Re: आक्षेप का पटाक्षेप
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Re: आक्षेप का पटाक्षेप
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Re: आक्षेप का पटाक्षेप
हिन्दू धर्म में बुद्ध को ईश्वर का अवतार बताया गया है किन्तु वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड सर्ग 109, श्लोक 34 में लिखा है—
'यथा हि चोर स्सतथा हि बुद्ध स्तथागतं नास्तिकमत्रविद्धि।।' अर्थात्— जिस प्रकार चोर दंडनीय होते हैं, ठीक उसी प्रकार बौद्धमतावलंबी भी दण्डनीय हैं। तथागतं (नास्तिक विशेष) को यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। यही नहीं, पद्म पुराण, भूमि खंड 2/38/25-27 में जैन धर्म के विरुद्ध भी लिखा है— 'जैनधर्मं समाश्रित्य सर्वे पापप्रमोहिताः वेदाचारं परित्यज्य पापं यास्यन्ति मानवाः पापस्य मूलमेवं वै जैनधर्मो न संशयः' अर्थात्— जैन धर्म सारे पापों से भरा हुआ है, जो लोग उस से मोहित हो कर वेद धर्म के आचार को त्याग कर उसे ग्रहण कर लेते हैं, वे सब पापी हो जाते हैं। इस में संशय नहीं है की जैन धर्म पापों की जड़ है। जैन धर्म के विरुद्ध भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, 3/3/28/53 में लिखा है— 'न वदेद् यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरापि , गजैरापीड्यमानोsपि न गच्छेद् जैनमन्दिरम्' अर्थात्— चाहे कितना ही दु:ख प्राप्त हो और प्राण कंठगत भी हों, अर्थात् मृत्यु का समय भी क्यों न निकट हो, तो भी यवनी भाषा मुख से नहीं बोलनी चाहिए और मतवाला हाथी मारने को क्यों न दौड़ा आता हो और जैनियों के मंदिर में जाने से प्राण बचते हों, तो भी जैन मंदिर में प्रवेश न करें। जैन मंदिर में प्रवेश कर अपने प्राण बचाने से हाथी के सामने जा कर मर जाना उत्तम है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में निहित उपरोक्त बातें क्या शर्मनाक नहीं हैं? किन्तु पवित्र क़ुरान में दूसरे धर्मों के प्रति अपशब्द का प्रयोग वर्जित है। पवित्र क़ुरान, सूरह अनाम 6: आयत 108 में लिखा है— 'अल्लाह के सिवा जिन्हें ये पुकारते हैं, तुम उनके प्रति अपशब्द का प्रयोग न करो। ऐसा न हो कि वे हद से आगे बढ़कर अज्ञानवश अल्लाह के प्रति अपशब्द का प्रयोग करने लगें।' यही नहीं, पवित्र क़ुरान में सूरा-रअद 13 :7 में दूसरे धर्मों के अवतार और नबियों के बारे में कहा गया है— ''और हरेक जाति के लिए एक मार्ग दिखाने वाला ( हादी ) हुआ है।'' इस प्रकार पवित्र क़ुरान में मात्र 27 नबियों का उल्लेख करते हुए सूरा-अन निसा 4 :164 में कहा गया है— ''कितने रसूल हैं, जिनका विवरण हम बयान कर चुके हैं और कितने ऐसे हैं जिनका वृत्तान्त हमने नहीं दिया है।'' पवित्र क़ुरान, सूरा रअद- 13: 11 में लिखा है— 'हकीकत यह है कि अल्लाह किसी कौम के हाल नहीं बदलता जब तक वह खुद अपने आपको नहीं बदल देती।' |
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१. ब्रह्म पुराण, 101-105 के अनुसार- ‘’सोम की प्राप्ति पहले गंधर्वों को हुई। देवताओं ने जाना तो सोम प्राप्त करने के उपाय सोचने लगे। सरस्वती ने कहा—“गंधर्व स्त्री-प्रेमी हैं, उनसे मेरे विनिमय में सोम ले लो। मैं फिर चतुराई से तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’ देवगिरि पर यज्ञ करके देवताओं ने वैसा ही किया। गंधर्वों के पास न तो सोम ही रहा, न ही सरस्वती।‘’
उपरोक्त अनुच्छेद से स्पष्ट है- देवता मद्यपान करते थे। |
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२. श्रीमद् भागवत, तृतीय स्कंध, 8-10, 12 के अनुसार- ‘सरस्वती ब्रह्मा के मुंह से उत्पन्न पुत्री थी, उसके प्रति काम-विमोहित हो, वे समागम के इच्छुक थे। प्रजापतियों की रोक-टोक से लज्जित होकर उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण किया। त्यक्त शरीर अंधकार अथवा कुहरे के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया। उन्होंने अपने चार मुंह से चार वेदों को प्रकट किया। ब्रह्मा को 'क' कहते हैं- उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को काम कहते हैं। उन दोनों विभागों से स्त्री-पुरुष एक-एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष मनु तथा स्त्री शतरूपा कहलायी। उन दोनों की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि प्रजापतियों की सृष्टि का सुचारू विस्तार नहीं हो रहा था।‘’
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३. देवी भागवत, 9।4-7 का सारांश है- ‘’नारायण ने सरस्वती से कहा—‘...सरस्वती, तुम भी पापनाशिनी सरिता के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होगी। तुम्हारा पूर्ण रूप ब्रह्मा की पत्नी के रूप में रहेगा। तुम उन्हीं के पास जाओ।’ सरस्वती ब्रह्मा की प्रिया होने के कारण ब्राह्मी नाम से विख्यात हुई।
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४ . मत्स्य पुराण, 3-4 के अनुसार- ‘’ब्रह्मा ने लोक-रचना करने क्र निमित्त सावित्री का ध्यान कर तपस्या आरंभ की। ब्रह्मा का शरीर दो भागों में विभक्त हो गया- १. आधा पुरुष-रूप (मनु) तथा, २. आधा स्त्री-रूप (शतरूपा सरस्वती)। कालांतर में ब्रह्मा अपनी देहजा सरस्वती पर आसक्त हो गये। देवताओं के मना करने पर भी उनकी आसक्ति समाप्त नहीं हुई। सरस्वती ‘पिता’ को प्रमाण करके उनकी प्रदक्षिणा कर रही थी। ब्रह्मा के मुख के दाहिनी ओर दूसरा लज्जा से पीतवर्ण वाला मुख प्रादुर्भूत हुआ, फिर पीछे की ओर तीसरा और बायीं ओर चौथा मुख आविर्भूत हुआ। सरस्वती स्वर्ग की ओर जाने के लिए उद्यत हुई तो ब्रह्मा के सिर पर पांचवां मुख भी उत्पन्न हुआ जो कि जटाओं से ढका रहता है। ब्रह्मा ने मनु को सृष्टि-रचना के लिए पृथ्वी पर भेजकर शतरूपा (सरस्वती) से पाणि-ग्रहण किया, फिर समुद्र में विहार करते रहे।
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५. श्रीमद्भागवत, स्कन्द ८, अध्याय १२ में के अनुसार - ''शंकर ने दौड़ कर क्रीड़ा करती हुई मोहिनी को जबरदस्ती पकड़ लिया और अपने ह्रदय से लगा लिया।'' आत्मानम---------देव्विनिम्म्र्ता ||३०|| तस्यासौ--------निनिर्जित: ||३१|| तस्यानुधावती--------धावत: ||३२|| अर्थात्- हे महाराजा! तदन्तर देवों में श्रेठ शंकर के दोनों बाहुओं के बीच से अपने को छुड़ाकर वह नारायणनिर्मिता विपुक्ष नितम्बिनी माया (मोहिनी) भाग चली। ||३१|| पीछा करते-करे ऋतुमती हथिनी के अनुगामी हाथी की तरह अमोधवीर्य महादेव का वीर्य स्खलित होने लगा। ||31||
क्या उपरोक्त अनुच्छेद शंकर के कामुक स्वरूप को चित्रित नहीं करता? |
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६. गोस्वामी तुलसीदास ने इन्द्र के बारे में लिखा है- 'काक सामान पाप रिपु रितिऔ। छली मलीन कतहूँ न प्रतितो।।' अर्थात्- ''इन्द्र का तौर तरीका काले कौए का सा है, वह छली है। उसका ह्रदय मलीन है तथा किसी पर वह विश्वास नहीं करता। वह अश्वमेघ के घोड़ों को चुराया करता था। इन्द्र ने गौतम की धर्म पत्नी अहिल्या का सतीत्व अपहरण किया था।'' सम्पूर्ण कथा इस प्रकार है- इन्द्र ने आश्रम से मुनि की अनुपस्थिति जानकर और मुनि का वेश धारण कर अहिल्या से कहा-||१७|| ‘हे अति सुंदरी! कामिजन भोग-विलास के लिए रीतिकाल की प्रतीक्षा नहीं करते, अर्थात इस बात का इंतजार नहीं करते की जब स्त्री मासिक धर्म से निवृत हो जाए तभी उनके सात समागम करना चाहिए। अत: हे सुन्दर कमर वाली! मैं तुम्हारे साथ प्रसंग करना चाहता हूँ।‘||१८|| विश्वामित्र कहते है कि ‘हे रामचन्द्र! वह (अहिल्या) मूर्ख मुनिवेशधारी इन्द्र को पहचान कर भी इस विचार से कि देखूं- देवराज के साथ रति करने से कैसा दिव्य आनंद प्राप्त होता है, इस पाप कर्म के करने में सहमत हो गई।‘||१९|| तदनन्तर वह कृतार्थ ह्रदय से देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र से बोली कि हे सुरोत्तम! मैं कृतार्थ ह्रदय अर्थात देवी-रति का आनंदोपभोग करने से मुझे अपनी तपस्या का फल मिल गया। अब, हे प्रेमी! आप यहाँ से शीघ्र चले जाइए।||२०|| हे देवराज, आप गौतम से अपनी और मेरी रक्षा सब प्रकार से करें। इन्द्र ने हंसकर अहिल्या से वाच कहा ||21|| हे सुन्दर नितम्बों वाली! मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। अब जहाँ से आया हूँ, वहाँ चला जाऊँगा। इस प्रकार अहिल्या के साथ संगम कर वह कुटिया से निकल गया। ||२२||
क्या उपरोक्त अनुच्छेद इन्द्र की प्रसंशा में लिखा गया है? |
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