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Deep_ 01-04-2015 12:08 AM

Re: कुछ ओर!
 
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मुझे बन जाने दो, या बिखर जाने दो,
या मिट जाने दो, या निखर जाने दो।

होगा एतबार ईस नशेमन पर भी,
एक तुफान यहां से गुज़र जाने दो।

बहुत राह देखी, तब समझा हूं मैं...
नहीं लौटता वक्त, अगर जाने दो!

बेईन्तहा रहा है, बेईन्तहा सहा है,
अगर ईश्क नशा है, उतर जाने दो!

मुझे जाल में ईतना न उलझाओ,
झुल्फें संवारो दो, या बिखर जाने दो।

सपनें दिखा दिखा, पागल किया मुझे,
चोट भी दे दी, अब सुधर जाने दो!

(दीप १.४.१५)

kuki 01-04-2015 04:37 PM

Re: कुछ ओर!
 
बहुत ही शानदार ,दीप जी आप वाकई बहुत ही अच्छा लिखते हैं। आपकी सारी कवितायेँ लाजवाब हैं।

rajnish manga 01-04-2015 08:01 PM

Re: कुछ ओर!
 
आपकी कविताओं में भावनाओं की अच्छी अभिव्यक्ति हुयी है. इन्हें पढ़ना एक सुखद अनुभव से गुज़रने के समान है. धन्यवाद, दीप जी.



Deep_ 01-04-2015 09:09 PM

Re: कुछ ओर!
 
Quote:

Originally Posted by kuki (Post 550124)
बहुत ही शानदार ,दीप जी आप वाकई बहुत ही अच्छा लिखते हैं। आपकी सारी कवितायेँ लाजवाब हैं।

रचनाए पसंद करने के लिए धन्यवाद कुकी जी!
Quote:

Originally Posted by rajnish manga (Post 550221)
आपकी कविताओं में भावनाओं की अच्छी अभिव्यक्ति हुयी है. इन्हें पढ़ना एक सुखद अनुभव से गुज़रने के समान है. धन्यवाद, दीप जी.

रजनीश जी, आपकी टिप्पणी हंमेशा प्रेरणादायक रही है। ईसके लिए धन्यवाद!

Deep_ 07-04-2015 01:39 AM

Re: कुछ ओर!
 
https://deadpoet88.files.wordpress.c.../10/tears1.jpg


तु दुर रहे चाहे पास रहे,
मिलने की झुठी आस रहे।

तेरे आने की ना तमन्ना हो,
तेरी राह में हम क्यूं उदास रहे?

तेरा नाम लबों पे आए नहीं,
मुझे ईतना होश-ओ-हवास रहे।

मेरे होने से बढ कर है की,
तेरे होने का एहसास रहे।

वो हंस दे कभी तो क्या होगा?
जिसे ग़म ही हंमेशा रास रहे।

खुशीयों के पल बीतें है मगर...
जितने भी रहे, वो खास रहे।

दीप (७.४.१५)
अभी अभी रात २.०० बजे गज़ल पुरी की है!

Deep_ 04-05-2015 02:58 PM

Re: कुछ ओर!
 
एहसान

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बस एक मुलाकात का एहसान हो जाए ।
मुझे भी कुछ होने का गुमान हो जाए ।

सदियों से शायद तुम्हे जानता हुं मैं,
तुम्हे भी मेरी कुछ पहेचान हो जाए ।

जो दुनिया आज मुजे अनदेखा करती है,
तुम्हे देख मेरे साथ, वो भी हैरान हो जाए !

तुम जिसे दो कदम चलना कहती हो,
हो सकता है वह मेरी उडान हो जाए ।

पाना तुम्हें कभी मुमकीन ही नही,
यह समज़ना ओर भी आसान हो जाए।

फिर चाहे बाद में हम अन्जान हो जाएं,
बस एक मुलाकात का एहसान हो जाए ।


दीप
(4.5.15)

Pavitra 04-05-2015 03:16 PM

Re: कुछ ओर!
 
[QUOTE=Deep_;550925]एहसान

बेहतरीन .....बहुत ही बढिया लिखा है आपने दीप जी.......:clappinghands:

Dark Saint Alaick 04-06-2015 09:28 PM

Re: कुछ ओर!
 
वाह दीप बाबू ! आप तो शायरे-आज़म निकले।

Deep_ 13-06-2015 12:53 AM

Re: कुछ ओर!
 
गज़ल

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कागज़-कलम उठाए, तो गज़ल बन गई,
फिर कुछ लिख ना पाए, तो गज़ल बन गई!

हमने तुम को मांगा और तुम मुस्कुराए,
कुछ ख्वाब ऍसे आए, तो गज़ल बन गई!

मुलाकातों में अक्सर खामोश ही रहे हम,
तनहा दो पल बिताए, तो गज़ल बन गई!

चिंगारी जैसी यादें सीने में उठ रही थी,
जब शोले लपलपाए, तो गज़ल बन गई!

भेजने से जिनको कोई फर्क भी न पड़ता,
ख़त सारे वो जलाए, तो गज़ल बन गई!

दर्द-ओ-ग़म, ग़म-ए-शाम और शाम-ए-तनहाई,
सीने से जब लगाए, तो गज़ल बन गई!

(दीप ९.६.१५)

'गज़ल' बस ऍसे ही बन गई है, शायद आपको पीछली रचनाओं के मुकाबले थोडी फिकी लगे। शब्दों की त्रुटियां तो खैर रजनीश जी सुधरवा ही देंगे, बाकी टीका-टिप्पणी आवकार्य है!

rajnish manga 13-06-2015 10:32 PM

Re: कुछ ओर!
 
Quote:

Originally Posted by deep_ (Post 552163)
गज़ल
......
दर्द-ओ-ग़म, ग़म-ए-शाम और शाम-ए-तनहाई,
सीने से जब लगाए, तो गज़ल बन गई!

(दीप ९.६.१५)

'गज़ल' बस ऍसे ही बन गई है, शायद आपको पीछलीरचनाओं के मुकाबले थोडी फिकी लगे। शब्दों की त्रुटियां तो खैर रजनीश जी सुधरवा हीदेंगे, बाकी टीका-टिप्पणी आवकार्य है!

बहुत सुंदर, दीप जी. आदि से अंत तक पूरी ग़ज़ल पर आपकी छाप है, प्रशंसनीय रचना और कमाल की अभिव्यक्ति. हाँ, आपकी इजाज़त से अंतिम शे'र यदि मैं लिखता तो उसकी शक्ल ऐसे होती:

शाम-ए-ग़म सरल थी न आसाँ शब-ए-फ़िराक़
दोनों से ज़ख्म खाये, तो ग़ज़ल बन गई !!

(शब-ए-फ़िराक = विरह की रात)


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