कुछ ओर!
यह मेरी प्रथम रचना है....फोरम के सभी मित्रो के लिए!
मन हमारा जो भी कहे, मानसीकता कुछ ओर है। कहेने का सच ओर, वास्तविकता कुछ ओर है। मीलना भी जब चाहा, एक बहाना तैयार था, हम भी जानतें थे, यह व्यस्तता कुछ ओर है। प्रतीक्षा है प्रतिक्षण, एक क्षण तो मीलोगे, तुम मूर्खता भले मानो, यह मूर्खता कुछ ओर है। ईस अकेलेपन को यादों से से भर दिया है, वह सुनापन अलग था, यह रिक्तता कुछ ओर है। |
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वाह वाह अति सुंदर
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धन्यवाद अनमोल जी!
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Re: कुछ ओर!
bahut sundar rachna hai, deep ji. kshama chahta hun pahle visit nahin kar paaya. mera anurodh hai ki aap apni anya rachnaayen bhi hamse sheyar karen.
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http://www.loverofsadness.net/LOS/im...82c9a10214.jpg
बीती बातें दोहराई जाए, सूखी आंखे रुलाई जए । आती जाती है जो सांस सी, यादें वो सारी भुलाई जाए । अब रोशनी की क्या जरुरत? उमीद हर एक मिटाई जाए... फिर कभी भी जल न पाए, हर लौ...एसे बुझाई जाए। उसके दिल पे बोझ न पड़े, कुछ एसी चाल चलाई जाए... मै ही बेवफा था आखिर, यह बात उसको मनवाई जाए । कत्ल करने को काफी है, पलकें गिराई जाए, उठाई जाए। जहां आना जाना हो उनका, लाश वहीं दफनाई जाए| (दीप) २.३.१५ |
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:bravo: ग़ज़ल के अंदाज़ में यह एक सुंदर रचना है. सभी शे'रों में भावों की तीव्र अभिव्यक्ति मिलती है. टाइप की कुछ त्रुटियों (सुखी = सूखी, लो = लौ आदि) के बावजूद रचना अच्छी बन पड़ी है. उक्त दो शे'र विशेष रूप से प्रभावित करते हैं. आपको बहुत बहुत धन्यवाद व शुभकामनाएं, दीप जी. |
Re: कुछ ओर!
बहुत धन्यवाद रजनीश जी। त्रुटीयां ठीक करवाने के लिए भी धन्यवाद!
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Re: कुछ ओर!
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दीप जी आपका ये सूत्र देखा तो आपकी पहली कविता "कुछ और" के लिये था जो कि बहुत ही प्रशन्सनीय है , लेकिन आपकी दूसरी रचना पढने के बाद मुझे समझ नहीं आ रहा कि किन शब्दों में आपकी तारीफ करूँ , आपकी ये दूसरी रचना वास्तव में बहुत बहुत ज्यादा अच्छी है । :yourock::clappinghands: |
Re: कुछ ओर!
very very nice deepji
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आदतन
http://howtomanguide.com/wp-content/...10/sad-man.jpg छेड़ दी वो ही बात आदतन, रोए फिर सारी रात आदतन, चैन न जाने कहां सो गया... जाग उठे जज़्बात आदतन। रुत बदली, मौसम भी बदले, बदल गए हालात आदतन... तुम बदले, दुनिया बदली, मन क्या चाहे सौगात आदतन? हुआ वही, होता जो अक्सर, आंखो से गीरी बरसात आदतन, उन आंसु में पिघल चले, जो पुछे थे सवालात आदतन! आगे क्या करते बात आदतन? खा ली हमने मात आदतन! खत्म हुई हर बार की तरहा... आखरी वो मुलाकात आदतन! (दीप १२.३.१५) |
Re: कुछ ओर!
बहुत बढिया....बहुत बहुत बढिया......अब जब से आपको भी गजल लिखते देख रही हूँ तो मुझे भी बहुत मन हो रहा है कि कुछ लिखूँ , पर समझ नहीं आता कि आप लोग इतने अच्छे शब्द लेकर कहाँ से आते हैं? मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं..... :(
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Re: कुछ ओर!
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Re: कुछ ओर!
शाम
http://scontent-a.cdninstagram.com/h...47043971_n.jpg यह दिन ढल रहा है, पर शाम रुक गई है, वो पंछी उड़ रहें है, आवाम रुक गई है। जो धुप में थी दौडी, वह बादलों की टोली, ईस सांझ के किनारे, सरेआम रुक गई है। सब रास्ते, चौराहे, गलीयां तो थक गई है, चहलपहल भी लेने... आराम रुक गई है। बस पोंछ कर पसीना, मैं आगे बढ रहा हुं, मेरी जिंदगानी हो कर बेनाम रुक गई है! (दीप १३.३.१४) |
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Re: कुछ ओर!
http://s3.favim.com/orig/46/alone-be...com-423257.jpg
मुझे बन जाने दो, या बिखर जाने दो, या मिट जाने दो, या निखर जाने दो। होगा एतबार ईस नशेमन पर भी, एक तुफान यहां से गुज़र जाने दो। बहुत राह देखी, तब समझा हूं मैं... नहीं लौटता वक्त, अगर जाने दो! बेईन्तहा रहा है, बेईन्तहा सहा है, अगर ईश्क नशा है, उतर जाने दो! मुझे जाल में ईतना न उलझाओ, झुल्फें संवारो दो, या बिखर जाने दो। सपनें दिखा दिखा, पागल किया मुझे, चोट भी दे दी, अब सुधर जाने दो! (दीप १.४.१५) |
Re: कुछ ओर!
बहुत ही शानदार ,दीप जी आप वाकई बहुत ही अच्छा लिखते हैं। आपकी सारी कवितायेँ लाजवाब हैं।
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Re: कुछ ओर!
आपकी कविताओं में भावनाओं की अच्छी अभिव्यक्ति हुयी है. इन्हें पढ़ना एक सुखद अनुभव से गुज़रने के समान है. धन्यवाद, दीप जी.
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Re: कुछ ओर!
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Re: कुछ ओर!
https://deadpoet88.files.wordpress.c.../10/tears1.jpg
तु दुर रहे चाहे पास रहे, मिलने की झुठी आस रहे। तेरे आने की ना तमन्ना हो, तेरी राह में हम क्यूं उदास रहे? तेरा नाम लबों पे आए नहीं, मुझे ईतना होश-ओ-हवास रहे। मेरे होने से बढ कर है की, तेरे होने का एहसास रहे। वो हंस दे कभी तो क्या होगा? जिसे ग़म ही हंमेशा रास रहे। खुशीयों के पल बीतें है मगर... जितने भी रहे, वो खास रहे। दीप (७.४.१५) अभी अभी रात २.०० बजे गज़ल पुरी की है! |
Re: कुछ ओर!
एहसान
http://cache.desktopnexus.com/thumbs...gthumbnail.jpg बस एक मुलाकात का एहसान हो जाए । मुझे भी कुछ होने का गुमान हो जाए । सदियों से शायद तुम्हे जानता हुं मैं, तुम्हे भी मेरी कुछ पहेचान हो जाए । जो दुनिया आज मुजे अनदेखा करती है, तुम्हे देख मेरे साथ, वो भी हैरान हो जाए ! तुम जिसे दो कदम चलना कहती हो, हो सकता है वह मेरी उडान हो जाए । पाना तुम्हें कभी मुमकीन ही नही, यह समज़ना ओर भी आसान हो जाए। फिर चाहे बाद में हम अन्जान हो जाएं, बस एक मुलाकात का एहसान हो जाए । दीप (4.5.15) |
Re: कुछ ओर!
[QUOTE=Deep_;550925]एहसान
बेहतरीन .....बहुत ही बढिया लिखा है आपने दीप जी.......:clappinghands: |
Re: कुछ ओर!
वाह दीप बाबू ! आप तो शायरे-आज़म निकले।
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Re: कुछ ओर!
गज़ल
http://www.photocase.com/stock-photo...-mail-mail.jpg कागज़-कलम उठाए, तो गज़ल बन गई, फिर कुछ लिख ना पाए, तो गज़ल बन गई! हमने तुम को मांगा और तुम मुस्कुराए, कुछ ख्वाब ऍसे आए, तो गज़ल बन गई! मुलाकातों में अक्सर खामोश ही रहे हम, तनहा दो पल बिताए, तो गज़ल बन गई! चिंगारी जैसी यादें सीने में उठ रही थी, जब शोले लपलपाए, तो गज़ल बन गई! भेजने से जिनको कोई फर्क भी न पड़ता, ख़त सारे वो जलाए, तो गज़ल बन गई! दर्द-ओ-ग़म, ग़म-ए-शाम और शाम-ए-तनहाई, सीने से जब लगाए, तो गज़ल बन गई! (दीप ९.६.१५) 'गज़ल' बस ऍसे ही बन गई है, शायद आपको पीछली रचनाओं के मुकाबले थोडी फिकी लगे। शब्दों की त्रुटियां तो खैर रजनीश जी सुधरवा ही देंगे, बाकी टीका-टिप्पणी आवकार्य है! |
Re: कुछ ओर!
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शाम-ए-ग़म सरल थी न आसाँ शब-ए-फ़िराक़ दोनों से ज़ख्म खाये, तो ग़ज़ल बन गई !! (शब-ए-फ़िराक = विरह की रात) |
Re: कुछ ओर!
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प्रेरणादायक टिप्पणी के लिए धन्यवाद रजनीश जी! |
Re: कुछ ओर!
प्रेम नही है बस का!
http://imbbpullzone.laedukreationpvt...t-Hitched2.jpg प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का, क्युं तुमने मजाक बना के रक्खा है बेबस का? प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का, जिस दिन से डेपो पर देखी, कन्या एक कंवारी जारि है अपनी भी तब से उसकी बस में सवारी! कभी तो देखेगी मुड के, आधार है ईस ढाढस का... प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का, नाम पुछै का डर...कितना लागे मै ही जानुं । उस बस के नंबर से मै उस लडकी को पहेचानुं, सबके आगे ईसी डर को नाम दिया आलस का... प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का, सोचता हुं मै की एसा काश हो तो अच्छा प्रेमीयों लिए, बस का पास हो तो अच्छा, चार आने हो गए, जो रस्ता था पैसे दस का, प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का। एक दिन वह लडकी, कोई लडका संग ले आई, बस हडताल मेरे सारे सपनों को करवाई। बहुत दिनों के बाद ये जाना...भाई था वो उसका! प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का। अब जल्दी ही उसको मेरे मन की बात बताउंगा, पब्लिक पीटे या कंडक्टर, बिलकुल ना घबराउंगा। बस-रानी वरदान दो मुझको थोडे से साहस का! प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का। दीप (९-७-१५) आज फोरम पर कुछ एसा घटा जिसने मुझे हास्यकविता लिखने को प्रेरित किया! मैने यह भी सोचा की पुराने जमाने का काव्य बनाउं। सो प्रस्तुत है पुराने जमाने की ताज़ा हास्य कविता, जो अभी अभी पुरी हुई है और एक्स्परिमेन्टल है! कविता के काल, अदाकार और अदाकारा का अंदाजा आप तसवीर से लगा सकते हो । |
Re: कुछ ओर!
वाह! वाह! यह तो कमाल की कविता है. आपकी इस experimental रचना का जवाब नहीं, दीप जी.
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Re: कुछ ओर!
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Re: कुछ ओर!
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बहुत बढिया दीप जी...... आपने तो वाकई बडी मजेदार कविता लिखी है.......:laughing: :bravo: |
Re: कुछ ओर!
यह गाना थोडा बहुत रेकोर्ड कर के भी देखा है।
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Re: कुछ ओर!
तुम से कुछ ना होगा
https://s-media-cache-ak0.pinimg.com...ca62b3b310.jpg ना, तुम से कुछ ना होगा, पहनो कोई भी चोगा । ना, तुम से कुछ ना होगा । राग तुम अपना ही गाओ, रो लो अपना रोना, बस खुद को ही बडा दिखाओ, कहो औरो को बोना। अपनी ही जो हांके जाए, बनेगा पंडित पोगा । ना, तुम से कुछ ना होगा, पहनो कोई भी चोगा । गलती सब की बतलाता है, दंड भी देता जाता, ऐसा ही हुं में...बोल के किस को क्या समज़ाता? किसने बनाया तुम को पुरी दुनिया का दरोगा? ना, तुम से कुछ ना होगा, पहनो कोई भी चोगा । छोटे छोटे सुख छोड़ कर, कितना धन है झड़पा? तेरे मन के कल्पित सुख में तन है कितना तड़पा ? तन की ईन्द्रियों के वश में मन ने कितना भोगा ? ना, तुम से कुछ ना होगा, पहनो कोई भी चोगा । ना, तुम से कुछ ना होगा, पहनो कोई भी चोगा । ना, तुम से कुछ ना होगा । दीप (3.12.15) |
मेरा सुंदर सपना तुट गया
http://www.mobilephun.com/wp-content...013/10/kid.jpg
मेरा सुंदर सपना तुट गया, गुब्बारा फुलाया, फुट गया! मेरा सुंदर सपना तुट गया, मेरा सुंदर सपना तुट गया! :cry: जब हाथ चवन्नी आई थी, गोलेवाला आया ही नहीं, जब आया तो मेरे वाला...रंग 'हरा' लाया ही नहीं! :scratchchin: जिस दिन मुझे वह रंग मिला, गोला हाथों से छूट गया.... मेरा सुंदर सपना तुट गया, मेरा सुंदर सपना तुट गया! मुश्किल तो पतंग उडाना था, मुझे दौड के थक जाना था, गलती से ही वह पतंग उड़ी, खुशियों का नहीं ठिकाना था... फिर डोर तुटी मेरे हाथों से, पतंग कोई दुजा लूट गया! :blink: मेरा सुंदर सपना तुट गया, मेरा सुंदर सपना तुट गया! किताबों की अलमारी थी, पढ-पढ दोपहरी गुज़ारी थी, सोचा कुछ धंधा हो जाए, किताबें दी उधारी थी.... भाड़ा मांगा जो किताबों का, हर दोस्त मुझ से रुठ गया! मेरा सुंदर सपना तुट गया, मेरा सुंदर सपना तुट गया! :cry: |
Re: कुछ ओर!
दीप जी, कई दिन बाद आपका पुनः आने पर स्वागत है, आपकी व्यस्तता को हम समझ सकते हैं. आशा है आप अपनी उपस्थिति जल्दी जल्दी दर्ज कराते रहेंगे.
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Re: कुछ ओर!
अभिवादन के लिए धन्यवाद रजनीश जी । :hello:
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