उपन्यास: जीना मरना साथ साथ
उपन्यास: जीना मरना साथ साथ
(इंटरनेट से / लेखक का नाम ज्ञात नहीं) आज से बीस बाइस साल पूर्व जब मैं किशोरावस्था में था तब मुझपर भी प्यार का बुखार हावी था जो आज तक नहीं उतरा। मैं बनबीघा गांव मे अपनी बुआ के यहां रहता था और मेरे कमरे की खिड़की के सामने था रीना का घर। कब हमारा प्यार जवान हो गया पता नहीं चला। गांव में रहते हुए एक आम किसान के बेटे बेटियों की तरह हम लोगों का रहन सहन था और हम लोग साथ साथ पढ़ने स्कूल जाते या फिर साथ साथ खेलते हुए कितने ही साल बिता दिये। लुका-छुपी से लेकर लुडो और कभी कभी कबड्डी भी। प्रेम क्या होता है मैं नहीं जानता था। गांव में उस समय एक आध लोगों के घरों में टेलीविजन था जिसमें रामायण देखने अथवा महाभारत देखने सुबह दो दर्जन से अधिक बच्चे जाते थे जिसमें रीना भी साथ होती थी। रात मे शुक्रबार को एक बजे रात तक जग कर दर्जनों बच्चे सिनेमा देखते और घर जाते। सुबह मार खानी पड़ती पर बदला कुछ नहीं। >>> |
Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
मेरे घर के आगे एक तलाब था जहां बरगद का एक पुराना पेड़ भी था तथा वहीं गांव के लोग भीषण गर्मी से बचने के लिए दोपहर मे आराम करते थे और मैं भी सुबह शाम दोपहर वहीं खेला करता था। रीना छत पर होती तो मन में एक अजीब सी लहर उठती उसे रिझाने का। कुछ कुछ सिनेमाई। बरगद के पेंड़ पर चढ़ना, कूदना। बरगद के पेड़ की सोरी को पकड़ हाथ के सहारे बीस फिट की उंचाई चढ़ना और झुलना यह सब करते थे। कक्षा आठ से प्रारंभ यह कहानी इंटर की पढ़ाई तक चलती रही । नहीं नहीं मैट्रिक में इसमें कुछ परिवर्तन आया और मैंने पतली थीन पेपर पर कई बार लिख कर फाड़ दिया गया एक प्रेम पत्र आखिरकार एक दिन रीना के साथ साथ स्कूल से आते वक्त रास्ते में गिरा दिया और पलट कर देखा भी नहीं क्या हुआ। कई दिनों तक घर से लाज से निकला नहीं। हमेशा डर लगा रहता की जाने क्या होगा। पर हुआ कुछ नहीं। महीनों बीत गए पर अब रीना के साथ खेलने और स्कूल जाने का सिलसिला थम गया। अब एक लाज सी मन में होने लगी। रीना का भाई घर बुलाता भी तब भी मैं नहीं जाता। वह स्कूल के निकलती तो मैं पीछे पीछे जाता।
कई माह बाद उस पत्र का जबाब मिला जो सकारात्कम था। उसके बाद प्रारंभ हुआ सिलसिला प्रेम पत्र लिखने का। कई दिनों तक अथक मेहनत होती। शब्दों को सजाया जाता। शेर लिखे जाते तब जाकर प्रेम पत्र तैयार होता और जदोजहद शुरू होता उसे रीना तक पहुंचाने की और इस डर के साथ कि कहीं किसी के हाथ नहीं लग जाय। खैर प्रेम पत्र लिखने का सिलसिला चार सालों तक चलता रहा है पर सामने आने पर कभी हम दोनों ने एक दूसरे से प्यार की बात नहीं की। >>> |
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मैं उसके घर के पास ही बने एक कुंए से पानी लाता था। वहीं स्नान भी करता और इसी बहाने कुछ अधिक समय कुंए पर दे आता।
सिलसिला चल निकला और बहुत कुछ बदलने लगा। मन में रीना को पत्नी के रूप में पाने की उत्कण्ठ होने लगी। दसवीं की कक्षा में मैं था और रीना नवमी में। मन्नतें भी मंगता तो रीना को पत्नी के रूप में पाने की। लंबी कहानी है। फिर भी। गांव मे किसान का बेटा था। बुआ को संतान नहीं थी सो मैं ही संतान के रूप में जाना जाता था। फूफा का हाथ बंटाना मेरा काम था। जिसके तहत शाम में भैंस चराना, चारा लाना, चारा काटना सभी शामील था। खेती के समय खेत का सारा काम करना। हल चलाना सभी कुछ ग्रामीण दिनचर्या में शामील था। पर यह सब करते हुए रीना की याद आ जाती या फिर दिख जाती तो काम करने का अंदाज बदल जाता। भैंस चराते वक्त यदि वह कहीं से गुजर जाती तो गाने की धुन मेरे मुंह से निकलने लगती। क्या कुछ नहीं हुआ बहुत कुछ याद नहीं। रीना मेरे घर आती बुआ से बात होती रहती और मैं भी उस बातचीत में शामिल हो जाता। बुआ कहती भी ‘आंय रे छौरा मौगा हो गेलही’। पर मुझे ज्यादा से ज्यादा समय रीना क साथ बिताना अच्छा लगता और जीवन में प्रेम हो तो जीवन सफल होता है। प्रेम की जिस बात को आज समझ पा रहा हूं उसे बचपन में नहीं समझ सका था पर हां एक कमी रहती थी हमेशा। यदि रीना नहीं दिखे तो लगता था कुछ छूट गया। और प्रेम में त्योहारों का आनंद भी बढ़ जाता था और बरबस ही बचपन की याद आ गई। >>> |
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वसंत पंचमी की तैयारी को लेकर बच्चा कमिटि की बैठक हुई। इस बैठक में सरस्वती पूजा के दिन नाटक करने की तैयारी की गई। किसी ने दो रूपया चंदा दिया तो किसी ने पांच, और फिर अभिभावकों से पैसे मांग कर सरस्वती पूजा की तैयारी मे बाल मंडली जुट गई जिसमें रीना भी थी। यह आठवीं कक्षा की बात है। एक दिन में नाटक की रूपरेखा तैयार की गई। नाटक में मैं कृष्ण बना और रीना राधा। इस नाटक में मेरे कई साथियों ने भाग लिया। इस नाटक में मेरा दोस्त गुडडू भी भाग लिया था जो अभी एक फाइव स्टार होटल का मैनेजर है हरीश सागर के नाम से जाना जाता है। खैर पूजा समाप्त हुई हम लोगों ने प्रतिमा विसर्जन के क्रम मे खूब उधम मचाया।
अब आते है प्रेम रोग पर .... इस रोग के मौसम में जब होली आती तो अलग ही उत्साह लेकर। रंग लगाना है तो उसे ही लगाना है और वह बचने का प्रयास करती। हंसी ठीठोली होती और रूठना मनाना भी चलता। होली के दिन अपने साथियों के साथ होली खेलता। पहले कादो मिटटी की होली होती फिर रंग-अबीर चलता। होलैया की टीम ढोलक झाल लेकर गली गली धूमता जिसमें बुढ़े, जवान और बच्चे सभी होते और महिलाऐं छतों पर से कादो-रंग देती और होलैया गाली के रूप फगुआ पढ़ता। >>> |
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यह भी एक दौर था। कुछ गांवों में यह आज भी जीवित है पर ज्यादातर गांवों में समाप्त हो गईं। जिसका मुख्य वजह शराब को माना जा रहा है। एक से एक अश्लील होली के गीते गाये जाते और महिलाओं का नाम ले ले कर अश्लील फगुआ सुनाया जाता। ‘‘ऐ मोहन सिंह ऐ हो तनि मैगी (पत्नी) के दे हो।’’ ‘‘इम साल फगुआ ऐसी गेल पुआ पकैते ..... जर गेल।’’ एक गडा़ड़ी दाल चाउर एक गडा़ड़ी कोदो......... मोहन सिंह ने हुक्म दिया रमेश के बीबी को .....। इससे भी अश्लील फगुआ बिना किसी भेद भाव के होती। दादा, बाप बेटा सब साथ साथ। बंधन टूट जाता। जिनके घर दामाद आये हुए होते उनके यहां स्पेशल होली होती। दामाद को घर से बाहर निकाला जाता और ढोलक की थाप पर होली होती। फगुआ पढ़ा जाता। फगुआ पढ़ने मे एक्सपर्ट माने जाते थे छोटन चाचा। मेहमान को देख शुरू हो जाते।
पर फागुन की यह मादकता मेरे लिए नहीं होती। मैं होलैया के साथ तो होता पर मन हमेशा कहीं और होता। हर छत पर नजर रीना को तलाशती पर वह कहीं नहीं दिखती। वहां तो एक दम नहीं जहां होली हो रही हो। फागुन के अश्लील गीतों के साथ शायद वह मेरा सामना नहीं करना चाहती। यह शर्म थी गांव की उस गोरी का जिसने प्यार से अपना मन रंग लिया था। पर मैं भी कहां बाज आने वाला। कई चक्कर लगाता उसकी गली का। होली गाता हुआ निकलता पर वह नजर नहीं आती। बहुत गुस्सा आता और रात नौ बजे तक मैं उसकी गली के सैकड़ों चक्कर किसी ने किसी बहाने लगा आता। दोस्त पूछ ही लेते कहां गायब हो जाते हो, बहाना कुछ से कुछ बना देता। तीन चार फागुन गुजर गए और रीना को रंग लगाने का मेरे मन मे उठा अरमानों का तूफान घर जा कर ज्वारभाटे की तरह हीलोरे मार मार के थक जाती। फिर शुरू हो जाता रूठने का सिलसिला। >>> |
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बड़ा सिम्पल सा तरीका था। उसके घर की ओर खुलने वाली मेरी खिड़की खुलती ही नहीं। कुंए से पानी लाना बंद। स्कूल जाना बंद। घर से बाहर निकलने का रास्ता बदल जाता। मैं भरसक प्रयास यह करता की उसे दिखाई न दूं और चुपके चुपके मैं छत पर टहलते उस विरहनी को देख देख इतरा रहा होता जिसे उसके प्रेमी ने शायद ठुकरा दिया हो। अंत में प्यार का ज्वाराभाटा फूट पड़ता और वह मेरे घर धमक जाती।
बुआ से पुछती। ‘‘बबलुआ नै हो की मामा।’’ बुआ तो भोली ठहरी, कह देती हां रीना बउआ यहैं हो की । तब कुछ देर बाद इधर उधर की बात कर वह मेरे कमरे मे झांकती और उसके उदास चेहरे को नजदीक से देख मैं समझ जाता कि वह दो-तीन दिनो से खाना तक नहीं खाई है। हां उसका प्रेम पत्र जरूर मिला , जिसे पढ़ कर मैं उसके दर्द को देख लेता और उसमें रीना के रोने की आवाज और उसके आंसू मुझे दिखाई दे जाते। कैसा प्यार था। तीन चार साल बीत गए पर प्यार का इजहार का माध्यम महज प्रेम पत्र था। उसमें भी शब्द भी वैसे ही जैसा एक गांव का लड़का लिख सकता हो। हजारो गलतियां पर भाव जो उसमें होते वह हम दोनो के लिए किसी साहित्यिक प्रेम पत्र से कम कतई नहीं। >>> |
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‘‘बगलुआ’’ यह मेरा नाम था जो मेरी फूआ की सास जैतपुरवली पुकारती थी। गांव के जीवन में भी बहुत सीखने और देखने को मिला। ऐसी ही एक घटना थी भूत की कहानी। आज रात को अचानक फूआ की सास जैतपुरवली के पेट में दर्द उठा और वह बेचैन हो गई। पहले घर में, फिर बाहर यह हल्ला मच गया कि जैतपुरवली को किचिन ने धर लिया।
‘‘की होलाई हो’’ ‘‘किचिनिया पेटा में बच्चबा दे देलकै’’ मरकट्टी बाग में किचिनिया जैतपुरवली के पेटा में बच्चबा घुंसा देलकै, बेचारी छटपटा रहलखिन है’’ ‘‘कखने होलई ई’’ ‘‘संझिया, जानो हलखिन की मरकटी बगैचा में किचिन रहो है तभियो उधरे गेलखिन अब कने से भगत अइतै’’ मरकट्टी बागीचा गांव के बगल में ही आम का बागीचा था जिसके बारे में यह प्रसिद्धि थी कि शाम को वहां किचिन अर्थात भूत रहता है जो वहां से गुजरने वालों के पेट में बच्चा डाल देता है। गांव में एक गर्भवती महिला का निधन हुआ था जिसे वहीं जलाया गया था और लोग मानते थे की मरने के बाद वह किचिन बन गई है। >>> |
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गांव में जब भी लोगों का पेट फूल जाता तो लोग इसे किचिन का प्रकोप ही मानते थे और आज भी ऐसा ही हुआ। गांव में ही एक भगत जी रहते थे उनको बुलाया गया झाड़-फूंक हुई तब कहीं जा कर यह मामला शांत हुआ। आज तक यह पहेली पहेली ही है कि दर्द कैसे ठीक हो गया। खैर, बचपन से ही इन चीजों मे मेरा विश्वास नहीं था और मैं रात में भी आम का बगीचा मरकटटी बाग चला जाता था।
संयोग से एक शाम मैं साईकिल से बरबीघा से लौट रहा था। झोला-झोली का समय था और सड़क पर एक भी आदमी नजर नहीं आ रहे थे। जैतपुरवली के साथ किचिन प्रकरण अभी परसों ही घटा था और मैं वहां से गुजर रहा था। मरकटी बाग के जैसे जैसे नजदीक आता गया वैसे वैसे कलेजे की धड़कन बढ़ने लगी। चांदनी रात भी बिल्कुल सिनेमाई थी। बाग से अभी थोड़ी दूर ही था कि एक सफेद सी चीज के सड़क पार करने का बहम हुआ। बहम इसलिए कि मैं दाबे से नहीं कह सकता कि किसी चीज को देखा। बस लगा कि जैसे किसी ने सड़क पार किया हो। कलेजे की धड़कन और तेज हो गई। साईकिल की घंटी जोर जोर से बजाने लगा। >>> |
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आम तौर पर इस समय सड़क पर शाम में टहलने वाले लोग रहते थे पर आज क्या हो गया। कुछ मामला है कि कोई नजर नहीं आ रहा। कुछ ही क्षणों में कई सवाल मन में गुजर गए और साईकिल के पैंडिल पर पांव की रफ्तार तेज होने लगी। जैसे ही मरकटटी बाग के पास पहूंचा लगा कि कोई साईकिल के पिछले पहिये को जकड़ लिया हो और वह बढ़ ही नहीं रहा था। वह गर्मी और सर्दी के बीच का मौसम था पर मेरे चेहरे से पसीने की बूंद टपकने लगे और पूरा शरीर पसीने से लथ पथ हो गया। ऐसा लगा कि जैसे सांस थम ही जाएगी और आज मैं जिंदा यहां से नहीं जाउंगा। मेरा ध्यान भी पेट की ओर गया कहीं यह फूल तो नहीं रहा। गांव में एक मान्यता यह भी थी कि लोहा के संपर्क में रहने से किचिन या भूत नही पकड़ता सो मेरी पकड़ साईकिल पर और मजबूत हो गई। मुझे मन ही मन लग रहा था कि किचिन साईकिल छिनना चाहती है पर मैंने पूरी ताकत से साईकिल को पकड़ रखा था। जोर जोर से हनुमान चालीसा का पाठ भी प्रारंभ कर दिया। जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। साईकिल पर मेरे पांव का दबाब बढ़ता गया और मेरे शरीर में जितनी ताकत थी वह मैं साईकिल के पैडल को घूमाने में लगा रहा था और साईकिल बढ़ ही नहीं रही थी। किसी ने साईकिल को जकड़ लिया था। पर मैंने भी हार नहीं मानी और पैडल पर दबाब बनाता रहा, धीरे धीरे साईकिल बढ़ती गयी और मैं एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। घर तक पहूंचने में बहुत समय लगा, पर पहुंच गया। जान में जान आई, पर साईकिल का पहीया अभी भी नहीं घूम रहा था। >>> |
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पसीने से तर-बतर जब घर पहुंचा तो फूआ ने पूछ लिया:
‘‘कि होलउ रे, पसीने पसीने होल ही’’ मैं कुछ नहीं बोला, मेरे सीने की धड़कन बढ़ी हुई थी। मैं जाकर खटिये पर लेट गया। फूआ ने लाकर पानी दिया। पानी पीने के बाद मैंने बताया, ‘‘आज किचिनिया पकड़ रहलौ हल पर हमभी साईकिलिया छोड़बे नै कलिए।’’ खैर सुबह हुई और जब मैं साईकिल को जाकर देखा तो किचिन और भूत का सारा बाकया समझ में आ गया। साइकिल के पिछले पहिये में कपड़ा फंसा हुआ था जिसकी वजह से वह घूमने में दिक्कत कर रही थी। सारा मामला समझ में आ गया पर मन में उस बागीचे के बगल से गुजरते वक्त आज भी डर लगता। भूत के इस प्रकरण पर एक छोटी सी घटना याद आ गई। वह बचपन के दिन थे। मैं, गुडडू, बब्लू सहित कई दोस्त बरगद पेड़ के नीचे बैठे थे। झोला-झोली हो गई थी। तभी मेरे मन में एक खुराफात सूझी और मैं भूत भरने का नाटक करने लगा। मैं मूंह से अजीब अजीब आवाज निकालने लगा। आठ दस साथी वहां थे। पहले सभी ने इसे हल्के में लिया। किसी ने कहा देख यार यह सब मजाक ठीक नै हाउ। तो किसी ने कहा कि मैं डरने वाला नहीं पर मैं भूत भरने का नाटक करता रहा। झूमता रहा और आवाज निकालता रहा। एक एक कर सभी वहां से भाग गए पर गुडडू साहसी था उसने कहा कि हम डरे वाला नै हिअउ। नै भागबै। पर जब सभी भाग गए तो वह भी डरने लगा और जैसे ही वह भागने की कोशीश करने लगा तो मैं हंस पड़ा तब वह समझ गया कि मैं नाटक कर रहा था। >>> |
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