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naman.a 08-04-2011 09:52 PM

शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
क्या करे क्या न करे?(आचार-संहिता)


सभी मनुष्यमात्रका सुगमतासे एवं शीघ्रतासे कल्यण कैसे हो- इसका जितना गम्भीर विचार हिन्दु- संस्क्रुतिमे किया गया है, उतना अन्यत्र कही भी उपलब्ध नहि होता।
इसलिये भगवान गीता मे बडे स्पष्ट शब्दोंमें कहा हय-
"जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोडकर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को, न सुख को ना परमगतिको ही प्रप्त होता है।
अतः तेरेलिये कर्तव्य अकर्तव्य के लिये शास्त्र ही प्रमाण है-ये जानके तू सिर्फ़ शास्त्र विधान से हि कर्म करने चाहिये।(गीता १६,२३-२४)
तात्पर्य है कि हम- क्या करे,क्या न करे? इसकी व्यवस्थामें शास्त्रको ही प्रमाण मानना चाहिये। जो शास्त्र के अनुसार आचरण करते हैं, वे "नर" होते हैं और जो मनके अनुसर आचरण करते है वे वानर होते हैं। गीता मे भगवानने ऎसे आचरण करने वाले मनुष्य को असुर कहा है।

सभी पाठकोसे प्रार्थना है कि वे इस लेख का आध्ययन करे और इसमें आयी बातोंको अपने जिवन मे उतारनेकी चेष्टा करें॥
(प्रस्तुत लेख मे गीता प्रेस द्वारा प्रस्सिद्ध-१३८१ क्या करे क्या न करे?(आचार-संहिता) द्वारा-राजेंन्द्र कुमार धवल, मे से कूछ जिवन उपयोगि उक्तिया लि गई हैं।)

naman.a 08-04-2011 09:54 PM

Re: शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
सदाचार प्रशंसा-

सदाचारकी रक्षा यत्नपुर्वक करनी चाहिये। धन तो आता है और जाता है।

धन क्षिण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षिण नही होता॥

आचारहीन मनुष्य संसार मे निन्दित होता है और परलोकमें भी सुख नहीं पात।इसलिये सबको आचारवान होना चाहिये।

समय नुसार कर्तव्य।--
दोनो संध्याओं तथा मध्याह्नके समय शयन, अध्ययन, स्नान, उबटन लगाना, भोजन और यत्रा -इत्यादी चीजे नहि करनी चाहिये।

रात मे दहि नहि खाना चाहिये.

रत्रिको पेड के निचे नहि रहना चाहिये।

आमावस्याके दिन जो व्रुक्ष, लता आदिको काटता है अथवा उनका एक पत्ता भी तोडता है, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है।

naman.a 08-04-2011 09:56 PM

Re: शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
शयन(सोने की सही विधी)

सदा पुर्व या दक्षिणकी तरफ़ सिर करके सोना चाहिये। उत्तर या दक्षिण कि तरफ़ सिर करके सोने से आयु क्षिण होती है तथा शरीरमें रोग उत्पन्न होते हैं।

अधोमुख होकर, नग्न होकर, दुसरेकी शय्यापर, नहि सोना चाहिये।

टुटी खाटपर नहीं सोना चाहिये

सिरको निचा करके नहीं सोना चाहिये।

निद्रा से पहिले कम से कम १० कुल्हे करके हात पैर स्वछः करके(धो के) सोना चाहिये।

दिन मे कभि नहीं सोना चाहिये.

स्वस्थ मनुष्यको आयुकी रक्षा के लिये ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिये॥

naman.a 08-04-2011 10:06 PM

Re: शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
मल मुत्र का त्याग.
दिन मे उत्तर की ओर तथा रात मे दक्षिणकी ओर मुख करके मल मुत्र का त्याग करना चाहिये। ऎसा करने से आयु क्षिण नहीं होती।

सिर को वस्त्र से ढककर मल-मुत्रका त्याग करना चाहिये।

जुते,खडाऊ,चप्पल पहनकर, छाता लेकर और अन्तरिक्षमें मलमुत्र त्यान नहिकरना चाहिये।

मल त्यागके समय जोर जोर से सांस नहीं लेनी चाहिये।

खडे होकर अथवा चलते चलते मल मुत्र का त्याग नहीं करना चाहिये। सदैव बैठकर ही मल मुत्रादि का त्याग करे.
शौचाचार (शुद्धि)
शौचके बाद लिंगमे १ बार गुदद्वार मे तीन बार बाये हात मे दस बार दोनो हात मे सात बार तथा दोनो पैरोंमे तीन बार मिट्टी लगानी और धोनी चाहिये।- यह विधान ग्रुहस्थोके लिये है, ब्रह्मचारिओके लिये इस से दुगुना, वानप्रस्त-तीन गुना, संन्यासि-चौ गुना.

मलत्यागते समय गाने नही गाने चाहिये।

मल त्यागने के बाद बारह बार और मुत्र त्यागने के बाद चार बार कुल्ला करना चाहिये, भोजन के बाद १३ बार कुल्ले करने चाहिये.


जिसका अन्तःकरण शुद्ध नहि है, वह दुष्टात्मा मनुष्य हजार बार मिट्टी लगानेपर और सौ घडे जल से धोने पर भी शुद्ध नही होता॥

(नोट- आगर मिट्टि ना हो तो- गोबर(गो मुत्रा दि) की साबुन चल सकती है, पर चर्बी वाले उत्पादनो से बचके रहना, मुलतानि मिट्टी चल सकती है, अगर उपलब्धता हो तो तालाब के किनारे कि मिट्टि या नदि किनारे कि मिट्टी हि सर्व श्रेष्ट हैं॥ )

naman.a 08-04-2011 10:23 PM

Re: शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
स्नान
स्नान के बिना जो पुण्यकर्म किया जाता है, वह निष्फ़ल होता है। उसे राक्षस ग्रहण करते हैं॥

दुःस्वप्न देखने, हाजामत बनवाने, वमन होने, विश्टा होने, (ग्रुहस्तो के लिये- स्त्रि संग होने) शमशान भूमि में जानेपर वस्त्र सहित स्नान करना चाहिये॥

तेल लगानेके बाद, शमशान से लौटनेके बाद, हाजामत करने पर,(ग्रुहस्तो के लिये- स्त्रि संग होने),निंद से उठने पर.जबतक मनुष्य स्नान नहि करता तबतक वह चाण्डाल बना रहता है॥

भोजनके बाद, रोगी रहनेपर, स्नान नहीं करना चाहिये॥

बिना शरीर कि थकावट दूर किये और बिना मुख धोए स्नान नहीं करना चाहीये॥

नग्न होकर कभी स्नान नही करना चाहिये इससे जलदेवता का अपमान होता है॥

पुरुषो को सदा सिर के उपरसे स्नान करना आवष्यक है॥

स्नान के बाद आपने अंग को तेल कि मालिश नहि करनी चाहिये तथा गिले वस्त्रोंको झटकारना नहीं चाहिये॥

स्नान के बाद हाथ से शरीर को नहीं पोछना चाहीये॥

स्नानके समय पहने हुए भिगे वस्त्रसे शरीरको नहीं पोंछना चाहिये। एसा करने से शरीर कुत्तेसे चाटे हुएके समान अशुध्द हो जाता है. जो पुन्ह स्नान करने से ही शुद्ध हो जाता हैं॥

naman.a 08-04-2011 11:24 PM

Re: शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
वस्त्र
विद्वान पुरुष धोबी के धोये हुए वस्त्र को अ शुःद्ध मानते हैं॥

वस्त्र के उपर जल छिडककर ही उसे पहनना चाहीये॥

पुराने और मैले वस्त्र नहीं पहनने चाहीये.

भिगे वस्त्र तो कभी नहीं पहनने चाहीये॥

सोनेकेलिये दुसरा वस्त्र होना चाहीये, सडकपर घुमनेके लिये दुसरा वस्त्र, और देव कार्यके लिये दुसरा
वस्त्र हि धारण करना चाहीये.

नील मे रंगा हुवा वस्त्र दूर से ही त्याग देना चाहीये.

naman.a 09-04-2011 02:05 PM

Re: शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
भोजन
दोनो हात, दोनो पैर और मुख इन पाच अंगोको धोकर भोजन करना चाहीये ऐसा करने वाला मनुष्य दिर्घजीवी होता हैं॥

आंधेरेमे भोजन नहीं करना चाहीये॥

भोजन सर्वथा पुर्व या उत्तर की ओर मुख करके करना चाहिये॥

भोजन सदा एकांत मे ही करना चाहीये॥

बिना स्नान किये भोजन करने वाला मानो विष्टा खाता हैं॥

बिना जप किया भोजन करने वाला पिब और रक्त खाता हैं॥

बिना हवन किये भोजन करने वाला किडे खाता हैं॥

संस्कार हीन अन्न खानेवाला मुत्रपान करता हैं॥

जो बालक व्रुद्ध आदि से पहले भोजन करता है वो विष्टा खाता है>>>॥।

ईख,जल,दूध,कन्द,ताम्बुल,फ़ल, और औषध का सेवन बिना स्नान किये करसकते हैं॥

जो मनुष्य सिर को ढककर खाते है, दक्षिण कि ओर मुख करके खाते हैं, जुते पहनकर खाते हैं, और पैर धोये बिना खाते है, उसके उस अन्न को प्रेत खाते है तथा उसका वह सारा भोजन आसुर समजना चाहिये॥

भोजन कि वस्तु गोद मे रख कर नहीं खानी चाहिये॥
( शय्या पर बैठके भोजन कदापी नही करना चाहिये॥

जुठा अन्न किसको न दे और स्वयं भी न खाये॥

मल मुत्र का वेग होने पर आन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये ॥

भोजन बैठकर हि करना चाहिये॥

किसि के साथ १ पात्र मे भोजन न करे,जिसे रजस्वला स्त्रि ने छु दिया हो उस भोजन को त्याग दे॥

जो स्त्रि का जूठा भोजन खाता है, साथ १ बर्तन मे खाता है वह राक्षसी भोजन होता हैं॥

पानी पिते समय, भक्षण करते समय जो व्यक्ती मू से आवाज निकालता है उसे मदिरापान का पाप लगता हैं॥

भोजन करते समय पहले मिठा पदर्थ खाये, बिचमे नमकीन और खट्टी वस्तुए खाय़े। उसके बाद कडवे और तिक्त पदर्थो को ग्रहण करे॥

भोजन के अन्त मे दही नही पीना चाहिये॥

रात्री मे भर पेट भोजन करना चाहिये.

(जिन्हे पेट कि परेशानी है वो लोग- भोजन पष्चात पानि मे निम्बु निचोडके पि लिया करे)

naman.a 12-04-2011 08:15 PM

Re: शास्त्रोक्त संस्कार (आचार संहिता)
 
अन्न(क्या खाए क्या न खाए)(कैसे खाए)

१. केश और किडोसे युक्त, कुत्तो से सुंघा हुआ,दुबारा पकायागया, चान्डाल पतित तथा रजस्वला स्त्री से देखा गया, गौ द्वारा सुन्घा हुआ, ऐसे अन्न का त्याग कर दे॥

२.अन्न खाते समय भगवान का स्मरण करके, अन्न ब्रह्मार्पण करके खाना जरुरी है॥

३.खूद पकाके खूद खाना सर्वोत्तम॥
**जल**-

१.अंजलीसे जल नहीं पीना चाहिये॥

२.बाये हात से जल उठाकर अथवा जलमे मुंह लगाकर (पशू की तरह) नही पीना चाहिये॥

३.बाये हात से पिया गया जल मदीराके समान माना गया हैं तथा उससे शुद्धि चंद्रायान व्रत से हो सकती हैं॥

४.खडे होकर जल नहीं पीना चाहिये॥

५.यदि पानी पीते-पीते उसकी बुंन्द मुंहसे निकलकर भोजनमें गिर पडें तो वह अन्न खाने योग्य नही मानाजाता॥


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