'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
जन्म: 1927
जन्म स्थान रूदौली अब ख़ानमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं कहने को आशियाँ है मगर आशियाँ नहीं इश्*क़-ए-सितम-नवाज़ की दुनिया बदल गई हुस्न-ए-वफ़ा-शनास भी कुछ बद-गुमाँ नहीं मेरे सनम-कदे में कई और बुत भी हैं इक मेरी ज़िंदगी के तुम्हीं राज़-दाँ नहीं तुम से बिछड़ के मुझ को सहारा तो मिल गया ये और बात है के मैं कुछ शादमाँ नहीं अपने हसीन ख़्वाब की ताबीर ख़ुद करे इतना तो मोतबर ये दिल-ए-ना-तवाँ नहीं जुल्फ़-ए-दराज़ क़िस्सा-ए-ग़म में उलझ न जाए अंदेशा-हा-ए-इश्*क कहाँ हैं कहाँ नहीं हर हर क़दम पे कितने सितारे बिखर गए लेकिन रह-ए-हयात अभी कहकशां नहीं सैलाब-ए-ज़िंदगी के सहारे बढ़े चलो साहिल पे रहने वालों का नाम ओ निशां नहीं |
Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
और कोई जो सुने ख़ून के आँसू रोए
अच्छी लगती हैं मगर हम को तुम्हारी बातें हम मिलें या न मिलें फिर भी कभी ख़्वाबों में मुस्कुराती हुई आएँगी हमारी बातें हाए अब जिन पे मुसर्रत का गुमाँ होता है अश्*क बन जाँएगी इक रोज़ ये प्यारी बातें याद जब कोई दिलाएगा सर-ए-शाम तुम्हें जगमगा उट्ठेंगी तारों में हमारी बातें उन का मग़रूर बनाया है बड़ी मुश्किल से आईना बन के रहें काश हमारी बातें मिलते मिलते यूँ ही बे-गाने से हो जाएँगे देखते देखते खो जाएँगी सारी बातें बो बहुत सोचें तड़प उट्ठीं मगर ऐ ‘बाक़िर’ याद आईं तो न आईं ये तुम्हारी बातें |
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बदल के रख देंगे ये तसव्वुर के आदमी का वक़ार क्या है
ख़ला में वो चाँद नाचता है ज़माँ मकाँ का हिसार क्या है बहक गए थे सँभल गए हैं सितम की हद से निकल गए हैं हम अहल-ए-दिल ये समझ गए हैं कशाकश-ए-रोज़गार क्या है अभी न पूछो के लाला-जारों से उठ रहा है धुवाँ वो कैसा मगर ये देखो के फूल बनने का आरजू-मंद ख़ार क्या है वही बने दुश्*मन-ए-तमन्ना जिन्हें सिखाया था हम ने जीना अगर ये पूछें तो किस से पूछें के दोस्ती का शेआर क्या है कभी है शबनम कभी शरारा फ़लक से टूटा तो एक तारा ग़म-ए-मोहब्बत के राज़-दारों ये गौहर-ए-आबदार क्या है बहार की तुम नई कली हो अभी अभी झूम कर खिली हो मगर कभी हम से यूँ ही पूछो के हसरतों का मज़ार क्या है बईं तबाही दिखाए हम ने वो मोजज़े आशिक़ी के तुम को बईं अदावत कभी न कहना के आप सा ख़ाक-सार क्या है बने कोई इल्म ओ फ़न का मालिक के मैं हूँ राह-ए-वफ़ा का सालिक नहीं है शोहरत की फ़िक्र ‘बाक़िर’ गज़ल का इक राज़-दार क्या है |
Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
चाहा बहुत के इश्*क़ की फिर इब्तिदा न हो
रूसवाइयों की अपनी कहीं इंतिहा न हो जोश-ए-वफ़ा का नाम जुनूँ रख दिया गया ऐ दर्द आज ज़ब्त-ए-फु़गाँ से सिवा न हो ये ग़म नहीं के तेरा करम हम पे क्यूँ नहीं ये तो सितम है तेरा कहीं सामना न हो कहते हैं एक शख़्स की ख़ातिर जिए तो क्या अच्छा यूँ ही सही तो कोई आसरा न हो ये इश्*क़ हद-ए-ग़म से गुज़र कर भी राज़ है इस कशमकश में हम सा कोई मुब्तला न हो इस शहर में है कौन हमारा तेरे सिवा ये क्या के तू भी अपना कभी हम-नवा न हो |
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दर्द-ए-दिल आज भी है जोश-ए-वफ़ा आज भी है
ज़ख्म खाने का मोहब्बत में मज़ा आज भी है गर्मी-ए-इश्*क निगाहों में नहीं है न सही मुस्कुराती हुई आँखों में हया आज भी है हुस्न पाबन्द-ए-कफ़स इश्*क़ असीर-ए-आलाम ज़िंदगी जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा आज भी है हसरतें ज़ीस्त का सरमाया बनी जाती हैं सीना-ए-इश्*क़ पे वो मश्*क-ए-जफ़ा आज भी है दामन-ए-सब्र के हर तार से उठता है धुवाँ और हर ज़ख्म पे हँगामा उठा आज भी है अपने आलाम ओ मसाइब का वही दरमाँ है ‘‘दर्द का हद से गुजरना’’ ही दवा आज भी है ‘मीर’ ओ ‘गालिब’ के ज़माने से नए दौर तलक शाएर-ए-हिंद गिरफ़्तार-ए-बला आज भी है |
Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
दुश्*मन-ए-जाँ कोई बना ही नहीं
इतने हम लाएक़-ए-जफ़ा ही नहीं आज़मा लो के दिल को चैन आए ये न कहना कहीं वफ़ा ही नहीं हम पशेमाँ हैं वो भी हैराँ हैं ऐसा तूफाँ कभी उठा ही नहीं जाने क्यूँ उन से मिलते रहते हैं ख़ुश वो क्या होंगे जब ख़फा ही नहीं तुमने इक दास्ताँ बना डाली हम ने तो राज़-ए-ग़म कहा ही नहीं ग़म-गुसार इस तरह से मिलते हैं जैसे दुनिया में कुछ हुआ ही नहीं ऐ जुनूँ कौन सी ये मंज़िल है क्या करें कुछ हमें पता ही नहीं मौत के दिन क़रीब आ पहुँचे हाए हम ने तो कुछ किया ही नहीं |
Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन
बिछड़ के तुझ से तेरे शहर में रहा न गया कभी ये सोच के रोए के मिल सके तस्कीं मगर जो रोने पे आए तो फिर हँसा न गया कभी तो भूल गए पी के नाम तक उन का कभी वो याद जो आए तो फिर पिया न गया सुनाया करते थे दिल को हिकायत-ए-दौराँ मगर जो दिल ने कहा हम से वो सुना न गया समझ में आने लगा जब फ़साना-ए-हस्ती किसी से हाल-ए-दिल-ए-राज़ फिर कहा न गया |
Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
इस दर्ज़ा हुआ ख़ुश के डरा दिल से बहुत मैं
ख़ुद तोड़ दिया बढ़ के तमन्नाओं का धागा ता-के न बनूँ फिर कहीं इक बंद-ए-मजबूर हाँ कैद़-ए-मोहब्बत से यही सोच के भागा ठोकर जो लगी अपने अज़ाएम ने सँभाला मैं ने तो कभी कोई सहारा नहीं माँगा चलता रहा मैं रेत पे प्यासा तन-ए-तन्हा बहती रही कुछ दूर पे इक प्यार की गंगा मैं तुझ को मगर जान गया था शम्मा-ए-तमन्ना समझी थी के जल जाएगा शाएर है पतिंगा आँखों में अभी तक है ख़ुमार-ए-ग़म-ए-जानाँ जैसे के कोई ख़्वाब-ए-मोहब्बत से है जागा जो ख़ुद को बदल देते हैं इस दौर में ‘बाक़िर’ करते हैं हक़ीक़त में वो सोने पे सुहागा |
Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
इश्*क की सारी बातें ऐ दिल पागल-पन की बातें हैं
ज़ुल्फ-ए-सिह के साए में भी दार-ओ-रसन की बातें है वीरानों में जा के देखो कैसे कैसे फूल खिले हैं दीवानों के होंटों पर अब सर ओ सुमन की बातें हैं कल तक अपने ख़ून के आँसू मिट्टी में मिल जाते थे आज इसी मिट्टी से पैदा नज़्म-ए-चमन की बातें हैं ठोकर खाते फिरते हैं इक सुब्ह यहाँ इक शाम वहाँ आवारा की सारी बातें कोह ओ दमन की बातें हैं देखें कब किरनें उभरेंगी देखें कब तारें डूबेंगे हिज्र की शब में अब तक यारो सुब्ह-ए-वतन की बातें हैं |
Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा
वो कहीं भी तो कामराँ न रहा इस तरह कुछ बदल गई है ज़मीं हम को अब ख़ौफ़-ए-आसमाँ न रहा जाने किन मुश्*किलों से जीत हैं क्या करें कोई मेहर-बाँ न रहा ऐसी बेगानगी नहीं देखी अब किसी का कोई यहाँ न रहा हर जगह बिजलियों की योरिश है क्या कहीं अपना आशियाँ न रहा मुफ़लिसी क्या गिला करें तुझ से साथ तेरा कहाँ कहाँ न रहा हसरतें बढ़ के चूमती है क़दम मंज़िलों का कोई निशां न रहा ख़ून-ए-दिल अपना जल रहा है मगर शम्मा के सर पे वो धुवाँ न रहा ग़म नहीं हम तबाह हो के रहे हादसा भी तो नागहाँ न रहा क़ाफ़िले ख़ुद सँभल सँभल के बढ़े जब कोई मीर-ए-कारवाँ न रहा |
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