गुरुदेव कौ अंग
सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति।
हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति॥1॥ बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार। जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥2॥ टिप्पणी: क-ख-देवता के आगे ‘कया’ पाठ है जो अनावश्यक है। सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार। लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार॥3॥ राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं। क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं॥4॥ सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ। सतगुर हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ॥5॥ टिप्पणी: ख-सदकै करौं। ख-साच। तुक मिलाने के लिऐ ‘साछ’ ‘साक्ष’ लिखा है। सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर। एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर॥6॥ सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक। लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक॥7॥ सतगुर मार्*या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि। अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥8॥ हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि। कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार॥9॥ गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान। पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्*या बाण॥10॥ पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि। आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥11॥ दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट। पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौं हट्ट॥12॥ टिप्पणी: क-ख-अघट, हट। ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ। जब गोबिंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ॥13॥ टिप्पणी: क-गोब्यंद। कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँण। जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरोगे कौण॥14॥ जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥15॥ टिप्पणी: क-चेला हैजा चंद (? है गा अंध)। नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव। दुन्यूँ बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव॥16॥ चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चन्दा माँहि। तिहिं धरि किसकौ चानिणौं, जिहि घरि गोबिंद नाहिं॥17॥ टिप्पणी: ख-चाँरिणौं। ख-तिहि...जिहि। निस अधियारी कारणैं, चौरासी लख चंद। अति आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहिं मंद॥18॥ भली भई जू गुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि। दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि॥19॥ माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़ंत। कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत॥20॥ सतगुर बपुरा क्या करै, जे सिषही माँहै चूक। भावै त्यूँ प्रमोधि ले, ज्यूँ वंसि बजाई फूक॥21॥ टिप्पणी: ख-प्रमोदिए। जाँणे बास जनाई कूद। संसै खाया सकल जुग, संसा किनहुँ न खद्ध। जे बेधे गुर अष्षिरां, तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध॥22॥ टिप्पणी: ख-सैल जुग। चेतनि चौकी बैसि करि, सतगुर दीन्हाँ धीर। निरभै होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥23॥ सतगुर मिल्या त का भयां, जे मनि पाड़ी भोल। पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल॥24॥ बूड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि। भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरंकि॥25॥ टिप्पणी: ख-जाजरा। इस दोहे के आगे ख प्रति में यह दोहा है- कबीर सब जग यों भ्रम्या फिरै ज्यूँ रामे का रोज। सतगुर थैं सोधी भई, तब पाया हरि का षोज॥27॥ गुरु गोविन्द तौ एक है, दूजा यह आकार। आपा मेट जीवत मरै, तो पावै करतार॥26॥ कबीर सतगुर नाँ मिल्या, रही अधूरी सीप। स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगै भीष॥27॥ टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है- कबीर सतगुर ना मिल्या, सुणी अधूरी सीष। मुँड मुँडावै मुकति कूँ, चालि न सकई वीष॥29॥ सतगुर साँचा सूरिवाँ, तातै लोहिं लुहार। कसणो दे कंचन किया, ताई लिया ततसार॥28॥ टिप्पणी: ख-सतगुर मेरा सूरिवाँ। थापणि पाई थिति भई, सतगुर दीन्हीं धीर। कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर॥29॥ टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है- कबीर हीरा बणजिया, हिरदे उकठी खाणि। पारब्रह्म क्रिपा करी सतगुर भये सुजाँण॥ निहचल निधि मिलाइ तत, सतगुर साहस धीर। निपजी मैं साझी घणाँ, बांटै नहीं कबीर॥30॥ चौपड़ि माँडी चौहटै, अरध उरध बाजार। कहै कबीरा राम जन, खेलौ संत विचार॥31॥ पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर। सतगुर दावा बताइया, खेलै दास कबीर॥32॥ सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग। बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया अब अंग॥33॥ कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ। अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥34॥ टिप्पणी: ख-में नहीं हैं। पूरे सूँ परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि। निर्मल कीन्हीं आत्माँ ताथैं सदा हजूरि॥35॥ टिप्पणी: ख-में नहीं है। |
Re: गुरुदेव कौ अंग
कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोइ।
राम कहें भला होइगा, नहिं तर भला न होइ॥1॥ कबीर कहै मैं कथि गया, कथि गया ब्रह्म महेस। राम नाँव सतसार है, सब काहू उपदेस॥2॥ तत तिलक तिहूँ लोक मैं, राम नाँव निज सार। जब कबीर मस्तक दिया सोभा अधिक अपार॥3॥ भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार। मनसा बचा क्रमनाँ, कबीर सुमिरण सार॥4॥ कबीर सुमिरण सार है, और सकल जंजाल। आदि अंति सब सोधिया दूजा देखौं काल॥5॥ चिंता तौ हरि नाँव की, और न चिंता दास। जे कछु चितवैं राम बिन, सोइ काल कौ पास॥6॥ पंच सँगी पिव पिव करै, छटा जू सुमिरे मन। मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहि॥7॥ मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहि। अब मन रामहिं ह्नै रह्या, सीस नवावौं काहि॥8॥ तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ। वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ॥9॥ कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाति। तेल घट्या बाती बुझी, (तब) सोवैगा दिन राति॥10॥ कबीर सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि। एक दिनाँ भी सोवणाँ, लंबे पाँव पसारि॥11॥ कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि। जाका संग तैं बीछुड़ा, ताही के संग लागि॥12॥ कबीर सूता क्या करै उठि न रोवै दुक्ख। जाका बासा गोर मैं, सो क्यूँ सोवै सुक्ख॥13॥ कबीर सूता क्या करै, गुण गोबिंद के गाइ। तेरे सिर परि जम खड़ा, खरच कदे का खाइ॥14॥ कबीर सूता क्या करै, सुताँ होइ अकाज। ब्रह्मा का आसण खिस्या, सुणत काल को गाज॥15॥ केसो कहि कहि कूकिये, नाँ सोइयै असरार। राति दिवस के कूकणौ, (मत) कबहूँ लगै पुकार॥16॥ {ख-में नहीं है।} जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस, फुनि रसना नहीं राम। ते नर इस संसार में, उपजि षये बेकाम॥17॥ (क-आइ संसार में।) कबीर प्रेम न चाषिया, चषि न लीया साव। सूने घर का पाहुणाँ, ज्यूँ आया त्यूँ जाव॥18॥ पहली बुरा कमाइ करि, बाँधी विष की पोट। कोटि करम फिल पलक मैं, (जब) आया हरि की वोट॥19॥ कोटि क्रम पेलै पलक मैं, जे रंचक आवै नाउँ। अनेक जुग जे पुन्नि करै, नहीं राम बिन ठाउँ॥20॥ जिहि हरि जैसा जाणियाँ, तिन कूँ तैसा लाभ। ओसों प्यास न भाजई, जब लग धसै न आभ॥21॥ राम पियारा छाड़ि करि, करै आन का जाप। बेस्वाँ केरा पूत ज्यूँ, कहे कौन सूँ बाप॥22॥ कबीर आपण राम कहि, औरां राम कहाइ। जिहि मुखि राम न ऊचरे, तिहि मुख फेरि कहाइ॥23॥ टिप्पणी: ख- जा युष, ता युष जैसे माया मन रमै, यूँ जे राम रमाइ। (तौ) तारा मण्डल छाँड़ि करि, जहाँ के सो तहाँ जाइ॥24॥ लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम है लूटि। पीछै ही पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि॥25॥ लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम भण्डार। काल कंठ तै गहैगा, रूंधे दसूँ दुवार॥26॥ लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार। कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरिदीदार॥27॥ गुण गाये गुण ना कटै, रटै न राम बियोग। अह निसि हरि ध्यावै नहीं, क्यूँ पावै दुरलभ जोग॥28॥ कबीर कठिनाई खरी, सुमिरतां हरि नाम। सूली ऊपरि नट विद्या, गिरूँ तं नाहीं ठाम॥29॥ कबीर राम ध्याइ लै, जिभ्या सौं करि मंत। हरि साग जिनि बीसरै, छीलर देखि अनंत॥30॥ कबीर राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ। फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ॥31॥ कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिस लागी लाइ। हरि सुमिरण हाथूं घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ॥32॥67॥ |
Re: गुरुदेव कौ अंग
रात्यूँ रूँनी बिरहनीं, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज।
कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज॥1॥ अबंर कुँजाँ कुरलियाँ, गरिज भरे सब ताल। जिनि थे गोविंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल॥2॥ चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति। जे जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥3॥ बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि। कबीर बिछुट्या राम सूँ ना सुख धूप न छाँह॥4॥ बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाइ। एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैगे आइ॥5॥ बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम। जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम॥6॥ बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम। मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥7॥ मूवाँ पीछै जिनि मिलै, कहै कबीरा राम। पाथर घाटा लोह सब, (तब) पारस कौंणे काम॥8॥ अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियाँ। कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पासि गयां॥9॥ आइ न सकौ तुझ पै, सकूँ न तूझ बुझाइ। जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ॥10॥ यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि। मति वै राम दया, करै, बरसि बुझावै अग्गि॥11॥ यहु तन जालै मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ। लेखणिं करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥12॥ कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ। एक ज पीड़ परीति की, रही कलेजा छाइ॥13॥ चोट सताड़ी बिरह की, सब तन जर जर होइ। मारणहारा जाँणिहै, कै जिहिं लागी सोइ॥14॥ कर कमाण सर साँधि करि, खैचि जू मार्*या माँहि। भीतरि भिद्या सुमार ह्नै जीवै कि जीवै नाँहि॥15॥ जबहूँ मार्*या खैंचि करि, तब मैं पाई जाँणि। लांगी चोट मरम्म की, गई कलेजा जाँणि॥16॥ जिहि सर मारी काल्हि सो सर मेरे मन बस्या। तिहि सरि अजहूँ मारि, सर बिन सच पाऊँ नहीं॥17॥ बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्रा न लागै कोइ। राम बियोगी ना जिवै, जिवै त बीरा होइ॥18॥ बिरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव। साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव॥19॥ सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त। और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त॥20॥ बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान। जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान॥21॥ अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि। जीभड़ियाँ छाला पड़्या, राम पुकारि पुकारि॥22॥ इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव। लोही सींचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौं पीव॥23॥ नैंना नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम। पपीहा ज्यूँ पिव पिव करौं, कबरू मिलहुगे राम॥24॥ अंषड़िया प्रेम कसाइयाँ, लोग जाँणे दुखड़ियाँ। साँई अपणैं कारणै, रोइ रोइ रतड़िया॥25॥ सोई आँसू सजणाँ, सोई लोक बिड़ाँहि। जे लोइण लोंहीं चुवै, तौ जाँणों हेत हियाँहि॥26॥ कबीर हसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त। बिन रोयाँ क्यूँ पाइये, प्रेम पियारा मित्त॥27॥ जौ रोऊँ तो बल घटे, हँसौं तो राम रिसाइ। मनही माँहि बिसूरणाँ, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥28॥ हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ। जो हाँसेही हरि मिलै, तो नहीं दुहागनि कोइ॥29॥ हाँसी खेलौ हरि मिलै, तौ कौण सहे षरसान। काम क्रोध त्रिष्णाँ तजै, ताहि मिलैं भगवान॥30॥ पूत पियारो पिता कौं, गौंहनि लागा धाइ। लोभ मिठाई हाथ दे, आपण गया भुलाइ॥31॥ डारि खाँड़ पटकि करि, अंतरि रोस उपाइ। रोवत रोवत मिलि गया, पिता पियारे जाइ॥32॥ टिप्पणी: ख-में इसके अनंतर यह दोहा है- मो चित तिलाँ न बीसरौ, तुम्ह हरि दूरि थंयाह। इहि अंगि औलू भाइ जिसी, जदि तदि तुम्ह म्यलियांह॥ नैना अंतरि आचरूँ, निस दिन निरषौं तोहि। कब हरि दरसन देहुगे सो दिन आवै मोंहि॥33॥ कबीर देखत दिन गया, निस भी देखत जाइ। बिरहणि पीव पावे नहीं, जियरा तलपै भाइ॥34॥ कै बिरहनि कूं मींच दे, कै आपा दिखलाइ। आठ पहर का दाझणां, मोपै सह्या न जाइ॥35॥ बिरहणि थी तो क्यूँ रही, जली न पीव के नालि। रहु रहु मुगध गहेलड़ी, प्रेम न लाजूँ मारि॥36॥ हौं बिरहा की लाकड़ी, समझि समझि धूंधाउँ। छूटि पड़ौं यों बिरह तें, जे सारीही जलि जाउँ॥37॥ कबीर तन मन यों जल्या, बिरह अगनि सूँ लागि। मृतक पीड़ न जाँणई, जाँणैगि यहूँ आगि॥38॥ बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जल हरि जाउँ। मो देख्याँ जल हरि जलै, संतौं कहीं बुझाउँ॥39॥ परबति परबति में फिर्*या, नैन गँवाये रोइ। सो बूटी पाऊँ नहीं, जातें जीवनि होइ॥40॥ फाड़ि फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउँ। जिहि जिहिं भेषा हरि मिलैं, सोइ सोइ भेष कराउँ॥41॥ नैन हमारे जलि गये, छिन छिन लोड़ै तुझ। नां तूं मिलै न मैं खुसी, ऐसी बेदन मुझ॥42॥ भेला पाया श्रम सों, भौसागर के माँह। जो छाँड़ौ तौ डूबिहौ, गहौं त डसिये बाँह॥43॥ नोट: ख-में इसके आगे यह दोहा है- बिरह जलाई मैं जलौं, मो बिरहिन कै दूष। छाँह न बैसों डरपती, मति जलि ऊठे रूष॥46॥ रैणा दूर बिछोहिया, रह रे संषम झूरि। देवलि देवलि धाहड़ी, देखी ऊगै सूरि॥44॥ सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवै। दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै॥45॥112॥ |
Re: गुरुदेव कौ अंग
दीपक पावक आंणिया, तेल भी आंण्या संग।
तीन्यूं मिलि करि जोइया, (तब) उड़ि उड़ि पड़ैं पतंग॥1॥ मार्*या है जे मरेगा, बिन सर थोथी भालि। पड्या पुकारे ब्रिछ तरि, आजि मरै कै काल्हि॥2॥ हिरदा भीतरि दौ बलै, धूंवां प्रगट न होइ। जाके लागी सो लखे, के जिहि लाई सोइ॥3॥ झल उठा झोली जली, खपरा फूटिम फूटि। जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूत॥4॥ अगनि जू लागि नीर में, कंदू जलिया झारि। उतर दषिण के पंडिता, रहे विचारि बिचारि॥5॥ दौं लागी साइर जल्या, पंषी बैठे आइ। दाधी देह न पालवै सतगुर गया लगाइ॥6॥ गुर दाधा चेल्या जल्या, बिरहा लागी आगि। तिणका बपुड़ा ऊबर्*या, गलि पूरे के लागि॥7॥ आहेड़ी दौ लाइया, मृग पुकारै रोइ। जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ॥8॥ पाणी मांहे प्रजली, भई अप्रबल आगि। बहती सलिता रहि गई, मेछ रहे जल त्यागि॥9॥ समंदर लागी आगि, नदियां जलि कोइला भई। देखि कबीरा जागि, मंछी रूषां चढ़ि गई॥10॥122॥ टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है- बिरहा कहै कबीर कौं तू जनि छाँड़े मोहि। पारब्रह्म के तेज मैं, तहाँ ले राखौं तोहि॥ |
Re: गुरुदेव कौ अंग
कबीर तेज अनंत का, मानी ऊगी सूरज सेणि।
पति संगि जागी सूंदरी, कौतिग दीठा तेणि॥1॥ कोतिग दीठा देह बिन, मसि बिना उजास। साहिब सेवा मांहि है, बेपरवांही दास॥2॥ पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान। कहिबे कूं सोभा नहीं, देख्याही परवान॥3॥ अगम अगोचर गमि नहीं, तहां जगमगै जोति। जहाँ कबीरा बंदिगी, ‘तहां’ पाप पुन्य नहीं छोति॥4॥ हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर बास। कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास॥5॥ कबीर मन मधुकर भया, रह्या निरंतर बास। कवल ज फूल्या जलह बिन, को देखै निज दास॥6॥ टिप्पणी : ख-कवल जो फूला फूल बिन अंतर कवल प्रकासिया, ब्रह्म बास तहां होइ। मन भवरा तहां लुबधिया, जांणैगा जन कोइ॥7॥ सायर नाहीं सीप बिन, स्वाति बूँद भी नाहिं। कबीर मोती नीपजै, सुन्नि सिषर गढ़ माँहिं॥8॥ घट माँहे औघट लह्या, औघट माँहैं घाट। कहि कबीर परचा भया, गुरु दिखाई बाट॥9॥ टिप्पणी: क-औघट पाइया। सूर समांणो चंद में, दहूँ किया घर एक। मनका च्यंता तब भया, कछू पूरबला लेख॥10॥ हद छाड़ि बेहद गया, किया सुन्नि असनान। मुनि जन महल न पावई, तहाँ किया विश्राम॥11॥ देखौ कर्म कबीर का, कछु पूरब जनम का लेख। जाका महल न मुनि लहैं, सो दोसत किया अलेख॥12॥ पिंजर प्रेमे प्रकासिया, जाग्या जोग अनंत। संसा खूटा सुख भया, मिल्या पियारा कंत॥13॥ प्यंजर प्रेम प्रकासिया, अंतरि भया उजास। मुख कसतूरी महमहीं, बांणीं फूटी बास॥14॥ मन लागा उन मन्न सों, गगन पहुँचा जाइ। देख्या चंदबिहूँणाँ, चाँदिणाँ, तहाँ अलख निरंजन राइ॥15॥ मन लागा उन मन सों, उन मन मनहि बिलग। लूँण बिलगा पाणियाँ, पाँणीं लूँणा बिलग॥16॥ पाँणी ही तें हिम भया, हिम ह्नै गया बिलाइ। जो कुछ था सोई भया, अब कछू कह्या न जाइ॥17॥ भली भई जु भै पड्या, गई दशा सब भूलि। पाला गलि पाँणी भया, ढुलि मिलिया उस कूलि॥18॥ चौहटै च्यंतामणि चढ़ी, हाडी मारत हाथि। मीरा मुझसूँ मिहर करि, इब मिलौं न काहू साथि॥19॥ पंषि उडाणी गगन कूँ, प्यंड रह्या परदेस। पाँणी पीया चंच बिन, भूलि गया यहु देस॥20॥ पंषि उड़ानी गगन कूँ, उड़ी चढ़ी असमान। जिहिं सर मण्डल भेदिया, सो सर लागा कान॥21॥ सुरति समाँणो निरति मैं, निरति रही निरधार। सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्यंभ दुवार॥22॥ सुरति समाँणो निरति मैं, अजपा माँहै जाप। लेख समाँणाँ अलेख मैं, यूँ आपा माँहै आप॥23॥ आया था संसार में, देषण कौं बहु रूप। कहै कबीरा संत ही, पड़ि गया नजरि अनूप॥24॥ अंक भरे भरि भेटिया, मन मैं नाँहीं धीर। कहै कबीर ते क्यूँ मिलैं, जब लग दोइ सरीर॥25॥ सचु पाया सुख ऊपनाँ, अरु दिल दरिया पूरि। सकल पाप सहजै गये, जब साँई मिल्या हजूरि॥26॥ टिप्पणी: ख-सकल अघ। धरती गगन पवन नहीं होता, नहीं तोया, नहीं तारा। तब हरि हरि के जन होते, कहै कबीर बिचारा॥27॥ जा दिन कृतमनां हुता, होता हट न पट। हुता कबीरा राम जन, जिनि देखै औघट घट॥28॥ थिति पाई मन थिर भया, सतगुर करी सहाइ। अनिन कथा तनि आचरी, हिरदै त्रिभुवन राइ॥29॥ हरि संगति सीतल भया, मिटा मोह की ताप। निस बासुरि सुख निध्य लह्या, जब अंतरि प्रकट्या आप॥30॥ तन भीतरि मन मानियाँ, बाहरि कहा न जाइ। ज्वाला तै फिरि जल भया, बुझी बलंती लाइ॥31॥ तत पाया तन बीसर्*या, जब मुनि धरिया ध्यान। तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान॥32॥ जिनि पाया तिनि सू गह्या गया, रसनाँ लागी स्वादि। रतन निराला पाईया, जगत ढंढाल्या बादि॥33॥ कबीर दिल स्याबति भया, पाया फल सम्रथ्थ। सायर माँहि ढंढोलताँ, हीरै पड़ि गया हथ्थ॥34॥ जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि। सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥35॥ जा कारणि मैं ढूंढता, सनमुख मिलिया आइ। धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ॥36॥ जा कारणि मैं जाइ था, सोई पाई ठौर। सोई फिर आपण भया, जासूँ कहता और॥37॥ कबीर देख्या एक अंग, महिमा कही न जाइ। तेज पुंज पारस धणों, नैनूँ रहा समाइ॥38॥ मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं। मुकताहल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं॥39॥ गगन गरिजि अमृत चवै, कदली कंवल प्रकास। तहाँ कबीरा बंदिगी, कै कोई निज दास॥40॥ नींव बिहुणां देहुरा, देह बिहूँणाँ देव। कबीर तहाँ बिलंबिया करे अलप की सेव॥41॥ देवल माँहै देहुरी, तिल जेहैं बिसतार। माँहैं पाती माँहिं जल, माँहे पुजणहार॥42॥ कबीर कवल प्रकासिया, ऊग्या निर्मल सूर। निस अँधियारी मिटि गई, बाजै अनहद तूर॥43॥ अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान। अविगति अंतरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान॥44॥ आकासै मुखि औंधा कुवाँ, पाताले पनिहारि। ताका पाँणीं को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि॥45॥ सिव सकती दिसि कौंण जु जोवै, पछिम दिस उठै धूरि। जल मैं स्यंघ जु घर करै, मछली चढ़ै खजूरि॥46॥ अमृत बरसै हीरा निपजै, घंटा पड़ै टकसाल। कबीर जुलाहा भया पारषू, अगभै उतर्*या पार॥47॥ ममिता मेरा क्या करै, प्रेम उघाड़ी पौलि। दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सौड़ि॥48॥170॥ |
Re: गुरुदेव कौ अंग
कबीर हरि रस यौं पिया बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुँभार का, बहुरि न चढ़हिं चाकि॥1॥ राम रसाइन प्रेम रस पीवत, अधिक रसाल। कबीर पीवण दुलभ है, माँगै सीस कलाल॥2॥ कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ। सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ॥3॥ हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार। मैंमंता घूँमत रहै, नाँही तन की सार॥4॥ मैंमंता तिण नां चरै, सालै चिता सनेह। बारि जु बाँध्या प्रेम कै, डारि रह्या सिरि षेह॥5॥ मैंमंता अविगत रहा, अकलप आसा जीति। राम अमलि माता रहै, जीवन मुकति अतीकि॥6॥ जिहि सर घड़ा न डूबता, अब मैं गल मलि न्हाइ। देवल बूड़ा कलस सूँ, पंषि तिसाई जाइ॥7॥ सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ। तिल इक घट मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होइ॥8॥168॥ टिप्पणी: ख-रिचक घट में संचरे। |
Re: गुरुदेव कौ अंग
कया कमंडल भरि लिया, उज्जल निर्मल नीर।
तन मन जोबन भरि पिया, प्यास न मिटी सरीर॥1॥ मन उलट्या दरिया मिल्या, लागा मलि मलि न्हांन। थाहत थाह न आवई, तूँ पूरा रहिमान॥2॥ हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ। बूँद समानी समंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥3॥ हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ। समंद समाना बूँद मैं, सो कत हेरह्या जाइ॥4॥172॥ |
Re: गुरुदेव कौ अंग
भारी कहौं त बहु डरौ, हलका कहूँ तो झूठ।
मैं का जाँणौं राम कूं, नैनूं कबहुं न दीठ॥1॥ टिप्पणी: क-हलवा कहूँ। दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ। हरि जैसा है तैसा रहौ, तूं हरिषि हरिषि गुण गाइ॥2॥ ऐसा अद्भूत जिनि कथै, अद्भुत राखि लुकाइ बेद कुरानों गमि नहीं, कह्याँ न को पतियाइ॥3॥ करता की गति अगम है, तूँ चलि अपणैं उनमान। धीरैं धीरैं पाव दे, पहुँचैगे परवान॥4॥ पहुँचैगे तब कहैंगे, अमड़ैगे उस ठाँइ। अजहूँ बेरा समंद मैं, बोलि बिगूचै काँइ॥5॥ |
Re: गुरुदेव कौ अंग
पंडित सेती कहि रहे, कह्या न मानै कोइ।
ओ अगाध एका कहै, भारी अचिरज होइ॥1॥ बसे अपंडी पंड मैं, ता गति लषै न कोइ। कहै कबीरा संत हौ, बड़ा अचम्भा मोहि॥2॥179॥ |
Re: गुरुदेव कौ अंग
जिहि बन सोह न संचरै, पंषि उड़ै नहिं जाइ।
रैनि दिवस का गमि नहीं, तहां कबीर रह्या ल्यो आइ॥1॥ सुरति ढीकुली ले जल्यो, मन नित ढोलन हार। कँवल कुवाँ मैं प्रेम रस, पीवै बारंबार॥2॥ टिप्पणी: ख-खमन चित। गंग जमुन उर अंतरै, सहज सुंनि ल्यौ घाट। तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जोवैं बाट॥3॥182॥ |
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