डार्क सेंट की पाठशाला
मित्रो, यह सूत्र दरअसल एक विचार-वीथी है अर्थात मनोरंजक रूप में ज्ञान का खज़ाना ! यदि आपको कुछ सीखने की तमन्ना हो, तो ही इस पर आगे बढ़ें, अन्यथा मेरी यह 'निजी डायरी' आपके किसी काम की नहीं !
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शब्द कभी नहीं मिटते
आचार विचार और सोच यह हमारी आदतों में शुमार है। हम जो कुछ भी सोचते, करते और कहते हैं, उसका प्रतिबिंब हमारे मुख पर अंकित हो जाता है। यदि शब्दों की ही बात करें, तो हमारे मुख से जो शब्द निकलते हैं उसमें असीम सामर्थ्य होता है। ऐेसा सामर्थ्य जिसका मानव जीवन पर पूर्णतया प्रभाव पड़ता है। इसलिए कहा गया है कि धरती-आकाश भले ही मिट जाएं,किंतु उच्चारित शब्द कभी नहीं मिटते। सन 1916 के यूरोपियन युद्ध में इस शब्द शक्ति ने बड़ा कमाल कर दिखाया। फ्रांस के उच्चतम सैनिक अधिकारी जनरल पेंता ने अपने सैनिकों के दिलों में यह विश्वास भर दिया कि जर्मन सैनिक हमारी धरती पर पांव नहीं रख सकते । उनके शब्दों में ऐसी शक्ति, ऐसा सामर्थ्य था कि सैनिकों में अदम्य साहस जाग गया। उनमें उत्साह का ऐसा संचार हुआ कि वे जी जान से लड़ते हुए विजयी हुए। युद्ध में कार्यरत डॉक्टरों का कहना था कि घायल सैनिकों की तो बात ही क्या, जो सैनिक शहीद हो गए थे, उनके चेहरे पर भी विजय की झलक साफ दिखाई दे रही थी। वस्तुत हमारे मुंह से निकला शब्द सन्देशवाहक का काम करता है। यदि उससे प्रेम के शब्द निकलेंगे, तो प्रेम का संदेश देंगे और वैर-विरोध के शब्द निकलेंगे, तो वैर-विरोध का संदेश देंगे। मन में विचारे शब्दों की अपेक्षा मुंह से उच्चारित शब्दों का सामर्थ्य कई गुना अधिक होता है। किसी अच्छे वक्ता के मुंह से अच्छा भाषण सुनकर मनुष्य के चित्त पर जो प्रभाव पड़ता है, वह उसी प्रकार की किसी पुस्तक को पढ़कर नहीं पड़ता। पढ़े और सुने हुए शब्दों में काफी बड़ा अंतर होता है। लिखित शब्द भूले जा सकते हैं, मगर सुने हुए शब्दों को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता । उन शब्दों के पीछे जो विचार शक्ति है, वह शक्ति संपन्न होनी चाहिए। आप सदा मन में यह विचार करें कि मैं यह कार्य कर सकता हूं। मैं इसे करके दिखाऊंगा। मैं इसे अवश्य करूंगा। इन शब्दों को केवल मन में ही न रखें, इसका बार-बार मुंह से उच्चारण भी करें। फिर देखें कि आप वह सब कर सकते हैं या नहीं। यही आपके लिए जीत की सबसे बड़ी सीढ़ी साबित हो जाएगी। |
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समस्याओं का निपटारा करें
जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या के सामने आ जाने से अथवा किसी कारणवश कोई मनोवेग या भावना उत्पन्न होने पर तत्काल कुछ कह देना या कर देना दुर्बल मन मस्तिष्क का परिचायक होता है। इसी प्रकार कोई इच्छा आपके मन में जागृत हो रही है, तो उस इच्छा के उत्पन्न होने पर तत्काल उसको बिना जांचे पूरा करने में लग जाना भी एक तरह से अविकसित व्यक्तित्व का ही लक्षण होता है। पहले तो यह ठान लीजिए कि आपको अपने मन का स्वामी बनना है। इसलिए सबसे पहले अपनी समस्या, इच्छा या मनोवेग को अपने विवेक के तराजू पर पूरी संजीदगी के साथ तौलिए। उसके अच्छे और बुरे परिणामों पर भी भरपूर सोचिए। इसके बाद जो नतीजे सामने आते हैं, उन नतीजों के आधार पर कुछ कहिए या कीजिए। यदि आपको लगता है कि उस समय कुछ कहना या करना कतई उचित नहीं है, तो शांत रहिए और मौन धारण कर लीजिए और अपने काम में जुट जाइए। इससे निश्चित तौर पर आपकी इच्छा शक्ति और व्यक्तित्व का विकास होगा। कई बार यह देखा गया है कि लोग अपनी समस्याओं को या कठिनाइयों को एक बार में ही निपटा देना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि वे समस्याओं या कठिनाइयों का समूह देख कर बेहद घबरा जाते हैं और उनके उत्साह पर पानी फिर जाता है। वे बेतरतीब तरीके से उन समस्याओं के समाधान में जुटने का प्रयास करने लगते हैं, जो कतई उचित नहीं है। समस्याओं या कठिनाइयों को निपटाने का सही ढंग यह है कि सबसे पहले उन सभी को कागज पर लिख डालिए। इसके बाद उस समस्या को उसके महत्व के क्रम से लगा लीजिए। यह देखिए कि वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण कौन सी समस्या है, जिसका आपको सबसे पहले निपटारा करना है। फिर उस समस्या को कई छोटे-छोटे भागों में बांटिए और उसके प्रारंभिक हल में जुट जाइए। इस प्रकार एक समय में एक ही समस्या को हल करने में अपना ध्यान लगाइए। इस विधि को अपनाने से आपका मनोबल और उत्साह बढ़ेगा। आप अपना काम और कुशलता से करने के कारण सरलता से सफलता प्राप्त कर सकेंगे। |
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अहंकार का भूत
अहंकार या घमंड एक ऐसी बीमारी है, जो जिसके भी शरीर में प्रवेश कर जाती है, वह फिर कहीं का नहीं रहता। यह भी तय है कि ऐसे मनुष्य को अपने अहंकार के कारण एक न एक दिन पछताना भी पड़ता है। इसलिए मनुष्य कितना भी महान क्यों न हो जाए या कितना भी बड़ा पद क्यों न पा ले, उसे कभी भी अहंकार रूपी बीमारी को अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए अन्यथा उस मनुष्य का बड़ा होना या बड़ा पद पा लेना कोई मायने नहीं रखता। एक बहुत रोचक कथा से इसे सरल रूप में समझें - एक राजा के दो बेटे थे। बड़ा भाई अहंकारी था, जबकि छोटा भाई मेहनती और परोपकारी। राजा की मौत के बाद बड़ा भाई गद्दी पर बैठा। उसके अत्याचारों से समूची प्रजा परेशान हो गई। उधर छोटा भाई चुपके-चुपके परेशान प्रजा की मदद करता रहता था। कुछ दिनों बाद चारों तरफ छोटे भाई की प्रशंसा होने लगी। जब बड़े भाई को इसका पता लगा, तो उसने छोटे भाई को बुलाकर कहा - "मैं इस राज्य का राजा हूं। मेरी अनुमति के बगैर तुम प्रजा के हित में कोई काम नहीं करोगे।" छोटा भाई बोला - "भैया, प्रजा की सेवा करना तो मेरा धर्म है।" बड़े भाई ने राज्य का एक छोटा सा हिस्सा देकर उसे अलग कर दिया। छोटे भाई ने अपने हिस्से की जमीन में आम का बगीचा लगाया। उसकी देखभाल वह स्वयं करता था। जल्दी ही उसमें फल आने लगे। उस रास्ते से जो भी यात्री जाता, उसके फल पाकर प्रसन्न होता और छोटे भाई को दुआएं देता। बड़े भाई ने सोचा कि वह भी यदि ऐसा ही कोई बगीचा लगाए, तो फल खाकर लोग उसकी भी प्रशंसा करेंगे और छोटे भाई को भूल जाएंगे। यह सोचकर उसने भी राज्य के मुख्य मार्ग के किनारे एक बगीचा लगवाया और उसकी देखभाल के लिए दर्जनों मजदूरों की नियुक्ति की। पेड़ बड़े हो गए, मगर उनमें फल नहीं आए। बड़े भाई ने माली से पूछा - "इनमें फल क्यों नहीं आए?" माली को कोई जवाब नहीं सूझा। तभी एक संत उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने कहा - "इनमें फल नहीं आएंगे, क्योंकि इन पर अहंकार के भूत की छाया पड़ी हुई है।" यह सुनकर बड़ा भाई शर्मिंदा हो गया। |
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सभी मौसम अच्छे बशर्ते ...
एक गांव में एक सेठ रहते थे। वे काफी विचारवान थे और हर फैसला काफी सोच समझ कर किया करते थे। जब सेठ का बेटा जवान हुआ, तो सेठ ने निश्चय किया कि वह अपने पुत्र के लिए ऐसी समझदार वधू लाएंगे, जिसके पास हर समस्या का समाधान हो। वे अपने विवेक के साथ समझदार लड़की ढूंढने में जुट गए। सेठ जब भी किसी लड़की को देखने जाते, तो उससे प्रश्न करते कि सर्दी, गर्मी और बरसात में सबसे अच्छा मौसम कौन सा होता है? एक लड़की ने सेठ को उत्तर दिया - "गर्मी का मौसम सबसे अच्छा होता है। उसमें हम लोग पहाड़ पर घूमने जाया करते हैं। सुबह-सुबह टहलने में भी काफी सुख मिलता है।" दूसरी लड़की से मिले, तो उससे भी वही सवाल किया। उस लड़की ने कहा - "मुझे तो सर्दी का मौसम पसंद है। इस मौसम में तरह - तरह के पकवान बनते हैं। हम जो भी खाते हैं, सब आसानी से पच जाता है। इस मौसम में गर्म कपड़ों का अपना ही सुख है।" सेठ तीसरी लड़की से मिले और फिर वही सवाल दागा, तो उस लड़की ने कहा - "मुझे तो वर्षा ऋतु सबसे ज्यादा पसंद है। इस मौसम में पृथ्वी पर चारों ओर हरियाली होती है। खेतों-खलिहानों से मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू आती है। कभी-कभी तो उसमें इतनी महक होती है कि उसे खाने की इच्छा होती है। आसमान में इंद्रधनुष देखकर मन बेहद आनंदित हो जाता है। इसके अलावा बारिश में भीगने का अपना ही मजा है।" सेठ को तीनों लड़कियों की बातें अच्छी तो लगीं, पर वह उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। अपनी इच्छा के अनुसार जवाब न मिलने के कारण वह थोड़ा निराश भी हो गए और उन्होंने सोचा कि शायद वे अपने बेटे के लिए अपने विचारों वाली बहू नहीं ढूंढ पाएंगे। तभी अचानक एक दिन वे अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात एक लड़की से हुई। उससे भी उन्होंने वही सवाल दोहराया। लड़की ने जवाब दिया - "अगर हमारा मन और शरीर स्वस्थ है, तो सभी मौसम अच्छे हैं। अगर हमारा तन-मन स्वस्थ नहीं है, तो हर मौसम बेकार है।" सेठ इस उत्तर से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने उस लड़की को बहू बना लिया। |
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फूलों के बीज का थैला
मनुष्य को हमेशा यही सोचना चाहिए कि वह अपने लिए तो सब कुछ करता ही है, लेकिन समाज और देश के लिए भी उसका जो कर्तव्य है उसे भी वह भलीभांति कैसे निभाए। अक्सर हम यही सोचते हैं कि हमारे अकेले के करने से क्या दुनिया बदल जाएगी। लेकिन ऐेसा नहीं है। हम अपने स्तर पर जो भी प्रयास कर सकते हैं जरूर करें। हो सकता है उसका लाभ सीधे तौर पर हमें कभी भी न मिले, लेकिन आने वाली पीढ़ी उसका लाभ जरूर उठा सकती है। तय मानिए जिस दिन से आप ऐसा सोचने लगेंगे, आपको एक सुखद शांति मिलेगी कि आपके कामों का लाभ किसी और को मिल रहा है। प्रसिद्ध रूसी विचारक मैडम लावत्स्की अपनी हर यात्रा में एक थैला रखती थीं, जिसमें कई तरह के फूलों के बीज होते थे। वह जगह-जगह उन बीजों को जमीन पर बिखेरती रहती थीं। लोगों को उनकी यह आदत बड़ी बेतुकी लगती थी। लोग समझ नहीं पाते थे कि इस तरह बीज बिखेरते रहने से क्या होगा। उन्हें आश्चर्य होता था कि मैडम लावत्स्की जैसी समझदार महिला सब कुछ जानते हुए भी ऐसा क्यों कर रही हैं। पर लोगों को उनसे इस बारे में पूछने का साहस ही नहीं होता था, लेकिन एक दिन एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया। मैडम, अगर बुरा न मानें, तो कृपया बताएं कि आप इस तरह क्यों फूलों के बीज बिखराती रहती हैं? मैडम ने सहज होकर कहा- वह इसलिए कि बीज सही जगह अंकुरित हो जाएं और जगह-जगह फूल खिलें। उस व्यक्ति ने इस पर फिर सवाल किया-आपकी बात तो सही है पर क्या आप यह दोबारा देखने जाएंगी कि बीज अंकुरित हुए या नहीं। फूल खिले कि नहीं। इस पर मैडम ने कहा-इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं उन रास्तों पर दोबारा जाऊं या नहीं। मैं अपने लिए फूल नहीं खिलाना चाह रही। मैं तो बस, बीज डाल रही हूं, ताकि चारों तरफ फूल खिलें और धरती का शृंगार हो जाए। धरती सुंदर हो जाए। फिर जो इन फूलों को देखेगा, उनकी आंखों से भी मैं ही देखूंगी। फूल हों या अच्छे विचार, उन्हें फैलाने के काम में हर किसी को योगदान करना चाहिए। अगर प्रयासों में ईमानदारी है, तो सफलता मिलेगी ही। |
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खुद करें अपनी मार्केटिंग
लोग आपको तब तक आदर नहीं देंगे, जब तक आप स्वयं को आदर नहीं देंगे। लोग आपकी कीमत तब तक नहीं समझेंगे, जब तक आप अपनी कीमत नहीं समझेंगे। लोग आपकी प्रतिभा को तब तक नहीं पहचानेंगे, जब तक आप अपनी प्रतिभा नहीं पहचानेंगे। मीडिया के वर्तमान युग में मार्केटिंग सफलता में अहम भूमिका निभाने लगी है। आप स्वयं को और अपनी प्रतिभा को किस तरह से पेश करते हैं, यह आज के दौर में बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। कुछ लोग कहते हैं कि यदि आपके अंदर योग्यता और प्रतिभा है, तो वह एक दिन अवश्य ही पहचानी जाएगी। यह एक श्रेष्ठ विचार है, परन्तु वर्तमान युग में हर किसी की प्रतिभा अपने आप पहचान ली जाए, यह संभव भी नहीं है। लाखों लोग प्रतिभावान हैं, परन्तु चंद लोग ही शिखर पर जगह बना पाते हैं। आपकी प्रतिभा और आपके गुण आपके भीतर ही दबे रह जाते हैं, यदि आप उन्हें पेश नहीं करते हैं, उन्हें प्रदर्शित नहीं करते हैं। हमें कई ऐसे लोग मिलते हैं, जो चमत्कारिक तेजी से शीर्ष पर पहुंच जाते हैं और अपने समकक्ष लोगों को काफी पीछे छोड़ देते हैं। ऐसे लोग अपने विशिष्ट गुणों के साथ जीत का कॉमनसेंस भी इस्तेमाल करते हैं अर्थात सफलता के लिए जीनियस होने से कहीं ज्यादा है, कॉमनसेंस का होना। यदि आप एक सफल गायक बनना चाहते हैं, तो आपको अपने शानदार बायोडाटा, प्रशंसा पत्र, विशिष्ट फोटोग्राफ और अपने गीतों का आडियो सीडी या कैसेट विभिन्न कंपनियों और निर्देशकों को भेजना होगा। आपको अपनी मार्केटिंग खुद करनी होगी। अपने गुणों को सर्वश्रेष्ठ रूप से प्रस्तुत करना होगा। यदि आप सोच रहे हैं कि बिना मार्केटिंग किए घर बैठे ही एक न एक दिन आपकी प्रतिभा को कोई पहचान लेगा, तो आप गलत सोच रहे हैं। जमाना मार्केटिंग का है और इसमें आपको पारंगत होना ही होगा, तभी आप अपनी प्रतिभा के दम पर वह मुकाम हासिल कर पाएंगे, जिसके सपने आपने देखे या देख रहे हैं। आज से ही यह उपक्रम शुरू कर दें कि आपको अपने दम पर ही कामयाब होना है और आपको अपनी मार्केटिंग खुद ही करनी है। तय मानें, आप जरूर जीत जाएंगे। |
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तनाव को छुपाएं नहीं
अक्सर लोग तनाव के कारणों को अपने भीतर ही छुपा लेते हैं। वे यह नहीं चाहते कि दूसरे भी उनकी वजह से बिना कारण ही तनावग्रस्त हो जाएं। वे अक्सर यह भी नहीं चाहते कि दूसरे उनको कमजोर समझें या दूसरों को उनकी अंदरूनी बातों का पता चल जाए। ऐसे लोगों को धीरे-धीरे अपने ही तनाव से घुटन सी होने लगती है, क्योंकि उन्हें तनाव को बाहर निकालने का रास्ता नहीं मिलता। ऐसे में तनाव अंदर ही अंदर बढ़ता चला जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि वे या तो आत्मघाती कदम उठा लेते हैं या कोई भी गलत निर्णय कर बैठते हैं। ज्यादा बेहतर यही होगा कि आप अपनी पत्नी से, परिवार के सदस्यों से या करीबी मित्रों से समस्या बांट लें। तय मानिए, जैसे ही आप बात करना शुरू करते हैं, तनाव घटने लगता है। फिर जैसे-जैसे तनाव कम होता है, आपके दिमाग में समाधान आने लगते हैं। दरअसल तनाव सोचने की सकारात्मक प्रक्रिया पर ही विराम लगा देता है। जब आप दूसरों से अपनी समस्या के लेकर चर्चा करते हैं, तो उनकी सलाह से कभी-कभी आपको एकदम नए हल मिल जाते हैं। समाधान ढूंढने की मानसिकता आपके अंदर ही पैदा हो जाती है। ऐसे कई तथ्य हैं, जो अनजाने में आपने नजरअंदाज कर दिए थे, इससे वे आपके सामने आ जाते हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। किसी मरीज को शरीर के किसी हिस्से में इंफेक्शन हो जाने से वहां मवाद बन जाता है। असहनीय दर्द होना शुरू हो जाता है। सूजन आ जाती है। धीरे-धीरे वह सूजन बढ़ती चली जाती है। साथ ही दर्द भी बढ़ने लगता है। ऐसे में दवा भी किसी प्रकार का असर नहीं करती। डॉक्टर उस सूजन में छोटा चीरा लगाते हैं। जैसे ही दबाव को निकलने की जगह मिलती है, तेजी से मवाद और इंफेक्शन उस जगह से बाहर आने लगता है। मरीज को चमत्कारिक आराम मिलने लगता है। इसके साथ ही दवाएं भी असर करने लगती हैं। कहने का सार यही है कि दबाव एवं तनाव को बाहर निकलने का रास्ता दे दीजिए। अपनी समस्या को बांटिए। अपने अंदर कभी भी दबा कर मत रखिए। तय मानिए, आप खुद को काफी हल्का महसूस करेंगे। |
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न्याय का सम्मान
जो सच है, उसके विपरीत कभी न झुकना ही सच्ची इंसानियत कहलाती है। मनुष्य का पेशा कोई भी हो, जहां तक संभव हो, उसके साथ न्याय जरूर करना चाहिए, क्योंकि पेशे के साथ न्याय करके ही मनुष्य न केवल समाज में ऊंचा उठ सकता है, बल्कि उस पेशे से जुड़े अन्य लोगों के लिए भी वह एक नायाब उदाहरण बन सकता है। जो कर्तव्य है, उसका बगैर किसी के दबाव में आए सही ढंग से पालन करने पर मनुष्य को समाज में ख्याति ही मिलती है, यह तय है। माधव राव मराठा राज्य के पेशवा थे और राम शास्त्री प्रधान न्यायाधीश। न्यायाधीश की नियुक्ति पेशवा करते थे, लेकिन राम शास्त्री के कामकाज में वह कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे। एक बार मराठा राज्य के वफादार और पेशवा के करीबी सरदार बिसाजी पंत लेले ने अंग्रेजों का जहाज लूट लिया। फिरंगियों ने इसकी शिकायत राम शास्त्री से की। उन्होंने लेले को न्यायालय के सामने हाजिर होने का आदेश दिया, लेकिन लेले हाजिर नहीं हुए। तब शास्त्री ने आदेश दिया कि उन्हें गिरफ्तार कर हाजिर किया जाए। इससे पूरे राज्य में हड़कंप मच गया। कई सरदारों ने राम शास्त्री की शिकायत माधव राव से की। माधव राव ने राम शास्त्री को बुलवाया और पूछा - आपने लेले को इतना कठोर दंड क्यों दिया? शास्त्री ने कहा - श्रीमंत, अदालत के सामने सब बराबर होते हैं। लेले ने जो अपराध किया है, उसी का दंड उन्हें दिया गया है। माधव राव ने पूछा - क्या यह मराठा राज्य के हित में होगा कि फिरंगियों की शिकायत पर हम अपने ही सरदार को दंडित करें? शास्त्री ने कहा - आपको लेले को क्षमा करने का अधिकार है, लेकिन उस समय न्याय की कुर्सी पर राम शास्त्री नहीं, कोई दूसरा बैठा होगा। माधव राव ने कहा - शास्त्री आप ऐसा न कहें। आप के रहते ही तो मराठा राज्य पूरी तरह सुरक्षित है। शास्त्री बोले - ठीक है कि लेले को फिरंगियों की शिकायत पर दंडित किया गया है, लेकिन राज्य में यदि न्याय के प्रति विश्वास नहीं रहेगा और न्यायालय की अवमानना होगी, तो शासन व्यवस्था को चरमराते देर नहीं लगेगी। माधव राव इस जवाब को सुन निरुत्तर हो गए। |
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खुशनुमा और सकारात्मक बनें
अगर आप रोज सुबह सकारात्मक मूड में ऑफिस जाते हैं, तो आपकी छवि ऐसे व्यक्ति की बन जाएगी, जिस पर तनाव, मुश्किलों और समस्याओं का असर उस तरह नहीं होता, जिस तरह एक बतख की पीठ पर पानी का। इससे आपकी छवि ऐसे व्यक्ति के रूप में बन जाएगी, जो हमेशा नियंत्रण में रहता है और शांत, आरामदेह, आत्मविश्वास से परिपूर्ण और बहुत परिपक्व है। यह सब किसी एक गाने की धुन से भी हो सकता है, जिसकी सीटी बजाते हुए आप अपनी डेस्क तक पहुंचते हैं। हर समय खुशनुमा रहें। बाहर बारिश हो रही है, काले बादल छाए हुए हैं और जाड़े की दोपहर बहुत उदासी भरी है। बिजनेस मंदा है, ब्याज दरें एक बार फिर ऊपर चढ़ गई हैं, बॉस खराब मूड में है अथवा हर कर्मचारी मुंह लटकाए बैठा है। इसके बावजूद आप अपनी मुस्कान को मिटने न दें। ठीक है, यह बुरा दिन है; लेकिन यह गुजर जाएगा और सूरज आसमान में दोबारा लौट आएगा। आपकी स्थिति चाहे जो हो, चीजें हमेशा बेहतर होंगी। खुशनुमा और सकारात्मक नजरिया कायम रखना एक कला है। पहले तो आपको इस पर यकीन करने की जरूरत नहीं है - बस, इसे कर दें। नाटक करें। अभिनय करें, लेकिन करें। कुछ समय बाद आप पाएंगे कि आप नाटक नहीं कर रहे, आप तो वाकई खुशनुमा महसूस कर रहे हैं। यह एक चाल है। आप किसी दूसरे से नहीं खुद से चाल चल रहे हैं। मुस्कुराने से आपके हार्मोन प्रवाहित होते हैं। ये हार्मोन आपको बेहतर महसूस करवाएंगे। जब आप बेहतर महसूस करेंगे, तो आप ज्यादा मुस्कुराएंगे। इससे और हार्मोन पैदा होंगे। इसके लिए सिर्फ पहले कुछ दिन मुस्कुराने का नाटक करना पड़ेगा। इसके बाद तो ऐसा चक्र शुरू हो जाएगा कि आपको हर वक्त बेहतर महसूस होने लगेगा। जब आपको खुशनुमा और सकारात्मक व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगेगा, तो लोग आपके साथ ज्यादा वक्त गुजारना चाहेंगे। खुशनुमा व्यक्ति जैसा शक्तिशाली चुंबक दूसरा नहीं होता। खुशनुमा बनने और सकारात्मक बनने में गुजारा गया हर पल आपकी जिंदगी में एक पल जोड़ देता है। बेहतर ही चुनें। अब चुनाव सिर्फ आपके हाथ में है। |
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मेहनत की कमाई
कहते हैं, मेहनत ही इंसान को आगे ले जाती है। बगैर मेहनत अगर कोई यह सोचे कि उसे अपार संपदा मिल जाएगी, तो यह ख्याल ही अपने आप में गलत है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य मेहनत तो करता है, लेकिन उसे उसका वांछित प्रतिफल नहीं मिलता। ऐसे में वह अपने उद्देश्य से भटक भी सकता है। वह अपनी मेहनत को ऐसे काम में लगा देता है, जो न तो उचित होता है और न ही उसके लिए हितकारी। ऐसे में बेहतर यही होता है कि हम उचित मार्गदर्शन के साथ अपना काम करें। एक छोटी सी कथा है, ज़रा नज़र करें - किसी शहर में दो चोर रहते थे। वे बेहद चालाक थे। लोग उन्हें पकड़ने की कोशिश करते, पर वे कभी हाथ नहीं आते। उनकी एक विचित्र आदत थी। वे चोरी का माल दो हिस्सों में बांटते थे। एक हिस्सा वे स्वयं रखते और दूसरा भगवान को चढ़ा देते थे। एक रात वे चोरी के लिए निकले। इधर-उधर भटकने पर भी उन्हें चोरी का अवसर नहीं मिला। वे बैठकर बातें कर रहे थे कि तभी एक महात्मा उधर से निकले। महात्मा ने शांत भाव से पूछा - तुम दोनों कौन हो और यहां क्या कर रहे हो? एक चोर ने कहा - महाराज हम लोग चोर हैं। आज हम चोरी न कर पाए, इसलिए सुबह होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस पर महात्मा ने कहा - तुम लोग जो करते हो, वह उचित है या अनुचित, क्या इस पर कभी सोचा भी है? चोर बोले - हम जो करते हैं, वह उचित ही होगा, क्योंकि चोरी करके हम जो भी वस्तु हासिल करते हैं, उसका एक हिस्सा भगवान को चढ़ा देते हैं। भगवान अवश्य ही हमसे प्रसन्न होंगे। यदि वह हमसे नाराज होते, तो हमें अपने कार्य में सफलता क्यों मिलती। यह सुनकर महात्मा ने अपने झोले से एक जीवित मुर्गा निकाला और उन्हें देते हुए कहा - आज तुम चोरी न कर सके। इस कारण तुम निराश लग रहे हो। यह रख लो। इसके दो भाग कर देना। एक भाग स्वयं रख लेना और दूसरा भगवान को चढ़ा देना। चोरों को इसका कोई जवाब न सूझा। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा - हम समझ गए आप क्या कहना चाहते हैं। अब हम मेहनत की कमाई खाएंगे और उसका एक हिस्सा प्रभु के चरणों में अर्पित करेंगे। |
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खुद को पूरी तरह पहचानें
अगर आप नियमों के खिलाड़ी बनने वाले हैं, तो आपको अपने बारे में बिल्कुल निष्पक्ष रहना होगा। बहुत से लोग ऐसा नहीं कर पाते। वे पूरी तरह से खुद पर स्पॉटलाइट नहीं घुमा सकते हैं, जितनी बारीकी से लोग उन्हें देखते हैं। मामला सिर्फ इतना ही नहीं है कि दूसरे हमें कैसे देखते हैं। मामला यह भी है कि हम खुद को कैसे देखते हैं। हम सभी के दिमाग में अपनी एक छवि होती है। हम कैसे दिखते हैं, हम कैसे बोलते हैं, हमें कौन सी चीज चलाती है, हम कैसे काम करते हैं। किन्तु यह छवि कितनी वास्तविक है? हम सोंचते हैं कि हम रचनात्मक और अजीब तरीके से काम करते हैं, जबकि दूसरे सोचते हैं कि हम अव्यवस्थित हैं। इनमें से कौन सी बात सच है? वास्तविकता क्या है? अपनी शक्तियों और कमजोरियों को समझने के लिए आपको पहले तो अपनी भूमिका समझनी होगी। अगर आपको शक है, तो सूची बना लें। जिन्हें आप अपनी शक्तियां और कमजोरियां मानते हैं, उन्हें कागज़ पर लिख लें। यह सूची किसी करीबी मित्र को दिखाएं, जिसके साथ आप काम नहीं करते हों या जिनके साथ आपके व्यावसायिक सम्बन्ध नहीं हों। उससे निष्पक्ष मूल्यांकन करने को कहें। फिर इसे किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति को दिखाएं, जिसके साथ आप काम करते हैं। आप सच्चाई के कितने करीब हैं? क्या इस बारे में दोनों के मूल्यांकन में फर्क है? तय मानिए, उनमें काफी फर्क होगा। ऐसा इसलिए कि दोस्ती की आपकी विशेष योग्यताएं कामकाजी रिश्तों की आपकी योग्यताओं से अलग होती है। कई लोग सोचते हैं कि उनकी शक्तियों और कमजोरियों को पहचानने का मतलब है कि उन्हें बुरी चीजों से छुटकारा पाना चाहिए और सिर्फ अच्छी चीजों के साथ ही काम करना चाहिए। यह सच नहीं है। यह इलाज भी नहीं है। यह तो असल दुनिया है। हम सभी में कमजोरियां होती हैं। गोपनीय रहस्य तो उनके साथ काम करना सीखना है। आदर्श बनने की कोशिश क्यों करें? यह तो अयथार्थवादी और गैरजरूरी है। आप अपनी कमजोरियों का बेहतर इस्तेमाल भी तो कर सकते हैं और तब वे शक्तियां बन जाएंगी, है न? तो इस बारे में आज से ही, बल्कि अभी से सोचना शुरू कर दें। |
Re: डार्क सेंट की पाठशाला
एक संत की सीख
एक बार संत तिरुवल्लुवर अपने शिष्यों के साथ कहीं चले जा रहे थे। रास्ते में आने-जाने वाले लोग उनका अभिवादन कर रहे थे। तभी एक शराबी झूमता हुआ उनके सामने आया और तनकर खड़ा हो गया। उसने संत से कहा - आप लोगों से यह क्यों कहते फिरते हैं कि शराब घृणित और खराब चीज है, मत पिया करो। क्या अंगूर खराब होते हैं? क्या चावल बुरी चीज है? अगर ये दोनों चीजें अच्छी हैं, तो इनसे बनने वाली शराब कैसे बुरी हो गई? शराबी के इस सवाल पर लोग उसे हैरत से देखने लगे और सोचने लगे कि संत तिरुवल्लुवर इस पर क्या जवाब देते हैं। संत तिरुवल्लुवर मुस्कराकर बोले - भाई,अगर तुम पर मुट्ठी भर-भरकर कोई मिट्टी फैंके या कटोरा भर कर पानी डाल दे, तो क्या इससे तुम्हें चोट लगेगी? शराबी ने न में सिर हिलाया, तो संत तिरुवल्लुवर ने फिर कहा - लेकिन इस मिट्टी में पानी मिलाकर उसकी ईंट बनाकर तुम पर फेंकी जाए तब...? शराबी ने कहा - उससे तो मैं घायल हो जाऊंगा। मुझे बड़ी चोट लग सकती है। संत तिरुवल्लुवर ने समझाते हुए कहा - इसी प्रकार अंगूर और चावल भी अपने आप में बुरे नहीं हैं, मगर यदि इन्हें मिलाकर शराब बनाकर सेवन किया जाए, तो यह मनुष्य के लिए नुकसानदेह है। यह स्वास्थ्य को खराब करती है। इससे व्यक्ति की सोचने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है। इसके कारण तो परिवार नष्ट हो जाते हैं। संत की इस बात का उस शराबी पर गहरा असर पड़ा और उसने उस दिन से शराब से तौबा कर ली। यही नहीं, वह दूसरों को भी शराब छोड़ने की सलाह देने लगा। वह संत तिरुवल्लुवर के सत्संग में नियमित रूप से आने लगा। उसका जीवन बदल गया। इस कथा से तीन बातें स्पष्ट होती हैं - पहली कभी भी इन्सान को कोई भी तर्क देने से पहले हजार बार सोचना चाहिए कि वह जो बात कर रहा है, उसमें अखिर कितना दम है। दूसरा - नशा कोई भी हो, वह बुरा होता है। अपने स्वार्थ की खातिर नशे को अच्छा बताना समाज को ही गलत दिशा दिखाना होता है। और तीसरी - जब भी हमें संत कोई उपदेश दें, तो हमें उस पर गौर अवश्य करना चाहिए। |
Re: डार्क सेंट की पाठशाला
बहुत ही बढ़िया और ज्ञानवर्धक सूत्र है. इस पाड्शाला में तो रोज़ हाजिरी लगानी पड़ेगी. :bravo:
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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मैँने पहले ध्यान क्योँ नहीँ दिया ;( |
Re: डार्क सेंट की पाठशाला
खतरे को भांपना सीखें
खतरे हमारी तरफ हर दिशा से, हर वक्त आते रहते हैं। बर्खास्तगी, छंटनी, कम्पनी का अधिग्रहण, प्रतिशोधात्मक सहकर्मी, चिड़चिड़े बॉस, नई प्रौद्योगिकी, नए सिस्टम, नई विधियां। दरअसल ये खतरे इतने बड़े हैं कि इनके बारे में कई पुस्तकें लिखी जा चुकीं हैं। खास तौर से परिवर्तन के खतरे के बारें में। जैसे 'हू मूव्ड माई चीज' और 'हाउ टू हैंडल टफ सिचुएशन एट वर्क'। अगर हम तेजी से सोच सकते हैं, तो लकीर के फकीर बनने से मुक्ति पा सकते हैं। लचीले रहकर तेजी से कदम उठा सकते हैं, जमकर मुक्के बरसा सकते हैं और दूरी को पार कर सकते हैं; तो हम न सिर्फ परिवर्तन के बावजूद बचने में कामयाब हो जाएंगे, बल्कि हम सर्वोच्च कोटि के कलाकार और खिलाड़ी भी बन जाएंगे। जाहिर है, हम यह सब नही कर सकते हैं। कई मौकों पर खतरा हम पर हावी हो जाएगा और हमें कुचल देगा। यह हम सभी के साथ होता है। इस सच्चाई से इनकार करने का कोई मतलब नहीं है कि जिंदगी कई बार पॉइंट ब्लैक रेंज से हम पर गोलियां चलाने लगती है और हमें सिर झुकाने का समय भी नहीं मिल पाता, लेकिन जोखिम हमेशा जोखिम ही रहता है। जब यह वास्तविकता बनता है, तभी हम इससे निपट सकते हैं। जब तक यह जोखिम है, जब तक यह सिर्फ डराता है, लेकिन कोई नुकसान नहीं कर सकता । कौन सा जोखिम, वास्तविक बन जाएगा, यह यह भांपना ही असल योग्यता, प्रतिभा है। असल में जोखिम तो बहुत होते हैं और हम उन सभी पर प्रतिक्रिया नहीं कर सकते। वास्तविक चुनौतियां कम ही होती हैं और हमें उन्हीं पर प्रतिक्रिया देनी होती है। अगर हम जोखिम को जोखिम न मानकर अवसर के रूप में देखें, तो इससे हमें काफी मदद मिल सकती है। जिंदगी में वास्तविक बनने वाले हर जोखिम विकास तथा परिवर्तन करने, अपनी विधियों और प्रबंधन शैली को ढालने और उन्हें दोबारा गढ़ने का मौका देते हैं। अगर हमारा नजरिया सकारात्मक है, तो हम में जोखिमों को नकारात्मक की बजाय सकारात्मक मानने की प्रवृत्ति होती है। वह हमें अपनी काबिलीयत को साबित करने का मौका देती है। अगर हमें कभी चुनौती ही न मिले, तो हम कभी बेहतर नहीं बन पाएंगे। |
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नेता की पहचान
यह घटना उस समय की है, जब रूस के जन नेता ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन पर उनके कुछ शत्रुओं ने हमला कर दिया था। वे उस हमले में घायल हो गए थे और बिस्तर पर थे। डॉक्टरों ने उन्हें आराम की सख्त हिदायत दी हुई थी। वे अभी पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं हो पाए थे कि एक दिन उन्हें समाचार मिला कि देश की सबसे प्रमुख रेल लाइन टूटी हुई है। रेल लाइन की शीघ्र मरम्मत आवश्यक थी। सभी देश भक्त लोग समाचार मिलते ही उनके पास जमा होने लगे। एक ने कहा - हम लोग वैतनिक मजदूरों पर निर्भर नहीं रह सकते। वे यह काम पूरा नहीं कर सकेंगे। यह सुन कर वहां उपस्थित अन्य देश भक्त बोले - हां, हम खुद ही इसे पूरा करेंगे। कार्य कठिन था, लेकिन सभी के मन में उत्साह व जोश भरा हुआ था। सभी लेनिन को पसंद करते थे और उनमें राष्ट्रवाद तथा समाज हित की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। सब लोगों के साथ मिलकर काम करने से शीघ्र ही रेल लाइन को ठीक कर दिया गया। कुछ ही देर में वहां पर लोगों की जबर्दस्त भीड़ लग गई। सभी इस बात से बेहद रोमांचित थे कि कुछ देश भक्त लोगों ने एकजुट होकर रेल लाइन को ठीक कर दिया है। अचानक वहां उपस्थित लोगों की नजर मजदूरों के बीच थके- हारे व बीमार लेनिन पर पड़ी। सभी यह जानकर दंग रह गए कि उन्होंने भी घायल होने के बावजूद मजदूरों के साथ मिलकर काम किया था। लेनिन से जब पूछा गया कि वह वहां क्यों आए, तो उन्होंने सहजता से जवाब दिया - अपने साथियों के साथ काम करने। एक प्रतिष्ठित नागरिक बोला - लेकिन साथी भी तो यह काम कर ही सकते थे। दुर्बल शरीर से भारी-भारी लट्ठे ढोने की अपेक्षा जन नेता को स्वास्थ्य की चिंता करते हुए आराम करना चाहिए। इस पर लेनिन मुस्करा कर बोले - जो जनता के बीच में न रहे, जनता के कष्टों को न समझे, अपना आराम पहले देखे, उसे भला कौन जन नेता कहेगा? लेनिन का जवाब सुनते ही वहां खड़े सभी लोग गद्गद हो गए और उन्होंने लेनिन के प्रति आभार तो जताया ही, साथ ही उन्हें इस बात पर बेहद खुशी हुई कि उनके जैसे नेता के कारण ही उनका देश आगे बढ़ रहा है। |
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अपनी हीनभावना निकाल फेंकें
किसी भी इंसान को दूसरे उतना धोखा नहीं देते, जितना वह खुद को देता है। किसी भी इंसान की अवनति के लिए दूसरे उतने उत्तरदायी नहीं होते, जितना वह खुद होता है। कुछ विफलताओं के बाद व्यक्ति के मन में हीन भाव आ जाता है और वह कायर हो जाता है। वह इस बात पर चिंतन नहीं कर पाता कि जीत और हार तो जीवन का हिस्सा है। वह उन कारणों को नहीं ढूंढ पाता, जिनकी वजह से उसके प्रयास विफल हुए हैं। वह खुद को भाग्यहीन मान लेता है। उसे लगता है कि संसार में उसका कोई मूल्य नहीं है। वह यह मान लेता है कि दूसरे उससे बेहतर हैं और वह आम रहने के लिए पैदा हुआ है। चाहे आपके साथ जो घटा हो, आपने कितना भी बुरा जीवन क्यों न जिया हो, आपके जीवन का अभी अंत नहीं हुआ है। आपका मूल्य खत्म नहीं हुआ है। किसी को भी हक नहीं कि किसी अनुपयोगी वस्तु की तरह आपको कबाड़ में डाल दे। आप फिर खड़े हो सकते हैं। आप फिर मंजिल को पा सकते हैं। महत्व आपके अतीत का नहीं है। महत्व है, तो आपके भविष्य के प्रति आपकी सोच का। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिसमें दुनिया ने किसी शख्स को चुका हुआ मान लिया था, उनका तिरस्कार होने लगा था, लेकिन उनके हौसलों की उड़ान ने उन्हें फिर से खड़ा कर दिया। वे सारे लोग, जो कल तक उनका अपमान करते थे, आज फिर उनके प्रशंसक हैं और जय जयकार कर रहे हैं। रात चाहे कितनी भी गहरी हो, सूर्य को हमेशा के लिए नहीं ढक सकती। सोना चाहे कितना भी धूल से सना हो, सोना ही रहता है। यदि आप अपनी इच्छा से एक खराब और मजबूर जिंदगी चुन रहे हैं, तो कोई आपकी मदद नहीं कर सकता, लेकिन यदि आप बीती विफलताओं की वजह से डरे हुए हैं, तो उठिए। यदि आप किसी कारण से हीनभावना से घिरे हैं, तो अपने मन के अंदर उतरिए। आप पाएंगे कि बहुत से कार्य हैं, जिन्हें आप बहुत अच्छे से कर सकते हैं। आप अपने आसपास देखिए। आपको बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे, जिनमें आपके जैसी योग्यता नहीं है, फिर भी वे खुशहाल हैं। अपनी हीनभावना निकाल फेंकें । यदि दुनिया में दूसरे लोग सुखी रह सकते हैं, तो आप भी रह सकते हैं। |
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रास्ते का पत्थर
मनुष्य को हमेशा अपने अलावा दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। उसे यह जरूर देखना चाहिए कि जिन-जिन वजहों से उसे कष्ट होता है, वही वजह दूसरों के लिए भी कष्टकारी हो सकती है। अपना भला तो सभी चाहते हैं, लेकिन वास्तव में सज्जन पुरूष वही होता है, जो दूसरों की भी भलाई चाहे। निस्संदेह इसमें कभी कभार कष्ट भी उठाना पड़ता है, लेकिन उस कष्ट का आनंद ही कुछ और है, जो दूसरों के लिए उठाया जाए। लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल का बचपन गांव में बीता था। वह जिस गांव में रहते थे, वहां कोई अंग्रेजी स्कूल नहीं था, इसलिए गांव के बच्चे रोज दस-ग्यारह किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे गांव पढ़ने जाया करते थे। गर्मियों में स्कूल में पढ़ाई सुबह सात बजे से ही शुरू हो जाती थी, इसलिए गांव के बच्चों को सूर्योदय से पहले ही निकलना पड़ता था। एक दिन छात्रों की टोली स्कूल जाने के लिए निकली, तो उन्होंने पाया कि उनकी टोली में से एक छात्र कम है। दरअसल वल्लभ भाई पटेल पीछे रह गए थे। लड़कों ने मुड़कर देखा, तो पाया कि वल्लभ भाई एक खेत की मेड़ पर किसी चीज से जोर आजमाइश कर रहे हैं। साथियों ने दूर से ही आवाज दी - क्या हुआ? तुम रुक क्यों गए? वल्लभ भाई ने वहीं से चिल्लाकर कहा - जरा यह पत्थर हटा लूं, उसके बाद आता हूं। तुम लोग आगे चलो। साथियों को ध्यान में आया कि खेत की मेड़ पर एक नुकीला सा पत्थर लगा था, जिससे कई बार उन्हें ठोकर लग चुकी थी, पर आज तक किसी को उसे हटाने का ख्याल नहीं आया। साथी वहीं खड़े वल्लभ भाई का इंतजार करने लगे। वल्लभ भाई ने जब पत्थर हटा लिया, तो साथियों के पास पहुंच गए और फिर चलते हुए बोले - रास्ते के इस पत्थर से अक्सर बाधा पड़ती थी। अंधेरे में न जाने कितनों को इससे ठोकर लगती होगी और वे गिर भी जाते होंगे। ऐसी चीज को हटा ही देना चाहिए। इसलिए आज घर से तय करके ही चला था कि उस पत्थर को हटा कर ही दम लूंगा। सारे बच्चे आश्चर्य से वल्लभ भाई को देख रहे थे। दूसरों के हित के लिए कष्ट उठाने की भावना उनमें बचपन से ही आ गई थी। धीरे-धीरे यह भावना और बढ़ती गई। यही वह सबसे बड़ी वज़ह भी है, जिसने उन्हें नेतृत्व के शिखर तक पहुंचाया। |
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दूसरों के लिए आदर्श बनें
कई लोगों की दिनचर्या अस्त-व्यस्त होती है। वे कई प्रकार के रोगों को शरीर में स्थान दे देते हैं। मानसिक रोग भी इसका कारण हो सकता है। व्यर्थ के तनाव से चिड़चिड़ापन पैदा होता है, मानसिक उलझनें रोग का रूप ले लेती हैं। समय पर भोजन न करना, जब मन चाहा, तभी कुछ खा लिया। न समय पर शौच, न समय पर स्नान। न समय पर काम करना। ये सब अव्यवस्थित कार्य हैं और यह एक बड़ी वज़ह है, जो कई रोगों को आमंत्रित करती है। अपने अव्यवस्थित क्रियाकलाप द्वारा आप खुद रोगों को निमंत्रण दे देते हैं। इसमें किसी का क्या दोष? इस अव्यवस्था का सबसे अधिक प्रभाव तो कार्य-व्यवसाय पर पड़ता है। इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि जो कुछ भी शारीरिक व्यथा या आर्थिक हानि होती है या सम्मान में कमी होती है, तो उसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। जब इस प्रकार की स्थिति आती है, तो आप उसके कारणों पर ध्यान दें। यदि आप ईमानदारी से विवेचना करेंगे, तो उसके लिए आप अपने आपको ही जिम्मेदार पाएंगे। आप ऐसी स्थिति आने ही क्यों देते हैं ? अपना सारा काम निश्चित समय पर तथा व्यवस्थित ढंग से करने पर शायद ही आपके सामने कोई समस्या आए। सब कुछ व्यवस्थित होने पर भी समस्या आएगी, तो तत्काल उसका हल भी निकल आएगा। समस्या सुलझ जाएगी। आपको किसी खास परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। जो व्यक्ति अपने जीवन में सफल हैं, उनको देखिए। आपको उनका सब कुछ व्यवस्थित नजर आएगा। महात्मा गांधी का जीवन बहुत ही सादा, पर अत्यंत व्यवस्थित था। उनका हर काम एक व्यवस्था के साथ होता था। उनकी व्यवस्था एक आदर्श थी। उनके आदर्श पर चलें और फिर खुद आप भी दूसरों के लिए आदर्श बनें। घर परिवार से लेकर अपने बाह्य जगत में भी आप अपने आपको व्यवस्थित रखें। जब आप ऐसा करेंगे, तो आपको इसका एक अलग ही आनंद प्राप्त होगा। आपकी कार्यक्षमता भी बढ़ जाएगी। आपका समय व्यर्थ नहीं जाएगा। आपका हर काम ठीक समय पर होगा। आपका जीवन सादा हो या भड़कीला, बिना व्यवस्था के काम करने से सारा मजा ही किरकिरा हो जाता है। |
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राजा के सवाल
कभी-कभी मनुष्य के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वह जो कुछ कर रहा है, वह सही भी है या नहीं। आम तौर पर इंसान ऐसे सवालों का जवाब खुद ढूंढ ही नहीं पाता, क्योंकि उसे ऐेसा ही लगता है कि वह जो कह या कर रहा है, वह उचित ही है। ऐसे में इंसान को चाहिए कि वह किसी के जरिए इसे जानने का प्रयास करे। इसके लिए उसे कोई योग्य पात्र भी ढूंढना पड़ेगा। योग्य पात्र मिलने पर उस इंसान को अपने सवाल का जवाब जरूर मिल जाएगा। किसी जमाने में एक राजा अपने पास आने वाले सभी लोगों से तीन प्रश्न पूछता। पहला - व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ कौन है? दूसरा - सर्वोत्तम समय कौन सा है? तीसरा - सर्वश्रेष्ठ कर्म क्या है? अनेक लोग अपने तरीके से उत्तर देते, पर वह संतुष्ट नहीं होता था। एक दिन राजा जंगल में इधर-उधर भटकता हुआ एक कुटिया में पहुंचा। वहां एक साधु पौधों में पानी डाल रहा था। राजा पर नजर पड़ते ही साधु अपना काम छोड़कर राजा के लिए ठंडा पानी और फल लेकर आ गया। उसी समय एक घायल व्यक्ति भी वहां आ पहुंचा। अब साधु राजा को छोड़ कर उस व्यक्ति की सेवा में लग गया। उसने उसके घाव धोए और उस पर जड़ी-बूटी का लेप किया। जब उस आदमी को थोड़ा आराम मिला, तो राजा ने वही तीनों सवाल साधु से पूछे। साधु ने कहा - आपने अभी-अभी मेरा जो व्यवहार देखा, उसी में इन प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं। राजा ने पूछा-कैसे? साधु ने समझाया - जब आप कुटिया में आए, तो मैं पौधों को सींच रहा था, जो मेरा कर्तव्य था, लेकिन आप आ गए, तो मैं अतिथि के स्वागत में लग गया। जब मैं आपकी भूख-प्यास शांत कर रहा था, तब यह घायल व्यक्ति आ गया। मैं अतिथि सेवा का कर्तव्य त्याग कर इसकी चिकित्सा में लग गया। जो भी आपकी सेवा प्राप्त करने आए, उस समय वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है। उसकी जो सेवा हम करते हैं, वही सर्वोत्तम कर्म है और कोई भी कार्य करने के लिए वर्तमान ही सर्वोत्तम समय है। उसके अलावा कोई और समय नहीं है। राजा को साधु से अपने तीनों सवालों का सही जवाब मिल गया। वह साधु को प्रणाम कर वापस अपने राज्य को चला गया। |
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अवसर को लपक लें
हर काम योजना बना कर करें - दीर्घकालीन भी और अल्पकालीन भी, लेकिन कुछ पल ऐेसे भी आते हैं, जब योजनाओं को खिड़की से बाहर फैंक देना चाहिए। इन पलों को ही अवसर कहा जाता है। मेरा एक परिचित युवक था। वह अपनी प्रमोशन योजनाओं में ज्यादा तरक्की नहीं कर पा रहा था। एक दिन उसने ट्रेन के एक कम्पार्टमेन्ट में खुद को अपने चेयरमैन के साथ अकेला पाया। यह सुनहरा मौका था। वह गलत बातें बोल सकता था, खुद को बेवकूफ भी साबित कर सकता था, बहुत संकोच भी कर सकता था या घबरा सकता था। इस सबका परिणाम यह होता कि वह मौके का फायदा नहीं उठा पाता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने आदर्श तरीके से अपनी बात चेयरमैन के सामने रखी। उसने औपचारिक रूप से बातचीत की, लेकिन चेयरमैन को पूरा सम्मान भी दिया। उसने बातचीत में कंपनी के इतिहास, मिशन, स्टेटमेंट और आम लक्ष्यों पर अपनी मजबूत पकड़ साबित कर दी। वह असरदार, स्मार्ट और बोलने में निपुण था। उसने अपनी हर बात स्पष्ट और असरदार अंदाज में रखी और सबसे महत्वपूर्ण बात, उसने नाजायज फायदा उठाने की स्पष्ट कोशिश भी नहीं की। वह जानता था कि कब मुंह बंद रखना है और पीछे हटना है। इससे यकीनन मदद मिली। नतीजा क्या हुआ? चेयरमैन ने उसके विभाग प्रमुख से कहा कि उसके विभाग में एक स्मार्ट युवक है, उसे आगे बढ़ाओ। अब विभाग प्रमुख के पास उसे तरक्की देने के अलावा क्या चारा था? इसे कहते हैं, अवसर को लपकना। आप इसे अपनी योजना में शामिल नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे पल अचानक आते हैं। जब वे आएं, तो आपको उन्हें पहचानना होगा। इनका अच्छी तरह से फायदा उठाना होगा। बेहतरीन और शालीन दिखना होगा। अवसर को गेंद की तरह देखना सीखें। अगर कोई गेंद आपकी ओर फैंकी जाती है, तो आपके पास उसे पकड़ने के लिए पल भर का समय होता है। सवाल पूछने, पलटकर देखने, सकारात्मक व नकारात्मक बातों को तौलने या फॉक्स ट्रॉट डांस करने के लिए आपके पास जरा भी वक्त नहीं होता। आप या तो गेंद लपक लेते हैं या फिर नहीं लपक पाते। |
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पानी की तरह झुकना सीखो
कहते हैं कि अभिमान इंसान को पथ भ्रष्ट कर देता है। मनुष्य कितना भी बड़ा हो जाए या कितना भी ज्ञानी हो जाए, उसे कभी भी अपने बड़प्पन पर इतराना या घमंड नहीं करना चाहिए। हो सकता है कि कुछ समय के लिए ऐसा करके वह खुद को श्रेष्ठ साबित करने में कामयाब हो जाए, लेकिन वक्त के साथ-साथ उसकी कीमत निश्चित रूप से गिरने लगती है। स्वामी श्रद्धानंद के एक शिष्य थे सदानंद। स्वामी के सान्निध्य में रह कर सदानंद ने काफी मेहनत की और विभिन्न विषयों का भरपूर ज्ञान प्राप्त किया था, लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुजरने लगा, सदानंद को अपने ज्ञान पर अहंकार होता चला गया। अहंकार बढ़ने के कारण धीरे-धीरे उनके व्यवहार में भी बदलाव आता दिखने लगा। वह हर किसी को हेय दृष्टि से देखने लगे। यहां तक कि वह अपने साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे अपने मित्रों से भी दूरी बनाकर रहने लगे। वह जब भी चलते तनकर ही चलते। उनके बढ़ते अहंकार की बात स्वामी श्रद्धानंद तक भी पहुंची। पहले तो उन्हें लगा कि सदानंद के साथी शायद ऐसे ही कह रहे हैं। हो सकता है सदानंद के किसी आचरण से इन्हें ठेस पहुंची हो, लेकिन एक दिन स्वामी श्रद्धानंद उनके सामने से गुजरे, तो सदानंद ने उन्हें अनदेखा कर दिया और उनका अभिवादन तक नहीं किया। स्वामी श्रद्धानंद समझ गए कि इन्हें अहंकार ने पूरी तरह जकड़ लिया है। इनका अहंकार तोड़ना आवश्यक है, अन्यथा भविष्य में इन्हें दुर्दिन देखने पड़ सकते हैं। उन्होंने उसी समय सदानंद को टोकते हुए उन्हें अगले दिन अपने साथ घूमने जाने के लिए तैयार कर लिया। अगली सुबह स्वामी श्रद्धानंद उन्हें वन में एक झरने के पास ले गए और पूछा - पुत्र, सामने क्या देख रहे हो ? सदानंद ने जवाब दिया - गुरुजी, पानी जोरों से नीचे बह रहा है और गिर कर फिर दोगुने वेग से ऊंचा उठ रहा है। स्वामी श्रद्धानंद ने कहा - पुत्र, मैं तुम्हें यहां एक विशेष उद्देश्य से लाया था। जीवन में अगर ऊंचा उठकर आसमान छूना चाहते हो, तो थोड़ा इस पानी की तरह झुकना भी सीख लो। सदानंद अपने गुरु का आशय समझ गए। उन्होंने उनसे अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और भविष्य में अहंकार कदापि नहीं करने का वचन दिया। |
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परिवार सबसे पहले
सफलता सिर्फ धन, समृद्धि और नाम से नहीं मापी जाती। यह भी महत्व रखता है कि जिन लोगों ने आपको उस मुकाम तक पहुंचाने में आपका साथ दिया, उनके लिए आपने क्या किया? क्या आप अपने बच्चों को उचित संस्कार देने के लिए समय निकाल पाए? क्या सुख-दुख में आप अपनी पत्नी के साथ रह पाते हैं ? पिछली बार आप कब अपनी मां की गोद में सिर रख कर सोए? कब आपने पूछा कि पापा आपको किस चीज की जरूरत है? इंसान की तरक्की, सुख-सुविधा, क्लब, लेट नाइट पार्टी आदि के बीच कुछ छूट रहा है, तो वह है परिवार। कई शहरों के कई घरों के बच्चे विदेशों में ऊंचे पदों पर हैं और माता-पिता बुढ़ापे में एक-दूसरे के सहारे समय काट रहे हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को अपने साथ ले जाना नहीं चाहते, तो कुछ घरों में माता-पिता ही इस उम्र में पराए देश में जाने की इच्छा नहीं रखते। आज बच्चे युवा होते ही जनरेशन गैप के नाम पर अपने माता-पिता का अपमान करते हैं। शादी होते ही चन्द दिनों में उन्हें अकेला छोड़ जाते हैं। उन्हें सोचने की जरूरत है, क्योंकि ऐसा ही एक दिन उनके साथ भी घटेगा। अगर आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपका ख्याल रखें, तो आज से ही आप अपने माता-पिता का ख्याल रखिए। बच्चे बहुत ग्रहणशील होते हैं। उनकी आंखें हर चीज देखती हैं। उनके कान हर बात सुनते हैं। उनका दिमाग हर वक्त उन्हें मिलने वाले संदेशों को समझने और नतीजे निकालने में लगा रहता है। अगर वे देखेंगे कि हम परिवार के सदस्यों के लिए घर में धैर्यपूर्वक सुखद माहौल बनाते हैं, तो वे जीवन भर इस नजरिए को अपनाएंगे। अपने माता-पिता, पुराने मित्रों और परिजन के साथ सदैव आदर और विनम्रता से पेश आइए। आपकी कामयाबी में, आपकी ऊंचाइयों में, आपके व्यक्तित्व में वे गुण भरने में, संस्कार पैदा करने में संसार में सबसे ज्यादा योगदान माता-पिता और इष्टजन का होता है। माता-पिता के काम का कोई भी मोल नहीं चुका सकता। विनम्रता, आदर, शिष्टाचार, कृतज्ञता जैसे गुण किसी युग में पुराने नहीं होंगे, बासी नहीं होंगे। यदि ये चले जाएंगे, तो सारे संसार में जंगल राज हो जाएगा। इसलिए परिवार सबसे पहले है। |
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नियम का सम्मान
इन्सान चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे कानून का पालन तो करना ही चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि बड़े ही नियम तोड़ेंगे, तो फिर अन्य लोग उसका अनुसरण करने लगेंगे। काफी पहले मद्रास (आज का चेन्नई) में एक शानदार मछली घर बनाया गया था। इसकी चर्चा दूर-दूर तक फैल गई। बड़ी संख्या में लोग इसे देखने आने लगे। उसकी देखभाल बड़ी कक्षा के विद्यार्थी किया करते थे। मछलीघर देखने के लिए प्रवेश शुल्क निर्धारित था। हर किसी को टिकट लेना पड़ता था। एक दिन हैदराबाद के निजाम सपरिवार आए। निजाम को लगा कि देश के शासक वर्ग से जुड़े होने के कारण वे खास व्यक्ति हैं। उन्हें टिकट लेने की क्या जरूरत। वह बिना टिकट लिए आगे बढ़ने लगे, तो मछली घर के व्यवस्थापकों व कर्मचारियों ने सोचा कि ये इतने बड़े आदमी हैं। इनका आना ही बड़ी बात है। अब इनसे क्या शुल्क लिया जाए। यह सोचकर सब अपने-अपने काम में मशगूल रहे। किसी ने उनसे टिकट लेने को नहीं कहा। जब निजाम आगे बढ़े, तो बुद्धिमान व परिश्रमी छात्र माधवराव ने उनके सामने आकर कहा - महोदय, यहां प्रवेश शुल्क निर्धारित है। बिना पैसे दिए मछली घर के अंदर जाना मना है। यह सुनते ही निजाम कुछ शर्मिंदा होकर अपने निजी सचिव की ओर देखने लगे। सचिव ने इशारा पाते ही सभी के लिए टिकट खरीदे। उनके जाने के बाद अधिकारीगण चिंतित हुए। एक बोला - यदि हम उनसे रुपए नहीं लेते, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? दूसरा बोला - हां, ऐसा भी नहीं था कि उनसे प्रवेश शुल्क नहीं न लेने से हमें भारी आर्थिक हानि होती। सभी अपनी-अपनी राय देते रहे। कुछ देर बाद माधवराव बोले - प्रश्न रुपए लेने का नहीं है। प्रश्न तो नियम के पालन का है। नियम का पालन सभी के लिए जरूरी है। बड़े व्यक्तियों का तो विशेष फर्ज बनता है कि वे नियम का सम्मान करने में आगे रहें, ताकि सामान्य जन भी उनका अनुकरण करें। अगर विशिष्ट लोग ही नियम तोड़ेंगे, तो आम आदमी से उनके पालन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? माधवराव का जवाब सुनकर सभी चुप हो गए। |
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लोगों की निगाह में रहें
ऑफिस की जिंदगी बहुत भागदौड़ भरी और व्यस्त होती है। ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग आपके काम को नजरअंदाज कर दें। आप दिन रात कोल्हू के बैल की तरह मेहनत करते हैं। हो सकता है, इस चक्कर में आप यह महत्वपूर्ण बात भूल जाएं कि आपको अपना ओहदा बढ़ाने और अपने काम की धाक जमाने की जरूरत है। अगर आप प्रमोशन चाहते हैं, तो आपको अपने काम की और अपनी अलग पहचान बनानी होगी, ताकि आप और लोगों से अलग हटकर दिखें। इसका सबसे अच्छा तरीका है कि आप अपनी सामान्य कामकाजी दिनचर्या से बाहर निकलें। अगर हर दिन आपको निश्चित चीजें प्रोसेस करनी हैं, तो उससे ज्यादा चीजें प्रोसेस करने से आपको खास फायदा नहीं होगा, लेकिन अगर आप अपने बॉस को यह रिपोर्ट बना कर दें कि किस तरह हर कर्मचारी और ज्यादा चीजें प्रोसेस करके दे सकता है, तो आप उसकी निगाह में आ जाएंगे। यह बिन मांगी रिपोर्ट भीड़ से अलग दिखने का एक बेहतरीन तरीका है। इससे यह पता चलता है कि आप मौलिक चिंतन कर रहे हैं और अपनी पहल-शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन इसका इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा भी नहीं करना चाहिए। अगर आप अपने बॉस को बिन मांगी रिपोर्ट्स की बाढ़ में डुबो देंगे, तो वे आप पर गौर तो करेंगे, लेकिन नकारात्मक अंदाज में। ऐसी रिपोर्ट कभी-कभार ही पेश करें। यह भी सुनिश्चित करें कि आपकी रिपोर्ट कारगर हो। इससे कंपनी का फायदा होगा। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करें कि इसमें आपका नाम अच्छी तरह से उभर कर सामने आए। वह रिपोर्ट न केवल बॉस देखे, बल्कि उसका बॉस भी देखे। जरूरी नहीं कि वह रिपोर्ट ही हो। यह कंपनी के न्यूजलेटर का लेख भी हो सकता है। जाहिर है, अपने काम को निगाह में लाने का सबसे अच्छा तरीका उस काम में बहुत अच्छा बनना है और अपने काम में अच्छा बनने का सर्वश्रेष्ठ तरीका उसके प्रति पूरी तरह से समर्पित होना और बाक़ी हर चीज को नजरअंदाज करना है। काम के नाम पर बहुत सारी राजनीति, गपशप, खेल, समय की बर्बादी और सामाजिक जनसंपर्क चलता रहता है, लेकिन यह काम नहीं है। |
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ईश्वर से कहो
बतायो नाम का एक फकीर हुआ था। एक बार राह चलते हुए उसके पांव में फांस पड़ गई। तब वह जोर से चीखने लगा। रास्ते में इधर-उधर लोग खड़े थे। वे फकीर की चिल्लाहट सुनकर उसके पास इकट्ठे हो गए। उन्होंने फकीर से पूछा कि क्या हो गया है आपको? तो फकीर ने अपना पांव उनके सामने फैला दिया और कहा कि मेरे पांव में कुछ लग गया है। भीड़ में से एक व्यक्ति नीचे झुका। उसने देखा कि फकीर के पांव में फांस चुभी हुई है। उस व्यक्ति ने फकीर के पांव में लगी फांस को निकाल दिया। पास में ही एक दूसरा व्यक्ति जो खड़ा था। उसने देखा कि पैर में छोटी सी ही फांस लगी थी, लेकिन यह संत हैं और इस मामूली फांस के कारण इतनी जोर से चीख रहे हैं। आखिर इसका कारण क्या है? उससे रहा नहीं गया। उसने फकीर से पूछा - इतनी सी बात पर इतनी जोर से क्यों चीखे? बतायो ने कहा कि देखो - वह जो ऊपर वाला है, इसका स्वभाव विचित्र है। फकीर का संकेत ईश्वर से था। उन्होंने कहा, आदमी ज्यों-ज्यों सहता जाता है, ईश्वर उसे और अधिक कष्ट देता जाता है। मैं यदि यह तकलीफ सह लूंगा, तो संभव है कि कल वह मेरे पांव में भाला चुभो दे। बतायो के कहने का मतलब यह था कि कष्ट से परेशान होकर मैं नहीं चीख रहा हूं। मैं सजग हूं। जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह अनजाने में घटित नहीं हो रहा है। एक फांस भी यदि मेरे पांव में लगती है, तो उसका मुझे अनुभव होता है। हम यह नहीं मानते कि ईश्वर किसी को कष्ट देता है। और व्यक्ति सहन कर लेता है, तो फिर उसे दोगुना-चौगुना कष्ट देता है। दुखों का सीधा सम्बंध व्यक्ति के अपने कर्म से है, लेकिन यह निश्चित है कि जो अपने जीवन के हर क्षण के प्रति जागरूक रहता है, उसके कष्ट स्वयं कम हो जाते हैं। जितने भी कष्ट आते हैं, हमारी जागरूकता की कमी से आते हैं। मनुष्य जहां-जहां प्रमाद में जाता है, वहां - वहां उसकी कष्टानुभूति तीव्र हो जाती है। प्रमाद जितना कम होता है और जागरूकता बढ़ती है, कष्ट की उपस्थिति उतनी कम हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि कोई भी मनुष्य विशिष्टता के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति जागरूक बने। |
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वादे छोटे, परिणाम बड़े
अगर आप जानते हैं कि आप कोई काम बुधवार तक कर सकते हैं, तो हमेशा शुक्रवार तक का समय मांगें। अगर आप जानते हैं कि आपके विभाग को एक हफ्ते का समय लगेगा, तो दो हफ्ते का समय मांगें। अगर आप जानते हैं कि किसी मशीन को इंस्टॉल करने और चालू करने के लिए दो अतिरिक्त कर्मचारियों की जरूरत पड़ेगी, तो तीन मांगें। यह बेईमानी नहीं समझदारी है; लेकिन अगर यह राज खुल जाए और सबको पता लग जाए कि आप ऐसा करते हैं, तब क्या करें? बस, सहजता से और ईमानदारी के साथ इसे स्वीकार कर लें। कहें कि आप अनुमान लगाते समय हमेशा आपातकालीन स्थितियों को भी शामिल करते हैं। इसके लिए वे आपको फांसी पर नहीं लटका सकते। यह पहली चीज है। छोटे वादे करें। अगर आपने शुक्रवार या दो हफ्ते या जो भी कहा है, तो इसका यह मतलब नहीं कि आप इस अतिरिक्त अवधि में मजे कर सकते हैं और गप्पे लड़ा सकते हैं। कतई नहीं। आपको तो यह सुनिश्चित करना है कि आप बड़े परिणाम दें, निर्धारित बजट में दें और वादे से बेहतर दें। यह दूसरा हिस्सा है। परिणाम ज्यादा दें। इसका मतलब है कि अगर आपने सोमवार तक रिपोर्ट देने का वादा किया है, तो यह उस वक्त तक न केवल पूरी हो जाए, बल्कि उसमें कुछ अतिरिक्त भी जुड़ा हो। यह न सिर्फ एक रिपोर्ट हो, बल्कि इसमें एक नई इमारत के लिए पूरी अमली योजनाएं भी शामिल की गई हों। अगर आपने कहा हो कि आप रविवार तक अपने स्टाफ के दो अतिरिक्त सदस्यों के साथ प्रदर्शनी लगाएंगे, तो न सिर्फ ऐसा करें; बल्कि अपने प्रमुख प्रतिस्पर्धी को शो से बाहर निकालने की व्यवस्था भी कर डालें। जब आप वादे छोटे करते हैं और परिणाम बड़े देते हैं, तो आपका लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। नियमों के खिलाड़ी के रूप में आपका लक्ष्य सिर्फ यह होना चाहिए कि आप कभी परिणाम देर से नहीं देंगे या कम नहीं देंगे। अगर आपको सारी रात खून-पसीना एक करना पड़े तो करें। बाद में ज्यादा देर लगाने और सामने वाले को निराश करने के बजाय पहले ही ज्यादा समय मांगना हमेशा और हर मामले में बेहतर होता है। वाहवाही लूटने के चक्कर में कभी उतावलापन नहीं करना चाहिए। |
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किसान का खरबूज
स्वामी श्रद्धानंद एक दिन अपने कुछ शिष्यों और दर्शनार्थ आए भक्तों के साथ बैठे हुए सत्संग कर रहे थे। वहां जो भी भक्त आ रहा था, वह अपने साथ लाए फल-फूल और मिठाइयां आदि स्वामी श्रद्धानंद के चरणों में भेंट कर रहा था। स्वामी श्रद्धानंद की आदत थी कि जो भक्त फल लाता था, उसे वे वहीं कटवा कर मौजूद लोगों में बंटवा दिया करते थे। हमेशा की तरह उस दिन भी वे फल काटकर उसे प्रसाद के रूप में वहां उपस्थित लोगों को बांट रहे थे। तभी एक बुजुर्ग किसान अपने खेत का एक खरबूज लेकर आया। उसने स्वामी श्रद्धानंद से उसे खाने का अनुरोध किया। स्वामी श्रद्धानंद ने उसका अनुरोध स्वीकार कर खरबूज को काटा और उसकी एक फांक खा ली, लेकिन उस दिन उन्होंने बाकी का खरबूज बांटा नहीं, बल्कि खरबूज की एक-एक फांक काट कर खुद ही पूरा खा लिया। उनका यह व्यवहार वहां मौजूद भक्तों को थोड़ा अटपटा लगा कि आज स्वामी श्रद्धानंद ने ऐसा क्यों किया, पर वे चुप रहे। उधर वह किसान काफी खुश हुआ कि स्वामी श्रद्धानंद ने उसका पूरा खरबूज खा लिया। वह स्वामी श्रद्धानंद को प्रणाम कर वहां से चला गया। उसके जाने के बाद एक भक्त से रहा नहीं गया और उसने पूछा - स्वामी जी, क्षमा करें। एक बात पूछना चाहता हूं। जो भी भक्त आपके पास फल लाता है, आप उसके फल को प्रसाद की तरह सभी में बंटवा देते हैं, पर आपने उस किसान के खरबूज को प्रसाद की तरह काटकर क्यों नहीं बांटा? स्वामी श्रद्धानंद बोले - प्रिय भाई, अब क्या बताऊं? वह फल बहुत फीका था। अगर मैं किसी को भी बांटता, तो तय मानो वह किसी को भी पसंद नहीं आता। अगर मैं इसे आप लोगों के बीच बांटता, तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता और अगर उस किसान भाई के सामने ही इसे फीका कह देता, तो उस बेचारे का भी दिल ही टूट जाता। वह बड़े प्रेम से मेरे पास खरबूज लाया था। उसके स्नेह का सम्मान करना मेरे लिए बहुत आवश्यक था। खरबूजे में उसके स्नेह के अद्भुत मधुर रस को मैं अब तक अनुभव कर रहा हूं। यह सुनकर सभी भक्त स्वामी श्रद्धानंद के प्रति श्रद्धा से भर उठे। याद रखें, सच्चा संत वही होता है, जो किसी का दिल नहीं दुखाता। |
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आपको जो चाहिए, वह बांटो
जिंदगी बूमरैंग की तरह होती है। आपका किया हुआ व्यवहार घूम कर आपके पास आता है। आपके कहे हुए शब्द घूम कर आपके पास आते हैं। आप जो भी दुनिया को देते हैं, वह आपके पास कई गुना होकर लौट आता है; इसलिए जैसा व्यवहार आप अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ कीजिए, क्योंकि आप जो बोएंगे, वही आपको काटना पड़ेगा। जो भी चीज आप सबसे ज्यादा चाहते हैं, उसे सबसे ज्यादा बांटिए। आप चाहते हैं कि दूसरे आपकी मुश्किलों में मदद करें, तो आप उनकी मुश्किलों में उनके साथ खड़े रहिए। यदि आप दूसरों को श्रेय देंगे, तो आपको भी पलटकर श्रेय मिलेगा। यदि आपको सम्मान पसंद है, तो दिल खोल कर दूसरों का सम्मान कीजिए। यदि आप दूसरों का तिरस्कार करेंगे, तो बदले में आपको भी तिरस्कार ही मिलेगा। यदि आप दूसरों की दिल खोल कर प्रशंसा करेंगे, तो आप बदले में वही पाएंगे। जीवन का यह बेहद सरल सिद्धांत है, परन्तु फिर भी अधिकांश लोग इसे अमल में नहीं लाते। आप किसी भी क्षेत्र में कामयाबी पाएं, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि लोग आपको पसंद करें, क्योंकि लोग जिसको पसंद करते हैं, उनके साथ काम करना चाहते हैं। आपको यह बात ध्यान में रखनी होगी। इसके लिए यह जरूरी नहीं कि हम दूसरों के पीछे सब कुछ लुटा दें या जान बिछा दें। इसके लिए जरूरी है कि हमारा व्यवहार संयमित हो। प्रशंसा और खुशी जाहिर करने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचें, लेकिन आलोचना या गुस्सा करने से पहले सौ बार सोचें। बिना जरूरत के तर्क-वितर्क नहीं करें, वाद-विवाद में नहीं पड़ें। अपने समग्र लक्ष्य का ध्यान रखें और बढ़ते रहें। यदि आपकी बातों से आपके साथ खड़े लोग थोड़ा बेहतर महसूस करते हैं , खुश होते हैं, प्रफुल्लित होते हैं; तो तय है कि आपको कोई परेशानी नहीं होगी। यदि वे आपके साथ समय गुजार कर अच्छा महसूस करेंगे, तो वही व्यवहार बदले में आपको देंगे। आपके प्रशंसक बनेंगे और जरूरत पड़ने पर आपके काम आएंगे। |
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सबसे बड़ा ज्ञानी
मनुष्य को कभी अपने ज्ञान पर घमंड नहीं करना चाहिए। यदि कोई ऐसा करता है, तो वह महाज्ञानी होने के बावजूद भी दुनिया के सामने साधारण ही हो जाता है। बहुत पुरानी कथा है। यूनान में एक व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के लिए जगह-जगह भटक रहा था। वह चाहता था कि उसे कोई ऐसा शख्स मिले, जो उसे ज्ञान दे सके। वह एक संत के पास पहुंचा। उसने संत को प्रणाम किया। कुछ देर झिझकने के बाद उनसे कहा - महात्माजी, मेरे जीवन में कुछ प्रकाश हो जाए, ऐसा कुछ ज्ञान देने की कृपा करें। मैं कई जगह घूमा, पर कामयाब नहीं हो पाया हूं। इस पर संत ने उससे कहा - भाई, मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूं। मेरी क्या हैसियत है। मैं भला तुम्हें क्या ज्ञान दूंगा। यह सुन कर उस व्यक्ति को बहुत हैरानी हुई। उसने कहा - ऐसा कैसे हो सकता है। मैंने तो कई लोगों से आपके बारे में सुना है और उसके बाद ही मैने यहां आने का निर्णय किया है। इस पर संत बोले - एक काम करो। तुम्हें अगर ज्ञान चाहिए, तो सुकरात के पास चले जाओ। वही तुम्हें सही ज्ञान दे सकेंगे। वे ही यहां के सबसे बड़े ज्ञानी हैं। कुछ देर बाद वह व्यक्ति सुकरात के पास पहुंचा और बोला - महात्माजी, मुझे पता लगा है कि आप सबसे बड़े ज्ञानी हैं। मुझे आपसे ज्ञान चाहिए। इस पर सुकरात मुस्कराए और उन्होंने पूछा कि यह बात उससे किसने कही है। उस व्यक्ति ने उस महात्मा का नाम लिया और कहा - अब मैं आपकी शरण में आया हूं। इस पर सुकरात ने जवाब दिया - तुम उन्हीं महात्माजी के पास चले जाओ। मैं तो साधारण ज्ञानी भी नहीं हूं, बल्कि मैं तो अज्ञानी हूं। यह सुनने के बाद वह व्यक्ति फिर उस संत के पास पहुंचा। उसने संत को सारी बात कह सुनाई। इस पर संत बोले - भाई, सुकरात जैसे व्यक्ति का यह कहना कि मैं अज्ञानी हूं, उनके सबसे बड़े ज्ञानी होने का प्रमाण है। जिसे अपने ज्ञान का जरा भी अभिमान नहीं होता, वही सच्चा ज्ञानी है। उस व्यक्ति ने इस बात को अपना पहला पाठ मान लिया। ज़ाहिर है कि उसने ज्ञान की राह पर मज़बूत कदम बढ़ाने शुरू कर दिए थे। |
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पीछे मुड़कर भी देखें
अक्सर कहा जाता है कि पुरानी बातों को भुलाकर हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। जीवन में सफलता के लिए दूरदृष्टि अनिवार्य मानी जाती है। मानव जीवन का लक्ष्य है - हमेशा आगे बढ़ते रहना, लेकिन आगे बढ़ने का अर्थ क्या हमेशा भविष्य की ओर यात्रा है ? शायद नहीं। आगे बढ़ने के लिए पीछे भी जाना होता है। हम कई मुद्दों पर पाते हैं कि इंसान पहले ही ठीक था। आंख मूंदकर आगे की ओर बढ़ते हुए हमने अपने लिए कुछ मुसीबतें मोल ले ली हैं। जैसे पर्यावरण को ही लें। आज जब इससे जुड़े कई तरह के संकट हमारे जीवन में उथल-पुथल मचा रहे हैं, तो हमें बीते दिनों की जीवन पद्धति याद आने लगी है। अब कई पुराने तौर-तरीकों को फिर से प्रतिष्ठित किया जाने लगा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि मानव जाति बेहतर जीवन जी सके। उसका भविष्य सुखद हो सके यानी एक सुखद भविष्य के लिए हमें अतीत की ओर जाना पड़ रहा है। अपने जीवन से अतीत को काटकर अच्छा भविष्य भी नहीं गढ़ा जा सकता। दरअसल हर आदमी कोशिश करता है कि वह समय से आगे दिखे। कोई अपने को पिछड़ा नहीं साबित करना चाहता, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हर आदमी का समय अलग-अलग होता है और आदमी को इसका पता तक नहीं रहता। अक्सर ऐसा होता है कि एक शख्स अपने जानते समय से बहुत आगे की चीज बता रहा होता है, लेकिन उसे इसका अंदाजा नहीं होता कि उसका दिमाग हकीकत में दो दशक पीछे अटका हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि वह असल में बीते दो दशक से आगे की बात कह रहा है, लेकिन वर्तमान के हिसाब से वह पीछे की ही बात साबित होती है। एक समय में रहकर भी लोग अलग-अलग समय में जी रहे होते हैं। यह अंतर इसलिए होता है कि हर व्यक्ति को आगे बढ़ने के बराबर मौके नहीं मिल पाते। इंसान और इंसान के बीच वर्ग, भाषा और शिक्षा के आधार पर काफी फर्क होता है। इसलिए आधुनिकता भी हमेशा दूसरे के संदर्भ में ही होती है। इसका कोई एक मापदंड नहीं। अतः यदि आपको उचित प्रगति करनी है, तो अपने अतीत में निरंतर झांकते रहिए। |
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सफलता का सच्चा रास्ता
प्रसिद्ध स्कॉटिश इतिहासकार और लेखक थॉमस कार्लाइल ने अनेक वर्षों की मेहनत के बाद एक महान पुस्तक 'फ्रांस की क्रांति' की रचना की। उन्होंने अपनी इस अनूठी रचना के बारे में एक बेहद करीबी मित्र से इसकी चर्चा की, तो उसने ग्रंथ की पांडुलिपि पढ़ने के लिए मांगी। कार्लाइल ने खुशी-खुशी वह पांडुलिपि अपने मित्र को दे दी। एक दिन उनका मित्र पांडुलिपि को पुरानी पत्र-पत्रिकाओं के बीच रखकर बाहर चला गया। उस समय उसका नौकर घर की साफ-सफाई में लगा था। उसने पुरानी पत्र-पत्रिकाओं के साथ उस पांडुलिपि को भी रद्दी समझकर जला दिया। लौटने पर मित्र ने जब नौकर से पांडुलिपि के बारे में पूछा, तो नौकर बोला - साहब, मैंने तो उसे भी पुरानी रद्दी व समाचार-पत्रों के साथ बेकार समझकर जला डाला है। यह सुनकर मित्र आपा खो बैठा, किंतु कर भी क्या सकता था; गलती तो उसी की थी। उसने बड़ी मुश्किल से स्वयं को कालाईल को यह बात कहने के लिए तैयार किया। यह खबर पाकर कालाईल की पत्नी के तो आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कालाईल की वर्षों की मेहनत मानो मिट्टी में मिल गई थी। उधर, मित्र भी डर के मारे थर-थर कांप रहा था। मित्र की हालत को देखते हुए कालाईल ने स्वयं पर पूरी तरह काबू रखा और बोले, कोई बात नहीं। ऐसी दुर्घटनाएं तो होती रहती हैं। धैर्य व साहस के बावजूद कालाईल खुद भी टूट तो रहे थे, लेकिन उन्होंने संकल्प लिया कि वे हार मान कर नहीं बैठेंगे। अपनी इस पुस्तक पर दोबारा काम करेंगे। क्या पता अगली पुस्तक पहले वाली से बेहतर बने। वे फिर से अपनी पुस्तक तैयार करने में जुट गए। दो वर्ष बाद उन्होंने फिर से उसी पुस्तक की रचना की और आज वह एक बेजोड़ किताब के रूप में जानी जाती है। फ्रांस की क्रांति को समझने के लिए वह एक प्रामाणिक किताब है। इस तरह कालाईल ने अपने धैर्य व विपत्ति में न घबराने की प्रवृत्ति के कारण हाथ से छूटी सफलता को फिर से पा लिया। |
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सच्चा साधक
एक बार एक संत के पास सुशांत नामक एक युवक आया। उसने कुछ देर तक तो संत के साथ धर्म चर्चा की, फिर थोड़े संकोच के साथ उनसे कहा - कृपया आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। संत ने थोड़े विस्मय के साथ उस युवक से पूछा - मेरा शिष्य बनकर तुम क्या करोगे? उस युवक ने कहा - मैं भी आपकी तरह साधना करूंगा। संत मंद-मंद मुस्कराए और बोले - वत्स, जाओ यह सब कुछ भुलाकर जीवनयापन के लिए अपना कर्म करते रहो। संत की बात सुनकर सुशांत वहां से चला गया, मगर कुछ दिनों बाद फिर संत के पास आया। वह अपने जीवन से संतुष्ट नहीं था। उसने शिष्य बना लेने की अपनी मांग फिर संत के सामने दोहराई। इस बार संत ने उससे कहा - अब तुम स्वयं को भुलाकर घर-घर जाओ और भिक्षा मांगो। ऊंच-नीच, धनी-निर्धन का भेद भुलाकर जहां से जो भी भिक्षा ग्रहण करो; उसी से अपना गुजारा करते रहो। सुशांत संत के आदेशानुसार भिक्षा मांगने निकल पड़ा। भिक्षा लेते समय वह हमेशा अपनी नजरें नीची किए रहता। जो मिल जाता, उसी से संतोष करता। कुछ दिनों तक तो उसने संत के आदेश के तहत भिक्षा मांगी और उसके बाद फिर वह संत के पास आया। उसे आशा थी कि इस बार संत उसके आग्रह के नहीं ठुकराएंगे और उसे अवश्य अपना शिष्य बना लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इस बार संत ने कहा - जाओ नगर में अपने सभी शत्रुओं और विरोधियों से क्षमा मांग कर आओ। शाम को घर-घर घूमकर सुशांत वापस आया और संत के सामने झुककर बोला -प्रभु, अब तो इस नगर में मेरा कोई शत्रु ही नहीं रहा। सभी मेरे प्रिय और अपने हैं और मैं सबका हूं। मैं किससे क्षमा मांगूं। इस पर संत ने उसे गले लगाते हुए कहा - अब तुम स्वयं को भुला चुके हो। तुम्हारा रहा सहा अभिमान भी समाप्त हो चुका है। तुम सच्चे साधक बनने लायक हो गए हो। अब मैं तुम्हें अपना शिष्य बना सकता हूं। यह सुनकर सुशांत की खुशी का ठिकाना न रहा। |
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कामयाबी के पैमाने
हर दौर में समाज में सफलता का एक निश्चित पैमाना होता है। हम उसी पर लोगों को कसने के आदी हो जाते हैं, लेकिन ज्यों ही कोई उन्हीं पैमानों पर सफल होता है, खुद सफलता का उसका पैमाना बदल जाता है। इसलिए हम बहुत से सफल व्यक्तियों को असंतुष्ट पाते हैं। ऐसे लोग एक समय के बाद खुद को विफल मानना शुरू कर देते हैं। असल में हमारी इच्छाओं का अंत नहीं है। बहुत सी चीजें पा लेने के बाद भी लोग दूसरों से अपनी तुलना करते रहते हैं। जो भी चीज उनके पास नहीं होती, उसे लेकर परेशान हो जाते हैं। संभव है कि एक सफल व्यक्ति किसी को आराम करता देख दुखी हो जाए और यह सोच कर ही खुद को विफल घोषित कर दे कि उसके जीवन में सुकून नहीं है। इसीलिए संतों-विचारकों ने सफलता की अवधारणा को हमेशा संदेह की नजर से देखा, क्योंकि यह हमेशा अस्थिर रहती है। ऊपरी तौर पर भले ही इसका निश्चित रूप दिखाई देता है, किन्तु हमारे मन के भीतर यह रूप बदलती रहती है। सफल होने के लिए जरूरी है कि हम आगे देखते रहें और भविष्य की सोचें। विकसित देश तो पचास वर्ष आगे तक की योजना तैयार करके रखते हैं, लेकिन व्यक्ति के संदर्भ में मामला उलटा है। बाहर की दुनिया में भले ही वह आगे की सोचे, पर आंतरिक दुनिया में वह अक्सर पीछे भी लौटता रहता है। हम जब भी अकेले होते हैं, अपने अतीत के बारे में सोचते हैं। बीते हुए सुख को ही नहीं, दुख को भी याद करते हैं। सफलता के शिखर पर बैठा शख्स भी स्मृति में जरूर लौटता है। कितना अच्छा हो कि हम अपने बाहरी यानी सामाजिक जीवन में भी इसी तरह पीछे लौटते रहें। अगर कोई समृद्ध व्यक्ति अपने पुराने अभाव के दिनों को याद करता रहे, तो संभव है उसका वर्तमान ज्यादा सुखी हो। वह संवेदनशील बने और दूसरों के दुख को भी समझे। हालांकि आम तौर पर लोग दोहरा जीवन जीते हैं। वह अपने मन को अपने रोजमर्रा जीवन से अलग रखते हैं। अगर हर आदमी अंदर और बाहर एक जैसा हो जाए, तो दुनिया अवश्य ही थोड़ी बेहतर हो सकती है। |
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लिंकन की चाय
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का शुरुआती जीवन अभावों में गुजरा था। जीवनयापन के लिए कम उम्र में उन्हें कई तरह के काम करने पड़े। कुछ दिनों तक उन्होंने चाय की दुकान पर भी नौकरी की। उन्हीं दिनों की बात है। एक महिला उनकी दुकान पर आई। उसने उनसे पाव भर चाय मांगी। लिंकन ने जल्दी-जल्दी उसे चाय तौलकर दी। रात में जब उन्होंने हिसाब-किताब किया, तो उन्हें पता चला कि उन्होंने भूलवश उस महिला को आधा पाव ही चाय दी थी। वह परेशान हो गए। पहले तो उन्होंने सोचा कि कल जब वह फिर आएगी, तो उसे आधा पाव चाय और दे देंगे। लेकिन फिर ख्याल आया कि अगर वह नहीं आई तो...। संभव है वह इधर कदम ही न रखे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, वह अपराधबोध से घिर गए थे कि उन्होंने उसे सही मात्रा में चाय क्यों नहीं दी। फिर उन्होंने तय किया कि इसी वक्त जाकर उस महिला को बाकी चाय दी जाए। आखिर उसकी चीज है, उसने उसके पूरे पैसे दिए हैं। संयोग से लिंकन उसका घर जानते थे। उन्होंने एक हाथ में चाय ली और दूसरे हाथ में लालटेन लेकर निकल पड़े। उसका घर लिंकन के घर से तीन मील दूर था। उन्होंने उस महिला के घर पहुंचकर दरवाजा खटखटाया। महिला ने दरवाजा खोला तो उन्होंने कहा - क्षमा कीजिए, मैंने गलती से आपको आधा पाव ही चाय दी थी। यह लीजिए बाकी चाय। महिला आश्चर्य से उन्हें देखने लगी। फिर उसने कहा - बेटा, तू आगे चलकर महान आदमी बनेगा। उसकी भविष्यवाणी सच निकली। |
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समय के पाबन्द रहें
जो आजीवन समय का पाबन्द रहता है, उसे लगातार कामयाबी मिलती रहती है। यदि आप अपने प्रत्येक दिन का शुभारंभ ठीक तरीके से करते हैं, तो उसका परिणाम सुखद ही होगा। प्रत्येक दिन के सुखद परिणाम आपको उन्नति की ओर ही ले जाएंगे। आप अपना लक्षय पा लेंगे। प्रत्येक दिन के सुंदर, सुखद और सरल भाव आपके लिए उन्नति के दरवाजे ही खोलते हैं। हेनरी फोर्ड खेत में पैदा हुए थे। उन्होंने सोलह साल की उम्र में खेत छोड़ा और जाने-माने आविष्कारक थॉमस अल्बा एडिसन की डेट्राइट एडिसन कंपनी में फोरमैन बन गए और प्रगति करने लगे; तब तक, जब तक कि वे चीफ इंजानियर नहीं बन गए। स्पष्ट है एडिसन उनके लिए बहुत बड़े व्यक्ति थे। हेनरी फोर्ड ने खुद से कहा, कभी इस प्रख्यात अविष्कारकर्ता से बात करने का अवसर मिलेगा, तो उनसे एक प्रश्न अवश्य पूछेंगे। हेनरी फोर्ड को 1898 में यह अवसर मिल ही गया। उन्होंने एडिसन को रोका और कहा - मिस्टर एडिसन, क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूं? क्या आपको लगता है कि मोटरकारों के लिए पेट्रोल ईंधन का अच्छा स्रोत हो सकता है? एडिसन के पास फोर्ड से बात करने का समय नहीं था। उन्होंने केवल हां कहा और वहां से चले गए। बात समाप्त हो गई, लेकिन इस जवाब ने फोर्ड को उत्साहित कर दिया। यहीं से फोर्ड ने एक लक्ष्य तय कर लिया और संकल्प ले लिया। ग्यारह वर्ष बाद उन्होंने 1909 में टिन लिजी नामक एक कार बनाई। उन्होंने अनेक आलोचनाएं झेली, लेकिन उन ग्यारह वर्षों में उन्होंने काम किया और इंतजार किया। उन्होंने ऊर्जा में कमी का अनुभव किया, किंतु थकान का कभी अनुभव नहीं किया। यही कारण है कि वे लक्ष्य तक पहुंचे और कामयाबी हासिल की। यदि उस समय को हाथ से निकल जाने दिया होता, तो क्या वे फोर्ड जैसी कामयाब कार कंपनी खड़ी करने में कामयाब होते? याद रखें। जब तक आप अपने विचारों, धन और समय का प्रबंधन करना नहीं सीखेंगे, तब तक आप कोई भी महत्वपूर्ण चीज हासिल नहीं कर पाएंगे। यदि आप सफल होना चाहते हैं, तो आपको विफलताओं से कभी डरना नहीं चाहिए। न ही आपको विफलताओं के माध्यम से विकास करने से डरना चाहिए। |
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धूल का कमाल
सही समय पर अपनी अक्ल का इस्तेमाल ही समझदार की सबसे बड़ी निशानी होती है। विकट हालात में घबराए बगैर अपनी बुद्धि के दम पर भी बड़ी से बड़ी आफत को टाला जा सकता है। कभी भी विपरीत हालात में अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। आपकी जीत का सबसे बड़ा हथियार विवेक ही होता है। यह उन दिनों की बात है, जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। जर्मनी के सेनापति रोमेल अपनी खास रणनीतियों के लिए जाने जाते थे। एक बार अफ्रीका के एक रेगिस्तान में जर्मन सेना अंग्रेजों से युद्ध कर रही थी । तब उसके तोपखाने के गोले खत्म हो गए। अंग्रेज सेना सामने से बढ़ी चली आ रही थी। बारूद व गोले न होने से अंग्रेज सेना को रोक पाना असंभव सा हो गया था। ऐसे में साथी सेनाधिकारी दौड़े- दौड़े घबराहट में रोमेल के पास आए और बोले - सर, अंग्रेजों ने हमला बोल दिया है। हमारे पास इस समय खाली तोपों के अलावा और कुछ भी नहीं है। ऐसे में हम क्या करें ? इतनी जल्दी इस समय तो किसी भी चीज की व्यवस्था करना काफी मुश्किल है। साथियों की बातें सुनकर रोमेल थोड़ा भी नहीं घबराए। वह धैर्यपूर्वक बोले - देखो, इस तरह परेशान होने से कुछ नहीं होगा। बुद्धि और चतुराई से काम लेकर दुश्मन सेना के छक्के छुड़ाने होंगे। हमारे पास गोले ओर बारूद न सही, धूल तो है। तोपों में धूल भरो और दनादन दागो। कुछ हवाई जहाजों को भी उड़ने के लिए ऊपर छोड़ दो। रोमेल की बात मानकर ऐसा ही किया गया। तोपों की गड़गड़ाहट से आसमान हिल उठा । चारों ओर धूल ही धूल उड़ती देख कर अंग्रेज डर गए। उन्होंने समझा कि शत्रु की भारी-भरकम सेना आगे बढ़ती चली आ रही है। उड़ती हुई धूल में वे वास्तविकता का पता नहीं लगा सके। इधर जर्मन हवाई जहाजों ने भी खाली उड़ान भरकर शत्रु सेना को आतंकित कर दिया। अचानक दहशत में आ जाने से शीघ्र ही शत्रु सेना के पांव उखड़ गए और वह भाग खड़ी हुई। इस तरह रोमेल की बुद्धि और चतुराई से बिना किसी हथियार के ही सफलता मिल गई। भले ही द्वितीय विश्व युद्ध में निर्णायक जीत जर्मनी को न मिली हो, पर रोमेल को उनके शत्रु देशों के सैन्य अधिकारी भी याद करते हैं। |
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