मेरे पास बैठ कर कुछ और कहावतें सुना दे।’ वह चहकी, ‘अरे अंकल, जहां बांस डूब चुके, वहां पोरियों की क्या गिनती! मैं तो कहती हूं, न छीले कोई सौ तोरियां, बस एक कद्दू छील ले। पता नहीं कैसे थे वो लोग, जो मरा हाथी भी सवा लाख में भेड़ देते थे। एक हमारे पापा हैं। सारे डंगर मु़फ्त में लेने को तैयार हैं, पर कोई दे तो। मीठा-मीठा गड़प-गड़प, कड़वा-कड़वा थू-थू। पीने को लपर-लपर, उठाने को ना नुकर।’ काकली बग़ैर अर्धविराम, पूर्णविराम, कौमा के दौड़ी जा रही थी। हम कहावतों के इस सागर में डूबकर मोती चुनने लगे। इससे पहले कि ये मोती हाथ से छूट जाएं, याद से गिन-गिन कर उनकी माला यहां पिरो दी है। ( ‘अभिव्यक्ति’ वेबसाइटसेसाभार) |
Re: मुहावरों की कहानी
धोबी का कुत्ता न घर का न घाटका
एक बार कक्षा दस की हिंदी शिक्षिका अपने छात्र को मुहावरे सिखा रही थी। तभी कक्षा एक मुहावरे पर आ पहुँची “धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का ” , इसका अर्थ किसी भी छात्र को समझ नहीं आ रहा था । इसीलिए अपने छात्र को औरअच्छी तरह से समझाने के लिए शिक्षिका ने अपने छात्र को एक कहानी के रूप में उदाहरण देना उचित समझा । उन्होंने अपने छात्र को कहानी कहना शुरू किया , ” कईसाल पहले सज्जनपुर नामकनगर में राजू नाम का लड़का रहता था , वह एक बहुत ही अच्छा क्रिकेटर था । वह इतना अच्छा खिलाड़ी था कि उसमे भारतीय क्रिकेट टीम में होने की क्षमताथी । वह क्रिकेट तो खेलता पर उसे दूसरो के कामों में दखल अन्दाजी करना बहुत पसंद था । उसका मन दृढ़ नहीं था जो दूसरे लोग करते थे वह वही करता था । यह देखकर उसकी माँ ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि यह आदत उसे जीवन में कितनी भारी पड़ सकती है पर वह नहीं समझा । समय बीतता गया और उसका अपने काम के बजाय दूसरो के काम में दखल अन्दाजी करने की आदत ज्यादा हो गयी । जभी उससे क्रिकेट का अभ्यास होता था तभी उसके दूसरे दोस्तों को अलग खेलो का अभ्यास रहता था । उसकामन चंचल होने के कारण वह क्रिकेट के अभ्यास के लिए नहीं जाता था बल्कि दूसरे दोस्तों के साथ अन्य अलग-अलग खेल खेलने जाता था। उसकी यह आदत उसका आगे बहुत ही भारी पड़ी , कुछ ही दिनों के बाद नगर में ऐलान किया गया नगर में सभी खेलों के लिएएक चयन होगा जिसमे जो भी चुना जाएगा उसे भारतके राष्ट्रीय दल में खेलने को मिल सकता है । सभी यह सुनकर बहुत ही खुश हुए ओर वहीं दिन से सभी अपने खेल में चुनने के लिए जी-जान से मेहनत करने लगे , सभी के पास सिर्फ दो दिन थे । राजू ने भी अपना अभ्यास शुरू किया पर पिछले कुछ दिनों से अपने खेल के अभ्यास में जाने की बजाय दूसरो के खेल के अभ्यास में जाने के कारण उसने अपने शानदार फॉर्म खो दिया था । दो दिन के बाद चयन का समय आया राजू ने खूब कोशिश की पर अभ्यास की कमी के कारण वह अपना शानदार प्रदर्शननहीं दिखा पाया और उसका चयन नहीं हुआ , वह दूसरे खेलों में भी चयन न हुआ क्योंकि व़े सब खेल उसे सिर्फ थोड़ा आते थे ओर किसी भी खेल में वह माहिर नहीं था । जिसके कारण वह कोई भी खेल में चयन नहीं हुआ और उसके जो सभी दूसरे दोस्त थे उनका कोई न कोई खेल में चयन हो गया क्योंकि वे दिन रात मेहनत करते थे ।अंत में राजू को अपने सिर पर हाथ रखकर बैठना पड़ा और वह धोबी के कुत्ते की तरह बन गया जो न घर का होता है न घाट का ।” इसी तरह इस कहानी के माध्यम से सभी बच्चों को इस मुहावरे का मतलब पता चल गया । शिक्षिका को अपने छात्रों को एक ही सन्देश पहुँचाना था कि व़े जीवन में जो कुछ भी करे सिर्फ उसी में ध्यान दे और दूसरो से विचिलित न हो वरना वह धोबी के कुत्ते की तरह बन जाएगे जो न घर का न घाट का होता है। |
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बहुत ही बढ़ीया ! रोचक प्रस्तुती के लिए धन्यवाद !! नई पोस्टो का इन्तजार रहेगा !!!
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सूत्र को पढ़ने के लिये और पसंद करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद, मित्र अरविंद शाह जी. आगामी कथा प्रस्तुत है. |
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जिसका काम उसी को साझे
किसी गांव मे एक गरीब घोबी रहता था| धोबी के पास एक गधा था और एक कुत्ता था| दोनों धोबीके साथ रोज सुबह धोबी घाट जाया करते थे| शाम को घर आया करते थे| धोबी का गधा शांत स्वभाव का था और स्वामी भक्त भी था| लेकिन धोबी का कुत्ता आलसी और कृतघ्न था | गधा अपना काम पूरी लगन के साथ करता था| जब सुबह धोबी धोबी-घाट को जाता था तो सारे कपड़े गधे पर लाद कर ले जाता था और शाम को गधे पर ही कपडे लाद कर लाया करता था | कभी कभी तो धोबी जब थका होता था तो खुद भी गधे पर बैठ जाया करता था| दिन भर गधा धोबी घाट केनजदीक हरी हरी घास चारा करता था | धोबी का कुत्ता सारा दिन धोबी घाट मे सोया ही रहता था | एक दिन गधे ने कुत्ते से पूछा की तुम भी मालिक के लिए कोई काम क्यूँ नहीं करते? कुत्ते ने जवाब दिया कि मालिक कौन सा हमें पेट भर के खाना देता है | अपना बचा खुचा खाना हमें डाल देता है| इतना कह कर कुत्ता फिर से सो गया | एक दिन धोबी के घर मे कोई चोर घुस आया| चोर को आते हुए कुत्ते ने देख लिया था पर कुत्ताभौका नहीं | उधर गधे ने भी चोर को देख लिया था | गधे ने कुत्ते से कहा की इस समय तुम्हारा फर्ज बनाता है कि तुम भौककर मालिक को जगाओ ताकि मालिक को पता चल सके किचोर आया है| कुत्ते ने कहा मालिक सो रहा है जगाने पर मारेगा | गधे ने कहा कि क्यूँ मारेगा? हम तो उसका फ़ायदा कर रहे है| कुत्ता इस बात के लिए नहीं माना| गधे से रहा नहीं गया और खुद रैकना शुरू कर दिया| आधी रात को गधे के रेकने पर धोबी को गुस्सा आ गया | धोबी उठा उसने डंडा उठा कर तीन चार डंडे गधे को जड़ दिए और सो गया| धोबी केसो जाने के बाद कुत्ते ने गधे से कहा, "देखा, मैं न कहता था कि मालिक मारेगा|" फिर उसने बताया कि "जिस का काम उसी को साझे और करे तो डंडा बाजे". इस पर गधे ने कहा, "भाई तुम ठीक थे, मैं ही गलत था|" |
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bhai mujhe namak haram wale muhaware ka matlab samajh me nhi aaya, uska ant to achanak ho gaya. Aakhir bodhisatv ne uska apman kis tarah kiya?
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किसी के उपकार को भुला कर उसी के विरुद्ध षड्यंत्र करना ही नमक-हरामी है और यह कथा काशी राजकुमार / नरेश के नमक हराम होने का ही एक उदाहरण है. मैं समझता हूँ कि अब आपकी शंका का समाधान हो गया होगा, सुमित जी. धन्यवाद. |
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Have copied all these to my Kindle reader.
Thanks. If possible please continue Regards GV |
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बीरबल की खिचड़ी
एक दफा शहंशाह अकबर ने घोषणा की कि यदि कोई व्यक्ति सर्दी के मौसम में नर्मदा नदी के ठंडे पानी में घुटनों तक डूबा रह कर सारी रात गुजार देगा उसे भारी भरकम तोहफ़े से पुरस्कृत किया जाएगा. एक गरीब धोबी ने अपनी गरीबी दूर करने की खातिर हिम्मत की और सारी रात नदी में घुटने पानी में ठिठुरते बिताई और जहाँपनाह से अपना ईनाम लेने पहुँचा. बादशाह अकबर ने उससे पूछा – तुम कैसे सारी रात बिना सोए, खड़े-खड़े ही नदी में रात बिताए? तुम्हारे पास क्या सबूत है? धोबी ने उत्तर दिया – जहाँपनाह, मैं सारी रात नदी छोर के महल के कमरे में जल रहे दीपक को देखता रहा और इस तरह जागते हुए सारी रात नदी के शीतल जल में गुजारी. तो, इसका मतलब यह हुआ कि तुम महल के दीए की गरमी लेकर सारी रात पानी में खड़े रहे और ईनाम चाहते हो. सिपाहियों इसे जेल में बन्द कर दो - बादशाह ने क्रोधित होकर कहा. बीरबल भी दरबार में था. उसे यह देख बुरा लगा कि बादशाह नाहक ही उस गरीब पर जुल्म कर रहे हैं. बीरबल दूसरे दिन दरबार में हाजिर नहीं हुआ, जबकि उस दिन दरबार की एक आवश्यक बैठक थी. बादशाह ने एक खादिम को बीरबल को बुलाने भेजा. खादिम ने लौटकर जवाब दिया – बीरबल खिचड़ी पका रहे हैं और वह खिचड़ी पकते ही उसे खाकर आएँगे. जब बीरबल बहुत देर बाद भी नहीं आए तो बादशाह को बीरबल की चाल में कुछ सन्देह नजर आया. वे खुद तफतीश करने पहुँचे. बादशाह ने देखा कि एक बहुत लंबे से डंडे पर एक घड़ा बाँध कर उसे बहुत ऊँचा लटका दिया गया है और नीचे जरा सा आग जल रहा है. पास में बीरबल आराम से खटिए पर लेटे हुए हैं. बादशाह ने तमककर पूछा – यह क्या तमाशा है? क्या ऐसी भी खिचड़ी पकती है? बीरबल ने कहा - माफ करें, जहाँपनाह, जरूर पकेगी. वैसी ही पकेगी जैसी कि धोबी को महल के दीये की गरमी मिली थी. बादशाह को बात समझ में आ गई. उन्होंने बीरबल को गले लगाया और धोबी को रिहा करने और उसे ईनाम देने का हुक्म दिया. ** |
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जैसे को तैसा
एक राजा के पास एक नौकर था,यूँ तो राजा के पास बहुत सारे नौकर थे जिनका काम सिर्फ महल की देख-रेख और साफ़ सफाई करना था. तो एक बार राजा का एक नौकर उनके शयन कक्ष की सफाई कर रहा था,सफाई करते करते उसने राजा के पलंग को छूकर देखा तो उसे बहुत ही मुलायम लगा,उसे थोड़ी इच्छा हुयी कि उस बिस्तर पर जरा लेट कर देखा जाए कि कैसा आनंद आता है,उसने कक्ष के चरों और देख कर इत्मीनान कर लिया कि कोई देख तो नहीं रहा. जब वह आश्वस्त हो गया कि कोई उसे देख नहीं रहा है तो वह थोड़ी देर के लिए बिस्तर पर लेट गया. वह नौकर काम कर के थका-हारा था,अब विडम्बना देखिये कि बेचारा जैसे ही बिस्तर पर लेटा,उसकी आँख लग गयी,और थोड़ी देर के लिए वह उसी बिस्तर पर सो गया..उसके सोये अभी मुश्किल से पांच मिनट बीते होंगे कि तभी कक्ष के सामने से गुजरते प्रहरी की निगाह उस सोये हुए नौकर पर पड़ी. नौकर को राजा के बिस्तर पर सोते देख प्रहरी की त्यौरियां चढ़ गयी,उसने तुरंत अन्य प्रहरियों को आवाज लगायी. सोते हुए नौकर को लात मार कर जगाया और हथकड़ी लगाकर रस्सी से जकड़ दिया. नौकर को पकड़ लेने के पश्चात उसे राजा के दरबार तक खींच के लाया गया. राजा को सारी वस्तुस्थिति बताई गयी. उस नौकर की हिमाकत को सुनकर राजा की भवें तन गयी,यह घोर अपराध!! एक नौकर को यह भी परवाह न रही कि वह राजा के बिस्तर पर सो गया. राजा ने फ़ौरन आदेश दिया ‘नौकर को उसकी करनी का फल मिलना ही चाहिए, तुरत इस नौकर को 50 कोड़े भरी सभा में लगाये जाएँ.’ नौकर को बीच सभा में खड़ा किया गया, और कोड़े लगने शुरू हो गए. लेकिन हर कोड़ा लगने के बाद नौकर हँसने लगता था. जब 10-12 कोड़े लग चुके थे, तब भी नौकर हँसता ही जा रहा था, राजा को यह देखकर अचरच हुआ. राजा ने कहा ‘ठहरो!!’ सुनते ही कोड़े लगाने वाले रुक गए, और चुपचाप खड़े हो गए. राजा ने नौकर से पूछा ‘यह बताओ कि कोड़े लगने पर तो तुम्हे दर्द होना चाहिए, लेकिन फिर भी तुम हंस क्यूँ रहे हो?’ नौकर ने कहा ‘हुजूर, मैं यूँ ही हंस नहीं रहा,दर्द तो मुझे खूब हो रहा है,लेकिन मैं यह सोचकर हँस रहा हूँ कि थोड़ी देर के लिए मैं आपके बिस्तर पर सो गया तो मुझे 50 कोड़े खाने पड़ रहे हैं, हुजूर तो रोज इस बिस्तर पर सोते हैं, तो उन्हें उपरवाले के दरबार में कितने कोड़े लगाये जायेंगे.’ इतना सुनना था कि राजा अनुत्तरित रह गए, उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने तुरत उस नौकर को आजाद करने का हुक्म दे दिया. |
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जैसे को तैसा (दो)
एक लघु कथा : जैसे को तैसा एक गड़रिया एक बनिए को मक्खन बेचता था। एक दिन बनिए को शक हुआ कि गड़रिया ठीक मात्रा में मक्खन नहीं दे रहा है। उसने अपने तराजू में तोलकर देखा तो मक्खन का वजन कम निकला। वह आग बबूला हुआ, राजा के पास गया। राजा ने गड़रिए को बुलवाकर उससे पूछा, क्यों, तुम मक्खन कम तोलते हो? हाथ जोड़कर गड़रिए ने नम्रतापूर्वक कहा, हुजूर, मैं रोज एक किलो मक्खन ही बनिए को दे जाता हूं। नहीं हुजूर, मैंने तोलकर देखा है, पूरे दो सौ ग्राम कम निकले, बनिए ने कहा। राजा ने गड़रिए से पूछा, तुम्हें क्या कहना है? गड़रिया बोला, हुजूर, मैं ठहरा अनपढ़ गवार, तौलना-वोलना मुझे कहां आता है, मेरे पास एक पुराना तराजू है, पर उसके बाट कहीं खो गए हैं। मैं इसी बनिए से रोज एक किलो चावल ले जाता हूं। उसी को बाट के रूप में इस्तेमाल करके मक्खन तोलता हूं। बनिए को मुंह छिपाने की जगह नहीं मिल रही थी। (साभार: बालसुब्रमण्यम) |
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जैसे को तैसा (तीन)
रमेश और सुरेश दो भाई थे। रमेश बहुत धूर्त था, जबकि सुरेश बहुत सीधा था। पिता की मृत्यु के बाद उन्होने घर के सामान का बंटवारा करने की सोची। सामान मे एक भैंस, एक कम्बल, एक आम का पेड़ और एक 'आधा कच्चा, आधा पक्का' घर था। रमेश ने कहा मै बड़ा हूँ, इसीलिए मैं बँटवारा करता हूँ। सुरेश ने हामी भर दी। रमेश बोला, "भैंस का आगे का हिस्सा तेरा और पीछे का मेरा, कम्बल दिन में तेरा और रात में मेरा, पेड़ का नीचे का भाग तेरा और ऊपर का मेरा, छप्पर वाला घर तेरा और पक्के वाला मेरा।" सुरेश ने अपने सीधेपन मे भाई की सारी बात मान ली। रमेश के तो मजे आ गये। भैंस को चारा सुरेश खिलाता और दूध रमेश निकालता, दिन मे कम्बल यूँ ही पड़ा रहता और रात मे रमेश मजे से ओढ़कर सोता, सुरेश पेड़ में पानी देता और फल रमेश खाता, रात को रमेश कमरे मे सोता और सुरेश बेचारा मच्छरों व ठंड की वजह से रात को सो नहीं पाता। रमेश फल और दूध बेचकर पैसे कमा रहा था और आराम का जीवन बिता रहा था, जबकि सुरेश बेचारा दिन भर काम करता और रात को उसे चैन की नींद भी नसीब नही होती थी। इसी तरह दिन बीत रहे थे, बेचारा सुरेश सूखकर कॉंटा हो गया था। एक दिन सुरेश के बचपन का दोस्त शहर से गॉव आया, सुरेश को इस तरह देखकर उसे बहुत दुख हुआ। जब उसने पूछा तो सुरेश ने सारी बात बताई। सुनकर उसके दोस्त ने उसके कान मे कुछ कहा और बोला ऐसे करने से उसकी सारी परेशानियां दूर हो जाएगी। अगले दिन सुबह ही जैसे ही रमेश दूध निकालने बैठा सुरेश ने भैंस के मुँह पर डंडे मारने शुरू कर दिये, जब रमेश ने रोकना चाहा तो वह बोला कि अगला हिस्सा उसका है, वह जो चाहे सो करे। उस दिन भैंस ने दूध नही दिया। रात को जब रमेश ने कम्बल ओढ़ना चाहा तो वह पूरा भीगा हुआ था, पूछने पर सुरेश ने कहा कि दिन मे कम्बल उसका है वह जो चाहे सो करे। रमेश दांत पीसता हुआ सोने चला गया, पर तभी उसने देखा कि उसके कमरे के बराबर वाले छप्पर मे सुरेश ने आग लगा दी है और पूछने पर उसने वही जबाब दिया। अब तक रमेश समझ चुका था कि सुरेश को उसकी चालाकी पता चल गयी है सो उसने हाथ जोड़कर सुरेश से माफी मांगी और उसका हिस्सा ईमानदारी से देने का वायदा किया। (साभार: सविता अग्रवाल) |
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जैसे को तैसा (चार)
एक जंगल में एक लोमड़ी और एक सारस में दोस्ती हो जाती हैं. एक बार लोमड़ी सारस को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित करती है, लेकिन वह एक कम ऊँचाई वाली तश्तरी में भोजन देती है जिसे सारस खा नही सकता. सारस उस अपमान का बदला लेने का फैसला करता है. वह अगले दिन लोमड़ी को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित करता है और एक उंचे गर्दन के बर्तन में भोजन रखता है. लोमड़ी से कुछ खाया नहीं जाता और वह भूखी ही चली जाती है और इस प्रकार सारस का बदला पूरा होता है. (पंचतंत्र की कथा के आधार पर) |
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चोर चोरी से जाये हेरा फेरी से न जाये
एक जंगल की राह से एक जौहरी गुजर रहा था । देखा उसने राह में । एक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चला आ रहा है । चकित हुआ । ये देखकर कि ये कितना मूर्ख है । क्या इसे पता नहीं है कि ये लाखों का हीरा है । और गधे के गले में सजाने के लिए बाँध रखा है। पूछा उसने कुम्हार से । सुनो ये पत्थर जो तुम गधे के गले में बांधे हो । इसके कितने पैसे लोगे ? कुम्हार ने कहा - महाराज ! इसके क्या दाम । पर चलो । आप इसके आठ आने दे दो । हमनें तो ऐसे ही बाँध दिया था कि गधे का गला सूना न लगे । बच्चों के लिए आठ आने की मिठाई गधे की ओर से ल जाएँगे । बच्चे भी खुश हो जायेंगे । और शायद गधा भी कि उसके गले का बोझ कम हो गया है ।पर जौहरी तो जौहरी ही था । पक्का बनिया । उसे लोभ पकड़ गया । उसने कहा आठ आने तो थोड़े ज्यादा है । तू इसके चार आने ले ले । कुम्हार भी थोड़ा झक्की था । वह ज़िद पकड़ गया कि नहीं देने हो तो आठ आने दो । नहीं देने है । तो कम से कम छह आने तो दे ही दो । नहीं तो हम नहीं बेचेंगे । जौहरी ने कहा - पत्थर ही तो है ।चार आने कोई कम तो नहीं । उसने सोचा थोड़ी दूर चलने पर आवाज दे देगा । आगे चला गया । लेकिन आधा फरलांग चलने के बाद भी कुम्हार ने उसे आवाज न दी । तब उसे लगा । बात बिगड़ गई । नाहक छोड़ा । छह आने में ही ले लेता । तो ठीक था । जौहरी वापस लौटकर आया । लेकिन तब तक बाजी हाथ से जा चुकी थी । गधा खड़ा आराम कर रहा था । और कुम्हार अपने काम में लगा था । जौहरी ने पूछा - क्या हुआ ? पत्थर कहां है ? कुम्हार ने हंसते हुए कहा - महाराज एक रूपया मिला है । उस पत्थर का । पूरा आठ आने का फायदा हुआ है । आपको छह आने में बेच देता । तो कितना घाटा होता । और अपने काम में लग गया । पर जौहरी के तो माथे पर पसीना आ गया । उसका तो दिल बैठा जा रहा था ।सोच सोच कर । हाय । लाखों का हीरा । यूं मेरी नादानी की वजह से हाथ से चला गया । उसने कुम्हार से कहा - मूर्ख ! तू बिलकुल गधे का गधा ही रहा । जानता है । उसकी कीमत कितनी है । वह लाखों का था । और तूने एक रूपये में बेच दिया । मानो बहुत बड़ा खजाना तेरे हाथ लग गया । उस कुम्हार ने कहा - हुजूर मैं अगर गधा न होता तो क्या इतना कीमती पत्थर गधे के गले में बाँध कर घूमता ? लेकिन आपके लिए क्या कहूं ? आप तो गधे के भी गधे निकले । आपको तो पता ही था कि लाखों का हीरा है । और आप उस के छह आने देने को तैयार नहीं थे । आप पत्थर की कीमत पर भी लेने को तैयार नहीं हुए । यदि इन्सान को कोई वस्तु आधे दाम में भी मिले तो भी वो उसके लिए मोल भाव जरुर करेगा । क्योकि लालच हर इन्सान के दिल में होता है । कहते है न - चोर चोरी से जाये, हेरा फेरी से न जाये - । जौहरी ने अपने लालच के कारण अच्छा सौदा गँवा दिया । धर्म का जिसे पता है उसका जीवन अगर रूपांतरित न हो तो उस जौहरी की भांति गधा है । जिन्हें पता नहीं है वे क्षमा के योग्य है । लेकिन जिन्हें पता है उनको क्या कहें ? (स्वामी मुक्तानंद) |
Re: मुहावरों की कहानी
इस बार मैं यहां किसी मुहावरे से जुड़ी कहानी नहीं दे रहा बल्कि एक कविता दे रहा हूँ जिसमे मुहावरों का बड़ा मनोहारी उपयोग किया गया है. मुझे विश्वास है कि इससे आपका मनोरंजन तो होगा ही, मुहावरों को याद रखने में भी मदद मिलेगी. यह निम्न प्रकार से है:
मुहावरों की ग़ज़ल (साभार: विकिसौर्स) तिलक लगाये माला पहने भेस बनाये बैठे हैं, तपसी की मुद्रा में बगुले घात लगाये बैठे हैं. घर का जोगी हुआ जोगिया आन गाँव का सिद्ध हुआ, भैंस खड़ी पगुराय रही वे बीन बजाये बैठे हैं. नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने को निकली है, सभी मियाँ मिट्ठू उसका आदाब बजाये बैठे हैं. घर की इज्जत गिरवीं रखकर विश्व बैंक के लॉकर में, बड़े मजे से खुद को साहूकार बताये बैठे हैं. उग्रवाद के आगे इनकी बनियों वाली भाषा है, अबकी मार बताऊँ तुझको ईंट उठाये बैठे हैं. जब से इनका भेद खुला है खीस काढ़नी भूल गये, शीश उठाने वाले अपना मुँह लटकाये बैठे हैं. मुँह में राम बगल में छूरी लिये बेधड़क घूम रहे, आस्तीन में साँप सरीखे फ़न फैलाये बैठे हैं. विष रस भरे कनक घट जैसे चिकने चुपड़े चेहरे हैं, बोकर पेड़ बबूल आम की आस लगाये बैठे हैं. नये मुसलमाँ बने तभी तो डेढ़ ईंट की मस्जिद में, अल्लाह अल्लाह कर खुद को ईमाम बताये बैठे हैं. दाल भले ही गले न फिर भी लिये काठ की हाँडी को, ये चुनाव के चूल्हे पर कब से लटकाये बैठे हैं. मुँह में इनके दाँत नहीं हैं और पेट में आँत नहीं, कुड़ी देखकर मेक अप से चेहरा चमकाये बैठे हैं. खम्भा नोच न पाये तो ये जाने क्या कर डालेंगे, टी०वी० चैनेल पर बिल्ली जैसे खिसियाये बैठे हैं. अपनी-अपनी ढपली पर ये अपना राग अलाप रहे, गधे ऊँट की शादी में ज्यों साज सजाये बैठे हैं. पहन भेड़ की खाल भेड़िये छुरा पीठ में घोपेंगे, रंगे सियारों जैसे गिरगिट सब जाल बिछाये बैठे है. एक-दूसरे की करके तारीफ़ बड़े खुश हैं दोनों, क्या पाया है रूप! आप क्या सुर में गाये बैठे हैं! टका सेर में धर्म बिक रहा टका सेर ईमान यहाँ, चौपट राजा नगरी में अन्धेर मचाये बैठे हैं. बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ थे छोटे मियाँ सुभान अल्ला, पैरों तले जमीन नहीं आकाश उठाये बैठे हैं. अश्वमेध के घोड़े सा रानी का बेलन घूम रहा, शेर कर रहे "हुआ हुआ" गीदड़ झल्लाये बैठे हैं. मुँह सी लेते हैं अपना जब मोहरें लूटी जायें तो, छाप कोयलों पर पड़ती तो गाल फुलाये बैठे हैं. 'क्रान्त' इन अन्धों के आगे रोये तो दीदे खोओगे, यहाँ हंस कौओं के आगे शीश झुकाये बैठे हैं. |
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अतिउत्तम और सरलतम......... क्रान्त इन अन्धों के आगे रोये तो दीदे खोओगे, यहाँ हंस कौओं के आगे शीश झुकाये बैठे हैं....... |
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किस्सा हूर और लंगूर का
(वाया गली मुहावरों वाली) आप जितने भी जोड़े देखते होंगे उनमें से 95 प्रतिशत बेमेल ही मिलेंगे। पता नहीं क्या जादू है कि हमेशा हूर लंगूर के हाथों ही आ फँसती है। हमारे हाथ में भी आखिरकार एक हूर लग ही गई थी, आज से छत्तीस साल पहले। जब शादी नहीं हुई थी हमारी तो बड़े मजे में थे हम।अपनी नींद सोते थे और अपनी नींद जागते थे।न ऊधो का लेना था न माधो का देना। हमारा तो सिद्धान्त ही था “आई मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूँक”। याने कि अपने बारे में हम इतना ही बता सकते हैं किआगे नाथ न पीछे पगहा। किसी केतीन-पाँच में कभी रहते ही नहीं थेहम।बसअपने काम से काम रखते थे। हमारे लिये सभी लोग भले थे क्योंकि आप तो जानते ही हैं किआप भला तो जग भला। पर थे एक नंबर के लंगूर हम। पर पता नहीं क्या देखकर एक हूर हम पर फिदा हो गई। शायद उसने हमारी शक्ल पर ध्यान न देकर हमारी अक्ल को परखा रहा होगा और हमेंअक्ल का अंधापाकर हम पर फिदा हो गई रही होगी। या फिर शायद उसने हमेंअंधों में काना राजासमझ लिया होगा। या सोच रखा होगा कि शादी उसी से करो जिसे जिन्दगी भर मुठ्ठी में रख सको। बस फिर क्या था उस हूर ने झटपट हमारी बहन से दोस्ती गाँठ ली और रोज हमारे घर आने लगी। “अच्छी मति चाहो, बूढ़े पूछन जाओ” वाले अन्दाज में हमारी दादी माँ को रिझा लिया। हमारे माँ-बाबूजी की लाडली बन गई। इधर ये सब कुछ हो रहा था और हमें पता ही नहीं था कि अन्दर ही अन्दर क्या खिचड़ी पक रही है। इतना होने पर भी जब उसे लगा किदिल्ली अभी दूर हैतो धीरे से हमारे पास आना शुरू कर दिया पढ़ाई के बहाने। किस्मत का फेर, हम भी चक्कर में फँसते चले गये। कुछ ही दिनों मेंआग और घी का मेलहो गया। आखिरएक हाथ से ताली तो बजती नहीं। हम भी “ओखली में सर दिया तो मूसलो से क्या डरना” के अन्दाज में आ गये। उस समय हमें क्या पता था किअकल बड़ी या भैंस। गधा पचीसी के उस उम्र में तो हमेंसावन के अंधे के जैसा हरा ही हरा सूझता था। अपनी किस्मत पर इतराते थे और सोचते थे किबिन माँगे मोती मिले माँगे मिले ना भीख। अबअपने किये का क्या इलाज? दुर्घटना घटनी थी सो घट गई। उसके साथ शादी हो गई हमारी। आज तक बन्द हैं हम उसकी मुठ्ठी में और भुगत रहे हैं उसको।अपने पाप को तो भोगना ही पड़ता है। ये तो बाद में समझ में आया किलंगूर के हाथ में हूरफँसती नहीं बल्कि हूर ही लंगूर को फाँस लेती हैं। कई बार पछतावा भी होता है परअब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। (साभार: जी.के.अवधिया) |
Re: मुहावरों की कहानी
Thanks for this great "all in one" thaali. Delicious indeed.
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Re: मुहावरों की कहानी
विनाश काले विपरीत बुद्धि
पाण्डवों के वन जाने के बाद नगर में अनेक अपशकुन हुए। उसके बाद नारदजी वहां आए और उन्होंने कौरवों से कहा कि आज से ठीक चौदह वर्ष बाद पाण्डवों के द्वारा कुरुवंश का नाश हो जाएगा. (कुछ ).... द्रोणाचार्य की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गुरुजी का कहना ठीक है। तुम पाण्डवों को लौटा लाओ। यदि वे लौटकर न आवें तो उनका शस्त्र, सेवक और रथ साथ में दे दो ताकि पाण्डव वन में सुखी रहे। यह कहकर वे एकान्त में चले गए। उन्हें चिन्ता सताने लगी उनकी सांसे चलने लगी। उसी समय संजय ने कहा आपने पाण्डवों का राजपाठ छिन लिया अब आप शोक क्यों मना रहे हैं? संजय ने धृतराष्ट्र से कहा पांडवों से वैर करके भी भला किसी को सुख मिल सकता है। अब यह निश्चित है कि कुल का नाश होगा ही, निरीह प्रजा भी न बचेगी। सभी ने आपके पुत्रों को बहुत रोका पर नहीं रोक पाए। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है। अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। वह बात दिल में बैठ जाती है कि मनुष्य अनर्थ को स्वार्थ और स्वार्थ को अनर्थ देखने लगता है तथा मर मिटता है। काल डंडा मारकर किसी का सिर नहीं तोड़ता। उसका बल इतना ही है कि वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहता हूं। द्रोपदी की दृष्टि से सारी पृथ्वी भस्म हो सकती है। हमारे पुत्रों में तो रख ही क्या है? उस समय धर्मचारिणी द्र्रोपदी को सभा में अपमानित होते देख सभी कुरुवंश की स्त्रियां गांधारी के पास आकर करुणकुंदन करने लगी। ब्राहण हमारे विरोधी हो गए। वे शाम को हवन नहीं करते हैं। मुझे तो पहले ही विदुर ने कहा था कि द्रोपदी के अपमान के कारण ही भरतवंश का नाश होगा। बहुत समझा बुझाकर विदुर ने हमारे कल्याण के लिए अंत में यह सम्मति दी कि आप सबके भले के लिए पाण्डवों से संधि कर लीजिए। संजय विदुर की बात धर्मसम्मत तो थी लेकिन मैंने पुत्र के मोह में पड़कर उसकी प्रसन्नता के लिए उनकी इस बात की उपेक्षा कर दी। |
Re: मुहावरों की कहानी
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श्री ध्रतराष्ट्र जी - के लिए अक्ल के अन्धो कों कोई कैसे समझा सकता हैं.......... दोनों ही बेहतरीन हैं............. |
Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरे में कुत्ता
(आलेख: वीरेन्द्र जैन) कुत्ता बहुत पुरानी जाति है। पाण्डव स्वर्ग जाते हुये अपने कुत्ते को स्वर्ग में भी साथ ले गये थे और उसके बिना युधिष्टर ने स्वर्ग में जाने से भी मना कर दिया था। तब से ही यह परम्परा चल पड़ी है कि जो भी बड़ा आदमी कहीं जा रहा है उसके पीछे पीछे उसके कुत्ते भी जाते हैं। परम्परा बड़ी खराब चीज़ होती है जो चलती चली जाती है। पिछले दिनों जब अमेरिका के प्रेसीडेंट भारत आये थे तब गान्धीजी की समाधि पर जाने से पहले उनके कुत्तों ने गान्धीजी की पूरी समाधि को सूंघा था। वे सोचते होंगे कि क्या पता ये गान्धी अब पुराने गान्धी न हों और अचानक ही समाधि से उठ कर धायँ धायँ कर दें। अमेरिका ने इतने पाप किये हैं कि उसके पदाधिकारियों को हरेक से डर लगता रहता है। किसी ज़माने में कुत्ते पुलिस के विशेषण की तरह याद किये जाते थे किंतु बहुत दिनों से पुलिस वालों ने उस विशेषण से पीछा छुड़ा लिया है क्योंकि अब राठौर जैसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ और भी बड़े बड़े विशेषण जुड़ने लगे हैं। किसी ज़माने में किसी कवि ने लिखा था कि -कुत्ता कहने से बुरा मानते पुलिस वाले: रक्खा निज ठौर का फिर नाम कुतवाली क्यों राजनीति को सर्वग्रासी कहा जाता है सो वो अब विशेषणों से लेकर गालियों तक सब कुछ हज़म करने लगी है। गालिब पहले ही कह गये हैं कि – गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ। किसी ज़माने में जब राम जेठमलानी भाजपा में थे तब उन्होंने बोफोर्स काण्ड पर राजीव गान्धी से प्रति दिन दस सवाल पूछने का सिलसिला शुरू किया था शायद वे राजीव जी की क्षमता पहचानते थे और नहीं चाहते होंगे कि एक दिन में ज्यादा सवाल पूछ कर सारे उत्तर एक साथ माँगे जायें। राजीवजी ने उनके किसी सवाल का तो उत्तर नहीं दिया था अपितु इतना भर कहा था कि कुत्ते भौंकते ही रहते हैं। प्रति उत्तर में अपने समय के नामी वकील जो अभी मनु शर्मा की वकालत करने में भी बिल्कुल नहीं शरमाये थे उत्तर में कहा था कि कुत्ता चोर को देखकर ही भौंकता है। |
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लोगों के शौकों का पता धीरे धीरे ही चलता है हाल ही में पता चला है कि भाजपा के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी को मुहावरे दार भाषा बोलने का बहुत शौक है और इसी शौक के वशीभूत उन्होंने कह दिया कि लालू और मुलायम कुत्ते की तरह सोनिया जी के तलुवे चांटते है। अब ये बात काँग्रेसियों को कैसे हज़म हो सकती है कि उनके हक़ को दूसरी पार्टी के लोग हड़प जाएं। उन्होंने विरोध किया तो भारतीय संस्कृति के गौरव माननीय गडकरी जी ने कहा कि उन्होंने तो मुहावरे में कुत्ता कहा था। कल्पना करें कि अगर उन्होंने उक्त स्पष्टीकरण नहीं दिया होता तो हो सकता था कि लोग सोचते कि सोनिया जी के तलुवे इतने साफ सुथरे इसलिए रहते हैं। यह् रहस्य अब समझ में आया।
आदरणीय गडकरीजी जब मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करते हैं तो उन्हें पता ही होगा कि हिन्दी में मुहावरों का भण्डार भरा हुआ है। इनमें से कुछ हैं- राम नाम जपना पराया माल अपना मुँह में राम बगल में छुरी राम मिलायी जोड़ी, इक अन्धा इक कोड़ी राम नाम ले हज़म कर गये, गौशाला के चन्दे इत्यादि मुहावरे कम पड़ जायें तो इस अकिंचन को सेवा का अवसर दें। आप जैसे मुहावरेदार महानुभाव की सेवा करके मुझे बड़ी खुशी होगी। ** |
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सांच को आंच नहीं
किसी नगर में एक जुलाहा रहता था| वह बहुत बढ़िया कम्बल तैयार करता था| कत्तिनों से अच्छी ऊन खरीदता और भक्ति के गीत गाते हुए आनंद से कम्बल बुनता| वह सच्चा था, इसलिए उसका धंधा भी सच्चा था, रत्तीभर भी कहीं खोट-कसर नहीं थी| एक दिन उसने एक साहूकार को दो कम्बल दिए| साहूकार ने दो दिन बाद उनका पैसा ले जाने को कहा| साहूकार दिखाने को तो धरम-करम करता था, माथे पर तिलक लगाता था, लेकिन मन उसका मैला था| वह अपना रोजगार छल-कपट से चलाता था| दो दिन बाद जब जुलाहा अपना पैसा लेने आया तो साहूकार ने कहा - "मेरे यहां आग लग गई और उसमें दोनों कम्बल जल गए अब मैं पैसे क्यों दूं?" जुलाहा बोला - "यह नहीं हो सकता मेरा धंधा सच्चाई पर चलता है और सच में कभी आग नहीं लग सकती| जुलाहे के कंधे पर एक कम्बल पड़ा था उसे सामने करते हुए उसने कहा - "यह लो, लगाओ इसमें आग|" साहूकार बोला - "मेरे यहां कम्बलों के पास मिट्टी का तेल रखा था| कम्बल उसमें भीग गए थे| इस लिए जल गए| जुलाहे ने कहा - "तो इसे भी मिट्टी के तेल में भिगो लो|" काफी लोग वहां इकट्ठे हो गए| सबके सामने कम्बल को मिट्टी के तेल में भिगोकर आग लगा दी गई| लोगों ने देखा कि तेल जल गया, लेकिन कम्बल जैसा था वैसा बना रहा| जुलाहे ने कहा - "याद रखो सांच को आंच नहीं|" साहूकार ने लज्जा से सिर झुका लिया और जुलाहे के पैसे चुका दिए| सच ही कहा गया है कि जिसके साथ सच होता है उसका साथ तो भगवान भी नहीं छोड़ता| ** |
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कड़वा सच
एक फकीर कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक सौदागर मिला, जो पांच गधों पर बड़ी-बड़ी गठरियां लादे हुए जा रहा था। गठरियां बहुत भारी थीं, जिसे गधे बड़ी मुश्किल से ढो पा रहे थे। फकीर ने सौदागर से प्रश्न किया, ‘इन गठरियों में तुमने ऐसी कौन-सी चीजें रखी हैं, जिन्हें ये बेचारे गधे ढो नहीं पा रहे हैं?’ सौदागर ने जवाब दिया, ‘इनमें इंसान के इस्तेमाल की चीजें भरी हैं। उन्हें बेचने मैं बाजार जा रहा हूं।’ फकीर ने पूछा, ‘अच्छा! कौन-कौन सी चीजें हैं, जरा मैं भी तो जानूं!’ सौदागर ने कहा, ‘यह जो पहला गधा आप देख रहे हैं इस पर अत्याचार की गठरी लदी है।’ फकीर ने पूछा, ‘भला अत्याचार कौन खरीदेगा?’ सौदागर ने कहा, ‘इसके खरीदार हैं राजा-महाराजा और सत्ताधारी लोग। काफी ऊंची दर पर बिक्री होती है इसकी।’ फकीर ने पूछा,‘इस दूसरी गठरी में क्या है?’ सौदागर बोला, ‘यह गठरी अहंकार से लबालब भरी है और इसके खरीदार हैं पंडित और विद्वान। तीसरे गधे पर ईर्ष्या की गठरी लदी है और इसके ग्राहक हैं वे धनवान लोग, जो एक दूसरे की प्रगति को बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसे खरीदने के लिए तो लोगों का तांता लगा रहता है।’ फकीर ने पूछा, ‘अच्छा! चौथी गठरी में क्या है भाई?’ सौदागर ने कहा, ‘इसमें बेईमानी भरी है और इसके ग्राहक हैं वे कारोबारी, जो बाजार में धोखे से की गई बिक्री से काफी फायदा उठाते हैं। इसलिए बाजार में इसके भी खरीदार तैयार खड़े हैं।’ फकीर ने पूछा, ‘अंतिम गधे पर क्या लदा है?’ सौदागर ने जवाब दिया,‘इस गधे पर छल-कपट से भरी गठरी रखी है और इसकी मांग उन औरतों में बहुत ज्यादा है जिनके पास घर में कोई काम-धंधा नहीं हैं और जो छल-कपट का सहारा लेकर दूसरों की लकीर छोटी कर अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश करती रहती हैं। वे ही इसकी खरीदार हैं।’ तभी महात्मा की नींद खुल गई। इस सपने में उनके कई प्रश्नों का उत्तर मिल गया था। (प्रस्तुति आभार: बेला गर्ग) ** |
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पंचतंत्र से:
एक और एक ग्यारह एक बार की बात हैं कि बनगिरी के घने जंगल में एक उन्मत्त हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था। बनगिरी में ही एक पेड़ पर एक चिड़िया व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिड़िया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिड़िया के घोंसले वाला पेड़ भी तोड डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा। चिड़िया और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिड़िया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। तभी वहां कठफोडवी आई। वह चिड़िया की अच्छी मित्र थी। कठफोडवी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिड़िया ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोडवी बोली 'इस प्रकार ग़म में डूबे रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।' चिड़िया ने निराशा दिखाई 'हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?' कठफोडवी ने समझाया 'एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियां जोडेंगे।' 'कैसे?' चिड़िया ने पूछा। 'मेरा एक मित्र वींआख नामक भंवरा हैं। हमें उससे सलाह लेनी चाहिए।' चिड़िया और कठफोडवी भंवरे से मिली। भंवरा गुनगुनाया 'यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र हैं आओ, उससे सहायता मांगे।' अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुंचे, जहां वह मेंढक रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राये स्वर में बोला 'आप लोग धैर्य से जरा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पाने में बैठकर सोचता हूं।' ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आंखे चमक रही थी। वह बोला 'दोस्तो! उस हत्यारे हाथी को नष्ट करने की मेरे दिमाग में एक बडी अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।' >>> |
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