श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
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श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में) गीता-माहात्म्य जो गीता निशि-दिन गाता है, वह भव सागर तर जाता है जो गीता सुनता बार-बार, उसके मन उपजें सद विचार जो गीता को मन में धारे, उस नर के कष्ट मिटें सारे जिस घर में गीता का आदर, वह घर है स्वर्ग धरातल पर |
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भूमिका महारज शांतनु के पश्चात उनका बड़ा पुत्र चित्रांगद हस्तिनापुर के राज-सिंहासन पर बैठा। उसकी अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उसके छोटे भाई विचित्रवीर्य को राज-भार संभालना पड़ा। विचित्रवीर्य के दो पुत्र थे। एक का नाम धृतराष्ट्र और दूसरे का पांडु था। धृतराष्ट्र बड़ा था, पर जन्मांध था। इसलिए, हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी पांडु बना। पांडु के पुत्र युधिष्ठिर , भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पांडव कहलाए और धृतराष्ट्र के दुर्योधन, दःशासन आदि सौ पुत्र कौरव। राज्य पर पांडवों का अधिकार था। परन्तु दुर्योधन ने छल से उनसे राज्य हथिया लिया। इस कारण न्याय और अधिकार हेतु पांडवों के लिए लड़ना अनिवार्य हो गया। अर्जुन ने भाईयों से लड़ना उचित नहीं समझा, इसलिए उसने युद्ध करने से इनकार कर दिया। इस अवसर पर श्रीकृष्ण ने वीरवर अर्जुन को धर्मार्थ युद्ध लड़ने की प्रेरणा देने का उपदेश दिया। श्रीकृष्ण के इस उपदेश से प्रेरणा पाकर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गया। युद्ध आरंभ होने से पहले व्यास जी धृतराष्ट्र से मिलने आए। धृतराष्ट्र ने व्यास जी से प्रार्थना की - "मैं अंधा हूँ, इसलिए इस महान युद्ध में दोनों पक्षों से लड़ने वाले वीरों की वीरता और युद्ध-कौशल की जानकारी से वंचित रह जाऊँगा। आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे मैं यहाँ बैठे-बिठाए युद्ध का वर्णन सुन सकूँ।" धृतराष्ट्र के इस प्रार्थना को व्यास जी ने स्वीकार किया। उन्होंने अपने योगबल से संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। तत्पश्चात वे वहाँ से चले गए। इस दिव्य दृष्टि से संजय बैठे-बैठे महाभारय का समस्त युद्ध देखता रहा और धृतराष्ट्र को उसके बारे में बताता रहा। |
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पहला अध्याय
सेना वर्णन धृतराष्ट्र- मेरे और पांडु के बेटे कुरुखेत की पावन धरती पर जो हुए इकट्ठे लड़ने को और आपस में कट-मरने को उनका क्या हुआ बता, संजय; तू उनका हाल बता संजय संजय- तब देख पाण्डवों के लश्कर जो खड़े हुए थे सज-धज कर जा पास गुरु द्रोण के तत्क्षण दुर्योधन ने ये कहे वचन यह सजी खड़ी भारी सेना है पांडवों की सारी सेना इसका श्रृंगार किया जिसने इसको तैयार किया जिसने वह धृष्टधुम्न है द्रुपद लाल वह शिष्य आपका है कमाल जो इस सेना में खड़े वीर जो लड़ने-मरने को अधीर वे शुरवीर हैं वीर्यवान रण बीच भीम-अर्जुन समान वह है विराट, वह कुन्तिभोज, वह सात्यकि, वह उत्तमौज वह पुरुजित, वह है चेकितान, वह धृष्टकेतु है वीर्यवान वह शैव्य मनुष्यों में विशेष वह खड़ा हुआ काशी-नरेश वे द्रपदी के हैं पाँच लाल ये सब सेनानी हैं कमाल अब उन्हें जान लें पुण्यवान जो मेरी सेना के हैं प्रधान उन सब के नाम गिनाता हूँ मैं सहज सभी समझाता हूँ मेरी सेना के प्रथम वीर हैं भीष्म, आप और कर्ण धीर अश्वत्थामा व विकर्ण आर्य संग्राम-विजयी हैं कृपाचार्य है सोमदत्त का लाल बली हैं एक-से-एक कमाल बली ये सव सेना की शान-बान इन सब पर मुझको है गुमान ये सब हैं लड़ने को तत्पर मेरे हित मरने को तत्पर उनकी सेना के भीम ताज उनके नायक हैं भीम आज इसलिए जीतना नहीं कठीन है आज हमारी जय का दिन हैं भीष्म कुशल नायक अपने सच होंगे सब जय के सपने लेकिन फ़िर भी दूँ सब से कह अपने-अपने मोर्चे पर रह निज-निज कर्तव्य निभाना तुम मत कोई कमी उठाना तुम |
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शंख-ध्वनि
संजय- सुन दुर्योधन के वीर वचन जो पुलकित करते थे तन-मन उठ खड़े हुए भीष्म मानव महान निज सेना को कर सावधान यों कर भीषण हुँकार उठे जैसे वनराज दहाड़ उठे ले शंख युद्ध का बजा दिया सोई सेना को जगा दिया तब एक साथ सब ही बाजे थे जितने भी जंगी बाजे उन से भीषण आजाज हुई अम्बर डोला, भू काँप गई जिस रथ की शोभा थी महान रथ और न था जिसके समान उसमें बैठे थी पार्थ वीर थे साथ सारथी कृष्ण धीर दोनों ने शंख उठा कर में भर दिया घोर रव अम्बर में ले पांचजन्य का शंख हाथ अति घोर ध्वनि की यदुनाथ तब भीम ने भयानक नाद किया ले पौंड्रशंख को बजा दिया ले शंख मणिपुष्पक-सुघोष सहदेव-नकुल ने किया घोष काशी-नरेश धनुधारी ने और धृष्टधुम्न बलशाली ने सात्यकि शिखंडी भूपालों ने द्रौपदी के पाँचों लालों ने अर्जुन के लाल निराले ने उस बड़ी भुजाओं वाले ने विराट द्रुपद राजाओं ने दूसरे सभी योद्धाओं ने हे राजन! अलग-अलग सबने तब फ़ूँके शंख अपने-अपने उनसे भीषण आवाज हुई अम्बर काँपा, भू डोल गई कौरव-दल का दिल टूट गया साहस का पल्ला छूट गया |
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सेना-निरीक्षण
तीरों के चलने से पहले वीरों के लड़ने से पहले हाथों में ले कर धनुष-बाण अर्जुन बोला - हे दयावान इस रथ को जरा बढ़ा देवें रिपु-सेना मुझे दिखा देवें अर्जुन के ऐसा कहने पर रिपु-सेना में रथ ले जा कर (कृष्ण) बोले अर्जुन अब कौरवों पर ले डाल जरा तू एक नजर तब वीर पृथा-सुत अर्जुन ने देखा दोनों सेनाओं में हैं खड़े हुए सब बंधुगण चाचे, मामे, भाई, गुरुजन यों देख सभी अपने प्रियजन अर्जुन बोला हो शोकमग्न हे भगवन नहीं बता सकता क्या हुआ नहीं समझा सकता है शिथिल हुआ जाता शरीर मन होता जाता है अधीर तन कांप रहा, मुँह सुख रहा है नहीं मुझे कुच सूझ रहा कर से गांडीव गिरा जाता मैं खड़ा नहीं अब रह पाता |
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अर्जुन का मोह
अपनों से लड़ना ठीक नहीं है यह रण करना ठीक नहीं इसमें कल्याण नहीं भगवन सब दिख रहे उल्टे लक्षण मुझको पाना है राज नहीं मुझको पाना यश-ताज नहीं मुझको जिनके हित लड़ना है यश-राज प्राप्त यह करना है जीवन की इच्छा त्याग, अगर लड़ने को हैं वे हीं तत्पर फ़िर लड़ने का क्या अर्थ प्रभू यह लड़ना बिल्कुल व्यर्थ प्रभू मैं ऐसा कभी न कर सकता अपनों से कभी न लड़ सकता बिनमौत स्वीकार मुझे मरना लेकिन स्वीकार नहीं लड़ना यह रण कर के पाप लगेगा हीं मन को संताप लगेगा हीं अपने को मार न सुख होता तन को दुख, मन को दुख होता ये लोभ के मारे लड़ते हैं और पाप के पथ पर चलते हैं मैत्री का मोल नहीं जानें कुल-नाश के दोष नहीं मानें इससे बढ़कर है पाप नहीं इससे बढ़कर संताप नहीं कुछ हमें सोचना हीं होगा यह युद्ध रोकना हीं होगा कुल मिटे धर्म मिट जाता है तब पाप पंख फ़ैलाता है है पाप बहुत बढ़ जाता जब नारी दूषित हो जाती तब नारी के दूषित होने पर लेते हैं जन्म वर्ण-संकर इन वर्ण-संकर के दोषों से सारे समाज के लोगों के हो जाते हैं कुल-धर्म नष्ट हो जाती है जातियाँ भ्रष्ट इनके कुल और कुल-घातक पाते हैं सारे घोर नरक पिन्ड और जल-दान न हो पाता पितरों का तब नाश हो जाता ऐसे कुल-धर्म से गिरे लोग जन्मों तक भोगें नरक भोग इस कारण दुख होता भगवन हम सब हो कर बुद्धिमान-जन यह घोर पाप करने को हैं आपस में लड़-मरने को हैं हम स्वार्थ के मारे लड़ते हैं कुल-नाश से हम न डरते हैं मुझे शस्त्र-हीन पर वार करें कौरव मेरा संहार करें तो भी मैं बुरा न मानूँगा कल्याण इसी में जानूँगा यह कह रण में अर्जुन महान तज अपने कर से धनुष-बाण दुख के सागर में पैठ गया था जहाँ वहीं पर बैठ गया |
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दूसरा अध्याय
अर्जुन की निराशा संजय- तब उस निराश मन अर्जुन से तब उस हताश मन अर्जुन से जिसका तन, जिसका मन डोले भगवान कुपित हो कर बोले भगवान- क्या अर्जुन वीर महान हुआ? क्यों संकट में अज्ञान हुआ? यह श्रेष्ठ पुरूष का काम नहीं इससे होता है नाम नहीं इसलिए न साहस छोड़ सखे तू रण से मत मुँह मोड़ सखे हे अर्जुन कायरता तजकर उठ हो जा लड़ने को तत्पर अर्जुन- अपनों से लड़ना नहीं उचित अपनों को मार न होता हित अपनों से लड़, अपनों को मार भू पर निष्कंटक कर विहार जो भोगूँगा धन और धाम तो डोबूँगा मैं वंश-नाम यह पाप-पूर्ण जीवन जीना इससे अच्छा है विष ही पीना है बूरी-भली क्या बात प्रभू है मुझे नहीं क्या ज्ञात प्रभू है मेरे वश की बात नहीं है हार-जीत भी ज्ञात नहीं कायरपन ने आ घेरा है दिखता सब ओर अँधेरा है मोहित मति ने भरमाया है निज धर्म से मुझे गिराया है जो निश्चित हित-मय साधन हो हे भगवन मुझको बतला दो मैं भटका हूँ, भरमाया हूँ बन शिष्य शरण में आया हूँ बस वही मुझे दो ज्ञान प्रभू जिससे हो हित-कल्याण प्रभू देवों का स्वामी बन जाऊँ सुख, वैभव, राज भले पाऊँ पर जो दुख मन को जला रहा पर जो दुख तब को जला रहा उसका उपचार न पाऊँगा उससे उद्धार न पाऊँगा यह कह दुख में वह पैठ गया था जहाँ वहीं पर बैठ गया तब देख पार्थ को शोकाकुल तब देख पार्थ का मन व्याकुल बोले भगवान - जरा अर्जुन अब ध्यान से मेरी बातें सुन |
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ज्ञान-योग
दुख करना उचित नहीं जिस पर तू क्यों दुख करता है उसपर ? जिनको हो जाता आत्म-ज्ञान जो खुद को लेते समझ-जान इस बात की केवल उन्हें खबर नर कभी नहीं सकता है मर तू ही मुझको वह काल बता जब तू न था, जब मैं न था जब ये योद्धा, ये वीर न थे ये बड़े-बड़े रणधीर न थे ऐसा न कभी होगा आगे हम तुम न रहें, न रहें सब ये मरकर केवल नर-तन क्षय हो क्षय हो कर मिट्टी में लय हो पर नहीं सके नर-आत्मा मर इसलिए न इसकी चिन्ता कर आत्मा कभी न मरती है न किसी को मारा करती है आत्मा नित्य, आत्मा अजर आत्मा अजन्मी और अमर जैसे पहले पहने कपड़े उतार नर लेता है फ़िर नए धार वैसे हीं पहला तन तज कर आत्मा नया तन लेती धर आत्मा नहीं काटे कटती आत्मा नहीं बाँटे बँटती आत्मा नहीं क्षय हो सकती आत्मा नहीं लय हो सकती आत्मा नहीं जल सकती है आत्मा नहीं गल सकती है यह नहीं बदलने वाली है मरने न जनमने वाली है जो तू इसको नश्वर माने मरने-मिटने वाला जाने तो भी चिन्ता बेकार, सखे यह बात निपट निस्सार, सखे इक दिन सब को उठ जाना है सब का जीवन लुट जाना है फ़िर क्यों चिन्ता, क्यों शोक करें ? फ़िर मरने से क्यों पार्थ डरें ? हम पूर्व जन्म या बाद मरण होते हैं सारे ही बिन-तन बस बीच जन्म और मरण के ही हम पाते हैं काया नर की पर इसको जान न सकते हम इसको पहचान न सकते हम आत्मा अजर सबके तन में आत्मा अमर सबके तन में फ़िर तेरा मन क्यों इसके हित है होता व्याकुल और चिन्तित |
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