उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
1 Attachment(s)
उपन्यास
टुकड़ा - टुकड़ा सच उपन्यासकार : डॉ. राकेश श्रीवास्तव विनय खण्ड - २, गोमती नगर, लखनऊ, इंडिया http://myhindiforum.com/attachment.p...1&d=1328460013 |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
स्पष्टीकरण
============== इस कहानी के समस्त पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं और वास्तविक जीवन से इनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है . अचेतन में संचित स्मृतियों के कारण यदि कोई संवाद अथवा प्रकरण किसी से मेल खाता हो तो इसे मात्र एक संयोग ही समझा जाये . नोट - सर्वाधिकार लेखकाधीन . |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 1 ) निरंकुश हवा उदण्ड तूफ़ान में परिवर्तित होने की धमकी दे रही थी और भटकती मनहूस दुष्टात्मा की भांति अजीब डरावनी आवाजें बिखेरती हुई अंगद के पाँव से मज़बूत विशाल वृक्षों से सर टकरा रही थी----जैसे युगों - युगों से अटल विश्वास को उखाड़ फेंकना चाहती हो . सनसनाते नम ठण्डे झोंके ----शरीर में शूल की भांति चुभकर ----गर्म खून को जमा देने की जिद पकड़े थे . नीले मखमली आकाश में पैबंद से टंके जल से बोझल बादल के टुकड़े ----नीचे----बहुत नीचे तक झुककर पेड़ों के झुरमुट में कुछ खोज सा रहे थे . संभवतः दूर बाहें पसारे बूढ़े गरीब पीपल की अधनंगी टहनियों में अटके - उलझे चाँद को ढूँढ रहे थे . ऊंची चढ़ाई पर लाज से सिकुड़ी सर्पिल सड़क किसी रूपसी की पतली कमर की भांति बलखाती - लहराती हुई दूर ----बहुत दूर ----ऊँचाई तक अविराम चली जा रही थी . जैसे ऊंचे आकाश को छू लेना चाहती हो .मूर्ख सड़क नहीं जानती थी कि भला हरि - कथा – से अनन्त आकाश को कभी कोई छू सका है ! सामान्य जनों के लिए खराब और नवविवाहितों के लिए बेहद हसीन व दिल को शरारती बनाने वाले इस मौसम में - - - इसी पतली सी सड़क पर एक खूबसूरत कार भागी चली जा रही थी - - - उस विलंबित कमसिन लड़की की तरह , जिसका प्रेमी दूर खड़ा देर से उसे सम्मोहक आमंत्रण दे रहा हो . नवयौवना - सी निखरी कार पर सवार चंचल के सावधान पाँव एक्सेलरेटर पर दबाव बढ़ाते जा रहे थे . वह पगलाए मौसम के कुछ कर गुजरने से पूर्व सकुशल घर पहुँच जाने की उतावली में था . अचानक उसकी सांस रुकी , धड़कन बढ़ी और जबड़े भिंच गए . उसने संयमित घबराहट में ब्रेक पर पूरी ताकत के साथ अपने जीवन का सम्पूर्ण ड्राइविंग - कौशल पल भर में उड़ेल दिया . कार एक तेज चीत्कार करके जहाँ की तहाँ चिपक गयी . पुराने सयानों ने सच ही कहा है कि गाड़ी भली - भाँति चला लेना ही कला नहीं है . कला है - - - सामने से सुरसा - सा मुँह बाए चली आ रही विपत्ति को ठेंगा दिखाकर कुशलता पूर्वक अपना बचाव करना और दुर्घटना को टाल देना . बहरहाल - - - सब कुछ पलक झपकते हो गया . ये पल , वो पल था - - - जिस पल सावधान न रहे - - - चूके तो टिड्डियों के विध्वंसक दल - सा ये पल - - - पल भर में जीवन की पूरी फसल ही चट कर जाता है . या फिर अपशगुनी काली बिल्ली का रूप धरे उम्र भर रास्ता काटा करता है . या तो उल्लुओं - सी मनहूस शक्ल लिए ये पल जबरदस्ती कन्धों पर सवार होकर जीवन भर भयानक कहकहे लगाकर घटना विशेष की कडुवी स्मृतियों को मन - मस्तिष्क से मिटने नहीं देता और उस भारी पल के अनचाहे बोझ को ढोते रहना व्यक्ति की नियति बन जाती है . खैर - - - उस पल पर सकुशल पार पाते ही - - - इस ठण्ढे मौसम में भी चंचल के माथे पर स्वेद - कण चुचुआ आये और सम्पूर्ण शरीर के रोयें खतरे में फंसी जंगली साही के काँटों की भाँति तनकर खड़े हो गये , क्योंकि नियंत्रित कार के आगे दन्न से कूदकर किसी लड़की ने अपनी जिंदगी के दस्तावेज को बंद करने की कोशिश की थी . एक नाकामयाब कोशिश . आत्महत्या का असफल प्रयास . संभवतः उस खास लड़की की सोच भी ऐसी आम रही होगी कि उसका चाहा हुआ ही घटित होगा . किन्तु क्या सदैव ऐसा हुआ है ! प्रायः तो नहीं . कोई अपने ही अतीत में झांके - - - तो पायेगा कि उसके जीवन में वह काल - खण्ड भी मुस्कराया है , जब उसने मिट्टी को भी हाथ लगाया तो सोना होता चला गया . चाहे - अनचाहे उपलब्धियों की झड़ी लग गयी . और वक्त का दौर ऐसा भी भारी पड़ा , जब सर्वोत्तम प्रयासों के पश्चात भी अधकचरे या फिर प्रतिकूल परिणाम प्रकट भये . और कभी - कभी तो जीवन में वह सब स्वतः घटित होता चला जाता है , जिसके विषय में कभी सोचा ही न गया हो . कोई तैयारी , कोई योजना ही न रही हो . योजनाबद्ध प्रयास के फलीभूत होने - - - न होने - - - कम या अधिक होने के लिए सूत्रधार तो कोई और ही है . शायद ईश्वर - - - या फिर भाग्य . जो कह लो . तन - मन पर यथासंभव नियंत्रण आते ही , झट से कार खोलकर चंचल पट से बाहर निकला और ढोल की तरह बज रही दिल की थापों के बीच उसने बेसब्र निगाहों से धराशायी लड़की को भरपूर निहारा . यह देख जानकर कि लड़की लगभग सही सलामत है , उसने वैसे ही भरपूर चैन की सांस ली , जैसी कि कोई मुल्जिम अदालत से बा इज्जत बरी होने पर लेता है . कार के आगे पड़ी मरने की असफल आकांक्षा रखने वाली लड़की उसकी तरफ ऐसी बेबस नजरों से निहार रही थी जिसमे जिन्दगी और मौत - - - दोनों के ही हाथों से फिसल जाने का दोहरा दर्द छलछला रहा था , उसकी डबडबायी आँखें और फड़फड़ाते होंठ मानो शिकायत कर रहे थे कि क्यों बचा लिया मुझे ! मुझे बचाकर ज़ुल्म किया तुमने . चंचल ने उसकी केले के छिले ताने - सी स्निग्ध बांह को सहारा देकर उसे खड़ा कर दिया . देखा - - - कि सामान्य सांसारिक पुरुषों की भाँति ईश्वर ने भी उस आकर्षक युवती के प्रति ज़रुरत से कुछ ज्यादा ही नरमी बरती थी . क्योंकि चोट अधिक नहीं आई थी . कूदकर गिरने से कुछ खरोंचें भर आयीं थीं उसकी कमनीय काया पर . " ए लड़की ! क्यों जान देना चाहती थी ? " चंचल स्वाभाविक क्रोध वश पूछ कर बड़बड़ाया -- " किस्मत थी , जो बच गयी - - - वर्ना तुम्हारी मौत का अनचाहा बोझ मुझ बेगुनाह को भी बेवजह जिन्दगी भर ढोना पड़ता . " " मुझे मर जाने देते . मरने क्यों न दिया ! क्यों बचाया आपने ? " एक सांस में कहकर लड़की किसी असहाय बच्चे की भाँति सुबक - हिचक कर रोने लगी . उसकी आँखों से अनवरत उमड़ती गंगा - जमुना ने सैलाब का रूप ले लिया . चंचल उसमे बिना बहे झुंझलाया -- " तुम्हे मर जाने देता और खुद जेल की चक्की पीसकर अपनी ज़िन्दगी को घुन लगा लेता ? आखिर मरना क्यों चाहती थी ? " " क्योंकि मै जीना नहीं चाहती ." "वो तो समझा - - - लेकिन भाग्य का लिखा तो कोई मिटा नहीं सकता . चॉक और डस्टर तो विधाता के हाथ है और शायद वो नहीं चाहता कि तुम अभी मरो . इसलिए तुम दैवयोग से बच गयी . " मगर मै जीना नहीं चाहती . अब तक की ज़िन्दगी को प्याज की परतों की तरह खूब उधेड़ कर परखा - - - मगर सिवाय बदबू के कुछ हाथ नहीं आया . अब तो मेरे सारे सपने ही मर चुके हैं . जीने की चाहत ही ख़त्म हो गयी है . क्योंकि ये घिनौनी बदबूदार ज़िन्दगी मुझे चैन से जीने नहीं देती . पग - पग , पल - छिन दगा देती है . "वह रोते - रोते बोली और उसके दम तोड़ चुके सपने मानो सड़ - पिघल कर कतरा - कतरा उसकी आँखों से बहते रहे अब लड़की के प्रति चंचल के मन - आँगन में दया उमड़ आयी . वैसे ये तो होना ही था . नारी के आंसुओं का गुनगुनापन तो पत्थर को भी पिघला कर मोम बना देता है . चंचल तो मात्र हाड़ - मांस का धड़कता भावुक पुतला था . उसने अपनी उम्र से बड़ा होकर शिक्षकों की तरह समझाया -- " सुनो - - - सपनों के मर जाने से अधिक खतरनाक स्थिति और कुछ भी नहीं . सबसे अधिक विपन्न वो होते हैं , जिनके पास सपनों का अभाव है . सपने थमे तो विकास थमा . सपना ही तो मनुष्य और जानवर के बीच भेद करने वाली रेखा है . व्यवहारिक सपने ही तो तरक्की का राज हैं . इसीलिये , मेरी मानो तो सपनों को कभी मरने मत दो . और देखो- - - ज़िन्दगी अगर सरासर बेवफाई पर ही उतर आये तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम मौत से याराना गाँठ लो . तुम्हें मौत से लड़ना चाहिए . किसी उम्मीद के छोटे से कतरे को जीने का सहारा बना लेना चाहिए . और फिर - - - अगर मरना ही है तो हथियार डाल कर क्यों मरो ! लड़ते - जूझते , कुछ कर गुजर कर क्यों न मरो -- बहादुरों - सी यादगार मौत . खैर - - - अब मै तुम्हे मरने तो नहीं ही दूंगा . " " देखिये - - - मुझ पर रहम समझ कर अन्जाने में ज़ुल्म न कीजिये . जिसने मरने की ही ठान ली , उसे भला कोई कब तक बचा सकता है ! मै हर हाल में मरना चाहती हूँ . कृपया अपनी कार तले रौंद कर मुझे इस ज़िन्दगी के नर्क से आजाद करने का उपकार कर दीजिये . इस सन्नाटे सुनसान में कोई भी यह दृश्य देख नहीं पायेगा . जमाने की निगाहों में आपके उजले दामन पर कोई दाग भी न आएगा और मुझे भी इस तिल - तिल मरती ज़िन्दगी के कष्ट से एकबारगी छुटकारा मिल जाएगा . " " क्या खूब दर्शन समझा रही हो मुझे ! इस सुनसान में तुम्हारी निराशा - जनित इच्छा पूरी कर दूं तो जमाने की निगाहों से तो बचा रहूँगा , मगर खुद से खुद को कहाँ छिपाता फिरूंगा ! एक अपराध - बोध उम्र भर मेरा पीछा करता रहेगा . क्योंकि आदमी दुनिया से तो नज़र बचाकर भाग सकता है लेकिन स्वयं से भाग कर कहाँ जा सकता है ! अतीत के अंधेरों में जान - समझ कर किये गए गुपचुप पाप उम्र भर प्रज्ञापराधी का निरंतर पीछा करके उसे इस कदर झिंझोड़ा करते हैं कि इनको ढकने - छिपाने में अपनी समस्त ऊर्जा खपाता व्यक्ति वर्तमान को कभी ठीक से जी ही नहीं पाता . " चंचल उम्र से अधिक लम्बे बुरे तजुर्बे झेल चुकी लगती अभागी को समझाता रहा . फिर बोला -- " लगता है , लाचार हो - - - बेबस हो ! " " हाँ - - - क्योंकि औरत हूँ . " वह रोते - रोते बोली . " मगर मानो तो - - - अब तो तुम्हें एक नई ज़िन्दगी मिली है - - - अब क्यों रोती हो ? " " रोना तो सृजन के साथ ही हर स्त्री का भाग्य है - - - और रोते - रोते अब तो जीवन में मेरी रूचि ही समाप्त हो चली है . " "किन्तु हाथ पर हाथ धरे भाग्य को कोस - कोस कर अकारथ आंसू बहाते रहने से तो ज़िन्दगी पार न होगी . हाँ - - - एक बात यदि खूब ध्यान से समझ लो तो तुम्हारे आँसुओं का शायद कोई उपाय निकल आये . देखो - - - ज़िन्दगी योजनाबद्ध तरीके से गढ़ी मिली तीन घंटे की कोई रोचक रंगीन फिल्म नहीं . ये तो बिना आवेदन ही सुखद संयोग से हाथ लगा कोरा स्केच मात्र है . जिसमें परिस्थितियों से तालमेल बैठाते हुए बड़े जतन से खुद ही रंग भरते - बदलते रहना पड़ता है . इसके बावजूद - - - यदि किसी की शरारत या वातावरण की मार अगर मन पसन्द चटक रंगों को बदरंग भी कर दे तो उसे पुनः - सजाते - संवारते रहना पड़ता है . अनमोल ज़िन्दगी को निरंतर खूबसूरत बनाए रखने के लिए अनवरत कठोर प्रयासों की आवश्यकता पड़ती है . सारी बातों का सार - संक्षेप ये है कि ज़िन्दगी को बड़े जतन से खुद ही बुनना पड़ता है . जो मन - मेहनत नहीं लगाते , उन्हें सादी काम चलाऊ कंबली से ही सन्तोष करना पड़ता है . इसके विपरीत जो लोग एकाग्रता से बारम्बार सवोत्तम प्रयास करते हैं , वो अपनी ज़िन्दगी को खूबसूरत ईरानी कालीन सा बुन डालते हैं . इसलिए जब मनोदशा सामान्य हो जाए तो फुर्सत में मेरी बातों के अर्थ तलाशने की कोशिश करना . शायद काफी कुछ हाथ लग जाए . अभी तो चलो - - - आस पास के किसी दवाखाने में तुम्हारी मरहम - पट्टी करवा दूं . " अचानक कुछ सोचने के बाद चंचल ने मुस्कराते हुए उससे पूछा -- " लेकिन क्या मेरे साथ - - - एक अन्जान अकेले पुरुष के साथ - - - कार में बैठने में तुम्हे स्त्री सुलभ डर नहीं लगेगा ? " चंचल के व्यंग को समझ कर - - - आंसू पोंछकर - - - उसने जवाब दिया -- " जिसे मौत को गले लगाने में भय नहीं लगा - - - वो भला एक आदमी से क्योंकर डरेगी ! और वो भी उस व्यक्ति से - - - जो उसका जीवन - रक्षक हो . वैसे भी मेरा जीवन जिस अवस्था पर आ पहुंचा है , वहां भय अथवा साहस , ख़ुशी या फिर गम - - - इन सबकी अनुभूतियाँ - - - इन सबके भेद इस समय समाप्त हो चले हैं ." सच ही तो है - - - भय साहस , ख़ुशी गम - - - ये समस्त भाव व्यक्ति की मनोदशा और काल विशेष पर आश्रित हैं . कभी - कभी व्यक्ति विशेष की मनोदशा प्रयास वश या फिर परिस्थितियों वश स्थायी अथवा अस्थायी रूप में उस अवस्था को छू लेती है - - - जहाँ ख़ुशी या गम , भय या साहस - - - इन सबमें भेद करने की , इन्हें अनुभव करने की प्रवृत्ति शून्य हो जाती है . सभी कुछ समान और तटस्थ रूप से ग्राह्य हो जाता है . लड़की कार में , ड्राइवइंग - सीट के बगल में बैठ गई . चंचल भी निर्धारित जगह पर पसर कर कार चलाने लगा . उसने कार यथासंभव अधिकतम गति पर झोंक दी . यह सोचकर कि लड़का यदि कार तेज चलाये , तो बगल विराजी लड़की या तो डरकर सहम जाती है - - - या फिर लड़के के ड्राइवइंग - कौशल पर मुग्ध हो जाती है - - - और प्रभाव तो दोनों ही स्थितियों में पड़ता है . वैसे भी लड़कियों पर प्रभाव गांठने का कोई भी अवसर हाथ से न फिसलने देना , लड़कों के जन्मजात स्वभाव में शामिल होता है . चलती कार में चुप्पी ठहरी थी . मानो दोनों जन लखनवी अन्दाज ओढ़े पहले आप - पहले आप की उम्मीद में मौन साधे हुए थे . अचानक लड़की चंचल की दबी नज़रों के स्पर्श की सुरसुरी से सिकुड़ कर छुई मुई हो गई . शायद भगवान औरतों को एक छठी इन्द्रिय भी देता है - - - और इतनी संवेदनशील देता है कि आँखों की तो जाने दो , उनका शरीर भी पुरुषों के मनोभावों तक को बहुत सहजता से पकड़ लेता है . वह भी चंचल की निगाहों के शालीन स्पर्श की गुदगुदी अपने सम्पूर्ण शरीर में क्रमशः अनुभव कर रही थी . सचमुच - - - चंचल बीच - बीच में मौका तलाश कर कनखियों से लड़की की तरफ निहार कर पुरुष - स्वभाव का परिचय दे रहा था . उसकी चोर नज़र लड़की के रेशमी चेहरे से फिसलती हुई - - - यौवन के ढलान से अटकते - लुढ़कते उसके गोरे नाज़ुक चरण कमलों तक जा पहुंची . कुल मिलाकर उसने अपनी चोर नज़रों की पद - पट्टिकाओं पर चंचल मन को सवार कराकर लड़की के बर्फ - से चिकने बदन पर दूर - दूर चहुँओर जी भरकर मजेदार स्कीइंग करा डाली और बेमन से रुका तभी , जब आत्मा के ब्रेक ने उसे मजबूर कर दिया . इस बहाने पहली बार उसकी अनुभव हीन उत्सुक आँखों ने अपने इस विशिष्ट अन्दाज़ से लड़की के शरीर के चप्पे - चप्पे का स्वाद जी भरकर चखा - छका और उसके सम्पूर्ण सौन्दर्य को अपने भीतर तक अनुभव किया . अपने इस सुखद निरीक्षण के बीच उसने पाया कि लड़की की जुल्फ जन्नत की गलियों जैसी थीं . उसके दांत मोतियों और कान सीपियों जैसे थे . उसके होठ किसी खूबसूरत ग़ज़ल की दो पंक्तियों जैसे थे . शरीर गदराये यौवन के बोझ से झुका - झुका और रंग - - - हाय - - - मत पूछो - - - ऐसा लगता था , जैसे दूध से भरे कांच के बर्तन में चुटकी भर गुलाल गिर गया हो . काली साड़ी उसके गोरे बदन से इस तरह लिपटी थी , जैसे चमकते चाँद से बदली . पतली कमर उन्नत उरोजों का भार वहन करते - करते लचकी पड़ रही थी . आँखों की मदिरा छलकी पड़ रही थी . ऐसा मनभावन था उसका रूप . लगता था , जीवन्त हो उठी खजुराहो की कोई मूरत चल - भटक कर उसके बगल में आ बैठी हो , जिसके शरीर से महुआ की मादक महक आ रही थी . चंचल की तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि मात्र एक शरीर के अन्दर इतना सौन्दर्य समा कैसे गया ! प्रभु की लीला , प्रभु ही जाने . उसने मौन तोड़ा -- " नाम क्या है तुम्हारा ? " " पायल . " छोटा सा उत्तर दिया उसने - - - और उसकी वाणी कार में ऐसे छनकी , जैसे खेत में पकी खड़ी अरहर की फलियाँ पुरवा का झोंका पाकर पायल - सी बज उठी हों . " देखो पायल - - - तुम मुझे अपना हितैषी समझो और सच - सच बताओ - - - तुम कौन हो और किन कारणों वश ज़िन्दगी की अनमोल धुन पर संगत बिठाने में असफल होकर ज़िन्दगी को ही ख़त्म करने पर तुली थी . " चंचल ने प्रश्न के साथ - साथ मुस्करा कर मीठा सा मजाक भी किया -- " कहीं किसी लड़के ने प्यार में बेवफाई तो नहीं की ? वैसे मै तो यही सुनता आया हूँ कि औरतें बेवफाई को अपना ही सुरक्षित अधिकार समझती हैं . " [1] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
मगर पायल ने इस व्यंग को दिल पर न लेकर अपने अतीत पर से पर्दा उठाना शुरू कर दिया . वह बोली -- " कुछ समय पूर्व तक मेरा भी एक सुखी सम्पन्न परिवार था . परिवार में मैं , मेरे माता - पिता और पिता का दूर का लगा - छुआ एक अधेड़ उम्र का रिश्तेदार था . जिसका शेष परिवार दूर गाँव में रहता था . वो मेरे पिता के फल फूल रहे व्यवसाय में उनकी सहायता करता था और बदले में प्राप्त होने वाली धनराशि से अपने परिवार का भरण - पोषण करता था . मै उसे स्वाभाविक रूप से अंकल कहकर संबोधित करती थी . कुल मिलाकर हमारा जीवन खूब हंसी - ख़ुशी बीत रहा था - - - लेकिन शायद हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के प्रतिफल स्वरूप ईश्वर की आँख में हमारी ख़ुशी खटकने लगी और उसने हमारे खुशहाल परिवार पर अपने ज़ुल्म कि बिजली गिरा दी . अचानक एक दुर्घटना में मेरे माता - पिता मारे गए . अभी मै इस सदमे से उबर भी न पायी थी कि अनायास अपने संरक्षण में आयी मेरे पिता की दौलत ने अंकल की मति भ्रष्ट कर दी . उसकी छिपी हुई बुराइयां कछुए की गर्दन की तरह निकल कर सामने आ गयीं . उसने जुए , शराबखोरी और अय्याशी में मेरी सारी संपत्ति खानी - उड़ानी शुरू कर दी . साथ ही उसने मौके का फायदा उठाकर एक और काम बड़ी चतुराई से किया . वो था अपनी चार - चार सयानी लड़कियों की ताबड़तोड़ शादी करना . चार की चारों बहनें बदकिस्मती से बदसूरत थीं . इसीलिये उसको हर लड़की की शादी के वक्त एक मोटी रकम बदसूरत बेटी पैदा करने के जुर्म में बतौर हर्जाने के दहेज़ की शक्ल में अदा करनी पड़ती थी . उसकी समस्या ये भी थी कि एक लड़की हाथ पीले करके बंदरगाह से अपना लंगर छुड़ा भी न पाती थी कि दूसरी तैयार बैठी लड़की रवानगी की सीटी बजाने लगती थी . नतीजा ये निकला कि उनको फटाफट निपटाते - निपटाते उसने मुझे कंगाल कर दिया . उसके बाद मोटी रकम के लालच में उसने मुझे एक ऐसे शराबी रईस बूढ़े के साथ ब्याहना चाहा जो कि शरीर के मामले में गीले आटे जैसा ढीला और लुजलुजा हो चुका था . जिसके गले यदि बंध जाती तो निश्चित ही शादी निभाते उसका दम फूलने पर डर बना रहता कि कहीं उसी मेरी वक्त कलाइयाँ और मांग खाली न हो जायें . सो मैंने दृढ़ता से इनकार कर दिया . इसलिए निकम्मे हो चुके अंकल को जब धन - प्राप्ति का कोई दूसरा उपाय न सूझा तो उसकी शराबी नज़र मुझ पर अटक गई . उसने मुझे बहलाने - फुसलाने का प्रयास शुरू कर दिया . वह मुझसे वेश्यावृत्ति करवाकर - - - मेरी कमाई से खुद गुलछर्रे उड़ाना चाहता था . मेरे इन्कार करने पर उसने मुझे मारना - पीटना शुरू कर दिया . बदनामी के डर से - - - मै ये बातें किसी से बताने में भी झिझकती थी . किन्तु मै अपने फैसले पर डटी रही और मेरा शराबी अंकल अपनी जिद पर अड़ा रहा . आखिर एक दिन उसने मुझे बेचने का फैसला कर लिया . और जैसा कि प्रायः होता आया है कि पहली - पहली बार औरतों के ज़िन्दा गोश्त का मूल्य अधिक होता है - - - सो एक कामी सेठ करोड़ीमल ने मेरी एक रात कि कीमत बीस हज़ार रूपये लगा दी . और दस हजार रूपये मेरे शराबी अंकल को अग्रिम दे दिये . मेरे लाख रोने - चिल्लाने और मना करने के बावजूद मेरे अनोखे अंकल का दिल नहीं पसीजा - - - और उसने मुझे उस बदमाश सेठ के गंदे हाथों मैला होने के लिए सौंप दिया . जब वो कामान्ध सेठ अपनी कोठी पर मेरे साथ जबरदस्ती अपना मुंह काला करने की कोशिश कर रहा था तो अचानक मैंने मौका पाकर कमरे में रखा स्टूल उसके सर पर दे मारा . चोट खाकर वो बेहोश हो गया . और इस तरह मै आज़ाद होकर भाग निकली ." इतना कहकर वह एक पल को शांत हो गयी - - - मगर फिर कुछ याद आते ही पुनः बोली -- " ये देखो - - - ये - - -मेरे पर्स में वो दस हज़ार रूपये अब भी हैं , जो उसने मुझे बाद में देने के लिये - - - लड़की से औरत बनाने के लिये स्टूल पर रख छोड़े थे . "
पायल की छोटी सी जिंदगी की बड़ी - बड़ी मुसीबतें सुनकर चंचल को समझते देर न लगी कि इतने बड़े - बड़े हादसे झेल चुकने के पश्चात सामान्य व्यक्ति उस दोराहे पर पहुँच जाता है , जहां से एक रास्ता तो आक्रामक प्रतिशोध की ओर जाता है ओर दूसरा पलायन वादी आत्महत्या की तरफ . अब भावावेश में राह विशेष का चयन तो काफी कुछ भुक्तभोगी की तात्कालिक मनःस्थिति पर निर्भर करता है . पायल के परिस्थितिजन्य आत्महत्या के फैसले के कारणों से दयाद्र हो उठे चंचल ने समझाया --" लेकिन तुम्हे वो रूपये अपने साथ नहीं लाने चाहिए थे . तुम्हे वो रूपये लेने का नैतिक अधिकार तब तक नहीं बनता था - - - जब तक कि स्वेच्छा से तुम सेठ को रुपयों की मनचाही कीमत अदा न कर देती . मुझे तो डर है कि बेवकूफी वश तुम अपने पर्स में रूपये नहीं बल्कि वो अनैतिक भ्रूण डालकर ले आई हो , जो भविष्य में किसी बड़ी समस्या की शक्ल भी ले सकता है . " पायल अपनी गलती अनुभव करती हुई बोली -- " हाँ - - - शायद तुम ठीक ही कह रहे हो - - - लेकिन उस वक्त जल्दी - जल्दी में - - - बदहवासी की हालत में तत्काल जो सूझा , सो किया . पहले मैंने सोचा था कि रूपये लेकर कहीं दूर भाग जाऊंगी और शान्त जीवन व्यतीत करूंगी - - - और यही सोचकर मैंने रूपये उठाये भी थे - - - लेकिन बाद में विचार आया - - - जहाँ जाऊंगी- - - ऐसे कामी सेठ और शराबी अंकल मिलते ही रहेंगे . जबकि मै अकेली थी -- बिल्कुल अकेली . सच - - - उस समय मैंने समझ लिया था कि स्त्री कभी भी बालिग नहीं होती . बचपन में उसे बाप की अंगुली की , जवानी में पति के आसरे की और बुढ़ापे में लड़के के सहारे की जरूरत होती है . और मेरे पास - - - मेरे पास इनका तो क्या - - - किसी का भी सहारा न था . हाँ - - - दुश्मन जरूर थे . एक नहीं , कई दुश्मन -- मेरा अंकल , मेरा रूप , मेरा अकेलापन , मेरी जवानी . और यही सब - - - ." " यही सब सोचकर तुमने आत्महत्या का नकारात्मक फैसला कर डाला . बिना लड़े ही हथियार डाल दिए . भावना के प्रवाह में बहकर , बिना तैरने की कोशिश के ही डूब मरने को राजी हो गयी . यह तो सरासर बेवकूफी थी . एक नादान निर्णय . " चंचल ने उसकी बात काट कर कहा -- " देखो - - - हरि हर हारे को हमेशा अपनी तरफ से एक मौका और देता है . अब जबकि ईश्वर ने तुम्हें मुझसे टकरा ही दिया है तो अगर चाहो तो मन मजबूत करके फ़िलहाल तुम मेरे यहाँ रह सकती हो -- यदि यकीन हो तो . इस वक्त इतना विश्वास तो मै तुम्हें दिला ही सकता हूँ कि दुनिया केवल वैसी ही नहीं है - - - जैसी संयोग वश अब तक तुम्हारी आँखों ने देखी है . " चंचल के अन अपेक्षित प्रस्ताव ने पायल पर संजीवनी सा कार्य किया . वह एहसान भरी नज़रों से उसकी तरफ देखती रह गई . उसकी जबान कुछ बोल न पायी मगर आँखें जबान की भरपाई कर रही थीं और इस क्षण चंचल ने पायल की पुनर्ज्योति पायी झील सी गहरी आँखों में कल - कल करते झरनों को बहते देखा . कुलांचे मारते मस्त हिरणों को लपकते देखा . टिमटिमाते दियों को अचानक भड़कते देखा . गदराई चटक - रंग कलियों को दीवार से उतरती धूप की रफ़्तार से चटक कर फूल बनते देखा . बौराए आम के बगीचों को अमियाते और उन पर कोयलों को फुदक कर कूकते देखा . जीवन की बुलबुलों को मौजों के नग्में गाते देखा . उजाले पाख की पुरवाई रात में फुलयाई नीम की डोलती डाल पर दमकते चाँद को झूलते देखा . और - - - और मासूम बया को फटाफट खूबसूरत घोसला बुनते - बनाते देखा . उसे ऐसा लगा - - - उसने पायल की आँखों में कोई अछूती किताब शुरू से अन्त तक पढ़ ली हो -- पूरी की पूरी . थोड़ी ही देर में एक बीमार सा दवाखाना दिखा . चंचल ने मजबूरन वहीँ पायल की मरहम - पट्टी करवा दी - - - फिर अपने घर ले जाकर , अपनी छोटी बहन गेसू और पिता प्रोफ़ेसर साहब से उसका परिचय करवाकर उसे फ़िलहाल घर में ही रहने की मनचाही अनुमति ले ली . [2] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 ) सुबह के उजले पंछी ने अपने पंख पसार लिए थे और रात अपनी काली बाहें सिकोड़ चुकी थी . सूरज अपना सोना बिखेर रहा था . सुनहरी धूप खिड़की से छलांग लगाकर कमरे में आ रही थी और अपने साथ ईश्वर का ये शुभ सन्देश भी ला रही थी कि हर रात के बाद सवेरा होता ही है .भोर की पवित्र बेला में बेला की मनमोहक महक हवा में तैर रही थी . प्रोफ़ेसर साहब कमरे से बाहर निकल कर लॉन में टहलने लगे . यह उनका प्रतिदिन का नियम था और साथ ही उनके अच्छे स्वास्थ्य का राज भी . लगभग पचपन वर्ष के युवा थे वो . क्योंकि कोई भी उन्हें सरसरी नज़र से देखकर पैंतालिस वर्ष से ऊपर का नहीं कह सकता था. कठोर परिश्रम में विश्वास करने वाले प्रोफ़ेसर साहब जेब के साथ ही स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी काफी संपन्न थे .किसी भी कार्य को छोटा या बड़ा नहीं समझते थे - - - न ही उसे करने में कोई शर्म - संकोच करते थे . दुर्भाग्य के प्रकोप ने भरी जवानी में ही उन्हें विधुर बनाकर उनकी खुशियों पर डाका डालने का प्रयास तो किया था - - - मगर वो थे कि इससे थोड़ा ठिठकने के बाद जीवन को सम्पूर्णता के साथ जीने की कला में स्वयं को ऐसा पारन्गत बना लिया कि हँसते ही जा रहे थे . जब गेसू दो और चंचल पांच वर्ष के थे , उस वक्त उनकी माँ का आकस्मिक निधन हुआ था . इसके बाद सौतेली माँ के संभावित दुर्व्यवहार की आशंका वश उन्होंने दूसरा विवाह करने का जोखिम नहीं लिया - - - यह सोचकर कि आने वाली कहीं ममता की जगह बच्चों की जेबों में नफरत न डाल दे . और तब से लेकर अब तक उन्होंने अपने अरमानों को , कुदरती भूख को , शारीरिक मांगों को दबाये रखा और बच्चों के वास्ते बाप के साथ - साथ माँ भी बन गए . उन्हें संवारते - बनाते अपना ख़याल तक भूल गए . अब यही बच्चे उनके लिए ऊर्जा का वो सूर्य थे जिसकी परिक्रमा मात्र ही उनका जीवन - धर्म बन गया था . पोंगा पंथी पुरातन विचार उन्हें छू तक नहीं सके थे . संकीर्णताओं से उन्हें परहेज ही नहीं , बल्कि घृणा थी . जीवन के हर क्षेत्र में कुछ ख़ास होना उनके किये आम बात थी . नए पुराने की उत्तमताओं के समन्वय से जिस व्यक्तित्व का संश्लेषण हुआ था - - - उसकी संज्ञा थे प्रोफ़ेसर साहब . उर्दू जैसी मीठी ज़ुबान , हिंदी जैसा आम चेहरा , संस्कृत जैसे सात्विक विचार , पंजाबी जैसे फड़कते और अंग्रेजी जैसे बोल्ड व बेपरवाह अन्दाज़ थे उनके . सामजिक कुरीतियों की परवाह न करते हुए , उनकी धज्जियां उड़ाने वाले बेहद खुले दिमाग के और खूब मजाकिया स्वभाव के थे प्रोफ़ेसर साहब . रोज सुबह के नियमानुसार जाग - उठ कर चंचल और गेसू कमरे से बाहर आये और उन्होंने अपने पिता प्रोफ़ेसर साहब के चरण स्पर्श कर उनमे प्रवाहित ऊर्जा - पुंज का कुछ अंश आशीर्वाद - स्वरूप स्वयं में उतारने का दैनिक प्रयास किया . जब गेसू ने उनके पैर छुए तो अपनी आदत के अनुसार वातावरण को हास्यमय बनाने के उद्देश्य से उन्होंने चुटकी ली -- " जीती रहो बेटी - - - खुश रहो . तुम्हें राजा - सा दूल्हा और महलों - सा सुख मिले ." " शर्मायी गेसू तुनक कर बोली -- " ये क्या - - - पिताजी आप भी - - - . " "अच्छा बाबा , मुँह मत फुला . जा तुझे बन्दर - सा दूल्हा और झोपड़ी - सा सुख मिले . अब तो हुई खुश ? " प्रोफ़ेसर साहब उसकी बात काट कर , हंसकर बोले . " जाइये हम आपसे नहीं बोलते . " गेसू ने बनावटी गुस्सा बिखेर कर कहा . वैसे तो वो अपने भावी दूल्हे की चर्चा से मन में एक मादक सी गुदगुदी अनुभव कर रही थी - - - लेकिन ऊपरी तौर पर गुस्सा तो प्रकट ही था - - - क्योंकि ऐसा तो सभी जवान लड़कियां करती हैं बाप - बेटी में नोक - झोंक चल ही रही थी कि पायल भी आ गयी . सब लोग नाश्ते के लिए डाइनिंग - टेबल के इर्द - गिर्द बैठ गये . नौकरानी - - - सुन्दर व गुदाज जिस्म की चालीस वर्षीय रधिया नाश्ता ले आई . सभी लोग नाश्ता करने लगे . तभी प्रोफ़ेसर साहब को अनुभव हुआ कि गेसू के चेहरे का प्रभा मण्डल कुछ फीका उतरा सा है . उनकी दुनिया देखी आँखों को गेसू के मन की बेचैनी भांपने में कोई कठिनाई न हुई . वैसे भी जो बाप अपने बच्चों के चेहरे के भाव देख कर उनके मन की थाह नहीं लगा लेता - - - समझो कि वो बच्चों के प्रति लापरवाह है . " तुम कुछ उदास हो गेसू ? देख रहा हूँ - - - तुम्हारा चेहरा कुछ बुझा - बुझा सा है . " प्रोफ़ेसर साहब ने गेसू को कुरेदा . गेसू ने बल पूर्वक मुस्करा कर बात को टालने का प्रयास किया -- " नहीं - - - ऐसी तो कोई बात नहीं . मेरे चेहरे पर रौशनी तो है - - - बस नींद पूरी न होने से - - - जरा सा वोल्टेज कम है " चंचल और पायल उसके जवाब पर हँस दिए मगर ऐसी कई बरखा झेल चुके प्रोफ़ेसर साहब पूर्ववत गंभीर रहे . उन्होंने शब्दों पर जोर देते हुए कहा -- " देखो बेटी - - - पैर चाहे कितने भी ऊंचे क्यों न हो जायें - - - पर रहेंगे कमर के नीचे ही .तुम अपने खोखले शब्दों पर मुस्कान की कलई चढ़ाकर मुझे फुसला नहीं सकती . सच - सच बताओ - - - बात क्या है ? " अपने बहाने को रुई सा धुनकता देख , गेसू ने समर्पण कर कहा -- " जी - - - कल मै बैंक से साढ़े तीन हजार रूपये निकाल कर ला रही थी - - - रास्ते में पर्स कहीं गिर गया , इसी से मन परेशान था . " " ओह - - - तो ये है तुम्हारी परेशानी का कारण ! भला इस बात से अब मन - मस्तिष्क में तनाव पैदा करने से क्या लाभ ? " जो खो गया - - - निश्चित ही वो तो अब मिलने से रहा . फिर हम - - - जो बची है - - - उस मानसिक शान्ति को क्यों खोयें ! " " लेकिन पिताजी मुझे इस बात का बेहद दुःख है . " " बेटी - - - जिस दुःख का कोई तात्कालिक उपाय न सूझे - - - उसका मजा लेना सीख लो तो जिन्दगी और भी खूबसूरत हो जायेगी . " "दुखों का मजा ! भला ये कौन सी बात हुई ? " " बेटी - - - यही तो जीने की कला है . इसे ऐसे समझो . दुःख असंतोष से उत्पन्न होता है - - - जबकि सुख संतोष से मिलता है . तुम्हें तो जीवन में बस ऐसा दृष्टिकोण विकसित करना होगा कि तात्कालिक असंतोष के कारणों के दूरगामी परिणामों की पर्तें उधेड़ कर जैसे - तैसे जबरन उनमें सन्तोष को तलाश लो . बस - - - सुख तो अपने आप हाथ आ जाएगा . " " मै अब भी ठीक से नहीं समझी . " " समझने की जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है तो भविष्य में सुखी सन्तुष्ट व्यक्तियों की जीवन - पद्धति पर निरंतर पैनी नजर रख कर उसका अनुकरण करने की अच्छी आदत डालो . सुखद परिणामों का स्वाद धीरे - धीरे सब समझा देगा . " प्रोफ़ेसर साहब ने समझाया और गेसू की पीठ थपथपाकर पुनः बोले -- " अच्छा चलो - - - अब सामान्य हो जाओ . यह सोचकर उदासी दूर भगाओ और तसल्ली पाओ कि लक्ष्मी चंचला है . वह किसी के पास अधिक दिनों कब ठहरी है . हो सकता है - - - तुमसे रूठ - छिटक कर वह किसी अन्य जरूरत मन्द के पास जाये और उसके बिगड़े काम बनाए . इस सूरत में भी तुम्हें उस अन्जाने की खूब दुआएं मिलेंगी - - - जो जीवन की अचल संपत्ति बन कर आड़े वक्त में जरूर तुम्हारे काम आएँगी . यही एक अब सर्वोत्तम सुखमय तरीका है तुम्हारे पास - - - मन को धीरज धराने का . " इतना कहकर प्रोफ़ेसर साहब आँखों में सुरभीला स्नेहिल आकाश और होठों के कोर पर निश्छल मुस्कान लिए कमरे से बाहर निकल लिये . गेसू भी काफी कुछ हल्की होकर कमरे से बाहर हो ली . चंचल - पायल ही अब शेष बचे . ऐसी अनुकूल तन्हाई में दो जवाँ दिल हों और वो गुटर गूं - गुटर गूं न करें - - - ऐसा कैसे संभव है ! " चंचल. " पायल ने राग छेड़ा . "हूँ . " चंचल ने संगत दी . " चंचल - - - सोचती हूँ - - - मुझ पर एहसान करके तुम अपने लिए शायद अच्छा नहीं कर रहे . " " क्यों ? " "क्योंकि एक जवान लड़का - - - एक जवान लड़की की मदद करे - - - और वो भी इतने बड़े पैमाने पर - - - अपने घर तक में रखने जैसी मदद करे - - - तो लोग शायद एक ही बात सोचेंगे - - - . " " एय !" चंचल ने पायल की बात काटी . " क्या ? " पायल नज़रें उठा कर बोली . " कहीं तुम ही तो नहीं कुछ सोच रही , ऐसा - वैसा ? " " कैसा ? " सिटपिटायी पायल की नज़रें झुक गयीं , चंचल की बात सुनकर . चंचल हिम्मत जुटा कर बोला -- " पायल ! पता नहीं - - - दुनिया वाले सोचे या न सोचें - - - मैं तो इधर बीच कई दिनों से लगातार एक ही बात सोच रहा हूँ . जब से तुम मिली हो - - - मेरी साँसों में महकने लगी हो . लगता है , मै तुम्हारी जरूरत अनुभव करने लगा हूँ . अपनी जिंदगी को और बेहतर बनाने के लिए - - - तुम्हारी तमन्ना करने लगा हूँ . लगता है - - - तुमसे मिलने से पहले मै एक नीरस किताब था , जिसके कुछ ख़ास पन्ने फटकर कहीं बिखर - खो गए थे . तुम मिली , मानों वो पन्ने मिल गए . अब अगर ये पन्ने अधूरी किताब से चिपक जाएँ , तो किताब पूरी हो जाये . सच पायल - - - अगर साफ़ - साफ़ सुनना चाहो , तो मै यही कहूँगा कि तुम मुझे बेहद खूबसूरत लगने लगी हो . तुम वही हो , जो मेरे अचेतन मस्तिष्क में बसती थी . तुम मिल जाओ , तो मेरी ज़िन्दगी का नक्शा तितलियों के पंख - सा रंगीन हो जाए . एक वाक्य में - - - ज़िन्दगी के हसीं सफ़र में - - - मैं तुम्हें - - - बस तुम्हें ही हमसफ़र , हमदम और हमराज बनाना चाहता हूँ . बोलो - - - क्या मेरा साथ दोगी ? " इतना कहकर चंचल ने भावावेश में पायल के हाथ पर हौले से अपना हाथ रख दिया . उसे लगा - - - जैसे उसने किसी मुलायम पंखों वाली चिड़िया पर हाथ रख दिया हो . कहने को तो चंचल भावावेश में ये सब कुछ धाराप्रवाह कह गया था - - - मगर वह इस बीच नज़रें नीची ही किये था . सोचता था - - - क्या पता - - - पायल की क्या प्रतिक्रिया हो . और तभी - - - हाँ , ठीक तभी चंचल के उस हाथ पर , जो पायल के हाथ के ऊपर था - - - दो - तीन गुनगुनी बूँदें टपकीं -- टुपुर - टुपुर - - - टप . अचकचाए चंचल ने सकुचाई गर्दन ऊपर उठाकर देखा . देखा - - - पायल की गऊ - सी निर्मल आँखें रिस रहीं थीं उसे रोता देखकर चंचल घबरा कर सिटपिटा गया . बोला -- " तुम बुरा मान गयी पायल ? " " मै कौन होती हूँ बुरा मानने वाली ! सारे अधिकार तो तुमने छीन लिए हैं मुझसे . कर्तव्य भर ही अब शेष बचे हैं मेरे पास . " इतना कहकर पायल और भी तेजी से फफक पड़ी और पागलों की तरह चंचल के हाथ को अपने सुर्ख नर्म - गर्म होटों से चूमने लगी . इधर से , उधर से , अगल से , बगल से . अब चंचल की हलक में छलक कर अटक चुकी जान फिर से उसके दिल में लौट आयी तो उसने चैन की लम्बी सांस ली और खड़े होकर - - - पायल को अपनी ओर अधिकार पूर्वक खींचकर बलिष्ट बाहों के बंधन में भरपूर भींच लिया . उसे लगा जैसे कोई मुलायम सी गुनगुनाहट उसके सीने में दो तरफ़ा उतर जाने पर उतारू हो गयी है . और उधर - - - पायल ने अनुभव किया कि उसकी नाज़ुक पसलियाँ कड़कडा कर कर टूट भी सकती हैं . उसके गले से एक मादक सिसकारी निकल पड़ी . फिर भी वो निर्विरोध खड़ी रही . क्योंकि उसे चंचल की बाहों में अपनी भटकती ज़िन्दगी के लिए उद्देश्य और रास्ता नज़र आने लगा . बेहतरीन मंजिल और सुरक्षित रास्ता . उसे लगा - - - उसकी अब तक की ज़िन्दगी , जो बदसूरत हकीकत थी , अब हसीं ख़्वाब बनने को है . संयोगवश छज्जे पर खड़ी गेसू , ये दृश्य देखकर एक संतोष भरी मुस्कान बिखेर रही थी . [3] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 3 ) एक बात तो है - - - कि जिस घर में डाइनिंग - टेबल पर या अन्यत्र यथा संभव एक साथ बैठ कर परिवार के सभी सदस्य नियमित रूप से नाश्ते तथा भोजन का आनन्द लेते हैं - - - उस सौभाग्यशाली परिवार के सदस्यों में संवाद की निरंतरता निश्चित ही बनी रहती है . वहां संवादहीनता नहीं पनपने पाती . यदि परिवार के किन्हीं दो सदस्यों में वैचारिक भिन्नतावश मनमुटाव प्रारंभ भी हो जाता है तो उसका त्वरित समाधान इस स्थान विशेष पर संवाद के जरिये स्वतः निकल आता है . यदि दो सदस्यों में किसी विषय विशेष को लेकर अनबन की कोई स्थिति उत्पन्न भी हो जाए तो उनके चेहरों पर छलक आये मनोभावों को पढ़कर घर के पारखी बुज़ुर्ग अपने तजुर्बे व कौशल से तत्काल ही मध्यस्थता कर कोई सर्वमान्य समाधान निकाल कर उनके मन - मस्तिष्क पर जमे एक दूसरे के प्रति मैल को धो देते हैं . इस प्रकार परिवार में क्रमशः संवाद हीनता , मन मुटाव तथा विलगाव की स्थिति यथा संभव टल जाती है - - - और परस्पर प्रेम भाव बना रहता है . यही एक बहुत महत्वपूर्ण लाभ है -- प्रतिदिन साथ बैठकर खाने - पीने का . यह अच्छी आदत प्रोफ़ेसर साहब ने भी अपने परिवार में डाली थी . इसी आदत के अनुरूप - - - मेज के इर्द - गिर्द चंचल , गेसू और प्रोफ़ेसर साहब शाम के नाश्ते के इन्तज़ार में बैठे थे . जबकि पायल किसी आवश्यक कार्य वश कहीं बाहर गई हुई थी . कमरे में लगी दूधिया विद्युत - ट्यूब मुस्कराती हुई सुखद रौशनी बिखेर रही थी . खिड़की पर लगे खूबसूरत रेशमी परदे हवा की छेड़खानी के चलते किसी हसीना की जुल्फों की तरह लहरा रहे थे . कमरे से बाहर - - - गोधूल - बेला में शाम और रात गलबहियां करके कल फिर मिलने का वादा कर रहे थे - - - कसमें खा रहे थे -- प्रेमी - प्रेमिका की भाँति . बाहर बगीचे में खिलखिलाते बेला की भीनी - भीनी ख़ुश्बू खिड़की फलांग कर कमरे में अनवरत रूप से दाखिल हो - होकर नाक के रस्ते सभी के मस्तिष्क में घुसकर मन को खुशहाल करने पर तुली हुई थी . और तभी ! ठीक उसी समय - - - नौकरानी रधिया ने आकर सूचना दी कि कोई साहब गेसू से मिलना चाहते हैं . " उन्हें सादर अन्दर बुला लो . " प्रोफ़ेसर साहब बोले . रधिया बाहर चली गई . थोड़ी देर में एक नवयुवक कमरे में दाखिल हुआ . कसी लम्बी कद काठी वाले युवक के चेहरे से पौरुष छलछला रहा था . ऐसा सुता चेहरा था , जिसे लड़कियां कनखियों से देखना पसंद करती हैं . सभी ने संस्कार वश थोड़ा सा खड़े होकर उस अपरचित के स्वागत की औपचारिकता निभायी . दुआ - सलाम के बाद प्रोफ़ेसर साहब सामने की कुर्सी की ओर इशारा करके बोले -- " कृपया बैठें . " " धन्यवाद . " कहकर युवक बैठ गया . "माफ़ कीजिये ! मैंने आपको पहचाना नहीं ." गेसू ने कहा . " एक प्याला चाय खर्चा कीजिये . अभी जान - पहचान हुई जाती है . " युवक ने हंसकर जवाब दिया . प्रोफ़ेसर साहब ने मुस्कराकर चाय का एक प्याला युवक को देकर पूछा -- " फिर भी - - - आपकी तारीफ़ ? " युवक भी मुस्कराकर बोला -- " सर जी ! तारीफ़ तो उस खुदा की है , जिसने मुझे लापरवाही में बनाया . वैसे बन्दे को गुलशन कहते हैं . गुलशन ' बावरा '- - - ." " बावरा क्यों ? आप बावरे कैसे हो ? " गेसू ने बीच में ही रोककर मध्यम हंसी में मुलायम चुटकी ली . ली गयी चुटकी क्योंकि किसी युवती की थी - - - इसलिए गुलशन ने दिल पर न लेकर , उसका मजा ही लिया और दो कदम आगे बढ़कर हाज़िर जवाबी दिखाई -- " वास्तव में - - - पहले तो मै था सादा - सूदा गुलशन - - - और चूंकि गुलशन में गुल खिलते - खिलते रह गया - - - इसलिए गुलशन बावरा हो गया . " इतना कहकर गुलशन ने हंसकर गेसू से पूछा -- " अपने चेहरे - मोहरे का भी वर्णन करूँ क्या ? " " हाँ -हाँ - - - क्यों नहीं - - - जरूर . " गेसू भोर के गुलाब की तरह मुस्कराकर चहकी . " तो सुनिए ! " गुलशन लम्बी सांस भरकर कहने लगा --" मेरी कद काठी हिन्दुस्तानी और भाग्य बेमानी किस्म का है . चेहरा मर्दाना - -- - मगर मूंछें गुजरे बाप की याद दिलाती सफाचट हैं . औसत पतलून व बुश - शर्ट पहनता हूँ और जनता की भाषा में बोलता हूँ - - - लेकिन अंग्रेजी में सोचता हूँ . सोचता - बोलता ज्यादा - - - मगर करता कम हूँ . इसीलिए मेरा मन एकदम भारतीय बुद्धिजीवी सरीखा हो गया है . मेरी कल्पना पेशावरी घोड़े की तरह जमीनी सतह से थोडा ऊपर ही हवा में दौड़ती है . यानी मिजाज शायराना है . पर कुल मिलकर मै एक हिन्दुस्तानी किस्म का आदमी हूँ . मेरी आमदनी में किसी इनकम - टैक्स वाले ने कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली - - - इसलिए कुल मिलाकर मै औसत हिन्दुस्तानी ही हूँ . " इतना कहकर और हँसकर गुलशन ने एक बिस्किट उठाकर मुंह में कैद कर लिया . सभी हंस पड़े उसकी बात पर . गेसू भी हंसी -- घुँघरू खनकने वाली हंसी . " आप बहुत दिलचस्प आदमी हैं . " वह हँसते - हँसते बोली . " कभी - कभी . " गुलशन ने गंभीर होकर कहा . अबकी चंचल ने अपना मौन तोड़ा -- " क्या आप बताएँगे कि आपका हमारे यहाँ कैसे आना हुआ और हम आपके किस काम आ सकते हैं ? " " अभी तो शायद किसी काम नहीं . जी - - - बात ये है - - - मुझे पिछले माह एक पर्स पड़ा मिला था - - - . " पर्स की बात सुनकर सभी चौंक पड़े . सबके दिलों में हर्ष मिश्रित उत्सुकता कुलबुलाने लगी , आँखों में उम्मीद के दिए लपलपाने लगे और कान कुछ सुखद सुनने के लिए फड़फड़ाने लगे . उनके मनोभावों को बांचकर , गुलशन बिना विलम्ब अपनी बात को जारी रखते हुए बोला -- " उस पर्स में गेसू जी की फोटो युक्त बैंक - पास - बुक थी , मय साढ़े तीन हज़ार रुपयों के . किन्तु मेरे लिए यह भी एक सुखद संयोग ही था कि उसी वक्त मुझे कुछ रुपयों की अत्यधिक आवश्यकता थी . मै तो धनाभाव में निराश ही हो चुका था . बेबसी का मोटा माड़ा मेरी आँखों पर छा चुका था - - - लेकिन पड़े मिले रूपये हाथ आते ही मैंने इसे ईश्वर का संकेत और मेहरबानी मान कर उसमे से जरूरत भर रूपये कार्य विशेष में खर्च कर दिए . खर्च करने से पूर्व मैंने पास - बुक का अध्ययन कर अनुमान लगा लिया था कि इन रुपयों के अभाव में गेसू जी के किसी कार्य में कोई विशेष व्यवधान नहीं पड़ेगा . और फिर - - - कुछ दिनों के अंतराल पर पर जब मैंने रूपये पुनः एकत्र कर लिए तो फ़ौरन ही इन्हें इनके असली हकदार तक पहुंचाने चला आया . हाँ - - - इस वापसी में मेरे कारण जो थोड़ा विलम्ब हुआ -- - - उसके लिए मै क्षमा चाहता हूँ . " गुलशन ने अपने कंधे पर लटके कम्युनिस्टी थैले से पर्स निकाल कर मेज पर रख दिया और सचमुच हाथ जोड़ दिए . " अरे - - - रे - - - ये तुम क्या कर रहे हो ! " चंचल व प्रोफ़ेसर साहब साथ - साथ बोल पड़े . बाप और बेटे इस गला काट महगाई के जमाने में ईमानदारी की ऐसी जिन्दा मिसाल मशाल की तरह अपने सामने लपलपाती देख आश्चर्य चकित हो उठे . उनकी आँखें निहाल और सुधियाँ मालामाल हो गयीं . इस छोटे से पल उन्होंने उस दुर्लभ पल को भरपूर जिया - - - जब कुछ खोकर नहीं बल्कि कुछ पाकर भी व्यक्ति ठगा - सा रह जाता है . उन्हें लगा जैसे उन्होंने भेड़ को बकरी जनते हुए देखा हो . जैसे गूलर पर फूल उगते देखा हो . जैसे तपते विशाल रेगिस्तान के बीच कहीं कोई जल - स्रोत फूटते देखा हो . और गेसू - - - वो तो सम्मोहित सी , कभी पर्स तो कभी गुलशन को देख रही थी . और कभी - कभी तो जागती आँखों में तैरते सपनों में उसको अपने बगल में बिठा कर कुछ आंकलन सा कर रही थी . गुलशन ने कहा -- " अच्छा - - - तो अब मुझे चलना चाहिए . " " अभी नहीं जाने देंगे . तुम जैसे ईमानदार आदमी के साथ मै अपना अपना अधिक से अधिक समय बिताना पसन्द करूंगा . वास्तव में तुम ईमानदार और नेक आदमी हो - - - और अगर इसी तरह चलते रहे तो बहुत दूर तलक जाओगे . यह मेरी सोच भी है और कामना भी . न जाने आज सांझ - ढले मेरी किस्मत का कौन सा सितारा मुस्कराया है , जो तुम जैसे नेक इंसान से मुलाक़ात हुई . " प्रोफ़ेसर साहब के दिल की गहराइयों से आवाज आई . " आपने रूपये नहीं गिने ! " अधिक प्रशंसा का स्वाद पाकर गुलशन की जबान कुछ फिसल गई . " आप हमें शर्मिंदा कर रहे हैं " बाईस बसंतों से लदी - - - गदराई जवानी के खुमार से बोझल पलकों के भीतर कैद - - - गेसू की जादुई आँखों में मानो शिकायत उभर आई . गेसू ! बाईस साल की उफनती जवानी . ऐसी - - - जैसे टेसू पर फूल गदरा आये हों -- मादक , रस भरे . भादों के जामुन की सबसे ज्यादा लदी लचलची डाल - सा उसका यौवन था . उसका भरा सानुपातिक मखमली शरीर एक खूबसूरत बगीचे की तरह खिला हुआ था . उसके होठ बड़े प्यारे थे . कितने रसीले - - - शहतूती होठ ! यदि उंगली रख कर दबा दें तो रस छलछला कर बाहर आ जाए . उसकी शरबती आवाज वातावरण को मीठा बनाने में माहिर थी . उसकी सम्मोहक नज़र किसी को भी उम्र कैद सुनाने का बूता रखती थी . उसकी मुस्कान ऐसी थी , जैसे सुबह के खिलते पवित्र कमल की सात्विक मुस्कान . चलते समय उसकी कमर ऐसे बलखाती थी - - - ऐसे लहराती थी , जैसे कटी हुई खूबसूरत पतंग . कुल मिलाकर वह बेहद खूबसूरत थी और हुस्न का ऐसा धधकता सूरज थी , जिसकी तरफ सूर्यमुखी के फूल की तरह सदा निहारते रहना युवा पुरुष अपना परम धर्म समझें . ऐसा लगता था - - - विधाता ने फुर्सत में उसे बड़े सधे हाथों से गढ़ा हो . तभी तो उसकी हर बात सधी हुई थी . उसका हर अंदाज़ सधा हुआ था . वह बड़े सधे हुए ढंग से चलती थी . सधे हुए तरीके से उठती - बैठती थी . और - - - और बातचीत का ढंग भी बेहद सधा हुआ था . उसके बात करने के अंदाज़ और शब्दों के चयन से ही प्रतीत होता था कि कोई बुद्धिजीवी महिला बात कर रही है . क्योंकि वह खूबसूरत थी , इसलिए गुलशन ने उसे गौर से देखा . और फिर - - - खूबसूरत लड़कियों को ध्यान से कौन नहीं निहारता ! लड़का सोचता है - - - काश ये मेरी बीबी होती . बूढ़ा सोचता है - - - काश ये मेरी बहू होती . लड़की सोचती है - - - ये मेरी भाभी होती . तात्पर्य ये है कि सभी अपने - अपने ढंग से सोचते हैं कि खूबसूरती जितना अधिक संभव हो - - - किसी न किसी बहाने आँखों के सामने रहे . दिल - दिमाग को सुख पहुँचाये . और यही बात - - - बिल्कुल यही बात खूबसूरत लड़कों पर भी लागू होती है . प्रोफ़ेसर साहब ने गुलशान का ध्यान भंग किया -- " घर कहाँ है तुम्हारा ? " " कहीं नहीं . " " क्या मतलब ? आखिर कहीं तो रहते होगे ? " प्रोफ़ेसर साहब ने चौंक कर पूछा " हाँ - - - रहता तो हूँ - - - पर घर में नहीं - - - मकान में . और घर और मकान में बड़ा अन्तर होता है . घर उसे कहते हैं , जहां भरा पूरा परिवार हो . शान्ति और सौहाद्र का साम्राज्य हो . और मकान - - - मकान में इन सबका अभाव होता है ." " ओ s s s ह - - - तो क्या तुम्हारा परिवार नहीं है ? " गेसू की जिज्ञासा पसीजी . गुलशन की पीड़ा मुखरित हुई -- " परिवार ही क्या - - - मेरा अपना कोई नहीं - - - कोई भी नहीं . " और उस क्षण - - - गेसू , चंचल और प्रोफ़ेसर साहब ने एक साथ गुलशन की उदास आँखों में टीस के बादलों को उमड़ते - घुमड़ते , गरजते - तरजते देखा . दर्द के दरिया की भंवर के बीच में उलझ कर सुख को डूबते - छटपटाते देखा . भरी बहार के आबाद गुलशन में मनहूस बदशक्ल उल्लुओं को डरावनी आवाजें निकालते देखा . खड़ी फसल को जलाभाव में दम तोड़ते मुरझाते देखा . और - - - और बहार की छाती पर सवार पतझड़ को क्रूरता पूर्वक हँसते - खिलखिलाते देखा . " सुनो ! " प्रोफ़ेसर साहब ने टोंका . " हूँ . " गुलशन चौंका . " करते क्या हो ? " " जूतों की घिसाई . " " मतलब ? " " बेकार हूँ - - - बेरोजगार . स्ट्रीट लाइट की रौशनी में पढ़कर एम . ए . किया - - - फिर भी . " " ओह . " प्रोफ़ेसर साहब के मुंह से एक सर्द आह निकली . बेहद ईमानदार व्यक्ति की बेरोजगारी पर . उसकी बेबसी और परेशानी पर . सच ही तो है ! इस दुनिया में प्रायः दो ही तरह के व्यक्ति फटेहाल और ठनठन गोपाल हैं -- एक बेअक्ल और दूसरे अति ईमानदार . आम तौर पर किताबों में मिलने वाली चीज - - - ईमानदारी अपने दिल में किन - किन दर्दों के समंदर समेटे रहती है - - - और उसे अपने किये की क्या - क्या सजा भुगतनी पड़ती है , ये जानने की फुर्सत इस तेज रफ़्तार जमाने की जेब में कहाँ है ! प्रोफ़ेसर साहब ने कुरेदा -- " खर्चा कैसे चलता है ? " " कहानी - कविता लिखता और ट्यूशन पढ़ाता हूँ . उसी से होने वाली सीमित आय से पेट को बहलाने की कोशिश करता हूँ और नौकरी तलाशने का असीमित धर्म निभाता हूँ ." " ओह - - - तो तुम लेखक हो ! " " हाँ - -- - दुर्भाग्य से हिन्दुस्तानी लेखक हूँ ." गुलशन ने थका - हारा जवाब दिया . " सुनो - - - एक बात कहूं ! " " कहिये ." " मेरा घर मेरी आवश्यकताओं से अधिक बड़ा है . यकीन मानो - - - यह घर ही है , मकान नहीं . और इसका अधिकाँश भाग खाली पड़ा रहता है . जबकि तुम अकेले रहते हो . क्या तुम मेरे यहाँ रहना पसन्द करोगे ? बल्कि मै तो ये कहूँगा कि तुम हमारे साथ रहो . " " हमदर्दी के लिए शुक्रिया . आपने मेरे साथ अपनापन दिखाया - - - यही क्या कम एहसान है मुझ पर . " " अरे नहीं ! इसमें एहसान की कौन सी बात है बेटे !! आदमी ही आदमी के काम आता है - - - जानवर तो नहीं !!! " इतना कहकर प्रोफ़ेसर साहब ने मुस्करा कर फिर दबाव बनाया -- " अब देखना ये है - - - कि तुम मुझे आदमी समझते हो या जानवर . यदि मै तुम्हे आदमी नज़र आता हूँ , तब तो तुम्हे मेरी बात माननी ही पड़ेगी . " [4] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
" अरे - - - ये क्या कह डाला आपने ! वैसे इस समय तो आप मुझे देवता जान पड़ रहे है - - - देवता . " गुलशन शर्मिंदगी के साथ बोला .
" अरे नहीं भई , आदमी इंसान ही बन जाए - - - यही क्या कम है . देवता तो बड़ी दूर की चीज है . वास्तव में- - - आदमी और इंसान के बीच में ही बड़ी दूरी है . लोग प्रायः इसी सफ़र में थक जाते है . आगे के कहने ही क्या . हाँ - - - तो बताओ , तुम्हे मेरा प्रस्ताव मंजूर है ? " " माफ़ कीजियेगा - - - नहीं . " गुलशन ने कुछ सोच कर जवाब दिया और बोला -- " सर जी ! मेरी और आपकी परिस्थितियों व स्तर में बहुत अंतर है . और मेरे विचार में - - - अपनी इज्जत व स्वाभिमान बनाए रखने के लिए आदमी को अपनी सीमाएं मानकर चलना चाहिए . आपकी मदद मेरी मुश्किलें तो आसान कर सकती है , मगर इसके बोझ तले दबकर मेरे स्वाभिमान की जान जाने का खतरा है . और वैसे भी - - - मैंने अपनी एकाकी ज़िन्दगी से बहुत कुछ समझौता कर लिया है . मुझे अकेले रहने में विशेष तकलीफ नहीं होती . " प्रोफ़ेसर साहब ने समझाने का प्रयास किया -- " हो सकता है की तुम मेरी बात से सहमत न हो और प्रजातंत्र में तुम्हे इसका हक़ भी है - - - लेकिन मेरी एक सीमा तक कामयाब ज़िन्दगी का अनुभव तो ये कहता है कि आदमी को अपनी रोजाना की जिन्दगी में छोटी - छोटी बातों के बीच स्वाभिमान को लाना ही नहीं चाहिए . सरल और सफल ज़िन्दगी के लिए सुविधाजनक ये रहता है कि दोस्तों - परिचितों के खूब काम आना चाहिए . उनकी मदद का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए . ये बड़े सौभाग्य और संतोष की बात होती है . इसी प्रकार यदि कोई दोस्त - - - सगा - सम्बन्धी तुम्हारी मदद करने में सक्षम और तत्पर दिखे तो उसका सहारा लेने में भी कोई शर्म - संकोच नहीं करना चाहिए . इससे उसका भी कुछ नहीं बिगड़ता और तुम्हारा भी काम आसान हो जाता है . दुनिया यूँ ही आसानी से चल सकती है . मेरे विचार से - - - संबन्धों की नीव ही रखी जाती है , सुविधाओं के त्वरित महल खड़े करने के लिए . जब - तब , जगह - जगह स्वाभिमान की आड़ - बाड़ व्यक्ति को संकुचित और उसके जीवन को बड़ी सीमा तक तकलीफ देह बना सकती है . " प्रोफ़ेसर साहब इतना कहकर कुछ रुके और गुलशन की आँखों में देखकर पुनः बोले --" वैसे भी - - - जैसा कि तुमने अभी कहा था कि अकेले रहने में कुछ ख़ास तकलीफ नहीं होती , इसी से स्पष्ट है कि कुछ न कुछ परेशानी तो होती ही है . अच्छा छोड़ो - - - अब ये बताओ - - - क्या तुमने अच्छी तरह सोचकर फैसला लिया है -- हमारे साथ न रहने का . मै तो कहता हूँ - - - एक बार और सोच लो ." " सौ बार सोच लिया है . कोई भी काम करने से पहले , उसके प्रत्येक पक्ष पर बहुत बार सोचने की मेरी आदत है . एक बार कोई फैसला कर लेने के पश्चात मै सोचना बन्द कर देता हूँ . और फिर - - - तब करने की बारी आती है - - - और करते समय मै पुनः सोचा नहीं करता - - - सिर्फ करता हूँ . क्योंकि करते वक्त बार - बार सोचने से फैसले प्रायः कमजोर हो जाते हैं . " गुलशन ने दृढ़ता से कहा . " तुम्हारी उम्र के नवयुवकों में यही तो एक कमी होती है - - - कि तुम लोग अपने रास्ते और सोच खुद बनाने में यकीन रखते हो . बड़े - बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ नहीं उठाते . खैर - - - जैसी तुम्हारी मर्जी . " प्रोफ़ेसर साहब ने हथियार डाल दिये . गेसू - - - जो अभी तक बैठी सुन और गुन रही थी - - - अब सोच रही थी कि गुलशन थोडा हंसोड़ , बहुत शान्त और खूब गंभीर है - - - और अपने भीतर दर्द के गहरे सोते छुपाये हुए है . " अच्छा - - - मै अब चलता हूँ . " गुलशन ने खड़े होकर - - - हाथ जोड़कर सबसे अनुमति मांगी . " अपना पता नहीं बताओगे ? " प्रोफ़ेसर साहब ने कहा . " हाँ - हाँ क्यों नहीं ! ये रहा मेरा पता . " गुलशन ने जेब से अपना साधारण सा विजिटिंग - कार्ड निकाल कर रख दिया और चलने को मुड़ा . प्रोफ़ेसर साहब बड़ी आत्मीयता से बोले -- " कभी - कभार आते रहना . वैसे मेरे दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले है . तुम हमारे घर को अपना घर भले ही न बनाओ - - - लेकिन ये सच है कि तुमने हम सबके दिलों में अपना घर बना लिया है . जाओ - - - आना न भूलना . " कंपकंपाते होठों से इतना कहकर प्रोफ़ेसर साहब ने अपना मुंह दूसरी तरफ फेर लिया - - - और उनकी उँगलियाँ , पलकों की कोरों पर छलक आयी अपनी कमजोरी को चुपके से मिटाने लगीं . गुलशन ने जवाब दिया -- " जी - - - जरूर आऊंगा . आता रहूँगा ," " चलो तुम्हें बाहर तक छोड़ दें . " चंचल ने औपचारिकता दर्शाई . सभी बाहर की ओर मुड़ने को हुए . " अरे नहीं - - - आप लोग बेवजह कष्ट न करे . " गुलशन ने आभारी नज़रों से देखते हुए कहा . " अच्छा - - - गेसू तुम जाओ , गुलशन को बाहर तक छोड़ दो . " प्रोफ़ेसर साहब ने निर्देश दिया . अबकी गुलशन मना न कर सका . उसने मना करना भी न चाहा . क्योंकि आकर्षक नारी के अधिकाधिक सानिध्य की कामना पुरुषों के अचेतन मन में सामान्यतः होती ही है . पिता के निर्देश पर ' जी अच्छा ' कहकर गेसू गुलशन के साथ हो ली . वह तो यही चाहती ही थी . गेट के बाहर आकर - - - गेसू ने गुलशन पर अचूक मुस्कान मारकर पूछा -- " तो कब आ रहे हैं जनाब ? " " फुर्सत मिलते ही ." "रविवार का वादा करो ! " " वादा नहीं करता . हाँ - - - कोशिश जरूर करूंगा . फिर भी - - - तुम मेरी प्रतीक्षा मत करना . " " क्यों ? " " क्योंकि प्रतीक्षा व्यक्ति को निराश बना सकती है . प्रतीक्षा यदि असफल रहे तो चिंता और मानसिक पीड़ा होती है ." " लेकिन प्रतीक्षा के बिना भी कोई जीवन है ! जिसकी कोई प्रतीक्षा नहीं करता - - - समझ लो वह जीवन में असफल व्यक्ति है - - - और जो किसी की प्रतीक्षा नहीं करता - - - समझो उसके पास जीवन ही नहीं है . " " वाह ! बड़ा सीधा सा है - - - तुम्हारा सफलता - असफलता का मापदण्ड . " गुलशन हंसकर बोला -- " अच्छा बाबा , आऊँगा - - - जरूर आऊंगा . बस- - -अब खुश ? " " वादा ? " " वादा . " " बदलोगे तो नहीं , वादे से ? " " बदलने वाला मौसम होता है गेसू - - - और मै आदमी हूँ . गरीब आदमी - - - जिसके पास भरोसा करने लायक एक - - - बस एक चीज होती है -- उसकी जबान . " " ये तो रविवार को पता चलेगा . " गेसू कथक सी आँखें नचा कर बोली . " अच्छा - - - तो अब चलता हूँ . " गुलशन मुड़ने को हुआ . " हाथ नहीं मिलाओगे , चलते समय ? " गेसू ने शिकायती अंदाज़ में हाथ आगे बढ़ाकर कहा . " उं - - - हूंअ - - - नहीं . मैंने सुना है - - - सुन्दर और जवान लड़कियों के शरीर में एक करेंट होता है . तुमसे हाथ मिलाने पर मुझे शॉक लग सकता है . मेरा मतलब है , झटका . और अब मै किसी तरह का झटका झेलने के लिए तैयार नहीं हूं . विशेषकर खूबसूरत झटका . " " मतलब - - - तजुर्बा रखते हो , झटका खाने का ! बातों से तो ऐसा ही लगता है . " वह पलकें टिमटिमाकर हंसी . उसकी बात सुनकर - - - गुलशन पहले तो अचानक गंभीर हुआ - - - फिर तत्काल हंसी का लबादा ओढ़ लिया - - - और न जाने कैसे उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा -- " क्या तुम कुँवारी हो ? " " हाँ - - - मै अविवाहित हूँ . " भेदभरी मुस्कान बिखेर कर गेसू बोली -- " अच्छा - - - अब विदा . रविवार को - - - . " " आना नहीं भूलूंगा . शुभ विदा . " गुलशन ने गेसू की बात काटकर जवाब दिया और पलटकर वहां से चलने लगा . वैसे उसकी ये हरकत उसके पैरों को थोड़ा ना गवार लग रही थी . जबकि गेसू उसे काफी दूर तक - - - देर तक देखती रही . यहाँ तक कि - - - जब वह चला गया - - - उसकी दृष्टि से ओझल हो गया - - - तब भी बहुत देर तक उसे देखती रही . [5] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 4 ) पार्क के भीतर घुसते ही महकते फूलों की ख़ुश्बू ने उनका स्वागत किया . वहां चारों ओर फूलों का साम्राज्य स्थापित था . एक छोटा सा साम्राज्य - - - जिसे अगर विस्तार के सम्पूर्ण अवसर मिल जायें तो वह पूरी दुनिया को खूबसूरत बना डालें . मौसम भी मोहब्बत के लिए पूर्णतः अनुकूल व प्रेरक था . अचानक पायल का हाथ पकड़ कर चंचल ऐसे भागा , जैसे सुगंध का हाथ पकड़ कर पवन भागता है . वह भागता रहा - - - भागता ही रहा , तब तक , जब तक कि पायल थक कर चूर न हो गयी . भागते - भागते - - - अचानक पायल एक गढ़ी - तराशी झाड़ी की ओट में धम्म से मखमली घास पर भरभरा कर बिखर गयी . वह काफी थक गयी थी . उसकी सांस फूलने लगी थी -- इस्नोफीलिया के मरीज की तरह . उसका वक्ष धौंकनी की भाँति उठ - बैठ रहा था . चंचल भी पायल के सामने बैठ गया . वह पीठ के बल लेटी हुई पायल की तरफ एक टक निहार रहा था . तभी उसके दिमाग में एक अजीब से विचार ने जन्म लिया . इस समय - - - हाँफ रही पायल का तेजी से उठता - बैठता वक्ष स्थल देख कर उसे ऐसा लग रहा था , जैसे दो नन्हें मासूम स्कूली बच्चों को उनकी अध्यापिका ने किसी शरारत पर सजा दी हो - - - और वो बच्चे एक साथ उठक - बैठक लगा रहे हों . पहले तो चंचल ने सोचा कि वह अपने इस मौलिक विचार से पायल को अवगत करा दे - - - मगर फिर उसने ऐसा नहीं किया , क्योंकि उसे खुद अपना ख़याल काफी फूहड़ लग रहा था . वह चुप चाप आँखों ही आँखों , उसकी रूप माधुरी पीने लगा . " एय ! " अचानक पायल ने उसका ध्यान भंग किया . " हूँ ! " चौंकते हुए चंचल बोला -- " क्या ? " " यूँ एक टक क्या देख रहे थे ? " वह मुस्करायी . " कुछ नहीं . कुछ भी तो नहीं . मै क्या देखूँगा ! तुम कोई ताजमहल हो क्या , जो तुम्हें एक टक देखूँगा !! " चंचल ने हड़बड़ा कर सफाई दी . " अच्छा जी अब ज्यादा बातें न गढ़ों . नज़ारा बाजी कर रहे थे न ! तुम मर्दों को तो आँख सेंकने का पुराना मर्ज है . वैसे भी प्रेमी को प्रेमिका ताजमहल से कम नहीं दिखती . " चोरी पकड़ी जाने पर झेंप गया चंचल सटीक चतुराई से बात बदलते हुए बोला -- " आज तुम्हारी आँखें लाल क्यों है जानम ? रतजगा किया है क्या ? " " तुम ठीक कह रहे हो . बात कुछ ऐसी ही है . मै रात भर सो न सकी . " तीर निशाने पर लगा था और पायल मस्ती में आ गयी . " चंचल ने कुरेदा -- " क्यों - - - बात क्या है ? " " चंचल ! जब से तुमने मेरे जीवन में प्रवेश किया है , नींद मेरी आँखों से ओझल हो गयी है . सिर्फ सपने आते हैं - - - सपने . और सपनों में आते हो तुम . " सच ? " " नहीं क्या झूठ ! " पायल पर दबे पाँव सुरूर चढ़ने लगा -- " तुम्हें क्या पता चंचल - - - रात भर तुम्हारे सपने ब्लैक - मार्केट से खरीदती हूँ . " उसने चंचल की जाँघों का तकिया बना , उसके कान के निचले मुलायम हिस्से को अपनी नाज़ुक उँगलियों से सहलाकर कहा . " इधर अपना भी तो यही हाल है जानी . यानि - - - दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई . सच तो ये है कि तुमसे मिलने के बाद समझ आया की ज़िन्दगी में एक लड़की क्या आती है , पूरी की पूरी कायनात ही खींचे लिए आती है . " " अच्छा जी - - - ये बात है ! " वह इतरायी , फिर बोली -- " मगर ये तो बताओ - - - कल रात तुम सपने में नहीं आये . क्या नाराज थे मुझसे ? " " धत पगली . तुमसे नाराज होकर भला मै जी सकूंगा ! " उसने पायल के खट मिट्ठे गालों को प्यार से थपकाकर कहा . " चंचल ! सच मानो - - -- जब से तुम मेरी दुनिया में आये हो , मेरी रातों की नींद और दिन का चैन जाता रहा . जब तुम मेरे पास होते हो , तब तो होते ही हो - - - जब नहीं होते - - - तब भी आस - पास ही होते हो . न पता किस जादू के वश में हूँ . खुद को खुद ही भाने लगी हूँ . हर घड़ी आईने के सामने खड़ी रहने को मन करता है . सोने से पहले सोने का स्वांग करती हूँ और बन्द आँखों से तुम्हारी विविध मुद्राओं का स्वाद छकती हूँ . लगता है - - - मेरी दुनिया - - - जैसे अचानक सिकुड़कर बहुत छोटी हो गयी है . सारी सोच तुम्ही से शुरू होकर - - - तुम्ही पर ख़त्म हो जाती है ." पायल ने बच्चों की सी मासूमियत से अपने दिल को बेपर्दा कर दिया . उसकी इस अदा पर चंचल कहकहा लगाकर हँस पड़ा . पायल भी अपनी हँसी रोक सकी . वह हंसी-- दो प्याले टकरा जाने वाली कोमल मधुर जलतरंगी हंसी . फिर एकाएक वह गंभीर होकर कह बैठी -- " चंचल ! एक बात पूछूँ !! सच - सच बताओगे ? " " तुम्हें यकीन नहीं ? " " सो तो है - - - मगर न जाने क्यूँ - - - कभी - कभी दिल डरता है . " " किस बात से ? " क्या तुम मुझे हमेशा इतना ही प्यार दोगे ? " ये भी कोई पूछने की बात है ! " इतना कहकर चंचल ने पायल को तनिक ऊपर उठाकर अपनी बाहों में भर लिया . उसे लगा - - - जैसे उसने सेमल के मुलायम ढेर को छाती से लगाया हो . पायल की काली निराली आँखें विचित्र तरह से नाच - नाच कर रस उड़ेलने लगीं . उसकी रीढ़ का पोर - पोर पायल की तरह छनछना उठा और वो बांस की तरह दूर लहरा कर बोली -- " हटो जी ! बड़े वो हो . " उसकी वाणी में कोयल ने अपनी कूक भर दी हो , ऐसा लगा . उसकी मादक आवाज से पार्क का चप्पा - चप्पा मदहोश हो गया . पत्ता - पत्ता पीने लगा - - - उसकी शरबती स्वर लहरी को . रोमांचित चंचल ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने और नज़दीक लाने की कोशिश की तो वह थोड़ा और छिटकते हुए इठलाकर बोली -- " अरे ज जा ! नारी का बोझ संभालने की शक्ति है तुममे ? " " तुम क्या जानो - - - फूलों का भार चाहे कितना भी हो - - - मगर मादक और हल्का ही लगता है . " " अच्छा जी ! आज तो कवियों जैसी बातें हो रही हैं . " " सच पायल ! कवि , पागल और प्रेमी में कोई ज्यादा अन्तर नहीं होता . " " सो कैसे ? " " वो ऐसे ! " चंचल मसखरी से बोला -- " प्रेमी यदि प्रेम में असफल हो जाए तो पी - पीकर कवि बन जाता है और सबको जबरन घेर - पकड़ कर अपनी दुःख भरी कविता सुनाता है और यदि कोई भी सुनने को तैयार न हो तो वह पागल हो जाता है . " पायल हँसकर बोली -- " बिना प्रेम में असफल हुए अभी से ये क्या तुकबन्दी मिला रहे हो ! ज़रा सी पी तो नहीं ली ? " " नहीं - - - मगर पीने का मन तो कर रहा है . " " पीते हो ? " " हाँ ! इधर बीच रोजाना ." " कौन सी ? " " तुम्हारी आँखों की . " वह पायल की नाक हिलाकर हँसा . पायल के अछूते गुलाबी गालों पर शर्म की लाली ने अंगडाई ली और उसकी आँखें और भी सुरमई हो गयीं . वह बलखाकर बोली -- " हटो जी - - - दिल्लगी करते हो . " " नहीं - - - मै दिल्लगी नहीं करता . मै तो दिल - लगी करता हूँ . " " मगर मेरे शब्द - कोष में दिल - लगी के मायने हैं रोमांस . " वह चंचल हो उठी . बोलती आँखों के इशारे , जो वक्त - बेवक्त तीर बनकर चंचल के कलेजे को छलनी कर दिया करते थे - - - उसकी लड़खड़ाती पलकों की ओट में छटपटाने लगे . बेचैन चंचल ने आगे झुक कर उसके माथे पर अपने फड़कते होठों से चूमना चाहा . उसने छिटक कर मीठी बनावटी उलाहना दी -- " हाय दइया - - - बिना चेतावनी हमला बोल दिया ." इसी के साथ - - - एक बिजली सी कौंध गयी , पायल की नसों में . उसे लगा - - - जैसे इस वक्त उसकी नसों में रक्त नहीं , शराब दौड़ रही हो . उसका पूनमी चाँद सा चेहरा डूबते सूरज सा सुर्ख हो गया , जैसे खून फटकर बाहर निकलना ही चाह्ता हो - - - और पलकें कुछ इस तरह झुकीं , जैसे उन्हें नींद आने लगी हो . चंचल ने उसका हाथ पकड़ लिया . उसे लगा जैसे जाड़े की मुलायम धूप खाए गुनगुने मखमल पर हाथ रख दिया हो उसने . उसके अचेतन ने पायल को अप्रत्याशित झटका देकर अपनी तरफ खींच लिया . वह गदराये संतरों से बोझल डाल सी चिटक कर चंचल के सीने पर बिछ गयी . उसका सुडौल वक्ष - - - जिसमे हजारों अरमान और लाखों धड़कने कैद थीं , चंचल के कलेजे से भिड़ गया . चंचल के अन्दर मचल रही चंचलता ने पायल को चिकोटी काटनी चाही - - - मगर वह उसका इरादा भांप कर परे लुढ़क गयी - - - और उठ चुका हाथ गलत जगह पड़ गया . पायल के मुंह से एक तीखी व मादक सिसकारी निकल पड़ी . साथ ही वह हंसी -- थमी बरसात की इन्द्रधनुषी हंसी . चंचल अचानक बात बनाते बोला -- " आज तुम कुछ अधिक ही सुन्दर दिख रही हो . ' " जरूरत के वक्त हर लड़की बहुत ज्यादा खूबसूरत दिखती है . " " अरे नहीं - - - मैं सच कह रहा हूँ . " " मेरी कसम ? " " तुम्हारी कसम . " पायल अपनी प्रशंसा सुनकर सोनजुही सी खिल उठी . उसके रोम - रोम में सुरसुरी दौड़ गयी और अंग - अंग प्रफुल्लित हो उठा . प्रायः हर नारी अपने रूप की प्रशंसा सुनकर खिल उठती है . और फिर - - - जवानी की दहलीज़ को चूमने वाली कुँवारी अल्हड नवयौवना तो अपनी प्रशंसा का झोंका पाकर फूलों से लदी डाल सी झुक जाती है - - - और खुशियों में खोकर कभी - कभी तो अपना समर्पण तक कर बैठती है . अपनी प्रशंसा की डोंगी में हिचकोले लेती पायल बोली -- " चंचल ! मै जवानी के सतरंगी इन्द्र धनुष को अपने भीतर पाना चाहती हूँ .उसके सारे रंगों को अलग - अलग देखना और मन की गहराइयों तक अनुभव करना चाहती हूँ . रंग - बिरंगी कलियों को अपने भीतर चिटक कर सुर्ख फूल बनते देखना चाहत हूँ ." चंचल ने हाथ बढ़ाकर पायल की उँगलियों में अपनी उँगलियाँ फंसा दीं . यह पकड़ . लगता था - - - पायल की उँगलियों में बिजली की धाराएं बह रही हों . जबकि चंचल को अहसास हो रहा था - - - जैसे पायल धीरे - धीरे सारा बसन्ती मौसम ही उसके भीतर सरसाये दे रही हो . वह बोला -- " पायल . " " क्या ? " " अब तो हम दो दिल एक जान हो गये है . पिताजी ने हमें शादी की अनुमति भी दे दी है . तब क्यों न मै अपने प्यार पर एक पक्की मोहर लगा दूं ! " " भला कैसे ? " " तुम्हें चूमकर . जी करता है - - - तुम्हारे गाल चूम लूं . चूम लूँ ? " " हिश - - - कोई देख लेगा . " " तब ? " " देख लेने दो . " पायल बहक गयी . चंचल मचल उठा . चंचल ने लपक कर पायल के कुंवारे गालों को चूम लिया . ज़िन्दगी में पहली बार अपनी लाटरी लगी देख , उसके गाल तो मानों निहाल हो गए . चुम्बन का नशा फ़ौरन पायल पर छा गया . वह मदहोशी में अनियंत्रित होकर चंचल की बाहों में ढेर हो गयी . उसका अंग - अंग दिल बनकर धड़कने लगा और पोर - पोर छुई - मुई की तरह लाज से सिकुड़ गया . उसकी नसों के रक्त में जलतरंग बज उठी और नाड़ियाँ कुछ इस तरह झनझना उठीं जैसे सितार पर किसी ने अचानक सीधे झाला बजा दिया हो . जैसा की इस उम्र में - - - इस माहौल में होता है - - - पायल उत्तेजना के सागर में प्रवाहित हो गयी . उत्तेजना ! वासना !!.जहां पहुँच कर दुनिया के सभी भेद समाप्त हो जाते हैं . सभी का आचरण एक सामान हो जाता है . व्यक्ति आदिम युग में लौट आता है . प्रकृति के निकट आ जाता है . पायल चाह रही थी कि इस वक्त कोई जालिमों कि तरह उसके शरीर को झिंझोड़ डाले . बेदर्दी से कुचल - मसल दे . यहाँ तक कि उसकी नाजुक पसलियाँ चरमरा जाएँ और शरीर लहूलुहान हो जाए . उसके बेकाबू हाथ ने चंचल को अपनी ओर खींच लिया . चंचल ने पागलों की तरह उसे जहाँ - तहां चूमना शुरू कर दिया . उसके शरीर में एक आग सी लगी हुई थी . और लगभग निश्चित था कि उसकी तथाकथित नैतिकता इस आग में - - - कुछ पलों में भस्म हो जाती . धैर्य का बाँध टूट जाता . मगर तभी - - - चंचल के मस्तिष्क में विवेक की एक बिजली सी कौंधी और उसकी विस्तार पायी उत्तेजना अचानक सिकुड़ कर शान्त पड़ गयी . वासना की आग ठंढी पड़ गयी . वो छिटक कर पायल से दूर हो गया . जबकि तूफ़ान से गुज़र रही पायल यूँ खुच्चड़ हो चुके खेल में खुद को अकेली पाकर बेचैनी व बेबसी से उसे निहारती रह गयी . चंचल बोला -- " पायल ! हमें अपनी भावनाओं पर अंकुश रखना चाहिये . कम से कम शादी तक . मैं समझता हूँ - - - आज एक बड़ा पाप होने से बच गया . " " - - - - - - - - -" पायल कुछ न बोली . वह विवशा अनुभव करती रही - - - जैसे उसकी तेज साँसों की गर्मी से उसी के भीतर हौले -हौले कुछ पिघला जा रहा हो . शायद उसके अरमान . चंचल पुनः बोला -- " पायल ! " " हूँ . " " अगर मै बहक भी जाऊं तो कम से कम तुम्हें तो अपने पर नियंत्रण रखना चाहिये . " " पता नहीं - - - तुम मर्द , हम औरतों से ही नियंत्रण की उम्मीद क्यों रखते हो ! और वैसे भी - - - जब दो जवाँ दिल हों और ऐसा अनुकूल एकांत हो - - - चुम्बनों की बौछार हो और बाहों के घेरे हों - - - तो आखिर कब तक खुद पर नियंत्रण रखा जा सकता है ! ! " " कुछ भी हो - - - नियंत्रण तो रखना ही होगा खुद पर .यही सभ्य समाज का नियम है . सामाजिक नियमों - बन्धनों का पालन करना हमारी नियति है . क्योंकि हमें इसी समाज के बीच जीवन बिताना है . पायल ! शादी से पहले - - - स्त्री - पुरुष के सम्बन्ध विशेष को मैं भी अच्छा नहीं मानता . बल्कि यूँ समझो , पाप की संज्ञा देता हूँ . शादी तक तुम्हे ईमान की तरह अपने शरीर को संभाल कर रखना चाहिए . मुझसे भी . यूँ समझो - - - संयमित आचरण से भावी जीवन में बहुत सी संभावित समस्याओं से बचा जा सकता है . " " - - - - - - - " पायल की सुराहीदार गर्दन ग्लानि के बोझ से लोच खाकर झुक गयी . उसने कहा तो कुछ नहीं - - - लेकिन उसे लगा जैसे चंचल सारा दोष उसी के मत्थे मढ़कर नाइंसाफी कर रहा हो . उसकी मनोदशा का अनुमान लगाकर चंचल ने समझाया -- " पायल ! मैं ये मानता हूँ कि भविष्य में शीघ्र ही हमें एक होना है . हमारा विवाह निश्चित है . पर फिर भी थोड़ी देर के लिए ये मान लो - - - यदि आज हमारा शारीरिक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है और तुम संयोगवश गर्भवती हो जाती - - - लेकिन कल को मै आवारा निकल जाऊं या शादी से इन्कार कर दूं - - - अथवा किसी दुर्घटना में मारा जाऊं - - - तो भुगतना किसे पड़ेगा ! तुम्हें - - - और केवल तुम्हें . याद रखो - - - जवानी की संयुक्त भूल की कीमत सदा अकेले स्त्री को ही अदा करनी पड़ती है . इसीलिए कहता हूँ - - - हमें इन गलतियों से बचना चाहिए . विशेषकर लड़कियों को . " " बस करो - - - अब चुप भी रहो . क्यों मरने - खपने का अपशगुन अलापते हो ! " पायल ने चंचल के मुंह पर अपना हाथ रख दिया और उसकी आँखों में ग्लानि छलछला आई . " आओ - - - अब घर लौट चलें . " चंचल ने कहा . बोझल हो चुके वातावरण को सामान्य बनाने की गरज से पायल ने बड़े सयानेपन से अपने होठों पर कृतिम मुस्कान और आँखों में शिकायत उकेर कर कहा -- " नसीहतें तो इतनी ढेर सी पिला दीं गुरूजी - - - अब कहीं बैठाल कर कुछ खिला तो दो निष्ठुर . " अपनी बेवकूफी को समझ और उसकी होशियारी को ताड़ - - - चंचल पहले तो कुछ झेंपा , फिर मुस्कराकर बोला -- " तुम बड़े साफ़ दिल की व्यवहारिक पत्नी सिद्ध होओगी . चलो - - - इसी बात पर किसी आइसक्रीम पार्लर में चलते हैं . शायद इससे उबलते अरमान भी शादी तक के लिए ठंढे पड़ जाएँ . है न ! " इतना कहकर हँसते हुए चंचल ने हाथ का सहारा देकर पायल को उठा लिया . दोनों पिछली बातों को भूलकर हाथों में हाथ डाल पार्क से बाहर निकल पड़े . [6] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 5 ) रविवार !गुलशन भूला नहीं था . व्यक्ति जिस बात में दिलचस्पी रखता है - - - उसे भूलता नहीं . रविवार को ही गुलशन ने गेसू से उसके घर पहुँचने का वादा किया था . वादे के अनुसार - - - गुलशन के उत्साही कदम लय पूर्वक स्वतः गेसू के घर का रास्ता तय करने लगे . वह सोच रहा था , गेसू के विषय में . गेसू उसे कुछ अजीब सी , बेहद बेबाक मालूम पड़ रही थी . गेसू का यह जवाब कि ' मै अविवाहित हूँ ' , उसे बड़ा अटपटा लग रहा था . जबकि उसने पूछा था , ' क्या तुम कुँवारी हो ' . वह सीधे - सपाट यह भी तो कह सकती थी , ' हाँ - - - मैं कुँवारी हूँ ' . मगर उसने ऐसा नहीं किया था . और हाँ - - - जवाब देते समय - - - वह मुस्कराई भी तो बड़ी अजीब तरह से थी . भेद पूर्ण और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाली मुस्कान . अन्य लड़कियों कि अपेक्षा - - - कुछ अलगाव , कुछ नयापन जरूर था गेसू में . और जहां सामान्य से अलगाव होता है , नयापन होता है , वहीँ तो आकर्षण उत्पन्न होता है . गुलशन भी गेसू के प्रति अपने को इस आकर्षण से बचा नहीं पाया था . सोचते - सोचते ही गेसू का घर कब आ गया , समय का कुछ पता ही न चला . रूचि पूर्वक किये गए कार्य देखते ही देखते पूरे हो जाते हैं . गुलशन भीतर चला गया . खुले घर में खामोशी का विस्तार था . इससे पता चलता था की गेसू घर में नहीं है . क्योंकि पहली मुलाकात में ही गुलशन ने जान - समझ लिया था कि जहाँ गेसू हो वहाँ खामोशी के लिए कोई स्थान नहीं बचता . बचते है तो शोख - चटक किन्तु गरिमामय कहकहे . गुलशन को अपने आने की निरर्थकता का आभास हो चुका था . फिर भी - - - उसने आवाज़ दी -- " गेसू s s s ." " कौ s s s न ? " संभवतः किनारे वाले कमरे से किसी लड़की का प्रश्न उभरा . आवाज़ सुनकर गुलशन चौंका . उसे लगा- - - ये आवाज़ शायद उसके लिए नयी नहीं है . तभी पायल कमरे से बाहर आई और गुलशन को देख कर इस तरह से चौंकी , जैसे उसने भूल से बिजली के नंगे तार पर पैर रख दिया हो . गुलशन ने पायल को देखा देखा . पायल ने गुलशन को देखा . दोनों ने आश्चर्य से फैली अपनी आँखों को झपकाया और फिर देखा . कोई अंतर नहीं . वही शक्ल . बिलकुल वही . " तुम यहाँ s s s ? " एक साथ - - - दोनों के मुंह से आश्चर्य में डूबी आवाज़ निकली . और इसी के साथ - - - गुलशन और पायल के मस्तिष्क में बीते हुए दिन आकाशीय बिजली की तरह कड़क उठे . जिसके झटके ने उन्हें अतीत में धकेल दिया . गुलशन और पायल कॉलेज में साथ - साथ पढ़ते थे . गुलशन हमेशा उससे प्रेम का शालीन प्रस्ताव करता था - - -- लेकिन पायल ने कभी भी उसके प्यार का उचित उत्तर न दिया था . वह गुलशन की इज्जत करती थी और उसे एक सच्चे दोस्त के रूप में देखती थी - - -- मगर कभी भी उसको जीवन - साथी के रूप में स्वीकार न कर पायी थी . और इस अस्वीकृति के पीछे उसके अपने कुछ पूर्वाग्रह एवं विचार थे , कुछ तर्क एवं सपने थे . पायल अतीत की खाईं से शीघ्र ही बाहर निकल कर बोली --" ओह - - - तो तुम्हीं वो हो , जिसके विषय में गेसू मुझसे चर्चा कर रही थी . " " हाँ - - - लेकिन तुम यहाँ - - - इस जगह कैसे ? " " भाग्य था - - - जो ले आया . बेसहारों का भी कोई न कोई सहारा तो होता ही है ." " काश - - - तुमने मुझ पर भरोसा किया होता ! " ठंढी आह भरकर गुलशन ने कहा -- " लेकिन तुम यहाँ आई कैसे ? " पायल ने अपनी आप बीती गुलशन को सुना दी . सुनकर - - - द्रवित गुलशन ने पूछा -- " उस दिन , जब मै यहाँ आया था , तब तुम कहाँ थी ? " " बाहर गयी थी . " " सब लोग कहाँ गये ? " " प्रोफ़ेसर साहब और चंचल तो अचानक मिली एक जरूरी दावत में चले गये . रधिया सब्जी लेने गयी . जबकि गेसू तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी - - - तभी फोन पर उसे खबर मिली कि उसकी किसी सहेली की तबीयत अचानक काफी खराब हो गयी . वह उसी के यहाँ गयी है . कह गयी है - - - थोड़ी देर में आ जायेगी . जाते समय उसने मुझसे कहा था कि तुम्हें बैठा लूंगी . " पायल ने बताया . उचित एकान्त जान - - - गुलशन ने नाज़ुक मोड़ देकर उसे टटोला -- " मैं अब भी तुमसे वैसा ही प्यार करता हूँ , जैसा पहले करता था . पायल ! मुझ पर भरोसा करके तो देखो . " " लेकिन मेरा दिल , जो पहले भी तुम्हारा न ठा , अब किसी और की अमानत है ." " कौन है - - - वो चमकीली भाग्य रेखाओं वाला खुश - नसीब ? " " चंचल ." " ओह - - - तो वो चंचल है . यही चंचल - - - जिसने तुम्हें शरण दी है ? " " तुमने ठीक समझा . " " तो इसका मतलब ये है - - - कि जो व्यक्ति तुम्हारी सहायता कर दे , तुम उसके एहसान तले दबकर उससे प्यार करने लगो ! " " लेकिन एहसान करने वाले से लगाव हो जाना तो स्वाभाविक है . और फिर चंचल भी मुझसे प्यार करता है . पहल उसी ने की थी . " " मगर मै भी तो तुमसे प्यार करता हूँ . पहल मैंने भी तो की थी . और - - - और मेरी पहल चंचल से पहले की है . बहुत पहले की . पायल ! मैं तुम्हें प्यार करता था , करता हूँ और करता रहूँगा ." इतना कहते - कहते गुलशन की ऑंखें छलक उठीं और वह रो पड़ा . एक मर्द रो पड़ा - - - - - - और मर्द की रुलाई किसी भीषण अंदरूनी तकलीफ की सूचक है . उसके दुःख को अनुभव कर - - - पायल आगे बढ़ी . उसने गुलशन के आंसुओं को अपने दामन में सोख लिया और बोली -- " क्या करूँ गुलशन ! मेरी सोच - - - मेरे और तुम्हारे बीच में शुरू से अवरोध उत्पन्न करती रही . और अब तो काफी वक्त गुज़र चुका है . बहुत देर हो चुकी है - - - और मै और चंचल काफी कुछ दूरी तय कर चुके है . " " लेकिन मुझमें क्या कमी थी ? मै भी तो कुछ सुनूँ . कुछ जानूँ . " " जानना ही चाहते हो तो सच - सच सुनो . क्योंकि तुम एक अच्छे इंसान हो और मै तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूँ , इसीलिए मै तुम्हें अब अँधेरे में नहीं रखूंगी . " " कुछ बोलो भी तो . " गुलशन परिणाम जानने के लिए उत्सुक किसी आवेदक की भाँति अधीर हो उठा . " गुलशन ! एक उम्र के बाद भी बेरोज़गारी कि अनचाही मैली चादर तले ढंककर पुरुष की समस्त अच्छाइयाँ धूमिल पड़ जाती हैं . क्योंकि तुम भी अब तक बेरोजगार हो , इसलिए तुम मुझे भरपूर प्यार तो दे सकते हो - - - भरपेट रोटी नहीं . जबकि प्यार के निरंतर प्रवाह के लिए जिन्दा रहना ज़रूरी है - - - और जिन्दा रहने की पहली शर्त है रोटी -- ज़िन्दगी कि बुनियादी ज़रूरतें . गुलशन ! प्यार कोई कैक्टस नहीं , जो हर हाल में मस्त - मुस्कराता रहे . प्यार तो बहुत नाज़ुक चीज़ है -- छुई - मुई के पौधे की तरह . " पायल कहती रही -- " यदि मैं तुमसे शादी कर लेती , या कर लूँ , तो कुछ समय तक तो हम प्यार के खुमार के सहारे अपनी जीवन - नौका खे सकते हैं - - - मगर कुछ ही दिनों में हमारी भौतिक ज़रूरतें , जीने की पहली शर्त - - - बुनियादी आवश्यकताओं के जालिम सर्द थपेड़े , हमारे प्यार की गर्मी को ठंढा कर देंगे . पेट की धधकती आग के सामने प्यार की गर्मी शरमा जायेगी . और तब हमें - - - कम से कम मुझे अपने किये पर पछताना पड़ सकता है ." " लेकिन मैं अपने सर्वोत्तम प्रयास तो कर रहा हूँ . संभव है - - - मुझे कुछ ही दिनों में नौकरी मिल जाय . भाग्य ने यदि साथ दिया तो हमारी समस्याएं सुलझ सकती हैं ." " पर भाग्य के सहारे बैठी रहकर मैं अपनी ज़िन्दगी का जुआं खेलूँ - - - उसे दांव पर लगा दूं ! क्या तुम ऐसा चाहोगे ? " " नहीं पायल - - - नहीं . मैंने ऐसा कब कहा ! -- मेरी तरफ देखो पायल ." गुलशन ने उसके कंधे पर दम तोड़ती उम्मीदों सा अपना बोझल हाथ रखकर कहा -- " पायल ! ये सच है कि मै तुम्हें दौलत नहीं दे सकता , महल नहीं दे सकता - - - पर मेरी मासूम मोहब्बत यूनानी गुलामों की तरह हर वक्त तुम्हारा हुक्म बजाएगी . मुझ पर यकीन करके तो देखो . तुम अगर साथ दो - - - तो तुम्हारे वास्ते मैं अपनी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिये ज़मीन आसमान एक कर सकता हूँ . उलझी हुई तकदीर के ताने - बाने को तोड़कर एक नया नक्शा दे सकता हूँ . खूबसूरत आकार को साकार कर सकता हूँ . " " वो तो मेरी भी तमन्ना है गुलशन . मैं चाहती हूँ , तुम खूब आगे बढ़ो . लेकिन जहां तक मेरा सवाल है , तो यूं समझ लो - - - जिस तरह पुलों के नीचे से गुज़रा हुआ नदी का पानी वापस नहीं लौट सकता - - - कुछ वैसे ही , मैं भी तुम्हारी सीमाओं से से काफी बाहर निकल चुकी हूँ - - - क्योंकि अब चंचल मेरी ज़िन्दगी में बहुत गहरे दाखिल हो चुका है - - - और हम दोनों ने एक दूजे को काफी गंभीरता से लिया है . इसीलिये फिर कहती हूँ , मेरा ख़याल छोड़ दो . " " नहीं - - - नहीं - - - नहीं . " गुलशन रोते - रोते चीख पड़ा -- " मैं तुम्हारा ख़याल कैसे छोड़ सकता हूँ ! मैं तुम्हें कैसे बिसार सकता हूँ ! ! मैं तुम्हें नहीं भूल सकता . कभी भी नहीं . पायल ! बेशक तुम मुझे प्यार नहीं करती - - - मगर मैं तुम्हें हमेशा प्यार करूंगा . मैं तुम्हें उस तरह प्यार करूंगा , जैसे टूटे - हारे लोग तन्हाई से करते हैं . मैं तुम्हें ऐसा प्यार करूंगा , जैसे बसंत रंग - बिरंगे फूलों को करता है - - - किसान अपने खेतों से करता है . मैं तुम्हें उतना ही चाहूंगा , जितना चित्रकार अपने चित्रों को और माली अपने बगीचों को चाहता है . मैं हमेशा तुम्हें उस तरह याद करूंगा , जैसे कोई राहगीर सफ़र के बाद उस नदी को याद करता है , जिसके जल से उसने अपनी प्यास बुझाई थी . मैं तुम्हें नहीं भूलूंगा . मैं तुम्हारा हूँ , तुम्हारा रहूँगा . " " गुलशन ! मैं तुम्हारी भावनाओं की इज्जत करती हूँ और इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकती . मैं चाहती हूँ - - - तुम हमेशा उन्नति करो . " " उन्नति करूँ ! " गुलशन चौंक कर बोला -- " क्या ख़ाक उन्नति करूँ !! अरे जब प्रेरणा का श्रोत ही दामन छुड़ा रहा है , तब उन्नति कैसे संभव है ? " " उफ़ ! अब मैं तुम्हें कैसे अपनी मजबूरी समझाऊँ !! " " - - - - - - - ." " गुलशन ! एक बात कहूं ? " " अभी कुछ शेष है क्या ? " " हाँ . मेरी शादी चंचल से होने वाली है . उसने मुझे भद्र वचन दिया है . तुम भी वादा करो कि तुम मेरी खुशियों के बीच दीवार नहीं बनोगे . " सुनकर - - - वह तो सन्न रह गया . जैसे कली चूने पर पानी पड़ गया हो . ढेर सारी भाप , ताप और सनसनाहट . उसे लगा जैसे उसे छिछोरा समझ कर किसी ने जोर का तमाचा जड़ दिया हो . वह बिलबिला कर चीख पड़ा -- " पा s s s यल ! " लेकिन फिर यकायक पुनः स्वयं पर नियंत्रण करके बोला -- " हाय - - - क्या कह गयी तुम !! तुम्हारा प्यार सलामत रहे . कम से कम मुझसे ऐसी गिरी हुई बातों की आशंका तो मत करो . क्या मै तुम्हें छिछोरा नज़र आता हूँ ? मेरा प्यार तो चढ़ते हुए सूरज का प्यार है . वो तो रौशनी बनकर फैला है . उसने अंधेरों को उजाला देना सीखा है - - - और रौशनी कभी भी तुम्हारे रास्ते की दीवार नहीं बन सकती - - - बल्कि वो तो वक्त ज़रुरत खुद जलकर तुम्हें रास्ता ही दिखाएगी . " इतना कहकर गुलशन सिसकने लगा . आशंका के बादल छंटे जान - - - पायल राहत की सांस लेकर बोली -- " मुझे तुमसे यही उम्मीद थी गुलशन . मैं तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूँ मेरे दोस्त . पर बदकिस्मती से - - - . " उसका गला रुंध गया . वह गुलशन के नज़दीक आ गयी . उसने गुलशन की ठोढ़ी के नीचे हथेली लगाकर उसके निराशा से बोझल झुके हुए सिर को ऊँचा किया , उसके आँखों के शून्य में झाँका और उससे लिपट गयी . गुलशन भी उसे पकड़ कर सिसकने लगा . ठीक उस बेबस बच्चे की तरह , जिसे आर्थिक अभाव के चलते उसका सबसे पसन्दीदा खिलौना नसीब नहीं होता . थोड़ी देर बाद - - - गुलशन ने खुद को पायल की गिरफ्त से छुड़ाकर और अपने अकारथ आंसुओं को पोंछ कर कहा -- " अच्छा - - - अब मै चलता हूँ . " " बैठो ! गेसू आती ही होगी . चाय पीकर जाना . " " नहीं ! धन्यवाद . क्या करूंगा चाय पीकर ! आंसू क्या कम मिले हैं पीने को !! " गुलशन रुंधे गले से बोला -- " चलता हूँ . भगवान न करे - - - अगर कभी तुम्हें ज़िन्दगी की ऊबड़ - खाबड़ राहों में ठोकर लगे तो तुम मेरी ही बाहों में गिरने की कोशिश करना . वहां तुम्हें सहारा मिलेगा . एक भरोसेमंद सहारा . वैसे इस बात का शुक्रिया कि तुमने मुझे आईना दिखा दिया . " " - - - - -- " पायल क्या कहती . वह चुप रही . अचानक जैसे गुलशन को कुछ याद आया . वह बोला -- " यह रहा मेरा पता . " गुलशन के हाथों ने पायल को अपना विजिटिंग - कार्ड पकड़ा दिया और उसके पाँव तेजी से मुड़कर दरवाजे के बाहर हो लिए . और गेसू - - - हाँ वही - - - वो जल्दी से बगल में छिप गयी . गेसू ने उन दोनों का सारा वार्तालाप संयोगवश सुन लिया था . वह बहुत देर पहले ही लौट आयी थी और दरवाजे की ओट में होकर उत्सुकतावश सब कुछ देख सुन रही थी . दरवाजे की ओट ! जो हमारे देश में आम तौर पर औरतों की ख़ास जगह रही है . गुलशन जा चुका था - - - मगर पायल अब भी मेज पर सर झुकाए सिसक रही थी . पायल सोच रही थी कि काश वो भी अँधा प्रेम करना जानती . काश - - - वो प्यार में दिमाग से नहीं , बल्कि पूरी तरह दिल से काम लेती . या फिर वो किसी जंगली जाति में पैदा हुई होती , जहां जीने की शर्तें बहुत आसान हुआ करती हैं -- लाज ढकने को चाँद पत्ते और पेट भरने को कन्द मूल . तब उसे गुलशन को जीवन - साथी बनाने में कोई परहेज़ न होता . [7] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 6 ) पायल से हुई इस आकस्मिक भेंट ने गुलशन के ज़ख्मों पर पड़ चली पपड़ियों को खुरच डाला था . उम्मीद का एक दीपक - - - जो पायल की तलाश में उसने अब तक बड़े जतन से जला रखा था , वो पायल का जवाब पाकर दम तोड़ने की जिद कर रहा था . उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे , क्या न करे . एक तरफ पायल से उसका किया हुआ वादा , उससे पायल की याद भुलाने की सिफारिश कर रहा था - - - तो दूसरी ओर पायल के प्रति उसका असीम प्रेम - - - उसे पायल को याद रखने और प्राप्त करने की ईमानदार कोशिश करते रहने के लिए मजबूर कर रहा था . ज़िन्दगी के दोराहे पर खड़ा गुलशन ये निर्णय नहीं ले पा रहा था कि वह किस राह का मुसाफिर बने . कभी तो वह पायल को भूलने की बात सोचता था और कभी उसे प्राप्त करने की . इन्हीं दोनों विचारों के मध्य लटका हुआ गुलशन - - - इस वक्त खुद को किसी चमगादड़ का हमनस्ल अनुभव कर रहा था , जो कभी चिड़ियों के साथ रहना चाहता है और कभी चूहों के साथ - - - और दोनों में से किसी एक का भी हमसाया नहीं बन पाता . अंततः विचारों के बवन्डर में उड़ता - भटकता गुलशन - - - वर्तमान के टीले से लुढ़क कर अतीत की गहरी खाईं में जा गिरा . कॉलेज के दिनों में गुलशन और पायल बी . ए . में साथ - साथ पढ़ते थे . पहली ही नज़र में गुलशन पायल की चुम्बकीय खूबसूरती की तरफ आकर्षित हो गया था . आकर्षित करने का प्रायः आसान और पहला साधन तो खूबसूरती ही है - - - भले ही वह आकर्षण बाद में अस्थायी सिद्ध हो . चारित्रिक गुण आदि की बात तो पीछे आती है . पायल ने भी गुलशन की आँखों में उमड़े प्यार को स्वभावतः पढ़ लिया था . औरतों में यही तो एक गजब की विशेषता होती है कि वो आदमी की आँखों में झाँक कर और उसके व्यवहार का अतिसूक्ष्म विश्लेषण करके तत्काल समझ जाती है कि उस आदमी के ह्रदय में उसके प्रति कैसी भावनाएं हिलोरें ले रही हैं . अब ये एक अलग बात है कि वो अपनी सोच और सुविधानुसार इसकी कैसी प्रतिक्रिया प्रकट करे - - - या फिर इसे सिरे से ही अनदेखा करके बिल्कुल अनजान बनी रहे . धीरे - धीरे गुलशन पायल से किसी न किसी बहाने मिलने लगा . व्यक्ति जिसे पसन्द करता है - - - उससे बार - बार मिलने के बहाने भी अपने संस्कारों के अनुरूप तलाश लेता है . वो पायल से शैक्षिक - नोट्स का आदान - प्रदान करने लगा . पायल भी धीरे - धीरे गुलशन में मौन रूचि लेने लगी . क्योंकि गुलशन एक भला आदमी था और भले आदमी में सभी दिलचस्पी लेते हैं . पढ़ाई में तेज और गंभीर गुलशन कॉलेज के लड़के - लडकियों में शराफत और सच्चाई का उदाहरण बन चुका था . पायल को ख़ुशी थी कि गुलशन उसमें रस लेता था . वैसे ये बात किसी भी कॉलेज - बाला के लिए ख़ुशी और गुदगुदी का विषय है कि कोई लड़का उसमें रस ले - - - और तब तो सोने पर सुहागा वाली बात हो जाती है , जब रस लेने वाला लड़का शराफत और पढ़ाई में भी रस लेता हो . धीरे - धीरे गुलशन तो पायल पर अपने प्रेम को प्रकट करने लगा - - - किन्तु इसी के साथ वह यह भी अनुभव कर रहा था कि पायल काफी कुछ संयम बरतते हुए उससे खुलकर कभी अपने मनोभाव व्यक्त नहीं करती थी . न जाने क्यों - - - वो सदैव मध्यमार्ग अपनाती रही और गुलशन के प्रति अपनी भावनाओं को उसके समक्ष स्पष्ट रखने में कतराती रही . गुलशन जब भी उससे अपने बारे में उसके विचार जानना था - - - तो वो सदैव भेद पूर्ण मादक मुस्कान के साथ चुप मार जाती . गुलशन का हसीं सपनों से सराबोर मन इस मादक मौन को सौन्दर्य द्वारा प्रेम की सहमति की एक अदा मान बैठा . सच ही तो है - - - हमारे अजब मन के रंग - ढंग भी गज़ब निराले होते हैं . पहले तो वह किसी आकर्षक व्यक्तित्व के साथ एकतरफा प्रेम में पड़ता है - - - फिर अपने कथित प्रियतम के साधारण व्यवहार में भी अपने प्रेम का ऐसा अनुकूल प्रत्युत्तर जबरन ढूंढ निकालने की कला उसे आती है , जिसका वास्तव में कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं होता . बी . ए . की परीक्षा संपन्न हुई . परिणाम निकला . दोनों पास हो गए . गुलशन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ . दोनों ने साथ - साथ एम . ए . में प्रवेश लिया . परन्तु गुलशन चूंकि पुरुष था - - - इसलिए एक काम उसने और प्रारम्भ किया . उसने अपने लिए नौकरी की तलाश शुरू कर दी - - - क्योंकि बिना नौकरी के गरीब गुलशन पायल के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखने में सकुचाता था . उसके अकेले की बात और थी , जो वह ट्यूशन पढ़ाकर खुद पढ़ता व पेट पालता था . उसके विचार में , उसके लिए नौकरी अब बहुत जरूरी हो चुकी थी - - - अतः वह नौकरी ढूँढता रहा . ऑफिसों के चक्कर काटते - काटते वह चकरघिन्नी हो गया - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा . नौकरी ढूंढते - ढूंढते उसके पैर बगावत करने लगे - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा . उसका धैर्य दामन छुड़ाने लगा - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा . उसकी आँखें उदास और मन निराश होते गए - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा . मगर अब वो ज़माना तो ज़िन्दा है नहीं - - - कि योग्यता को आवश्यकतानुसार शीघ्र ही उसका उचित पुरस्कार मिले . एक वही क्यों - - - आज के ज़माने में तो गुलशन जैसे न जाने कितने जरूरतमंद बेकारी की बीमारी के शिकार हैं . वैसे भी इस कम्प्यूटर - युग में नौकरी का अकाल पड़ा है . नौकरी निकलती ही कितनी हैं ! ज्यादातर तो पेटू कम्प्यूटर के पेट में समाती जा रही हैं . हाँ - - - उसे नौकरी नहीं मिली . वह बेकार का बेकार रहा . गुलशन अनुभव कर रहा था कि ज्यों - ज्यों उसे नौकरी पाने में देर होती जा रही थी , पायल उसके हाथ से रेत की भाँति सरकती जा रही थी . दूर होती जा रही थी . पायल द्वारा उससे की जाने वाली मधुर मुलाकातें क्रमशः कम होकर अब औपचारिकता में बदलती जा रही थीं . लेकिन अपनी आँखों पर पायल के प्रेम का गहरा चश्मा चढ़ाये गुलशन ठीक - ठीक देख - समझ नहीं पा रहा था . वैसे भी जिसे मन नहीं मानता , उसे आँखें भी नहीं देख पातीं . होते - करते - - - घंटे दिन का भोजन बन गये , दिन महीनों के पेट में समा गये और महीने वर्षों की खुराक बन गये . और इस बीच गंगा - जमुना के पुलों के नीचे से काफी पानी उसके अरमानों को लेकर बह गया - - - मगर न नौकरी मिलनी थी , न उस भाग्य हीन को मिली . यहाँ तक कि गुलशन और पायल एम . ए . फाइनल की परीक्षा में जुट गये . और क्योंकि जुट गये थे - - - इसलिए पास हो गये . व्यक्ति पूरे मनोयोग से जिस कार्य में जुट जाता है , उसे पूरा होना ही पड़ता है . कॉलेज की पढ़ाई की समाप्ति - - - उन दोनों दोनों की मुलाकातों के बीच खाँई बन गयी . वैसे तो पायल ने गुलशन को स्थान विशेष पर मिलते रहने का दिलासा दिया - - - मगर वो न आई . ये और बात है कि गुलशन बहुत दिनों तक - - - प्रायः उस स्थान पर जाकर पायल की प्रतीक्षा में बड़ी ललक से अपनी पलकों की कालीन बिछाता रहा और दिल में निराशा लपेट कर आता रहा . और आज ! अब गुलशन की धारणा थी कि प्रायः औरत का दिल एक व्यवसायी का होता है . जो प्यार भी करती है - - - तो दिमागी तराज़ू पर तौल कर . अचानक गुलशन को जैसे कुछ याद आ गया - - - और उसके हाथ सामने मेज पर रखी बोतल और गिलास की तरफ भटक गये . [8] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 7 ) बहुत सी साधारण , छोटी - मोटी दिखने वाली चीजें आदमी के आस - पास बिखरी - चिपकी रहती हैं - - - मगर इस तेज रफ़्तार व्यस्त ज़माने में , उसे अपने ढंग से कभी यह सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती कि ये सब आखिर है क्यों . इनके अस्तित्व का औचित्य क्या है ? अब कमीज कि जेब को ही लें . छाती पर ही क्यों होती है . वह भी बायीं ओर , दिल के ऊपर ही क्यों चस्पा रहती है . कागज़ कलम या रूपये भर रखना ही अगर उद्देश्य होता तो दायीं ओर या फिर तोंद के ऊपर भी तो रखी जा सकती थी . उसके नियत स्थान के पीछे कुछ तो शुरुवाती कारण रहा होगा . कोई चीज प्रारम्भ होकर , अनवरत रहकर , यूं ही तो परम्परा नहीं बन जाती . है न ? दिल के ऊपर जेब का आविष्कारक निश्चित ही कोई मौलिक व सच्चा आशिक रहा होगा . तभी तो उसने इसके लिए यह ख़ास व संवेदनशील जगह चुनी . संभवतः उसकी कोई प्रेमिका रही होगी . उसकी अनुपस्थिति में भी , उसकी मधुर यादों को दिल से चिपकाये रखने की , इससे अधिक उपयुक्त जगह इस स्थान विशेष पर स्थित जेब के अतिरिक्त और हो भी क्या सकती थी . और अगर उस दिलदार आविष्कारक का विचार मौलिक , ह्रदय स्पर्शी , सर्व प्रिय और सर्व मान्य न होता तो बायीं तरफ जेब - रुपी परम्परा बनकर आज तक जिंदा नहीं रह सकता था . आखिर हर व्यक्ति की ज़िन्दगी में किसी न किसी की तस्वीर जेब में रखने - बसाने का वक्त कभी न कभी तो आता ही है . इन दिनों गुलशन भी कुछ ऐसे ही दौर से गुज़र रहा था . उसने पायल की फोटो को अपनी बांयी छाती पर धड़कती जेब से निकालकर गुमसुम नज़रों से निहारा और दूसरा पैग हलक के नीचे उड़ेल कर बुरा - सा मुंह बनाया - - - जैसे नीम का अर्क पी गया हो . और तभी ! गेसू कमरे में दाखिल हुई . घुसते ही उसके मस्तिष्क पर आश्चर्य का एक भरपूर हथौड़ा पड़ा और उसके हाथों के तोते उड़ गए . हतप्रभ हुई गेसू को गुलशन का ये रूप देख कर ऐसा लगा , जैसे उसने खुदा को खून करते देख लिया हो . उसके मन में गुलशन के लिए बड़ी इज्जत थी और उसने उसके इस रूप के बारे में कभी कल्पना तक नहीं की थी . सच ही है - - - प्रायः हम दूर से सितारों को जितना चमकदार समझते है - - - वास्तव में नज़दीक से वो उतने रौशन होते नहीं . दोनों की निगाहें चार होते ही - - - गुलशन ने हड़बड़ा कर बोतल को छिपाने का प्रयास किया . और क्योंकि प्रयास हड़बड़ाहट में किया गया था , अतः उसे तो असफल होना ही था . विस्मय भरे अंदाज़ में गेसू पलंग पर उसके समीप बैठते हुए बोली -- " ओह - - - तो नशा करते हो ! " " नहीं ! दर्द पर शराब का छिड़काव करता हूँ - - - उसे कम करने की गरज से . " गुलशन ने कराहता जवाब दिया . " आखिर दर्द काहे का है ? " " क्या करोगी जानकर ! " गुलशन ने उसकी बात को टालना चाहा . गेसू उसकी मंशा भांपकर बोली -- " गुलशन ! मेरे दोस्त !! लगता है - - - तुम मेरी बात का जवाब नहीं देना चाहते . टालना - टरकाना चाहते हो . मगर मैं समझती हूँ - - - कि तुम्हारे इस व्यवहार से मेरे विचारों का दमन होगा . और ध्यान रखो - - - विचारों के दमन से श्रृद्धा नहीं , विरोध जागता है . अगर कोई कुछ समझना चाहता है - - - तो उसकी बात का समाधान होना ही चाहिए . तुम्हें मेरे प्रश्न का उत्तर देना ही चाहिए . मुझे अपने दर्द में साझीदार बनाकर तो देखो . " " लेकिन हम - तुम अभी इतने अधिक परिचित भी तो नहीं - - - कि मैं तुम्हें अपने दर्द में शामिल करूँ ." " मगर अब - - - हम लोग एक दूसरे के लिए अपरिचित भी तो नहीं रह गए . दोस्त ! मुलाक़ात चाहे घंटों की हो या वर्षों की - - - ये तो सामीप्य का प्रश्न है . यदि आत्मीयता है - - - तो अपना दर्द सुनाया जा सकता है . किसी नजदीकी के सामने अपने दर्द को बेपर्दा करके मन का बोझ थोड़ा हल्का किया जा सकता है - - - और इससे कभी - कभी दर्द से उबरने का उपाय भी सामने आ जाता है . " " - - - - - - " गुलशन चुप रहा . गेसू ही पुनः बोली -- " वैसे शायद - - - मैं ये जानती हूँ कि तुम्हें दर्द काहे का है . उसी का न ! जिसकी फोटो तुम्हारी जेब में है - - - और जिसे थोड़ी देर पहले तुम बड़े ध्यान से देख रहे थे !! लेकिन जहां तक मेरा ख़याल है - - - वो तुम्हें मिलने से रही . " " तो क्या हुआ ! एक खूबसूरत दुर्लभ फूल को - - - जिसे आदमी पा नहीं सकता - - - छूना चाहता है - - - और जिसे छू भी नहीं सकता - - - उसे मात्र देखना चाहता है . तसल्ली का कोई न कोई तरीका तो तलाशना ही पड़ता है . " " हाँ - - - सो तो ठीक है - - - पर इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम अपनी तलाश में बौखला कर अपना खोया हुआ ऊँट गगरी में तलाशो . शराब के प्याले में डूब कर अपना भविष्य चौपट करो . उसे अन्धकार मय बनाओ !! " " अंधकार मय ! " गुलशन दर्द में पगी कुम्हलाई मुस्कान बिखेर कर बोला -- " अरे - - - मेरा तो कोई भविष्य ही नहीं है . " " मैं ये मानती हूँ मेरे दोस्त - - - कि तुम्हारे साथ - - - तुम्हारे ख़याल में एक बड़ी त्रासदी घट गयी है - - - मगर शराब से समस्यायें तो हल नहीं होतीं . " " राहत तो मिलती है . मैं इसमें शान्ति तलाश करता हूँ . " " शान्ति बाहरी वस्तुओं में तलाशना व्यर्थ है दोस्त . वो तो इंसान के अन्दर छुपी रहती है . बस - - - उसे तलाशने का सही तरीका आना चाहिये . और ज़रा सोचो - - - शराब भी क्या शान्ति दे सकती है ? " " कम से कम उलझे हुए विचारों और उबलते हुए उद्गारों को कदाचित सामयिक तौर पर दबा तो देती है . " " अरे क्या ख़ाक दबा देती है ! मैं तो कहती हूँ , चेतना ही मार देती है . शराब पीने से चेतना ही लुप्त हो जाती है . जबकि चेतना ही मनुष्य को ईश्वर से मिली सबसे बड़ी नियामत है और चेतना ही यदि लुप्त हो जाए तो मनुष्य जानवर भर है - - - क्योंकि जानवरों का स्वभाव होता है कि वो दुखों को उतनी सूक्ष्मता से अनुभव नहीं करते , जितना कि मनुष्य . " गेसू समझाने लगी -- " गुलशन ! तुम्हारा ह्रदय प्रेम की असफलता में जल रहा है - - - और तुम - - - तुम आग से आग बुझाने का बचकाना प्रयास कर रहे हो . " " नहीं - -- - मैं आग से आग बुझा नहीं रहा - - - बल्कि मैं तो आग से आग लगा रहा हूँ . " गुलशन हारी - भारी आवाज़ में बोला -- " गेसू ! ये बात और है - - - कि वो निर्मित न हो सकें , वैसे हर मस्तिष्क में कुछ ताजमहल होते हैं . और मैं - - - मैं चाहता हूँ कि दहकती हुई इस आग में जलकर मेरे दिमाग का ताजमहल राख हो जाए ." " देखती हूँ - - - ये तुम नहीं बोल रहे . तुम्हारा नशा बोल रहा है . शराब में डूबकर आदमी - आदमी नहीं रह जाता . सिर्फ नशा बन जाता है . एक बदसूरत नशा . " " लेकिन मैं इस नशे में वो ख़ुशी पाता हूँ - - - जो सामान्य अवस्था में नहीं मिलती . नशे की अवस्था में - - - कम से कम मैं हंस - मुस्करा तो सकता हूँ - - - और कुछ क्षण जी भी लेता हूँ . " इतना कहकर गुलशन सचमुच हँस पड़ा -- " ह - - - हा - - - हा . " किन्तु उसकी इस हंसी पर गेसू के मन में दया उमड़ आयी . वह पूर्ववत गंभीर मुद्रा में ही बोली -- " मेरे दोस्त ! इन कहकहों से तुम खुद को बहला रहे हो या फिर मुझे बहकाना चाहते हो !! मै अच्छी तरह देख - परख रही हूँ - - - तुम्हारी हंसी बीमार है , खोखली है , झूठ है , फरेब है , एक नकली ओढ़ी हुई जिंदगी को उम्र देने का बहाना है ." वह कहती रही -- " और सरकार की जालिम कृपा से ये जहर --शराब -- सरेआम बिकती है . अनाज काले बाजार के गोदामों में पड़ा रोता है और ये निगोड़ी दिलजलों को बर्बाद करने के लिए चौराहों पर सजी दुकानों में चमचमाती है . " " हुँह - - - - - -." गुलशन ने एक छोटी और फीकी मुस्कान फेंकी . " गुलशन ! आदतों पर यदि अंकुश न रखा जाए तो वो निरंकुश ज़रूरतें बन जाती हैं . मै एक हितैषी के नाते तुम्हें समझाती हूँ कि शराब की आदत अच्छी नहीं होती ." " आदत कोई भी हो कभी अच्छी नहीं होती . फिर भी - - - आदत तो आखिर आदत ही होती है . " " हाँ - - - आदत वो मोटी रस्सी है - - - जिसको धीरे - धीरे व्यक्ति स्वयं बटता है और मजबूत हो जाने पर खुद ही उसे तोड़ने में अपने को असमर्थ पाता है . " " - - - - - - - - ." गुलशन खामोश रहा . गेसू बात की दिशा बदल कर बोली -- " गुलशन ! मुझे पता चल चुका है कि तुम्हें पायल से प्यार है . " " तो इसमें आश्चर्य क्या . ये तो आगे - पीछे होना ही था . इश्क और असली व्यक्तित्व अधिक दिनों तक छुपाये नहीं छुपते . " " मगर मेरी समझ में ये नहीं आता कि जब पायल इश्क में तुम्हारी संगत को तैयार नहीं - - - तो तुम क्यों उसी का राग छेड़े पड़े हो ! " " काश - - - तुमने कभी प्यार किया होता तो मेरा दर्द जानती . " " हँह - - - ज्यादातर चोट खाए व्यक्ति इसी गलत फहमी में जीते हैं की उन्हीं का दर्द सबसे बड़ा है . " " - - - - - - - -- " " गुलशन ! मेरे दोस्त !! इस दुनिया में हर व्यक्ति अपने - अपने स्तर पर अपने - अपने महत्व के युद्ध लड़ रहा है किन्तु तुम प्रेम के मैदान में पराजित होकर , इस तरह अपना जीवन बर्बाद करके एक तरह से आत्महत्या ही कर रहे हो . जबकि मोहब्बत तो हर हाल में अमृत है . पूरी हो जाए तो सोने पर सोहागा की तरह गृहस्थी संवार देती है और अधूरी रहने पर भी ये दर्पण की तरह आदमी को उसकी कमियों - कमजोरियों का एहसास कराकर उसे महानता की बुलन्दियों तक पहुंचा सकती है . मोहब्बत में असफल व्यक्ति - - - मोहब्बत की प्रेरणा के सहारे - - - क्या से क्या नहीं कर सकता ! किसी के प्यार को न पाने के बाद व्यक्ति का जीवन कुछ ऐसी करवट लेता है कि वह ज़िन्दगी के क्षेत्र विशेष में कुछ चमत्कार भी कर सकता है . लेकिन अफ़सोस - - - कि मैं तुममे ऐसी किसी संभावना कि आहट नहीं पा रही . तुम तो तालाब के बंधे जल की तरह ठहर गए हो . जहाँ निरर्थक जलकुम्भी - सी बे लगाम विस्तार पायी किसी की दुखद यादों ने तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व को ही ढक - जकड़ कर सीमित कर दिया है . तुम तो बस पायल के प्यार का ही रोना लिए बैठे हो . तुम्हें तो उसके ख़याल से ही फुर्सत नहीं . " " तुम ठीक कह रही हो गेसू . जैसे पपड़ीयाए घाव को छेड़ने में कुछ अजीब सा दर्द भरा सुख मिलता है , वैसा ही सुख मुझे पायल की याद में - - - उसके ख़यालों के घेरे में मिलता है . " " लेकिन इन सबसे पायल न मिल सकेगी दोस्त . तुम्हारे लिए उसको भूलने की कोशिश करना ही अच्छा है . " " कैसे भूलूँ ! पायल मेरी ज़िन्दगी में आने वाली पहली औरत है - - - और पहली औरत को भुला पाना संभव नहीं है . " " ज़रा कोशिश करके तो देखो . समय गुज़रते - गुज़रते - - - पानी पर बने अक्स की तरह - - - उसकी यादों के काले बादल तुम्हारे दिल - दिमाग से छंट जायेंगे , मिट जायेंगे . " " गेसू ! समय पुरानी यादों के झरनों को परिस्थितियों की झाड़ियों तले ढांक जरूर सकता है , उसे सुखा - मिटा नहीं सकता . " " ऐ दोस्त ! भावनाओं के झरने में बहने से पहले जीवन की वास्तविकताओं के बारे में मनन करो - - - तो बेहतर होगा . " " लेकिन मुझे तो पायल के विचारों से ही फुर्सत नहीं . मैं केवल ये जानता हूँ - - - कि मैं पायल को चाहता हूँ ." " किन्तु केवल चाहने भर से तो सब कुछ नहीं मिलता . योग्यता चाहिए , प्रयास चाहिए और चाहिए भाग्य . बिना इन तीनों का संगम हुए अनुकूल परिणाम असंभव ही समझना चाहिये . मैं फिर कहूँगी कि तुम पायल को भूल जाओ . " " कुछ गम भुलाए नहीं जाते गेसू . " " मै जानती हूँ - - - लेकिन मेरा अनुभव ये कहता है कि बीतते समय के साथ गम धीरे - धीरे स्वतः हल्का हो जाता है . " " यह तो समय ही बतायेगा - - - पर अभी तो मुझे पायल कि स्मृतियाँ , उसकी यादें , क्षण प्रतिपल कचोटती रहती हैं . " गुलशन धीरे - धीरे वाक्य को घसीटते हुए बोला -- " मगर करूँ क्या ! अब वही स्मृतियाँ ही तो जीवन का सहारा हैं . और शेष है भी क्या ! " " तुम्हारा ख़याल एकतरफा है गुलशन . मेरी समझ में तो स्मृतियाँ ही ह्रदय पर बोझ डालकर कचोटती हैं , डुबो देना चाहती हैं - - - और वही डूबते को सहारा भी देती हैं . " " वो कैसे ? " " वो ऐसे - - - कि जब हम अपनी स्मृतियों को जीवन की अमूल्य निधि मानकर पथ - प्रदर्शक की भाँति उन्हें बनाए रखना चाहते हैं , उनसे सबक लेते हैं - - - तो वो सहारा देती है - - - और जब उन्ही स्मृतियों को फिर से जीवन के व्यवहार में लाना - दोहराना चाहते हैं , तो वो अभाव बनकर व्याकुल करने लगती हैं . " " लेकिन जब मुझे पायल की स्मृति मात्र से बल मिलता है तो उसे पाने की इच्छा को कैसे भुला सकता हूँ ! " गुलशन नशे की झोंक में दीवानों की तरह बोला . उसकी तोता रटन्त से झुंझलाकर गेसू कहने लगी -- " ओफ्फोह - - - पता नहीं किस मिट्टी के बने हो तुम . तुम्हारा जीवन भी कितना अजीब है . " " हाँ गेसू मुझे अपना जीवन - - - जैसा हो गया और जैसा मैं चाहता था - - - उसका द्वन्द जान पड़ता है . " " गुलशन ! तुम्हारी सोच एक सामान्य सच के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं . इसमें विशेष क्या है ! क्योंकि ऐसा तुम अनोखे के साथ ही नहीं है . ऐसा तो प्रायः होता है . आदमी जो होता है और जो होना चाहता है - - - केवल वही नहीं रह जाता . बहुत कुछ और भी अनचाहा अकल्पित जुड़ जाता है उसके साथ . गुजरते वक्त के साथ , परिस्थितियों के सांचे में ढलकर , आदमी का आकार बदल जाता है . जैसे कि तुम्हारा . मैं तो कहती हूँ - - -ज़िन्दगी की राहों में जो कुछ मिलता है - - - स्वीकार कर लो - - - क्योंकि उसे नकारा नहीं जा सकता . यही ज़िन्दगी का मूलमंत्र है . मेरे हिसाब से - - - आदमी के लिए बेहतर ये रहता है कि वो ज़िन्दगी के साथ जबरन चस्पा हो गयी इन अनपेक्षित चीजों - घटनाओं से ताल मेल बैठाकर इन्हीं के साथ सन्तोष पूर्वक जीना सीख ले . वर्ना दुःख के सिवाए कुछ हाथ न आएगा , " गेसू ने कहा -- " समझ में नहीं आता कि प्रतिकूल वास्तविकताओ से मुंह चुराकर कब तक तुम पायल के दुःख को सहन करते रहोगे . " " जिस दुःख का उपाय नहीं , सीमा नहीं , उसे भाग्य मानकर सहते रहने के अतिरिक्त और किया भी क्या जा सकता है ! " गुलशन निराशा के भाव में बोला . गेसू दयाद्र हो उठी -- " उफ़ - - - कितनी कडुवाहट बटोरे हो तुम , अपने जीवन में . " " सच ही कहा तुमने गेसू . मेरी जिंदगी बहुत कडुवी है . नीम की पत्ती की तरह . जब तक रहेगी - - - कडुवापन लिए रहेगी - - - और धीरे - धीरे पीली पड़कर एकदिन अचानक झड़ जायेगी . सच्चाई तो ये है कि मेरी ज़िन्दगी मुझे हर मर्ज की एक कडुवी खुराक से मिलाकर बनायी गयी लगती है " " दोस्त ! समय रहते अपने आपको संभालो . अगर बीता हुआ कल तुम्हारे बीच इसी तरह आता रहा - - - तो तुम आज को कभी भी ईमानदारी से जी नहीं पाओगे . उस लड़की के इंतज़ार ने तुम्हें बर्बाद करके छोड़ा है . तुम्हारा सुख - चैन - - - . " गेसू अभी अपना वाक्य पूरा भी न कर पायी थी कि गुलशन नें अपनी सख्त अंगुलियाँ उसके नर्म होठों पर रख दीं और बोला -- " न - - - ``- - - ऐसा मत कहो . उसने दिया भी मुझे कुछ कम नहीं . सच तो ये है कि पायल ने अन्जाने में मुझे जो दिया है - - - कोई और दे भी नहीं सकता . उसने मुझे प्रेरणा दी है और मेरी सोई हुई कला को प्रेरित किया है . उसकी याद में जब मेरा दिल तड़पता है तो मेरी कला की देवी व्याकुल हो उठती है और - - - . " " और तुम एक हाथ में जाम और दूसरे में कलम उठा लेते हो . यही ना ! " गेसू व्यंग्य कसने के बाद धीरे से बोली -- " गुलशन ! मुझे तो तुम जीवन की सबसे ऊंची इमारत से गिरी हुई एक अजूबी मूर्ति मालूम पड़ते हो , जिसके टुकड़े - टुकड़े हो गए हैं - - - और हर टुकड़ा अपना अलग जीवन गुजार रहा है . कोई टुकड़ा कलम संभाले है , तो कोई जाम . कोई ठहाके लगा रहा है , तो कोई उदास है मातम मना रहा है ." गुलशन ने बात को दूसरी दिशा देने के विचार से कहा -- " अच्छा ये बताओ गेसू ! तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की ? " " कोई बढ़िया आदमी ही नहीं मिला था अब तक . " " कमाल करती हो . इतनी बड़ी दुनिया - - - और एक अदद मनपसन्द आदमी न मिला अब तक तुम्हें ! आखिर कैसा आदमी पसन्द करती हो तुम ? शादी के लिए किस तरह के आदमी की तलाश है तुम्हें ? " " मै ऐसे आदमी की तलाश में हूँ , जो पर्वतों की तरह महान हो . दरिया की भाँति तेज और संगीतमय हो . फूल की तरह कोमल , कांटे के सदृश कठोर , सीप की भांति बन्द और कमल की तरह खुला हो ." " फिर तो वह किसी किताब में मिलेगा . " " उं - - - हुंअ - - - नहीं . वो मिल गया है . वो तुम हो . पर थोड़ा सा ऐब है तुममें . बस - - - तुम्हारी शराब छुड़ानी पड़ेगी . " इतना कह - - - गेसू ने थोड़ा भावुक होकर पूछा - - - " दोस्त गुलशन ! एक बात कहूं !! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं - मैं न रहूँ - - - तुम - तुम न रहो - - - बल्कि मैं और तुम मिलकर हम बन जायें ? " उसकी बात सुनकर पहले तो गुलशन चौंका - - - मगर फिर गंभीर होकर कहने लगा -- " नहीं . कम से कम इस या शादी के मामले में नहीं . गेसू ! अमावस और पूनम की रातों के बीच बहुत सी तिथियों के अवरोध हैं . दोनों का मिलन कभी नहीं हो सकता . " [9] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
"लेकिन मैं तुम्हारे ही साए में रहकर तुम्हें संवारना चाहती हूँ . "
" गेसू शून्यताओं को सीने में लिपटाए , भूख और तंगी से जूझता हुआ मैं बड़ा हुआ हूँ . मेरे पास तुम्हें क्या मिलेगा ! मात्र गिरती हुई दीवारों का साया . समय और दुर्भाग्य के थपेड़ों ने मुझे खंडहर बना दिया है . सच तो ये है कि मैं सिर्फ पायल से प्यार करता हूँ . सिर्फ पायल से ." " नहीं ! तुम खुद और दूसरों को धोखा देते हो . सच तो ये है कि उसे आकर्षित करने लायक तुम्हारे पास दूसरा कोई जरिया न होने के कारण तुम उस महत्वाकांक्षी लड़की को प्यार की ओट में पाना चाहते हो . जबकि मैं - - - मैं तुम्हारी बाहों में प्यार का नाटक रचाए बिना ही आना चाहती हूँ . " " आखिर तुम प्यार को समझती क्या हो ? " " खूब समझती हूँ . अच्छी तरह जानती हूँ . व्यक्ति प्रेम का प्रदर्शन सिर्फ उस जगह करता है - - - जहाँ वह कीमत देने में असमर्थ होता है . हर वह वास्तु - - - जिसे बिना कीमत के प्राप्त करने का प्रयास किया जाय - - - उस स्वांग को प्यार कहते हैं . जो बिकाऊ नहीं है , जिसे आदमी खरीद नहीं सकता , उसे प्यार की ओट में पाना चाहता है . जैसे कि तुम पायल को . किन्तु मै तुम्हे बगैर किसी बहाने - - - बिना किसी पर्दे - प्रपंच के - - - सीधे - सीधे पाना चाहती हूँ . " " पर मुझे तो तुम्हारे प्रस्ताव में प्यार नहीं , सेक्स नज़र आता है . " " लेकिन मेरी नज़र में सेक्स ही वो है , जिसे तुम प्यार कहते हो . और इस तरह सेक्स ही प्यार है . प्यार का प्रमुख अंश है . बाकी सभी कुछ उसकी तैयारी है . उसके लिए एक समुचित वातावरण और विश्वास का निर्माण करना भर है . " " गेसू मुझे तो लगता है - - - तुम्हें लगता है कि स्त्री - पुरुष के बीच सिर्फ सेक्स का ही रिश्ता है . " " बेशक . यही एक प्रमुख रिश्ता है . गुलशन ! मुझमें इतनी हिम्मत है कि मैं कह सकूँ कि यही एक कुदरती रिश्ता है आदमी - औरत के बीच . बाकी सब व्यवस्था बनाए रखने के लिये खड़े किये गये सामाजिक अवरोध मात्र हैं . मेरे ख़याल से पारिवारिक रिश्तों को यदि छोड़ दें तो नवपरिचित हमउम्र आदमी और औरत के रिश्तों का प्रारम्भ चाहे जो भी स्वघोषित नाम देकर किया जाय - - - अगर वो लम्बे चले , तो अनुकूल एकान्त में फल - फूल कर उनका अन्त प्रायः निश्चित शारीरिक संबन्धों पर ही होता है . " " किन्तु मुझे तो मेरे - तुम्हारे संबन्धों में ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती ! " " थोड़ा सब्र करो . संभावना भी बनेगी और मूर्त रूप भी लेगी . ज़रा गुजरते समय के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ तो होने दो . देखना ! आने वाला कल मेरी बातों का सबूत बन कर आएगा . " इतना कहते - कहते वह भावुक हो उठी . उसने अधीर हो पूछा -- " बताओ दोस्त ! क्या तुम मुझे अपनी बाहों में जगह देना पसन्द करोगे ? " " अक्ल से काम लो गेसू . फिलहाल मैं गरीब हूँ . मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ . मेरे पास तुम्हारे स्तर को बनाए रखने के लिये धन - साधन , जमीन - जायदाद नहीं है . " " तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं , यह सच है - - - लेकिन मेरी नज़र में तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी व आकर्षक चीज़ है , जो आम आदमी , विशेष कर अमीरों में प्रायः नहीं होती . " " क्या ? मैं समझा नहीं . " " शराफत . तुम बेहद शरीफ हो . " " केवल शराफत को क्या तुम शहद लगाकर चाटोगी ? " " तब फिर पायल को किस बूते पर पाना चाहते हो ? वह भी तो तुमसे पूछ सकती है कि तुम्हारी सूखी शराफत को वह ओढ़ेगी या बिछाएगी - - - या फिर पतीली में पकाकर अपने पेट की आग बुझाएगी क्या ?" " लेकिन मैं क्या करूँ ! मैं दिल के हाथों मजबूर हूँ . मैं उसके बगैर अपने जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता . सोच तक नहीं सकता ." " तुम्हारे सोचने न सोचने से क्या ! तुम क्या सोचते हो कि तुम्हारी दीवानगी पर रहम खाकर पायल तुम्हारी बाहों में आ जायेगी !! " गेसू तनिक कटु होकर बोली -- " सच - सच सुन लो दोस्त ! फिलहाल तुम कवि ह्रदय लेखक हो और कल्पना की लम्बी पतंगें उड़ाते हो - - - लेकिन सच्चाई तो यही है कि कुछ रिश्तों , कुछ अपवादों को यदि छोड़ दें , तो दुनिया में कोई किसी से मोहब्बत नहीं करता . ये सब बेकार कि बातें हैं . बेकार का रोना है . व्यक्ति बस अपने आपसे - - - अपनी इच्छाओं से मोहब्बत करता है , जैसे कि तुम्हारी इच्छा है कि तुम पायल को पाओ - - - क्योंकि पायल तुम्हें अच्छी लगती है - - - और इसीलिये तुम उससे मोहब्बत का ढोंग रचाते हो . " " तुम भी तो मुझे पाने की बात करती हो ! " " हाँ - - - करती हूँ . लेकिन मैं तुम्हारी तरह टेसुए बहाकर गली - गली मोहब्बत कि डुग्गी नहीं पीटती . मैं तो अपनी इच्छाओं के जंगल में उड़ता हुआ आज़ाद पँछी हूँ . मेरे भीतर जो भी नैसर्गिक इच्छा पैदा होती है , मैं यथा संभव तुरत - फुरत पूरा कर डालती हूँ . जैसे - - - ." " जैसे ? " " जैसेकि इस वक्त मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं तुम्हें चूम लूँ ." इतना कहकर - - - गेसू ने सचमुच ही झटपट गुलशन को चूम लिया . गुलशन इस आकस्मिक हमले से हड़बड़ाकर बोला -- " उफ़ - - - बड़ी स्पष्ट हो ." " हाँ - - - इसीलिए उलझाव से दूर हूँ . " वह कहती रही -- " दोस्त ! मैं उन लोगों में से नहीं हूँ - - - जो सोचते कुछ और हैं , कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं . मेरा दिल - - - मेरी जबान पर आकर बोलता है और जबान दिल का साथ देती है . एक वाक्य में - - - मैं तुम्हें बहुत पसन्द करती हूँ और सामाजिक रूप से प्राप्त करना चाहती हूँ . गुलशन ! मैंने अपना दिल तुम्हारे सामने खोलकर रख दिया है . बिल्कुल उसी तरह , जैसे कोई मासूम बच्चा बड़े प्यार से अपने किसी दोस्त को अपने घर लाता है और अलमारी में से अपने सारे खिलौने निकालकर उसके सामने रख देता है , भले ही वो उसे पसन्द आयें या न आयें . " " लेकिन अब मैं आगे औरतों पर भरोसा करने पर यकीन नहीं रखता ." " तुम साँप से डरे हो और रस्सी की तरफ हाँथ बढ़ाने में कतरा रहे हो . " गेसू ने कहा -- " आखिर तुमने औरतों को समझ क्या रखा है ? " " औरत ! हुं ह !! औरत शराब से भरा एक जाम है - - - जो देखने में तो बेहद आकर्षक है - - - मगर अपने ह्रदय में एक मीठा जहर संजोये रहता है . " " मेरे नादाँ दोस्त ! कुछ जामों में जहर होता है और कुछ में अमृत . अब इसे आदमी की किस्मत या दृष्टि का पैनापन ही कहना चाहिए कि वो अपनी प्यास बुझाने के लिए किस जाम को चुनता है . " " - - - - - - - . " गुलशन चुप रहा . " गेसू ने बातों को मोड़ देते हुए पूछा -- " ये बताओ - - - तुम्हें शादी कि इच्छा नहीं होती ? " " दुनिया के भीतर अपनी एक छोटी सी दुनिया बसाने का ख़्वाब कौन नहीं देखता ! लेकिन सबके सपने तो हकीकत में नहीं ढलते . " " गुलशन ! मेरे दोस्त !! एक बार मेरा हाथ थाम कर तो देखो - - - अपनी किस्मत कि लकीरों में मुझे बसा करके तो देखो - - - फिर जानोगे कि ज़िन्दगी कितनी हसीन और जायकेदार है . " " जानता हूँ . ज़िन्दगी से ज्यादा उसकी उम्मीद जायकेदार है - - - क्योंकि ज़िन्दा रहने के लिए कीमतें इतनी ज्यादा बढ़ गयी हैं - - - फिर भी हम उससे लटके जा रहे हैं . " गुलशन ने बुरा सा मुंह बना कर कहा - - - जैसे उसके मुंह का जायका बिगड़ गया हो . कसैला सा . गुलशन की भाव - भंगिमा देखकर गेसू पुनः बोली -- " दोस्त ! मुझे तुमपर कभी तरस आता है , कभी क्रोध - - - और ये सच है कि मुझसे तुम्हारा दुःख व निराशा नहीं देखी जाती . तुम्हारी सारी तकलीफों की दवा बहुत आसान और एक है . मेरी मानो तो शादी कर लो . मैं तैयार हूँ . मैं न सही - - - किसी और से भी कर सकते हो - - - मगर कर लो . " " पायल को अनदेखा करके मुझे शादी की कोई जरूरत नहीं . " " आखिर सामान्य जीवन भी तो अपने आप में एक जरूरत है ! " " लेकिन हर जीवन तो सामान्य नहीं हुआ करता . " " लेकिन सामान्य होने के लिए ईमानदार कोशिश तो करता है . " " हाँ , तब - - - जब जीवन में कुछ आकर्षण बचा हो . " "पूर्वाग्रही ! आकर्षण उत्पन्न करने के लिए ही तो बार - बार तुम्हारी शादी पर जोर दे रही हूँ . शादी कर लोगे तो गाँठ बँधी स्त्री के व्यक्तित्व की गहराइयों में डूबकर जो कर्तव्य हाथ आयेंगे , उनके निर्वाह की जिम्मेदारियों में उलझकर धीरे - धीरे पायल को स्वतः भूल जाओगे . तुम्हारे वीरान और उजाड़ गुलशन में फिर से बहार आ जायेगी . और फिर - - - साधारणतः अकेला व्यक्ति जीवन में पूर्णता भी तो अनुभव नहीं करता . " " किन्तु जीवन की पूर्णता या सार्थकता के लिए शादी - विवाह के अतिरिक्त दूसरे साधन भी तो हो सकते हैं . " " जैसे ? " " जैसे साहित्य या लेखन . " " दोस्त ! जीवन संघर्षों की रणभूमि है . कला या साहित्य की क्रीडा - स्थली नहीं . और फिर - -- - साहित्य या लेखन या और कुछ - या और कुछ - - - ज़िन्दगी के शौक तो हो सकते हैं - - - उद्देश्य नहीं . जिंदगी का उद्देश्य तो ज़िन्दगी ही है . एक पूर्ण ज़िन्दगी . भरपूर जी हुई ज़िन्दगी . जिसके लिए औरत और मर्द एक दूसरे के पूरक हैं - - - एक दूसरे के ईष्ट हैं . गुलशन ! जब तक पुरुष किसी स्त्री से नहीं बँधता - - - वह नहीं जान पाता कि वह क्या है . सुबह के शुरुवाती उजाले में जैसे पहाड़ और नगर उभरने लगते हैं - - - वैसे ही स्त्री के संसर्ग में पुरुष का व्यक्तित्व आकार लेने लगता है और उसमें छिपी समस्त संभावनाएं मूर्त हो उठती हैं . इसीलिए कहती हूँ - - - तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए . " " इसका उत्तर मैं दे चुका हूँ . " " यही ना - - - कि तुम पायल के अलावा किसी दूसरी लड़की से शादी नहीं करोगे . और जहाँ तक मैं समझती हूँ - - - पायल तुमसे शादी नहीं करेगी . और अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें उम्र भर कुंवारा रहना पड़ेगा ." " क्या फर्क पड़ता है ! " वह थोड़ा सा मुस्करा कर बोला -- " कहावत है कि कुंवारों का जीवन काफी लम्बा होता है . " " नहीं ! सच्ची बात तो ये है कि ऐसा होता नहीं , बस तन्हाई के कारण जीवन लम्बा लगता भर है . " " लगने दो . परवाह नहीं ." वह झुंझलाया . " हँ ह - - - ' परवाह नहीं ' कहना जितना आसान है - - - आजीवन अविवाहित रहना उतना ही कठिन . गुलशन ! शादी का सेक्स कि पुर्ति से सीधा सम्बन्ध है - - - और सेक्स मानव की बुनियादी , मौलिक और आदि आवश्यकता है . जिस तरह अन्य जरूरतों व क्षुधा की पूर्ति आवश्यक है - - - उसी तरह जीवन को सामान्य ढंग से चलाने और संतुलित विकास हेतु यौन - तृप्ति होना भी परम आवश्यक है . और फिर - - - सामान्यतः जो लोग अधिक उम्र तक या उम्र भर अविवाहित रहते हैं - - - वो भी तो वासना से दूर नहीं रह पाते . विवाह नहीं करते - - - लेकिन अप्राकृतिक या समाज द्वारा अस्वीकृत उपायों का प्रयोग करते हैं . चाहे वो स्त्री हों या पुरुष . " " क्या तुम भी ऐसा करती हो ? " गुलशन ने मुस्कराकर उसे उसी की बातों में फाँस कर अपनी जिज्ञासा शांत करनी चाही . " दोस्त ! हर बात बतायी तो जाती है , पर हर व्यक्ति से नहीं . " वह हंसकर बड़ी चतुराई से बोली -- " और वैसे भी - - - अभी मेरी उम्र ही क्या है ! बाली उमर है . बोलो है कि नहीं . बोलो न ! " "- - - - - - - -" गुलशन की तो बोलती ही बन्द हो गयी . थोड़ी देर कुछ सोचते रहने के पश्चात वह गंभीरता पूर्वक बोला -- " सोचता हूँ - - - वो भी क्या वक्त था , जब मैं पायल की तरफ से निराश नहीं था . पायल और मैं - - - कॉलेज में साथ - साथ उठते - बैठते थे . और अब - - - . हुं ह - - - , गेसू ! क्या हम वक्त को रोक नहीं सकते ? " " रोक क्यों नहीं सकते ! रोक सकते हैं . बस उतनी देर के लिए - - - जब तक हमारी बाहें एक - दूसरे के गले में पड़ी हों , होठ एक - दूसरे के होठों पर रखे हों और धड़कनें एक - दूसरे के दिलों की संगत कर रही हों ." इतना कहते - कहते वह झुंझला पड़ी -- " मगर तुम चाहते ही नहीं , " " मैं तो सिर्फ पायल को चाहता हूँ . " " लेकिन तुम्हारे आंसुओं से पायल का दिल मोम नहीं होगा ." " पत्थर भी कभी न कभी पसीज उठते हैं . उसे पिघलाने के लिए प्यार का सच्चा ताप चाहिये . " " देखती हूँ - - - उसे पिघलाते - पिघलाते तुम खुद पत्थर होते चले जा रहे हो . " उसकी आँखें नम हो गयीं . वह बोली -- " सच तो ये है - - - कि तुम्हारी उम्मीदों के चिराग बुझ चुके हैं - - - लेकिन फिर भी तुम उन्हें जलाए रखने का असफल प्रयास कर रहे हो . " " प्रयत्न करना तो आदमी का धर्म है . " " तो ठीक है . तुम अपना प्रयत्न करो और मैं अपना . " समझ में नहीं आता - - - आखिर पायल में ऐसा क्या है , जो मुझमें नहीं ." " गेसू तुम दिल , दिमाग और चेहरा - - - सभी से खूबसूरत हो . तुम्हें पाकर कोई भी निहाल हो जाएगा . मगर मैं अपने दिल का क्या करूँ ! ये - - - ." " कोई बात नहीं . " गेसू उसकी बात काटकर तेज भरभराई आवाज में बोली -- " लेकिन सुन लो ! हुस्न की तलवार बहुत पैनी हुआ करती है . उसका वार कभी न कभी भरपूर पड़ ही जाया करता है . और कोई नहीं जानता कि - - - उसे औरत कि कौन सी अदा किस वक्त भा जाय . देखना मैं तुम्हें बदल कर रहूंगी . " " गेसू ! मुझे तुमसे सहानुभूति है - - - मगर - - - . " " सहानुभूति प्रेम की पहली सीढ़ी है . मैं ऐसी ही सीढ़ियाँ चढ़कर तुम तक पहुँचूँगी . धीरे - धीरे तुम्हें पायल की तरफ से मेरी ओर मुड़ना ही पड़ेगा . वो भी खुशी - ख़ुशी . " " ओफ्फोह ! छोड़ो भी इन बातों को . चाय नहीं पियोगी ? मैं बनाऊँ या तुम बना लोगी ? रसोई में सब सामान सामने ही दिखेगा . " " रसोई ! क्या तुम्हें खाना बनाना आता है ? " " मैडम ! दुनिया के सारे बेहतरीन बावर्ची मर्द ही होते हैं . कहिये तो नमूने के तौर पर बेहतरीन चाय बनाकर पिलाऊँ ? " " नहीं शेखी मत बघारो . मैं ही जाती हूँ . " कहकर गेसू मुंह बिसूर कर रसोई की ओर बलखाकर चल दी . थोड़ी देर में वो चाय बनाकर ले आयी . चाय की चुस्की लेते हुए गुलशन मुस्करा कर बोला -- " बड़ी सोंधी - स्वादिष्ट बनी है चाय . क्या मिला दिया है इसमें ? " " बताऊँ ? " " हाँ -- हाँ ! बोलो न . " " थोडा सा प्यार मिला दिया ही इसमें . " गेसू ने हौले से मुस्कराकर मादक जवाब दिया . गुलशन भी बिना मुस्कराये न रह सका -- " ओह - - - अच्छा - - - ये बात है . " बात के रुख को मोड़ते हुए गेसू बोली -- " मुझे तुम्हारा ये कमरा कुछ जँचा नहीं . तुम इस छोटे से पिंजरेनुमा कमरे में कैसे रहते हो ? तुम्हारा ये कमरा - - - . " " हँ ह - - - ये कमरा ही क्यों - - - सारी दुनिया मुझे यही जान पड़ती है . एक पिंजरा . इससे कोई फर्क नहीं पड़ता - -- - पिंजरा चाहे सोने का ही हो - - - वह पिंजरा है . एक कैद खाना . जिसमे हम खुलकर सांस नहीं ले सकते . हमारी इच्छायें पंख नहीं खोल सकतीं . लगता है - - - सीलन और कीड़े - मकोड़े से भरे अँधेरे तहखाने को दुनिया का नाम दे दिया गया है . और हम - - - हम इसमें जीने के लिए मजबूर हैं . मेरा बस चले तो - - - . " " ओफ्फोह गुलशन ! देखती हूँ - - - तुम बहक रहे हो . " गेसू ने उसकी बात काट कर कहा - - - और फिर अचानक कुछ याद आते ही बोली -- " एक बात बताओ दोस्त ! रसोई में - - - जब मैं चाय बना रही थी , तो मुझे लगा , जैसे छत पर से फ्लश चलने की बेहूदी आवाज़ आयी हो . " " ओ s s s हाँ s s s . " गुलशन ने हंसकर जवाब दिया -- " यही तो इन लॉज - टाइप मकानों में खराबी है . किसी की रसोई के ऊपर किसी की लैट्रिन होती है , तो किसी की लैट्रिन के ऊपर किसी की रसोई . सच गेसू ! रसोई में बैठकर कभी कुछ खाते - पीते समय यदि फ्लश की आवाज़ आ जाती है , तो मुझे अनुभव होता है - - - ऊपरी मंजिल के कोई साहब मेरे सिर पर बैठ कर जैसे हल्के हो रहे हैं . तन - बदन में एक आग सी लग जाती है उस वक्त . " गेसू चुटकी लेती हुई बोली -- " लेकिन इसमें तुम्हें क्यों नाराजगी ? आखिर तुम्हारी लैट्रिन भी तो किसी के बेड - रूम के ऊपर ही होगी ! " " मजाक करती हो ! " " अच्छा - - - अब चलती हूँ . " गेसू ने हँसकर उठते हुए कहा -- " दोस्त परसों मेरा बर्थ - डे है . ज़रूर आना . " " कौन सा जन्म - दिन है मैडम का ? " " बुद्धू ! स्त्रियों से उनकी आयु और साधुओं से उनकी जाति नहीं पूछनी चाहिए - - - शिष्टाचार के विरुद्ध बात है . " " अरे मैनें तो यूं ही उम्र जानने की उत्सुकता वश पूछ लिया था . " " तो सुनो ! स्त्री की उम्र उतनी ही समझो , जितने की वो नज़र आये . " उसने हँसकर सीख दी और बोली -- " आना जरूर . मैं इन्तज़ार करूंगी . " " आऊँगा तो - - - मगर तुम फिर अपनी बीमार सहेली के यहाँ न चली जाना . " " अरे नहीं - - - वो तो मात्र संयोग था . अच्छा फिर मिलेंगे . बर्थ - डे - पार्टी में . " इतना कह कर गेसू चली गयी . साथ ही वो मादक महक भी कमरे के वातावरण से लुप्त हो गयी - - - जो पदमिनी श्रेणी की स्त्रियों के बदन से ही निकलती है . [10] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 8 ) आज प्रोफ़ेसर साहब की कोठी ब्यूटी -पार्लर से सजकर आयी किसी नई नवेली दुल्हन की तरह बेहद खूबसूरत लग रही थी . उसके बनाव - श्रृंगार अगल - बगल के बंगलों को बगलें झाँकने के लिए मजबूर कर रहे थे . साँवली शाम को - - - कोठी पर लटकी चाइनीज़ विद्दयुत बल्ब की लड़ियाँ - - - जुगनुओं की तरह जगमगा रहीं थीं . जिस तरह सड़क पर कोई हसीना दिख जाने पर - - - लोग उसे देखने के लिए दिल के हाथों मजबूर हो जाते है , ठीक उसी तरह - - - राह चलन्तू मुसाफिरों की निगाहें , इस हसीन कोठी को कम से कम एक नज़र देखने के लिए बरबस उठ जा रही थीं . कोठी अपनी सजावट से लोगों का ध्यान आकर्षित करने की जी - तोड़ कोशिश कर रही थी , जिस तरह लड़कियां अपने चटकीले मेक अप और चुगलखोर भड़कीली पोशाकों से लड़कों को आकर्षित करने का करती हैं . हॉल में काफी भीड़ एकत्र हो चुकी थी . प्रोफ़ेसर साहब बाहर दरवाजे पर हर आने - जाने वाले की अगवानी कर रहे थे . सभी मेहमान बारी - बारी से गेसू को जन्म - दिन की बधाई और तोहफे दे रहे थे . अजीब तरीका है - - - लोग जन्म - दिन पर - - - ज़िन्दगी का न लौटने वाला एक बेश कीमती साल कम होने पर खुशियाँ मनाते हैं - - - तोहफे देते हैं और दीर्घायु होने की कामना करते हैं . आश्चर्य है - - - लोग जीवन को बढ़ाना चाहते हैं , उसे सुधारना नहीं . गेसू का शरीर उपहार ले - लेकर बधाइयाँ स्वीकार कर रहा था - - - किन्तु उसका मन कहीं और था . उसे तो गुलशन का बेसब्री से इंतज़ार था . गुलशन ! जो अभी तक नहीं आया था , गेसू के ख़याल से - - - अब तक तो उसे आ जाना चाहिए था . उसके दिल की हालत कुछ वैसी ही थी , जैसे रमजान - माह की विदाई पर ईद के चाँद की प्रतीक्षा में खुदा के किसी नेक बन्दे की होती है . गेसू की आँखें बार - बार दरवाजे की ओर उठ जाती थीं - - - और निराशा समेट कर दूसरी तरफ फिर जाती थीं . दिल की गहराइयों से की गयी प्रतीक्षा का अर्थ आज उसने अनुभव किया था . सचमुच प्रतीक्षा की घड़ियाँ बहुत लम्बी होती हैं . इन घड़ियों में - - - दुनिया की कीमती से कीमती घड़ियों की गति भी मन्द पड़ जाती है . और तभी ! अचानक गेसू की मुस्कराकर चमक उठी आँखों की रौशनी में खुशियों के कबूतर ऊंची उड़ान भरने लगे . मन में बज उठी मृदंग से उसका पूरा बदन उत्साह से फड़कने लगा और दिल की ख़ुशी बेकाबू होकर चेहरे पर छलक आयी . इंतज़ार की ज़ालिम घड़ियाँ ख़त्म हुईं . गुलशन जो आ गया . उसके हाथ में औरत के बाद दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज थी -- फूल . वह अरब की कमसिन राज कुमारियों के रेशमी गाल - सी चिकनी पंखुड़ियों वाले फूलों का गुच्छा हाथ में लिए था . इन फूलों में फ़्रांस की ख़ुश्बू , स्वीडन की शोखी और इटली का सौन्दर्य था . गुलशन और गेसू एक दूसरे की और बढ़े . " जन्म - दिन मुबारक हो . " कहकर गुलशन ने गुलदस्ता गेसू के पतली अँगुलियों और मुलायम गदेली वाले बुद्धिजीवी हाथों में थमा दिया . गेसू ने फूलों को अपने फूल की पंखुड़ियों जैसे होठों से चूमकर गुलाबी गालों से सहलाया और दिल से बोली -- " शुक्रिया . " " फूल अच्छे लगे ? " " हाँ . जो व्यक्ति अच्छा लगता है , उसकी हर चीज अच्छी लगती है . लेकिन यह तो बताओ ! तुम्हें इतनी देर कैसे हो गयी ? " " बस की वजह से . आजकल की सिटी बसें भी तो नखरीली लड़कियों से कुछ कम थोड़े ही हैं . क्या मजाल - - - जो कभी वक्त पर आ जायें . देर से बस मिली - - - देर से आया . " गुलशन ने मुस्कराकर बताया . गेसू हँसकर बोली -- " बस देर से आई - - - या किसी यार - दोस्त के यहाँ जम गए थे ! सच - सच बोलो !! मुझे तुम जैसे गैर शादी शुदा शरीफों की बदमाशियाँ अच्छी तरह मालूम हैं . जिस किसी शादी शुदा दोस्त की बीबी अच्छी और बातूनी दिखती है - - - उसी के यहाँ किसी न किसी बहाने घुसे रहकर मन की गुदगुदी तलाशा करते हैं . लगता है - - - तुम्हें भी वहीँ कहीं देर लगी है . बोलो ठीक पकड़ा न ! " " अरे नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं . " गुलशन ने उसके हसीन आरोप को हँसकर टाला . और इससे पहले - - - कि गेसू शराफत की और अधिक बखिया उधेड़े - - - कोठी के बाहर एक कार आकर रुकी . कार से एक मोटी बेडौल औरत के साथ हनीमून से लौट रही नारी सा तृप्त सौन्दर्य समेटे एक लड़की इठलाकर उतरी . बेहद खूबसूरत लड़की . माँ तो ज़िन्दगी के असाधारण तजुर्बे लेकर साधारण बन चुकी थी - - - मगर बेटी अभी हूर थी . लगता था - - - कार की तरह उसके शरीर का हर अंग जैसे खराद की मशीन पर ढल - तराश कर आया हो . उसके उत्तेजक बदन का हर कोण उसकी कार की तरह स्पष्ट और नपा तुला था . मगर उसकी माँ ! उसके ढीले मोटे कूल्हे !! ऐसा लगता था - - - जैसे उसने अपनी साड़ी के अन्दर काशी के दो कद्दू लटका रखे हों . उसके कूल्हे देखकर आदमी ये सोचने पर मजबूर हो सकता था कि फैशन डिजायनरों को शीघ्र ही चोली की तरह कूल्हे कसने के लिए भी एक आकर्षक झोली का आविष्कार करना चाहिये . और अगर आदमी की ये सोच सच साबित हो जाय तो फिर वो दिन कतई दूर नहीं होगा , जब रेडियो में ये गीत बजता सुनाई दे कि ' झोली के पीछे क्या है , झोली के पीछे - - - . " माँ - बेटी हॉल में दाखिल हुईं . लड़की की तरफ सभी ने नज़रें उठाईं . बल्कि यूं कहें - - - कि देखने को मजबूर हो गये . दरअसल - - - वो चीज़ ही कुछ ऐसी थी . लड़की का नाम ग़ज़ल था . नाम के ही अनुरूप उसकी हर अदा गज़लमय थी . उसकी उम्र जैसे अपनी ही देह से फटकर बाहर निकली पड़ रही थी . छलकते जाम सी उसकी जवानी अमेरिकी सरकार के भरे तैयार पिस्तौल की तरह बेहद खतरनाक थी और हर किसी को निशाना बनाने को आतुर थी . वह यौवन का ऐसा उठता - उमड़ता सैलाब थी , जो ठंढी नसों में भी आग फूंक दे . जवानी की आंधी के पहले झोंके ने उसे अभी छुआ भर था , फिर भी छातियों पर ऐसे सुडौल उभार थे की चुनौतियों चुनौतियाँ फेंक रहे थे . उसकी नागिन सी बलखाती लटें रह - रह कर उसके जोबन को डस - डस कर और भी नशीला बना रहीं थीं . खुलते रंग पर बन्द होती आँखें और भूखी आँखों में चंचल जंगली तितलियों के रंग थे . चेहरा ऐसा था - - - जिसे देखकर कोई भूली हुई थ्योरी याद आ जाये . वक्ष खूब भारी और कमर शास्त्रानुसार बेहद पतली थी . हमारे शास्त्रों में भी तो स्त्री की कमर पतली और ऊपरी हिस्सा भारी होना अच्छा माना गया है . कुल मिलाकर - - - इस लड़की की जवानी में कोई कोर कसर नहीं थी . इस कलयुगी जमाने के हिसाब से उसे पूरी तरह एक भद्र महिला की संज्ञा दी जा सकती थी - -- - क्योंकि वह काफी कुछ चालू किस्म की औरत दिखती थी . अब तक - -- - लगभग सभी मेहमान आ चुके थे . मेहमानों में हिन्दू , मुसलमान , सिक्ख और क्रिश्चियन - - - हर तरह के लोग थे . इनमें साड़ियाँ , सलवारें , पैन्ट , जीन्स और नेफ्थलीन की बू छोड़ती अचकनें - - -- पुराने मगर बड़े प्यार से प्रेस किये - - - फर्श पर मुफ्त झाड़ू लगाते बॉल बॉटम - - - खूब रगड़ कर शेव किये चेहरे - - - क्रीम , पावडर और लिपस्टिक की सुगन्ध - - - मैले पाइप और सिगारों के धुवें - - - चौड़े डॉग कॉलर , तनी हुई सूखी गर्दनें , भड़कीली टाइयाँ और चुस्त चोलियाँ - - - शम्पू किये लहराते बाल , आकर्षक गड्ढे पड़े गुदाज़ गाल , काली रंगी तराशी भवें , सकारण तिरछी आँखें और अकारण खुली हुई बत्तीसियाँ भी थीं . जैसा कि हमेशा होता है - - - जो औरतें जितनी बदसूरत थीं - - - उनकी पोशाक और मेक अप उतने ही भड़कीले थे . अधिकाँश स्त्रियाँ कम से कम कपड़े पहन कर - - - या यूं कहें कि अधिक से अधिक कपड़े उतार कर - - - अपने आधुनिक होने का डंका पीट रहीं थीं . वाह रे जमाने ! कोई मजबूरी के मारे नंगा है तो कोई फैशन के मारे . लड़कियों की चुगलखोर चुस्त नोकीली पोशाकें देखकर लगता था , जैसे हर लड़की एक - दूसरे से मुकाबले पर अमादा है -- ज्यादा निर्लज्जता , ज्यादा निर्बन्धता और ज्यादा फूहड़ मजाकों के आदान - प्रदान में . कचर - कचर बतियाती काली औरतों के चेहरों पर पावडर ऐसा लग रहा था , जैसे जामुन पर नमक - - - और उनके लाल लिपस्टिक से सने होठ कुछ ऐसा दृश्य उपस्थित कर रहे थे - - - मानो कोयले में आग लग गयी हो . गेसू ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच केक काट दिया . थोड़ी ही देर में खाना आ गया . बड़े लोगों का छोटा सा खाना . सभी खाने पर पिल पड़े . भूखे देश भारत महान के इन नागरिकों के सामने विकट समस्या ये थी - - - कि क्या खायें , क्या न खायें ! रसगुल्ला , आइसक्रीम , चाउमिन , चिकन तंदूरी , वेज - नान वेज , कोल्ड ड्रिंक , कॉफ़ी , दही बुंदिया - - - बहुत कुछ - - - और सभी कुछ था . दही बुंदिया के दही में छोटी - छोटी बुंदिया कुछ इस तरह छितरी पड़ी थीं , जैसे विशाल भारत की छोटी - छोटी राजनैतिक पार्टियाँ . खाते समय सबके हाथ उन व्यस्त क्लर्कों की तरह तेजी से सक्रिय थे , जिनके सिर पर बॉस खड़ा हो . प्रोफ़ेसर परिवार के स्नेह और स्वादिष्ट व्यंजनों की बाढ़ में सभी मेहमान डुबकियाँ खाते रहे . ये लोग खा रहे थे . बेयरे परोस रहे थे . बेचारे बेयरे . सुबह से इंतजाम करते , थके बेयरे . बेयरों का भूख व थकान से बुरा हाल था . उनका मन बैठने को कर रहा था - - - मगर मेहमान पसरे थे . उनका दिल खाने को कर रहा था - - - मगर वो परोस रहे थे . जबकि मेहमान थोड़ा खा रहे थे और खूब बहा रहे थे - - - और दूसरे मेहमानों से आँखें चार होते ही बेहयाई से आँखों - आँखों में ये सन्देश उड़ेल रहे थे की मुफ्त का चन्दन , घिस मेरे लल्लन . पार्टी में नौकरों ने खाया या नहीं - - - इसकी चिन्ता अक्सर बड़े आदमी भला कब करते हैं ! बड़ों के इस आचरण की प्रतिक्रिया स्वरूप यदा - कदा छोटों में अलग - अलग तरीकों से प्रतिशोध की भावना भी प्रकट हो उठती है . इसका प्रत्यक्ष उदाहरण पार्टी में मौजूद घनी मूछों व खुंखार चेहरे वाला एक वरिष्ट बेयरा भी था , जो मेहमानों के आगे केक वाली प्लेट पारी - पारी पेश करता था - - - और फिर भवें सिकोड़ कर कुछ इस तरह गज़बनाक निगाहों से देखता - - - की अधिकाँश मेहमानों कि हिम्मत ही न होती , केक उठाने की . लेकिन पता नहीं क्यों - - - पायल पर तो जैसे वो कुछ ख़ास ही मेहरबान हो गया था . घूम फिर कर जब पांचवीं बार उसने घूर कर उसकी तरफ केक की प्लेट पेश की तो उस बेचारी को कुढ़कर उसे झिड़कना पड़ा - - - कि क्या मैं ही एक अकेली बची हूँ पूरी पार्टी में . जाओ - - - जाकर औरों को पूछो . धीरे - धीरे मेहमान जबड़ों की चाल क्रमशः मन्द होकर रुक गयी . जेब से निकले रुमालों ने मुंह को पोंछ लिया . इस तरह खाने का सिलसिला ख़त्म हो गया . अब नृत्य का कार्यक्रम था . ग़ज़ल का नृत्य . जिसके लिए वो ख़ास तौर पर आमंत्रित थी . गेसू ने उद्घोषणा की . लोगों ने तालियाँ बजायीं - - - और ग़ज़ल थिरकने लगी . नाचते वक्त ग़ज़ल का स्वस्थ भरा शरीर फड़क रहा था - - - और अधिकाँश लोग उसे यूँ ललचा कर देख रहे थे , जैसे आदमी बाग़ में उस ऊंचे वृक्ष को देखता है - - - जिसकी पहुँच से दूर डालियाँ आकर्षक फलों से लदी हों . मीठे रसीले मनपसन्द फलों से . ग़ज़ल ने नाचते - नाचते अपनी अदाओं को ताश के पत्तों की तरह एक - एक करके फेंकना शुरू किया और पार्टी में शामिल मर्दाने चेहरे दिल के हाथों बाजी हारने को मजबूर हो गये . वो सभी उसके महकते रूप और दहकते यौवन का नज़ारा करने लगे . मादक धुन के सहारे ग़ज़ल नाच रही थी . नाचते समय उसके धुंधले - धुंधले से नक्श नज़र आ रहे थे . ऐसे नक्श ! जो अच्छे - भले आदमी को बेचैन कर देते हैं -- क्योंकि वो पूरे नज़र नहीं आते . और तभी - - - नाचते - नाचते ग़ज़ल ने अपनी बांकी बाँह उठाई - - - और वो दृश्य सबको चार सौ चालीस वोल्ट का झटका दे गया - - - क्योंकि देसी चोली के नीचे से उसकी विलायती अंगिया ने बड़ी नजाकत के साथ भरपूर आँख जो मारी थी . पार्टी चलती रही - - - और ये हसीन रात - - - किसी हसीना के हुस्न की तरह अपने जलवे बिखेर कर धीमे - - - बहुत धीमे - धीमे ढलती रही . अब ग़ज़ल नृत्य ख़त्म करके गाना गाने लगी थी . और क्योंकि वह अपने दिल में सभ्य हिन्दुस्तानी होने का भरम पाले थी , इसीलिए अंग्रेजी में गा रही थी . लेकिन वो अच्छा गा रही थी . उसका अंग - अंग गा रहा था . ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू गुलशन के नज़दीक आ रही थी . ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू गुलशन की आँखों में झाँक रही थी . ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू अपनी नाभि के नीचे एक मादक सी सुरसुरी अनुभव कर रही थी . ग़ज़ल गा रही थी - - - और गेसू गुलशन की बांहों में बाँहें फंसाकर उसकी अँगुलियों से आयु विशेष का कोई रोचक खेल - खेल रही थी - - - उससे सटी जा रही थी , उसमें समा जाना चाह रही थी . ग़ज़ल गा रही थी -- " आई लव यू डियरली एण्ड वेरी क्लीयरली एण्ड आई होप यू लव मी डिअरली एण्ड वेरी क्लीयरली बिकॉज़ आई लव यू आई लव यू - - - " गाना ख़त्म होते ही लोगों की तालियों की जोरदार गड़गड़ाहट शुरू हो गयी - - - ग़ज़ल के इस गीत की प्रशंसा में . जैसे किसी बादशाह के दरबार में आदाब बजाया जाता है - - - उसी तरह झुककर , चारों ओर घूमकर , ग़ज़ल ने सबको फर्शी सलाम किया . और उसके इस झुकने पर - - - कई लोग तो तनकर उछल से गये . उनका कलेजा मुंह को आ गया . मानों उन्होंनें खुशकिस्मती से कोई ख़ास चीज़ देख ली हो . ग़ज़ल अपनी माँ के पास आकर बैठ गयी - - - और गेसू गुलशन के साथ . सिवाय दुआ - सलाम के - - - पायल ने अब तक इस पार्टी में गुलशन से कोई बात न की थी . वो प्रग्यापराधी की भाँति गुलशन से नज़रें चुरा रही थी . और एक गुलशन था - - - कि रह - रह कर पायल को अपनी नज़रों में उतारे जा रहा था . जबकि गेसू बार - बार गुलशन का ध्यान भंग किये दे रही . अंततः पार्टी ख़त्म हो गयी . मेहमान साझा सरकार की तरह चर - खाकर बिखर गये . अपने - अपने घर चल दिए . गेसू गुलशन को छोड़ने के लिए बाहर आ गयी तो सड़क पर थोड़ी दूर उसके साथ मौन चलती रही . गुलशन ने उसकी ओर निहारा तो पाया कि वो सपनों के समन्दर में गोताखोरी कर रही है . " एय ! " गुलशन ने उसे संबोधित किया . " क्या ? " वह चौंक कर बोली . " क्या सोच रही थी ? " " सोच रही थी - - - काश वो गीत मैं गाती - - - जो ग़ज़ल ने अभी गाया था . " " तब क्या होता ? " " मेरे दिल की बात पुनः तुम तक और भी खूबसूरत तरीके से पहुँच जाती . " गेसू ने आह भरकर चलते - चलते कहा . " - - - - - - ." गुलशन मौन रहा . [11] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
यह तो उसे पहले ही पता चल चुका था की गेसू उसमें दिलचस्पी ले रही है -- गंभीर दिलचस्पी . ऐसी दिलचस्पी , जो प्रायः हर जवान लड़की - - - किसी न किसी लड़के में - - - कभी न कभी लेती ही है .
गेसू ने मौन तोड़ा -- " गुलशन ! मेरे दोस्त !! तुम्हें शायद अन्दाज़ा नहीं - - - कि मैं तुम्हें कितना अधिक चाहती हूँ . " " मैं भी तुम्हें एक सीमा तक पसन्द करने लगा हूँ गेसू . " गुलशन ने धीरे से कहा . " सच ? " गेसू के होंठ कंपकंपाने लगे . उसकी आवाज़ भरभरा उठी . विजय के फाख्ते ऊंची उड़ान भरने के लिये उसकी आँखों में फड़फड़ाने लगे लगे - - - और उसे लगा जैसे वह सातवें आसमान में उड़ रही है . " हाँ ! मैं तुम्हें चाहने और पसन्द तो करने लगा हूँ - - - लेकिन मात्र एक दोस्त की तरह .प्यार तो मेरा पायल के लिये आरक्षित है . मुझे दुःख है मेरी दोस्त - - - कि मैं एक प्रेमी के रूप में तुम्हारी चाहत का उत्तर नहीं दे सकता . हाँ - - - एक दोस्त के रूप में मेरी हमदर्दी और लगाव तुम्हारे लिये हमेशा हाज़िर रहेंगे ." गुलशन ने सारे पर्दे सरका दिये . उसकी पूरी बात सुनकर पायल की आँखों में अँधेरा सा छाने लगा . उम्मीदें , सोच , सपने , ऊपरी पायदान पर पहुँच कर अचानक धम्म से नीचे आ गिरे . दो घड़ी पहले - - - उसके दिमाग में उपजे ख़ुशी के बुलबुले फूट गये और विजय के फाख्ते घायल होकर तड़पने लगे . लेकिन फिर भी - - - वो अपने को संयत करके बोली -- " चलो - - - फिलहाल यही सोच कर सब्र किये लेती हूँ कि बेहद अपने से लगने वाले किसी अजनबी ने कम से कम दोस्ती का दम तो भरा . आगे के लिये उम्मीद कि किरण अभी जिंदा तो है . गुलशन ! चाहे तुम मुझे कभी चाहो या न चाहो - - - लेकिन मेरे मन में तुम्हारे प्रति वो चाहत सदा बनी रहेगी , जिसे दुनिया प्यार का नाम देती है . मेरे दिल में आगे भी तुम्हारे लिये उतनी ही इज्जत रहेगी , जितनी कि अब से पहले थी . " दयाद्र गुलशन आह भरकर कहने लगा -- " वास्तव में ये भी हमारी ज़िन्दगी का अजीब संयोग है - - - कि तुम मुझ पर जान छिड़कती हो - - - लेकिन मैं तुम्हें प्यार देने में असमर्थ हूँ - - - जबकि मैं पायल से प्यार की विनती करता हूँ - - - मगर वो मुझे अपने योग्य ही नहीं पाती और चंचल को पसन्द करती है . " " दोस्त यही तो सारे दुखों व असंतोष का मूल है कि व्यक्ति के पास जो उपलब्ध होता है , वो उस ईश्वरीय कृपा का आनन्द न लेकर - - - जो नहीं है , उसके पीछे भागता रहता है ." गुलशन बोला -- " अच्छा जाओ - - - अब तुम लौट जाओ . वर्ना तुम अगर यूं ही मेरे साथ चलती रही - - - तो कहीं ऐसा न हो कि हम काफी दूर निकल जायें . " [12] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 9 ) देवी - देवताओं से हम आरामतलब भारतीयों को और कोई लाभ हो न हो - - - मगर एक निश्चित और बंधा - बंधाया फायदा तो है ही . वो है मनचाहा सदा प्रतीक्षित सार्वजनिक अवकाश . क्योंकि हिन्दुस्तान में देवी - देवताओं की भीड़ बहुत अधिक है -- लगभग चार व्यक्तियों के पीछे एक -- अर्थात तैंतिस करोड़ . फलस्वरूप कार्यालयों में छुट्टियाँ भी खूब होती हैं . कभी किसी का जन्म दिवस - - - तो कभी किसी का निर्वाण - दिवस . कभी - कभी तो लगता है कि इसी स्वार्थ परता के चलते निरन्तर शिक्षित व आधुनिक होते जाने के बावजूद इस कलियुग में भी हमारी आस्था इन लाभदायी देवी - देवताओं में जस की तस बनी हुई है . ऐसे ही किसी तथाकथित शुभ - दिवस के उपलक्ष में - - - आज चंचल की छुट्टी थी . गेसू ने सबको टटोल और सहमत कर एक रोज़ पहले ही पिकनिक मनाने का फैसला कर लिया था . क्योंकि ज़िन्दगी को एक ही तरह जीते - ढोते व्यक्ति ऊब जाता है और नव स्फूर्ति अर्जित करने की गरज से कुछ बदलाव की अपेक्षा व प्रयास करता है . गुलशन व चंचल बाहर ड्राइंग - रूम में बैठ कर समय बिताने के लिए बातचीत कर रहे थे . उन्हें गेसू और पायल के तैयार होकर आने की प्रतीक्षा थी . जबकि वे दोनों दूसरे कमरे में ड्रेसिंग - टेबल के सामने बैठ कर वो कोशिश कर रहीं थीं - - - जो कि आदिकाल से हर उम्र में हर स्त्री की हुआ करती है . वे अपने रूप में निखार लाने का प्रयत्न कर रहीं थीं -- यानि कि मेक अप कर रहीं थीं . रेशमी बालों में कंघी फेरते - फेरते अचानक पायल का ध्यान गेसू के वस्त्रों पर गया . उसने झिड़का -- " ये क्या ! आज फिर तुमने मर्दाने कपड़े पहन लिए -- जींस और टॉप . कितनी बार कह चुकी हूँ - - - मर्दाने कपड़े और मर्दाने काम , केवल मर्दों को शोभा देते हैं , औरतों को नहीं . " गेसू पायल की तरफ आँखें तरेर कर बोली -- " तो क्या - - - मैं वो काम नहीं कर सकती - - - जो मर्द कर सकते है ? " " अच्छा - - - तो क्या तुम मर्दों वाले काम खुद ही कर लेती हो ? " पायल ने मुस्कराते हुए आँख मार कर चुटकी ली . गेसू शरमा कर बोली -- " धत्त शैतान . तू बड़ी वो है . " पायल बेहयाई से हंसने लगी . ठीक वैसे ही - - - जैसे कि बन्द कमरों की आज़ादी में स्वभावतः खुली चुहलबाजियों के बीच लड़कियां हंसती हैं . थोड़ी ही देर में - - - दोनों ने अन्तिम बार - - - आईने में उतर आये अपने सौन्दर्य को निहारा और सन्तोष की सांस ली . " हाय मर जाऊँ . तेरा सजना सफल हुआ . आज तो राहगीरों पर बिजलियाँ गिरा देगा , तुम्हारा यह कड़कता रूप . " पायल के निखरे हुए रूप पर नज़र डालकर गेसू बोली और मस्ती में आकर उसने अकस्मात उसे एक पुरुष की भाँति अपनी बाहों में कसकर भींच लिया . उसकी बांहों में कसमसाती हुई पायल बोली -- " हाय अब बस भी करो . बस - - - उफ़ - - - उई - - - आह . अब छोड़ो भी . क्या एक - एक नस तोड़ कर ही दम लोगी ज़ालिम ! " " न बाबा ना . ये काम मैं न करूंगी . अगर मैनें ही तेरी एक - एक नस तोड़ दी , तो बेचारे चंचल भैया के लिए क्या काम बचेगा ! और फिर टूटी नसों वाली लड़की भला किसी लड़के को कहीं सोहाती है ! ! " गेसू ने उसे छोड़ते हुए हँसकर कहा . पायल को भी एक हसीं बदला सूझा . वह बोली -- " एक बात बताऊँ गेसू ! चंचल ने मुझे बताई थी . " " बोलो . " " ऐसे नहीं . कान में बताने लायक है . " उत्सुकतावश गेसू पायल के मुँह के निकट अपना कान लगाकर बोली -- " बताओ . " पायल पहले तो उसके कान के पास अपना मुँह ले गयी - - - और फिर - - - उसने एक ही झटके से गेसू के गाल को चूमकर तेजी से काट खाया . गेसू उछल कर परे हट गयी और एक तीखी सिसकारी लेकर बोली -- " उई माँ . यही बताया था भैया ने ? मेरे गाल खा जाने का इरादा था क्या ? " " सेव खाने के लिए ही होते हैं जॉनी . " पायल मज़ा लेते हुए चूड़ियों की तरह खनक कर खिलखिलायी . दर्द से अभी तक बिलबिला रही गेसू ने कुढ़कर पलट वार किया -- " अच्छा एक बात सच - सच बताओ ! चंचल वाली ये जो बात अभी तुमने मुझे बतायी - - - वो भैया ने तुम्हें एक ही बार बतायी थी , या कि अक्सर बताते रहते हैं ? " और बाहर ! ड्राइंग - रूम में प्रतीक्षारत गुलशन ने ऊब कर चंचल से कहा -- " बड़ी देर लगा दी . पता नहीं क्या कर रहीं हैं दोनों ! " चंचल ज्ञानियों सी मुस्कान बिखेर कर बोला -- " औरतों को कुछ कामों में बहुत समय लगता है , उनमें से एक मेक अप भी है . वही कर रही होंगी . इनका बस चले तो ये रंग - पोत कर अपने चेहरे को ऐसा बना डालें , जैसा कि वास्तव में वो है ही नहीं . " दोनों ठठाकर हंस पड़े . तभी गेसू और पायल ने ड्राइंग - रूम में प्रवेश किया . उन्हें हँसता हुआ पाकर पायल ने पूछा -- " किस बात पर हँसी का खजाना खोला जा रहा है . " " स्त्रियों के क्रिया कलापों पर . " गुलशन ने जवाब दिया . दोनों फिर हंस दिए . पायल और गेसू मूर्खों की तरह उनका मुँह ताकने लगीं . उनका गाढ़ा मेक अप देख कर गुलशन ने व्यंग्य किया -- " मेरी समझ में एक बात नहीं आती - - - कि औरतें बाहर जाते वक्त ही इतना बनाव श्रृंगार क्यों करती हैं ! घर में रहती हैं - - - तो मैले - कुचैले वस्त्रों में - - - मगर ज्यों ही बाहर चलने को हुईं - - - कि रानी साहिबा की कीमती ड्रेस निकल आयी . जूड़े में फूल उग आये . गहनों से अंग - प्रत्यंग दमकने लगा . इत्र - लेवेंडर से एक फर्लांग चारों तरफ का रास्ता - बाज़ार गहरी सांस खींचने पर मजबूर हो उठा . घर में बालों से जूँ बेशक झड़ते रहें , कपड़ों से सड़ांध और शरीर से पसीने की बदबू भले ही निकलती रहे - - - मगर क्या मजाल कि उन्हें ज़रा भी ख़याल हो . पति - पिता , देवर - भाई ,जैसे उनकी अच्छी सूरत और भली सीरत के कद्र दान ही नहीं हैं . अगर उनकी खूबसूरती कि कहीं कद्रदानी है , तो बस बाहर बाजार में . राहगीरों और मनचलों की नज़रों में . और फिर - - - अगर कोई लफंगा बोली बोल दे , तो लड़ने जाए मय्या - भय्या . नहीं तो - - - . " " अच्छा - अच्छा - - - अब भाषण बन्द करो . चलना नहीं है क्या ? " गेसू ने चिढ़ कर उसकी बात काटी . गुलशन ने डरने का प्रदर्शन करते हुए मुस्करा कर कहा -- " जो हुकुम सरकार का . " सभी चल दिए . सांझ शैशवावस्था में थी . मौसम भी गुलाबी ठंढा था . दूर - दूर चहुँ ओर सन्नाटों का शोर पसरा हुआ था और धूल भरे रास्तों पर नाग की तरह फन पटकती फुफकारती तेज हवाएं चल रहीं थीं - - - जिनमें किसी के लिए नशीला आकर्षण था , तो किसी के लिए गहरी ऊब . अंततः करीब घंटे भर को लाँघती कार - यात्रा के पश्चात वो चारों पूर्व निर्धारित स्थल के मोहाने पर आ पहुंचे और सुरक्षित जगह तलाश कर कार खड़ी कर दी . करीब सौ गज का फासला क़दमों से नापकर वो चारों पिकनिक - स्थल तक पहुँच गए . पिकनिक - स्थल क्या था , प्रकृति का साम्राज्य था . सबसे पहले वो फूलों के मामले में अमीर एक पार्क के भीतर दाखिल हुए . मगर गेट के भीतर कदम रखते ही उन चारों का माथा भन्ना गया . प्रथम ग्रासे , मक्षिका पाते . क्योंकि किसी फूहड़ औरत ने बड़ी उच्छृंखल आज़ादी के साथ , गेट के पास , सांझ के समय , रात की आह और दिन की वाह का कूड़ा फेंक रखा था . कूड़े पर निगाह पड़ते ही - - - चारों ने एक - दूसरे की तरफ देखा . सभी के चेहरों पर भेद भरी मुस्कान तैर गयी . मगर फिर गेसू और पायल ने नारी सुलभ शर्म से अपना मुंह फेर लिया और तेज कदमों से आगे बढ़ गयीं . गुलशन मुस्कराकर चंचल से बोला -- " भारत से नेकी ख़त्म हो सकती है , मित्रता ख़त्म हो सकती है , वफ़ा ख़त्म हो सकती है , लेकिन गन्दगी कभी ख़त्म नहीं हो सकती . यहाँ के लोग अधिकारों के प्रति तो जागरूक हैं - - - किन्तु कर्तव्यों के प्रति उदासीन . " चंचल ने हंसकर तुरुप जड़ा -- " मुझे तो लगता है - - - किसी उत्साही औरत ने अपनी आह और वाह में बरकत बनाये रखने के वास्ते यहाँ पर कोई टोटका रख छोड़ा है ." दोनों हँसते हुए तेज क़दमों से गेसू और पायल से जा मिले . थोड़ा आगे बढ़कर चारों ने अपने - अपने हाथों में गिरफ्तार सामान को मखमल सरीखी घास पर रखकर आज़ाद कर दिया . पायल ने डोलची से एक चादर निकाल कर ज़मीन पर बिछा दिया . सभी ने बैठकर अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया . तभी एक खूबसूरत औरत अपने भागते हुए चंचल बच्चे को पकड़ने के लिये उधर से दौड़ी . चंचल उसके संगमरमर से तराशे ताजमहली बदन को देखने लगा जबकि कोई भी लड़की ये बिल्कुल सहन नहीं कर सकती कि उसके रहते उसका प्रेमी किसी दूसरी स्त्री पर ध्यान दे . अतः इसी भावना से प्रेरित होकर पायल ने चंचल को टोका -- " क्या बात है ! वो काँटा औरत चुभ गयी क्या दिल में ? देखती हूँ , बड़ी तल्लीनता से देख रहे हो उसे . " ध्यान भंग होने पर चंचल ने सफाई दी -- " तो क्या बुरा कर रहा हूँ ! सौन्दर्य को देखने की लालसा तो सभी में होती है . " " मगर उससे फायदा क्या ? " " मानसिक शान्ति मिलना क्या कम फायदा है . " " चलो हटो ! बातों के तो दरोगा हो !! बहाने खूब गढ़ लेते हो . अरे देखना ही है , तो मुझे देखो - - - मेरे कपड़ों को देखो . " पायल ने स्वयं धारण किये हुए काले सलवार कुर्ते की ओर इशारा करके कहा -- " अच्छा ये बताओ - - - इन नए वस्त्रों में मैं कैसी लग रही हूँ ? " " बिल्कुल बुरी . ऐसे मातमी रंग मुझे कतई पसन्द नहीं . " चंचल ने मजाकिया जवाब दिया . पायल भी चिढ़कर शरारती स्वर में बोली -- " तब वो देखो - - - अपनी पसंद . " उसने दूर खड़ी एक काली लड़की की ओर इशारा किया , जो सफ़ेद कपड़े पहने हुए थी . चंचल ने उसे देखते ही - - - तेजी से मुंह फेरकर कहा -- " उंह - - - अरे बाप रे बाप . वो तो तुम्हारी तस्वीर की निगेटिव मालूम पड़ रही है . " चंचल के इस जवाब से गेसू गुलशन ठहाका मार कर हंस पड़े . पायल भी हंसी -- सप्त सुरों में लिपटी हुई लयदार मादक हंसी . हंसी शान्त होने पर गेसू और पायल प्लेटों में नाश्ता निकालने लगीं . चंचल भी परोसने में उन्हें सहयोग देने लगा . इस बीच गुलशन को अपने बगल में मखमली घास के बीच जमीन का एक नंगा टुकड़ा दिखा . विचारों में खोये गुलशन की उँगलियों ने एक कंकड़ उठाकर गंजी जमीन पर कुछ खुरचना शुरू कर दिया . अचानक चंचल का ध्यान ज़मीन पर उकेरी उस लिखावट पर गया - - - जो गुलशन के दिमाग की ताज़ी कारस्तानी थी . लिखा था ---- लड़का + लड़की = ? लड़का - लड़की = ? लड़का x लड़की = ? लड़का / लड़की = ? " ये क्या पहेली लिखी है तुमने ? " चंचल ने हंसकर पूंछा . चंचल के प्रश्न पूछने पर - - - गेसू और पायल भी पढ़कर हंस पड़ीं . गुलशन बोला -- " तुम्हीं लोग बूझो तो जानें ! " किसी का दिमाग काम नहीं किया . सभी निरुत्तर रहे . चंचल ने कहा -- " तुम्ही बताओ , इसका अर्थ ! " गुलशन ने चारों पंक्तियों के सामने से प्रश्न - चिन्ह मिटाकर कुछ और लिख दिया . अब वाक्य यूं थे ---- लड़का + लड़की = ज़न्नत लड़का - लड़की = शायर लड़का x लड़की = बच्चा लड़का / लड़की = तलाक पूरे वाक्यों को पढ़कर - - - सभी फिर हँसे - - - सिवाय गुलशन के . चंचल ने मज़ाक करते हुए कहा -- " लगता है - - - तभी तुम शायर बन गए हो ! " " तभी मतलब ? " " लड़का माइनस लड़की की वजह से . किसी बेवफा लड़की ने झटका दिया है क्या तुम्हें ? " " कैसे कह सकते हो ? " " तुम्हारे हिसाब से . शायर जो हो . " " अरे भाई - -- - मैं कहाँ शायर ! सच तो ये है कि दिल पर जब ठेस लगती है , तो आह निकल पड़ती है . हाँ - - - अगर इसी का नाम शायरी है , तब तो तुम मुझे शायर कह सकते हो . " उसने पायल की तरफ देख कर कहा . " उसकी बातें सुनकर पायल की नज़रों का चोर बगलें झाँकने लगा और उसका दिल पसीज गया . संभावनाओं की आहट सी उसके मन में उठी और उसका तन - बदन सिहर उठा . उसे लगा - - - कहीं गुलशन की आह बद दुआ बनकर उसके भविष्य को न डस ले . [13] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
चंचल ने कुरेदा -- " सच - सच बताओ यार ! क्या तुम्हें कोई लड़की नहीं मिली ? "
" मिलतीं तो बहुत हैं . जैसे - - - . " " जैसे ? " " जैसे , " गुलशन गंभीर मुस्कान बिखेर कर कहने लगा -- " स्कूल में मिलती हैं कच्ची उम्र की बच्चियां - - - जिन पर ध्यान देना खतरे से खाली नहीं है . कॉलेज में मिलतीं हैं - - - लेकिन जिस दिन से रोमान्स शुरू होता है , उसके दूसरे रोज से अधिकतर परिवारदार लड़कियां शादी की फरमाइश शुरू करके सारा मज़ा किरकिरा कर देती हैं . गली - मोहल्ले में भी मिलती हैं - - - मगर उसके भय्या - अम्मा दूरबीन लगाए देखते रहते हैं कि कहीं मीलों तक कोई लड़का उनकी लड़की की ताक में तो नहीं है . शादीशुदा औरतें भी मिलती हैं , जो आमतौर पर अपने थैले व साड़ी बाँधने के लापरवाह अन्दाज़ और खतरनाक लाल सिन्दूर , छके - थके शरीर तथा निगाहों के परम सन्तोष से पहचानी जा सकतीं हैं - - - जैसे उन्होंने अपने चेहरे पर ' हाउस - फुल ' का बोर्ड लगा रखा हो . वहां ज्यादा देर ठहरने से भी क्या फायदा ! मगर वो , जो अकेली हैं - - - और गैर शादीशुदा हैं , वो - - - . " " क्या ? " " वो शायर बनाकर छोड़ती हैं . " गुलशन ने पायल की तरफ तिरछी निगाह उछाल कर कहा . पायल सकपका कर रह गयी . गेसू पायल की तरफ देखकर मुस्करा दी - - - और ना समझ चंचल भोंदुओं की तरह हँस दिया . पार्क के बीचोबीच एक शहीद स्वतंत्रता - सेनानी की आदमकद मूर्ति आँखों में आस लिए स्थापित थी , जिसने अपना अनमोल आज दे दिया था - - - हमारे सुनहरे कल के लिए . मूर्ति के ऊपर साया करता हुआ अतीत का गवाह एक बूढ़े पीपल का पेड़ था , जिस पर चिड़ियों ने अपनी कचहरी लगा रखी थी . पंक्षियों की चीं - चूँ ने मौसम को और भी खुशगवार बना रखा था . सामने ही एक मंदिर था . गुलशन ने प्रस्ताव रखा -- " क्यों न हम लोग मंदिर में दर्शन को चलें ! " " हाँ - हाँ - - - क्यों नहीं ! " चंचल ने समर्थन किया . मगर पायल पिछड़ी -- " मैं तो नहीं जाऊंगी मंदिर - मस्जिद . " चंचल ने टोका -- " क्यों ? " " क्योंकि न तो मुझे धर्म के ढकोसलों पर भरोसा है और न ही धर्म परस्त लोग पसन्द हैं . " " मगर क्यों ? हम भी तो जानें . " " क्योंकि सभी धर्म और उनके कट्टर अनुयायी औरत को पेशाब खाना समझते हैं . पेशाब खाना ! जो स्वास्थ्य और सुविधा के लिए जरूरी तो है - - - मगर गन्दी चीज है . " उसके कटु विचारों से मर्माहत चंचल झुंझला पड़ा और उसे डाँटते हुए बोला -- " अच्छा अपना दर्शन अपने पास रखो और सीधे से चली चलो - - - वरना दूंगा एक चपत . " फिर थोड़ा समझाते हुए कहा -- " पायल ! जरा सोचो - - - कि मनुष्य यदि एक अदृश्य शक्ति को अपना प्रणेता मानकर अगर संयमित रहता है - - - तो इस भ्रम के बने रहने में बुराई क्या ? " मजबूर होकर पायल बेमन से सबके साथ हो ली . थोड़ी देर बाद - - - मंदिर से बाहर निकलने पर पायल न जाने कैसे अपनी ही शामत को न्योता देकर गुलशन से पूछ बैठी -- " कहो -- - - तुमने क्या माँगा ? क्या कहा उससे ? " " किससे ? " " अपने भगवान से . उस पत्थर से . " गुलशन पायल के चेहरे पर निरीह दृष्टि डालकर शायराना अंदाज़ में बोला -- " बुत बन गए जब आप , तो पत्थर से क्या कहें ! " गुलशन के इस उत्तर से पायल सिटपिटा गयी . गेसू चौंक पड़ी और अन्जान चंचल मूर्खों कि तरह उन्हें ताकने लगा . और तभी ! गुलशन के पाँव में चलते - चलते ठोकर लगी . वह अपना सन्तुलन खोकर गिर पड़ा . पाँव में हलकी सी मोच आ गयी . चलने में कुछ असुविधा अनुभव करने लगा . गुलशन बोला -- " अब तो मैं कहीं दूर जाऊंगा नहीं . तुम लोगों को जाना है तो जाओ . " " मैं भी नहीं जाऊंगी . कुछ थकान सी हो रही है . " गेसू ने कहा . चंचल ने पायल से पूछा - " तब तुम्हें चलना है या नहीं ? " " कहाँ ? " " सुना है- - - यहाँ से लगभग आधा मील की दूरी पर बहुत सुन्दर झरना है . " " तब चलूंगी . " पायल ने हामी भरी . चंचल गुलशन व गेसू को सम्बोधित करके बोला -- " हम लोग करीब घन्टे भर में वापस लौट आयेंगे . यहीं आस - पास मिलना . " दोनों चले गये . गुलशन ने गेसू से पूछा -- " तुम क्यों नहीं गयी ? " " तुम जो नहीं गये . " गेसू ने मुस्कराकर कहा -- " तुम्हें क्या मंदिर के बाहर पायल की बाबत भगवान से मन्नतें मांगनें के लिये यहाँ अकेले छोड़ने की बेवकूफ़ी करती ! " उसकी बात का जवाब न देकर गुलशन ने स्वयं एक प्रश्न पूछ लिया -- " अच्छा ये बताओ ! तुमने मन्दिर में भगवान से क्या प्रार्थना की ? " गेसू ने चंचलता से मुस्करा कर कहा -- " बताऊँ ? " " पूछ तो रहा हूँ . " " मैनें कहा - - - हे दया निधान ! तुम्हारी दया से अमीर कलाकन्द और गरीब शकरकन्द खाते हैं . तुमने क्लर्क को रोटी और अफसर को डबलरोटी दी . तुमने भेड़ों को पैदायिशी ऊनी ओवरकोट दिया और मनुष्य को नंगा पैदा किया . तुमने आदमी को दाढ़ी और औरत को साड़ी दी . तुम आशिक को माशूक देते हो , माशूक को बच्चा देते हो और बच्चे को कच्छा देते हो . तुम्हारी दया से कोई मिल चलाता है और कोई चरखा चलाता है . अब हमारा भी चक्कर चला दो ना . " " कैसा चक्कर ? किससे ? " हंसकर गुलशन ने पूछा . गेसू ने इठलाकर जवाब दिया -- " इश्क का . तुमसे . " अचानक गुलशन गंभीर होकर बोला -- " गेसू ! तुम्हारी बातों और व्यवहार से साफ़ झलकने लगा है कि तुम मेरे प्यार में गहरे डूबने लगी हो . और ये बात मुझ बदनसीब के लिए गर्व कि होती , मगर - - - पर याद रखो गेसू ! जो लोग इश्क को फूल समझते हैं - - - वो अक्ल के दुश्मन है . जिनमें से एक मैं भी था . ये मेरा भोग हुआ यथार्थ है कि इश्क एक टीस है , दर्द है , जलन है , तड़प है , यन्त्रणा है , कसक है , शूल है - - - लेकिन ये फूल किसी भी दशा में नहीं है . इसीलिये कहता हूँ कि कम से कम तुम समय रहते इश्क की बांहों में गिरफ्तार होने से बचो . काश ये बात - - - जो मैं तुमसे अब कह रहा हूँ , मुझे पहले पता होती , तो आज मेरा हाल यूँ बेहाल न हुआ होता . " इतना कहते - कहते गुलशन की तबीयत कुछ बेचैन सी हो गयी - - - और ऐसे समय बदनाम सिगरेट बहुत काम आती है . उसने एक सिगरेट होठों से लगाकर सुलगा ली और एक लम्बा कश खींच कर गेसू की तरफ देखा . देखा कि वह कुछ सोच रही है . गुलशन ने धुआं छोड़कर पूछा -- " क्या सोच रही हो ? " " सोच रही हूँ - - - मुझसे तो मुई सिगरेट का भाग्य ही अच्छा है , जो बार - बार तुम्हारे होठों से लगती है . " " चाहो तो तुम भी होठों से लगाकर देखो . " गुलशन ने मुस्कराकर कहा . गेसू ने बच्चों सी मासूम मुस्कान बिखेरते हुए पूछा -- " किसे - - - तुम्हें या सिगरेट को ? " " फिलहाल मैं सिगरेट की बात कर रहा हूँ शैतान . " इस बीच सांझ ढल चुकी थी . मौसम की धीमी करवट के साथ उजाले पर सुरमई धुंधलके ने कब्ज़ा जमा लिया था . चाँद बादलों का घूंघट सरकाकर जमीं का नज़ारा कर रहा था . दोनों पार्क के निकट स्थित एक झील के किनारे बैठ गए . झील के शान्त निर्मल जल में चांदी सा चमचमाता चाँद तैर रहा था . जैसा कि लोग प्रायः करते हैं - - - गेसू ने बेवजह एक कंकड़ उठाकर झील में उतराते चाँद पर बेदर्दी से दे मारा . सीधे शान्त पानी में कंकड़ गिरते ही - - - चोट से बचने के लिए , चंचल चाँद सिमट - सिकुड़कर न जाने कहाँ छुप गया - - - और थोड़ी ही देर में , खतरा टल गया जानकार फिर से ऊपर झाँक - झाँक कर शरारती बच्चे कि भाँति निशानेबाज़ को मुंह चिढ़ाने लगा . झील के किनारे लगे मरकरी लैम्पों की तेज़ रौशनी में , पानी में तैर रही मछलियाँ साफ़ नज़र आ रही थीं . राहु की महादशा से गुज़र रहे गुलशन ने रोटी के कुछ टुकड़े पानी में फेंकने शुरू कर दिए . बार - बार पानी में गिर रहे रोटी के टुकड़ों ने मछलियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया , और मछलियाँ उनके इर्द - गिर्द जमा हो गयीं - - - जैसे चुम्बक के इर्द - गिर्द लौह - कण खिंचे आते हैं . गेसू बोली -- " दोस्त गुलशन ! देखो - - - मछलियाँ किस तरह तेजी से रोटी की तरफ खिंची चली आ रही हैं . जैसे रोटी चुम्बक हो . " गुलशन दार्शनिक अंदाज़ में बोला -- " ये तो प्रकृति का नियम है गेसू . मछली ही क्या - - - प्रत्येक जीव ' रोटी ' की तरफ भागता है . सच पूछो तो रोटी दुनिया में सबसे बड़ा चुम्बक है . " " लेकिन मेरी रोटी तो तुम हो जी . जी करता है - - - तुम्हें समूचा निगल जाऊं . बस - - - हुज़ूर की हाँ की जरूरत है . " दोनों हंस पड़े . लेकिन फिर - - - गेसू गंभीर हो गयी वह बोली -- " गुलशन ! दोस्त - - - क्या सचमुच हम - तुम नहीं मिल सकते ? " " गेसू ! आसमान बहुत ऊंचा है - - - और मैं धरती पर चल रहा हूँ . धरती और आसमान का मिलन कभी नहीं हो सकता . कभी भी नहीं . " " लेकिन जरा ध्यान से दूर तक देखो , तो धरती और आसमान साफ़ मिलते नज़र आयेंगे . " " ये तो मात्र आँखों का भ्रम है गेसू . ये संभव नहीं ." गेसू निरुत्तर हो गयी . गुलशन विचारों में उलझ गया . गेसू ने पूछा - " क्या सोचने लगे दोस्त ? " " एक उलझी हुई बात याद आ गयी थी . उसी के बारे में सोच रहा था . " " क्या ? " " यही - - - कि कभी - कभी तुम मुझे बेहद अजीब सी लगती हो . जैसे - - - जब मेरी - तुम्हारी पहली मुलाक़ात हुई थी , तो चलते समय मैंने तुमसे एक प्रश्न पूछा था . उस वक्त तुमने जवाब बहुत उलझा हुआ और घुमाकर दिया था . " गेसू जानबूझकर अन्जान बनते हुए बोली -- " क्या पूछा था . याद नहीं . कुछ याद दिलाओ . " " मैंने तुमसे पूछा था - - - क्या तुम कुँवारी हो , मगर - - - . " " मगर अब तुम पहले मेरे एक प्रश्न का ईमानदार उत्तर दो . " " पूछो . " " क्या तुम ब्रम्हचारी हो ? " गेसू अति ज्ञानी की तरह मुस्करायी . गुलशन अपने ही सवाल की गिरफ्त में आकर सिटपिटा गया और गले की हड्डी उगल कर जान बचाने की नीयत से बोला -- " खैर - - - छोड़ो भी इन पेचीदा बातों को . क्या जरूरत है कि हम एक - दूसरे के सामने बेवजह बेनकाब हों ! " " जरूरत है . दोस्त ! दोस्त - दोस्त एक - दूसरे के सामने जितना ही बेपर्दा होंगे - - - दोस्ती उतनी ही गहरी होगी . बताओ ! जवाब दो !१ " " उंह ! अब छोडो भी . कोई और बात करो . " गुलशन ने पुनः बचना चाहा . गेसू हंस दी - - - और उसे पुनः झेंपना पड़ा . सामने झील के गहरे खामोश जल में एक खूबसूरत नाव तैर रही थी - - - और उस पर उसका नाम लिखा था -- ' जन्नत ' . जन्नत के ऊपर एक बोर्ड लटक रहा था ' किराए के लिए खाली ' का . यानि की जन्नत किराये पर उपलब्ध थी . दोनों उस किराये की जन्नत के मालिक से उसका किराया पूछने चल पड़े . और उधर ! पायल और चंचल जब थोड़ी दूर चल चुके तो झरने का रास्ता उनकी समझ से बाहर हो गया . तभी एक ग्रामीण बूढ़ा व्यक्ति दिखा . कुटिलता से लबालब उसकी चौकन्नी कंजी आँखों में जवानी की शेष शैतानी साफ़ छलक रही थी . चंचल ने उससे पूछा -- " दादा ! झरने का रास्ता कौन सा है ? " देहाती बूढ़े ने बड़ी ढिठाई से कहा -- " बताने का क्या दोगे बच्चा ? " " बताने का भी लोगे ? " " क्यों न लूँ ? आजकल जब तुम शहर वाले पानी का भी मोल लेते हो , तो पानी के झरने का रास्ता बताने का क्यों न हो ? " " पर दादा - - - हम तो परदेसी ठहरे . बता भी दो . " " अच्छा - - - परदेसी हो तो बताये देता हूँ . सुनो ! जिस तरफ से चाँद निकलता है , उधर बढ़ो . फिर ढलान उतर कर ध्रुव तारा निकलने की दिशा में घूम जाओ . इसके बाद नाक की सीध में चले जाओ . फिर दाहिने मुड़ो , फिर बायें जाओ . फिर बायें मुड़ो , फिर दायें जाओ . राम - राम जपते जाओ . राम जी चाहेंगे , तो पहुँच ही जाओगे . " चंचल झुंझलाकर बोला -- " वाह ! क्या रास्ता बताया है दद्दू !! कुछ पल्ले ही नहीं पड़ा . " " मुफ्त में रास्ता ऐसे ही बताया जाता है पुत्तर . अच्छा राम - राम . राम जी चाहेंगे , तो फिर भेंट होगी . " देहाती खींसे निपोर कर बोला और सर्र से आगे सरक लिया . वह कभी न कभी शहरी दुलत्ती झेल चुका आक्रोशित बन्दा लगता था . पायल भौचक्की होकर उसे देखती रह गयी और चंचल अपना माथा पीटकर बोला -- " हे भगवान ! ये कौन सी बयार बहाई है तूने , जो हमारे देश के देहाती भी अब शहरी सरीखे होते जा रहे हैं . " पायल ने दूर जाते उस बूढ़े को कुढ़ी हुई तेज आवाज़ देकर ललकारा -- " अरे बुढ़ऊ ! अपना नाम तो बताते जाओ ? बताने का दूँगी . " " अलोका s s s . " " हाय ! तुझे पैदा होने से किसी ने न रोका !! " पायल ने तेज आवाज़ में तुकबंदी भिड़ाई . [14] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
पायल और चंचल - - - दोनों हंस पड़े . अब दोनों ने अपने आप ही झरना ढूँढने की ठानी और आगे बढ़ने लगे .
रास्ते में फूलों से खिलखिलाती जंगली झाड़ी की फुनगी पर हवा से फुदकते एक खूबसूरत फूल को तोड़कर चंचल ने उसे काँटों की दुनिया से दूर ले जाकर पायल के रेशमी बालों में सजा दिया - - - उसकी ठोढ़ी उठाकर उसके और भी निखर आये सौन्दर्य को गौर से देखा और फिर एक चुटकी काटकर उसके गुलाबी गालों को लाल कर दिया . घायल गालों के दर्द से तिलमिलायी पायल किटकिटायी -- " ठहर बदमाश . " चंचल भाग लिया . पायल उसका पीछा करते - करते असफल होकर अचानक एक कंकड़ उठाकर बोली -- " रुक जाओ , वरना मार दूँगी . " चंचल पर कोई असर नहीं पड़ा . वो लगातार भागता रहा . " पायल ने पुनः प्रेम - पगी धमकी दी -- " मैं सच कहती हूँ , मार दूँगी . मेरा निशाना कभी नहीं चूकता . " उसका इतना कहना था की चंचल जस का तस रुक गया और दिल पर हाथ रखकर आशिकाना अंदाज़ में आह भरकर बोला -- " हाँ जानी ! ये तो हम भी मानते हैं . " " जाओ हम तुमसे नहीं बोलते . " उसने रूठने का अभिनय किया . " चलो अब छोडो गुस्सा . तुम पर फबता भी नहीं . उल्टे दूनी सुन्दर दिखती हो . " इतना कहकर चंचल अधिकार पूर्वक पायल का हाथ पकड़कर आगे बढ़ने लगा . पायल भी गुस्से का हाथ छोड़ खुलकर हंस पड़ी . जैसे हीरे - मोती की डिब्बी सी खुल गयी . झरना सामने झलकने लगा . झर - झर झरते झरने की तेज आवाज़ सन्नाटे में कुछ भय ही पैदा कर रही थी . गिरते पानी से उठता झाग ऐसा लग रहा था , जैसे पानी को मिर्गी का दौरा पड़ गया हो और उसके मुंह से झाग निकल रहा हो . दोनों झरने के पास पहुँच , पानी में पाँव लटका कर बैठ गए - - - और झाग से दूधिया हुए पानी को देखने लगे . हलकी - हलकी हवा चल रही थी और इस मंद हवा में पायल का दुपट्टा यूँ काँप रहा था , जैसे पेठे की मिठाई पर लगा चाँदी का वरक . अचानक नम हवा का एक तेज झोंका आया और पायल के महकते रेशमी बालों को उसके सलोने चेहरे पर गिरा गया . बेपरवाह पायल ने काफी देर तक उन्हें चेहरे से नहीं हटाया , तो चंचल ने कहा -- " ये क्या ! ऊपर का चाँद निकल आया और तुम नीचे के चाँद को मुझसे छिपा रही हो . " उसकी आँखों में चुहल के परिन्दे चहकने लगे थे . मुस्कराती पायल ने बालों का गुच्छा सा बनाकर उसे काँधे के पीछे फेंक दिया और बोली -- " चंचल ! अब हमें जल्दी ही शादी कर लेनी चाहिए . " चंचल चुस्की लेकर बोला -- " क्यों ! बहुत मन कर रहा है क्या - - - शादी का !! या मुझ पर से भरोसा उठने लगा है ? " " नहीं - - - ये बात नहीं . तुम्हें तो हर वक्त ठिठोली सूझती रहती है . सच्चाई ये है - - - कि हमारे देश में प्यार को यदि अधिक दिनों तक शादी नसीब न हो , तो प्यार बदनाम हो जाता है . और मैं अपने प्यार को बदनाम होते नहीं देख सकती . " " तब ठीक है . मैं पिता जी से शादी की तारीख के बारे में मौका देखकर बात करूंगा . भगवान ने चाहा तो बात जल्द ही बन जायेगी . तुम भी भगवान से प्रार्थना करो . मगर तुम्हें तो ईश्वर पर भरोसा ही नहीं . " इतना टुकड़ा जड़कर चंचल हंसने लगा . पायल झुंझला पड़ी -- " तुम तो बात का बतंगड़ बनाते हो . " चंचल खामोश हो गया और उसकी ओर टकटकी लगाकर कुछ सोचने लगा . पायल ने कुछ देर बाद टोका -- " क्या सोचने लगे ? " चंचल मुस्करा कर बोला -- " अपनी शादी के बाद की परिस्थितियों पर सोच रहा था . सोच रहा था कि जब हम लोग शादी कर लेंगे , तो कुछ साल बाद , सारा दिन ऑफिस की नौकरी बजाने के बाद - - -जब मैं थका - हारा घर लौटा करूंगा , तो मेरी आँखों में तुम्हारा खिले गुलाब सा निखरा चेहरा हुआ करेगा और साँसों में महकती हुई मुस्कराहट . मीठे सपने संजोये - - - दरवाजे का परदा हटाकर अन्दर दाखिल हुआ करूंगा तो आँगन में पहुँचते ही तुम्हारी सुरीली आवाज़ की गुनगुनाहट के बजाय आधा दर्ज़न अनचाहे बच्चों की कान फोड़ देने वाली चिल्ल पों मुझे बौखला देगी - - - फिर मुझे तुम दिखोगी - - - नंगे पाँव - - - कोहनियों तक आटे में सने हाँथ - - - बाल बिखरे हुए , जिनमे लगी आटे की सफेदी तुम्हारे आने वाले कल का नक्शा सामने ला खड़ा करेगी - - - और तुम गला फाड़ - फाड़ कर दहाड़ रही होगी - - - मन्टू के बच्चे - - - अरे एक रोटी की लोई लेकर भाग गया -- चिड़िया बनाने के वास्ते . तेरा सत्यानाश हो . अरे ओ नीतू की बच्ची - - - बेवकूफ - - - सारी पकी - पकाई दाल ही बिखेर दी . अभी तुम्हारा बाप क्या मेरे कलेजे से रोटी खायेगा ? अरे सारा दूध कौन पी गया ? अब उनको कौन से दूध की चाय पिलाऊंगी ? अरे ओ पप्पू - - - क्या तेरी मौत आई है मेरे हाथों ? कल ही तो तुम्हारे बाप ने अपने ऑफिस के क्लर्क की पेन्सिल चुराकर दी थी - -- - और तूने आज चबा - चबा कर भुरकुस बना दी . अरे कुल नासों ! भगवान करे तुम्हें ढाई घडी का हैजा हो . तुम्हारी माँ न मरे , बाप जिये . और - - - ." " बस - - बस - - बस ." पायल उसकी बात काटकर बेतहाशा हंसने लगी . चंचल भी हँसते - हँसते बोला --" चलो - - - अब लौट चलें . " दोनों वापस लौट पड़े और थोड़ी ही देर में पार्क में बैठे गेसू और गुलशन के पास पहुँच गये . कुछ देर गप शप के बाद पायल बोली -- " अब हमें घर लौट चलना चाहिये . हम लोग अधिक रात तक यहाँ बैठेंगे , तो पुलिस हमें आवारा ठहरा कर भीतर कर देगी ." गुलशन ने भी समर्थन किया --" पायल ठीक कह रही है . अब हमें भोजन आदि करते हुए घर चलना चाहिये . " सभी उठ खड़े हुए . कर में सवार हो वो होटल तलाशते घर की ओर बढ़ चले . होटल के नाम पर चंचल की दबी भूख कुलाचें मारने लगी थी - - - और वो बड़ी बारीकी से अनुभव कर रहा था की गरीब और अमीर का फर्क कितना नगण्य है , कि चन्द घन्टों की भूख दोनों को सामान बना देती है . काफी देर व दूरी पर एक होटल प्रकट हुआ . वो भी एकदम नालायक किस्म का था . मजबूरी का नाम महात्मा गांधी - - - सब उसी में हो लिए . होटल क्या था - - - दिल्ली कि जुबान में उसे ढाबा और पंजाबी बोली में रोटी की दुकान कह सकते थे . होटल में बैठे - बैठे समन्दर सा लम्बा और पहाड़ सा भारी वक्त गुज़र गया , तब कहीं बनियान व कच्छा पहने एक भोंदू सा बेयरा मेहरबान हुआ . उसने भूख से ऐंठते चंचल से पूछा -- " हुक्म साब ! " चंचल ने पूछा -- " क्या - क्या चीजें मिल सकती हैं ? " " जो आप मांगें साब . " " छोले - भठूरे हैं ? " " नहीं साब ." " डोसा है ? " " नहीं साब . " " आलू - पराठा तो होगा ? " " वो भी नहीं है साब . " " तब क्या है ? " " जो आप मांगें साब . " बेयरा ने रटा - रटाया वाक्य दोहराया . चंचल झुंझलाकर बोला -- " अच्छा जाओ - - - मेनू लेकर आओ . " " होश में बात करो साब . मीनू मेरी बीबी है . मैं उसके बारे में ऐसी - वैसी बात नहीं सुन सकता . और फिर - - - ये होटल है , चकला नहीं साब . " बेयरा गुस्से में शोले की तरह भड़कता हुआ बोला . सभी इस छोटे से होटल के बेयरे की नादानी पर हंस दिए . वो समझ गए की बेयरा मेनू को मीनू समझा था और मेनू का अर्थ नहीं समझता . बेयरा सामान्य होकर पुनः बोला -- " बताइये साब ! क्या लाऊँ ? " " भेजा . " झुंझलाए चंचल को लगा - - - बेयरा उसका भेजा चाट रहा है . मगर बेयरा चौंके बिना बोला -- " ये शुद्ध शाकाहारी वैष्णव होटल है साब . यहाँ ऐसी - वैसी चीज़ , मांस - मछली नहीं मिलती . " एक बार पुनः सबकी हंसी छूट गयी . चंचल ने बेयरे की बौनी बुद्धि पर तरस खाते हुए कहा -- " अच्छा भइये - - - अपनी मर्जी से जो लाना हो ले आओ . " बेयरा चला गया और थोड़ी देर में साधारण से भी निचले दर्जे का खाना ले आया . सभी भूखे पेट में जबरन खाना ठूंसने लगे . बगल की मेज पर पसरे कब्र में पैर लटकाये दो बूढ़े खाने के इन्तजार में धीरे - धीरे खांस रहे थे . कव्वालों के जंगी मुकाबले की तरह , जब एक खांसना बन्द कर देता , तो दूसरा शुरू हो जाता . ऐसा मालूम होता था - - - दोनों में कोई मौन समझौता हो चुका है -- पारी - पारी खाँसने का . सब्जी में मिर्च अधिक होने के कारण सभी सी - सी कर रहे थे . गुलशन को तो क्रोध ही आ रहा था . तभी वही बेयरा नज़दीक आकर बोला - " कुछ और साब ? " " हाँ - - - एक प्लेट केकड़ा और एक प्लेट मोहब्बत . " गुलशन ने गुस्से में फरमाइश की . " हें - - हें - - हें ! क्यों मज़ाक करते हैं साब !! " बेयरा खींसें निपोर कर चला गया . गेसू ने गुलशन से उत्सुकता वश पूछा -- " एक बात समझ में नहीं आयी - - - कि केकड़े के साथ मोहब्बत का क्या सम्बन्ध ? " " है - - - बहुत गहरा सम्बन्ध है . " वह पायल की ओर देखकर बोला -- " मोहब्बत भी उतनी ही बदसूरत होती है , जितना केकड़ा . मोहब्बत भी उतनी ही लज़ीज़ होती है , जितना कि छिले - भुने केकड़े का गोश्त . और कभी - कभी मोहब्बत भी उतनी ही जहरीली होती है , जैसे कोई - कोई केकड़ा . " उसकी बातें सुनकर पायल ने आँखें चुरा लीं , गेसू मुस्करा दी , जबकि चंचल हंस पड़ा . खाना निपटाकर सभी काउन्टर पर आ गये . चंचल ने रुपया देते हुए होटल मालिक से कहा -- " तुम्हारे खाने में मिर्चे बहुत अधिक थीं . न जाने तुम लोग खाने में इतनी मिर्चें क्यों झोंकते हो ! " " क्योंकि इतनी तीक्ष्णता खाने के स्वाद को बढ़ा देती है . " होटल मालिक बोला -- " साहब ! आम भारतीयों की जहाँ और सब इन्द्रियाँ मर चुकी हैं , वहीँ चखने कि शक्ति अभी तक बनी हुई है . बल्कि निरन्तर भूखा रहने से और भी अधिक तीक्ष्ण हो गयी है . इसीलिये तीक्ष्ण मिर्चों की अधिकता रहती है , हमारे खाने में . " " ओह - - - अब समझा . तो ये बात है . आदमी काबिल लगते हो . " " मगर टुटपुंजिया होटल चलाता हूँ - - - पर एक बात बताओ साहब . कुल मिलाकर खाना कैसा रहा ? " " वाह - - - क्या बात थी . यदि सब्जी उतनी ही गर्म होती , जितना कि पानी था - - - यदि रोटी उतनी ही मुलायम होती , जितना कि पापड़ था - - - यदि चावल उतना ही पुराना होता , जितना कि दाल में घी था - - - तब तो भोजन बहुत अच्छा होता . " व्यंग्य के बाद गुस्से में चंचल ने रौब झाड़ा -- " तुम्हें शर्म नहीं आती , ऐसे होटल का मालिक होने पर ? " " नहीं साहब ! क्योंकि मैं खाना दूसरे बढ़िया होटल में खाता हूँ . " वह चंचल को चिढ़ाने कि नीयत से बड़ी ढिठाई से बोला . और खिसियाए चंचल ने अब होटल से भाग निकलने में ही भलाई समझी . सभी कार में बैठकर घर की ओर चल दिये . [15] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 10 ) शराब डायन की तरह एक बार जिसके गले पड़ जाये , उसे आसानी से नहीं छोड़ती . गुलशन के घर के उदास कमरे में गेसू और गुलशन बैठे थे . गेसू के लाख मना करने के बावजूद भी वह पी रहा था . उसकी इस लत से आजिज आकर गेसू बोली -- " दोस्त ! देखती हूँ - - - आजकल तुम बहुत अधिक पीने लगे हो . नुकसान करेगी . आदत नहीं छूटती , तो कम से कम सोडा मिलाकर तो पी सकते हो . शुद्ध व्हिस्की तुम्हारे दिल - जिगर को नुकसान पहुँचायेगी . " " हुंह - - - अब दिल - जिगर की जरूरत भी क्या ! वैसे सोडा इसलिये नहीं मिलाता क्योंकि इसकी असली ख़ुश्बू मारी जाती है , मिलावट से . " " ख़ुश्बू ! " गेसू चौंक कर बोली -- " अजीब होते हैं पियक्कड़ . तुम्हें ख़ुश्बू मिलती है शराब में ! मुझे तो बदबू आती है . मरे हुए जीव की सी बदबू . " " उफ़ - - - क्यों नशा हिरन करती हो मेरा ! ' " ठीक ही तो कहती हूँ . मरे जीव की बदबू ही तो आती है इससे . शराब की बदबू और मरे हुए जीव की बदबू में कौन सा ज्यादा फर्क है ! दोनों तरह की बदबू चीजों के सड़ने से ही तो पैदा होती हैं . इसीलिये इन दोनों में समानता भी स्वाभाविक है . " इतना कहकर वो पलंग से उठी और कमरे में अव्यवस्थित पड़ी चीजों को ठीक - ठाक करते हुए बोली -- " कमरा ठीक से सजा तक नहीं . जैसे - तैसे सब चीजें रख छोड़ी हैं . तुम्हें मालूम होना चाहिए - - - चीजों के रख रखाव मात्र को सरसरी नज़र से निहार कर ही सयाना आगन्तुक घर के स्वामी की अभिरुचियों और मनोदशा को पूरा पढ़ लेता है . अब आगे से मुझे तुम्हारा घर सजा - संवरा मिलना चाहिए - - - समझे ! " गुलशन आह भरकर बोला -- " कोई सजाने वाली हो , तब न . " गेसू पुनः पलंग पर बैठकर बोली -- " तभी तो कहती हूँ दोस्त - - - शादी कर लो . घर भी संवर जाएगा और धीरे - धीरे गृहस्थी में खोकर , गम और शराब दोनों ही छूट जायेंगे . कुछ सोचा इस बारे में ? कुछ उम्मीद है शादी की - - - या नहीं ? " " नहीं - - - कुछ भी नहीं . " गुलशन ने उस पूर्णता से जवाब दिया , जहां धरती और आकाश - - - दोनों समाप्त हो जाते हैं . उम्मीद के पँछी पिंजरा तोड़कर फुर्र हो जाते हैं . आने वाली आशायें खूंखार चमगादड़ों की तरह घर के कोने में उलटी लटक कर फड़फड़ाने लगती हैं - - - और निगाहों में दूर - दूर तक रेगिस्तान तैरने लगते हैं . गेसू उसकी बचकानी जिद की हंसी उड़ाकर बोली -- " तुम भी अज़ब किस्म के प्रेमी हो , जो महाराणा प्रताप सरीखा हठ योग धारण किये हो कि जब तक पायल को नहीं पाओगे , नहीं सुधरोगे . मुझे तो लगता है कि ग्रामोफोन के रेकार्ड कि सुई की तरह एक ही जगह अटक कर तुम बार - बार एक ही बेसुरी आवाज़ निकाल रहे हो और मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी पायल पर अटकी सुई को थोड़ा सा आगे बढ़ाकर तुम्हें फिर से सुर प्रदान कर दूं . दोस्त ! सच कहती हूँ - - - शादी न करके तुम अधर्मी हुए जा रहे हो . मेरी मानों तो अब ये अधर्म की राह छोड़ो . जवानी का धर्म निभाओ .जालिम ! तुम पर जवानी भी तो ऐसी टूटी है कि - - - . जानते हो ! तुम शादी न करके सिर्फ अपने शारीरिक अरमानों का गला ही नहीं घोट रहे हो , बल्कि अपनी अगली पीढ़ियों का भी अग्रिम खून कर रहे हो . " " नहीं भई - - - मैं अपने बच्चों का पेशगी खून नहीं कर रहा . वो तो पैदा हो ही रहे हैं . " गुलशन भी मजाक में बोला . गेसू उसका मजाक न समझ कर चौंकी -- " क्या मतलब ! तुम्हारी तो शादी ही नहीं हुई - - - फिर बच्चे - - - बताओ कौन कहाँ हैं तुम्हारे बच्चे ? " " अब छोड़ो भी ये बात . वैसे भी मैं उनका नाम लेकर पतिव्रताओं को संकट में नहीं डालना चाहता . " गुलशन ने हंसकर जवाब दिया . गेसू उसकी बात पर हंसकर अचानक गंभीर हो गयी और बोली -- " दोस्त ! ज़िन्दगी की गंभीर बातें यदि यूं ही मजाक में टालते रहे , तो ज़िन्दगी खुद एक मज़ाक बनकर रह जायेगी . मजाक छोड़ो और किसी अच्छी सी लड़की से शादी कर लो . " " तब पायल को राजी करो . " " पायल - - - पायल - - - पायल ! तुम भूत से चिपके हुए हो . " गेसू एकाएक गरमाकर लगभग चीख ही पड़ी और फिर अपनी ही गर्मी की आंच में थोडा नरमाकर समझाने लगी -- " गुलशन ! मेरे दोस्त !! अगर भूत कडुआ है , तो उसे मुंह में आये थूक की तरह थूक देना ही बेहतर होता है . " " लेकिन भूत की बुनियाद पर ही तो भविष्य का स्वप्नीला मज़बूत महल खड़ा किया जाता है . " " ओफ्फोह - - - अब तुम्हें कौन समझाये कि गरीबी सपने देखने का हक़ छीन लेती है . गुलशन ! मैं चाहती हूँ , पहले तुम पर्याप्त अमीर बनो , फिर सपने देखो . " गेसू ने सलाह दी -- " दोस्त ! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम मेरे पिता जी से कुछ हजार रूपये कर्ज लेकर अपना कोई व्यवसाय शुरू करो ? " " कर्ज़ से व्यवसाय ! न बाबा ना . कर्ज़ का एक रुपया भी हिमालय से भारी होता है . हजारों का बोझ मैं कैसे उठा पाऊँगा ! मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा ये बोझ . " " तब फिर तुम मुझसे शादी कर लो . पिताजी की संपत्ति में मेरे हिस्से की रकम से तुम अपना व्यवसाय शुरू कर सफल हो सकते हो . " " ऐसा नहीं हो सकता . " " क्यों ? " " क्योंकि किसी की यादें -- - - मेरी साँसें बन चुकी हैं . पायल की याद चन्दन की सुगंध की तरह मेरे मस्तिष्क में हमेशा छाई रहती हैं . और अगर मैं तुमसे शादी कर भी लूं . तो तुम्हारे प्रति पूरी ईमानदारी नहीं बरत पाऊँगा . ऐसा मुझे विश्वास है . उस हालत में मेरी बाहों में तुम रहोगी और दिमाग में पायल और सिर्फ पायल ही घूमती रहेगी . गेसू ! मैं नहीं चाहता की तुम मेरी कटी - फटी ज़िन्दगी में एक पैबंद की भूमिका अदा करो और मैं नाटक का एक मजबूर कलाकार बनकर रह जाऊँ . मेरी हमदर्द ! मुझे मालूम है कि शादी के बाद मैं तुम्हें सच्चा प्रेम नहीं दे सकूँगा - - - क्योंकि मेरे विचार में प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है . बाद में किया गया प्रेम तो खुद को भूलने का , भरमाने का समझौता मात्र है . " " एक बात पूछूँ दोस्त ! क्या प्रथम प्रेम नासमझी नहीं हो सकती ? " " गेसू ! कुछ नासमझियां मजबूरियाँ भी तो बनकर रह जाती हैं . इसीलिए कहता हूँ - - - मेरा ख़याल छोड़ दो - - - क्योंकि मेरा मन वो वीरान गुलशन है , जिसके वृक्षों की शाखाओं पर मनहूस उल्लू बसेरा करते है . मेरे पास तुम्हें क्या मिलेगा ! तुम बेकार ही मुझसे दिल लगाकर खुद को परेशान कर रही हो . मेरा दिल टूट चुका है . " " मैं टूटे हुए दिल को प्यार का मरहम लगाकर जोड़ दूँगी . तुम्हारी जिंदगी में फिर से बहार ला दूँगी . " " नहीं - - - ये संभव नहीं होगा . टूटे हुए कांच को जोड़ने पर भी दरार रह जाती है - - - फिर दिल तो दिल है . मुझे भूल जाओ गेसू - - - बिसार दो . मेरे जीवन में बहार लाने का तुम्हारा सपना पूरा न हो सकेगा . मैं कभी भी फूल - फल नहीं सकता . मेरी ज़िन्दगी पतझड़ के उस बबूल की तरह है , जिसका जिस्म काँटों से छिदा है और शाखें नंगी हैं . " " बारिश गिरे तो सूने बबूल पर भी नई कोपलें आ जाती हैं दोस्त . मेरे प्यार की रिमझिम फुहारें तुम्हारे जीवन से पतझड़ को दूर भगाकर बहारों को फिर से न सजा दें , तो कहना . मेरे प्यार और उसके जादुई असर पर यकीन करके तो देखो . " " मैंने कब कहा कि यकीन नहीं ! भरोसा है - - - मुझे तुम्हारी दोस्ती पर . गेसू ! मैं तुम्हें एक अच्छे दोस्त के रूप में तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊंगा . मुझे मालूम है - - - कि दोस्त अच्छे वही होते हैं , जो बुरे वक्त में पैदा होते हैं . लेकिन पायल - - - . " " फिर पायल . " गेसू ने उसे लगभग डांट ही दिया -- " आज कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली है क्या ! हज़ार बार कह चुकी हूँ , उसकी आकांक्षा छोड़ दो . उसकी नज़र में तुम उसके लायक ही नहीं . " " क्यों नहीं ! जब तुम्हारे योग्य हूँ , तो उसके लायक क्यों नहीं ? " " मेरे घोंघा बसन्त ! बल - हठ ठानने से हर चीज तो प्राप्त नहीं होती . अगर मैं भी पायल की जगह होती और उसी की सी परिस्थितियों में होती तो अधिक संभावना इस बात की ही होती कि मैं भी इस भौतिक वादी युग में तुम्हारे प्रति पायल जैसा ही व्यवहार प्रकट करती . दोस्त ! मैं लड़की हूँ - - - इसलिए अच्छी तरह जानती हूँ कि कार , कोठी और वजनी बैंक - पास - बुक हर कॉलेज कढ़ी महत्वाकांक्षी लड़की का ख़्वाब होता है . कोई आश्चर्य नहीं कि ये सपना पायल भी देखती है . और फिलहाल तुम उसके इन ख़्वाबों में सच्चाई का चटकीला रंग भरने की योग्यता नहीं रखते . गुलशन ! अधिकाँश लड़कियां एक नाज़ुक लता के सामान होती हैं - - - जो सदैव संपन्न , बलिष्ठ और समीप के पेड़ का सहारा ढूंढकर उसी से लिपटती हैं - - - ऊपर चढ़ने के लिए . और ये सब गुण - - - ये विशेषताएं पायल ने तुममें नहीं , बल्कि चंचल में देखी हैं . लेकिन तुम्हें ये सब बातें इसलिए नहीं समझ आतीं क्योंकि तुम्हारे प्रेम की न आँखें हैं , न विवेक , न बुद्धि . " " मगर फिर तुम क्यों मुझसे शादी करना चाहती हो ? " " तुम भी न - - - नशे में एकदम घोंचू जैसे सवाल कर रहे हो . अब पूछ ही लिया है - - - तो सुनो ! मैं तुमसे इसलिए शादी करना चाहती हूँ - - - क्योंकि पहली बात तो ये है कि मैं तुम्हें पसन्द करती हूँ - - - और दूसरी बात ये है कि तुम्हारे साथ गाँठ जोड़कर मेरे भविष्य को कोई खतरा नहीं - - - क्योंकि मेरा तो एक उच्च आर्थिक स्तर पहले से ही स्थापित है और मैं अपने सहयोग से तुम्हें भी उसी स्तर तक पहुंचा सकती हूँ . मगर ये बात तुम्हारे और पायल के जोड़े पर लागू नहीं हो सकती . " " ओह ! " उसकी दर्पण सी बातों में अपना चेहरा देखकर गुलशन काफी परेशान सा दिखने लगा . गुलशन के मनोभावों को ताड़कर गेसू ने कहा -- " दोस्त ! जब परेशानी बढ़ जाए , तो आदमी को विचारों को मोड़ देकर खुली हवा में घूमना चाहिये . आओ चलो ! बाहर कहीं घूम - टहल आयें . " " मन नहीं है . " " आखिर यहाँ बैठे - बैठे करोगे भी क्या ? " " सुबह को दोपहर , दोपहर को शाम और शाम को रात बनाऊंगा . " गेसू उसका हाथ पकड़ कर खींचते हुए बोली -- " नक्शा मत मारो . अब चलो भी . मैं जो कह रही हूँ . " गुलशन मुस्कराकर राजी हो गया . दोनों नदी किनारे सैर करने निकल पड़े . मौसम मसूरी बन गया था . हवायें तेज और बर्फ की तरह ठंढी हो चली थीं . लगता था कि बर्फ गिरकर रहेगी . दोनों नदी किनारे बैठकर जल - प्रवाह निहारते रहे . लगता था , कुछ सोच रहे हों . [16] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
थोड़ी देर में !
गुलशन ने गेसू से पूछा -- " क्या सोच रही हो ? " " सोच रही हूँ , नदी भी हमें कुछ शिक्षा देती है . " " क्या ? " " इसका बहता हुआ नीर हमें ये सिखाता है - - - कि जीवन गतिशील होकर जिया जाता है . मगर एक तुम हो कि पायल में अटक कर रुक गए हो . " इतना कहकर उसने पूछा -- " पर तुम भी तो कुछ सोच रहे थे ? " " हाँ - - - मैं भी नदी के विषय में ही सोच रहा था . सोच रहा था कि नदी के दोनों पाट लगातार कितने समीप रहकर भी कभी नहीं मिल सकते . जैसे कि - - - . " " जैसे कि तुम और पायल . यही कहना चाहते हो न ? " वह उसकी बात काटने के बाद झुंझलाकर बोली . गुलशन ने भोलेपन से स्वीकारा -- " हाँ . " उसकी इस अदा पर गेसू की हंसी निकल पड़ी . वह बोली -- " दीवाने हो गए हो तुम . " " मैं दीवाना सही - - - मगर एक बात बताओ , " उसने मुस्कराकर चुहल भरी भरपूर निगाह गेसू पर डाली और कहा -- " आज तुम इतनी खूबसूरत क्यों लग रही हो ? " " कितनी ? " " इतनी - - - कि मौसम खिल उठें . हवायें महक उठें . " और आज - - - पहली बार गुलशन के मुंह से अपने सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर अचानक गेसू के गुलाबी गालों पर शर्म की लाली ने एक मादक अंगडाई ली और आँखों में शराब उतर आयी . गेसू को लगा कि वो मारे खुशी के बेहोश हो जायेगी . और फिर छः बरस से लेकर साठ बरस तक की कौन सी ऐसी स्त्री है , जो अपने रूप की प्रशंसा सुनकर पुलकित न हो जाय . इस बीच - - - दबे पाँव हल्की - हल्की बर्फ पड़ने लगी और सर्दी बहुत बढ़ गयी . सर्दी से मुकाबले की तैयारी के इरादे से गुलशन ने एक सिगरेट सुलगा ली . गेसू हथेलियाँ रगड़कर गर्मी लाने का प्रयास करते हुए बोली -- " सर्दी बहुत हो गयी है . " गुलशन ने जवाब दिया - " बर्फ़बारी में सर्दी नहीं होगी तो और क्या होगा ! " " बर्फ़बारी में और भी तो बहुत कुछ हो सकता है . " वह भेदपूर्ण मुस्कान के साथ ' बहुत कुछ ' शब्द पर जोर देकर बोली . गुलशन ने पूछा -- " जैसे ? " " जैसे डबल न्यूमोनिया . बुद्धू - - - जिसमें दोनों तरफ की पसलियाँ धौंकनी बन जाती हैं . " वह रहस्यमय कहकहा बिखेर कर बोली . उसका ठहाका ऐसा तेज दगा - - - मानो बेशुमार परिन्दे उड़ गए हों - - - मगर होठों के कोर पर रहस्य का एक ढीठ नन्हा जुगनू टस से मस न हुआ . गुलशन ने नासमझ सा स्वांग रचकर टोका -- " तुम कहकहे बहुत खर्च करती हो . " " कहकहे इसीलिए होते ही हैं . " " नहीं - - - इन्हें संभालकर रखना चाहिये . उस वक्त के लिये - - - जब ज़िन्दगी दुखों से भर जाती है . जब सब अपने तीन दूना पांच पढ़ाकर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं . उम्मीद की सारी किरने दामन छुड़ाकर फरार हो जाती हैं और ना उम्मीदी की गहरी धुंध में सभी रास्ते गुम हो जाते हैं . " " उस वक्त मैं इस दुनिया में नहीं रहूंगी . " "ये तुम्हारी खुशफहमी है . उस वक्त व्यक्ति ज़रूर ज़िन्दा रहता है . जैसे मैं . " गुलशन की बात वातावरण को गंभीर बना गयी . थोड़ी देर बाद ! गेसू बोली -- " आज तुम्हें साफ़ - साफ़ जवाब देना ही होगा कि तुम पायल की मृग तृष्णा में ही भटकते रहोगे या मुझसे शादी करोगे ? " " गेसू ! बाँधे बज़ार नहीं लगतीं . वैसे भी - - - मुझसे शादी करके तुम्हें मिलेगा ही क्या ? मैं तो कहता हूँ , तुम्हारी चहकती खुशी भी जाती रहेगी . मैं तुम्हें कुछ न दे पाऊंगा . कुछ भी नहीं . " " दोस्त ! व्यक्ति सदैव कुछ पाने से ही खुश नहीं होता . कभी - कभी कुछ या सब कुछ देने पर भी उसे आत्म संतोष और ख़ुशी प्राप्त होती है . " " जैसे ? " " जैसे दिल . " " ओह - - - ज़रा ये तो बताओ - - - दिल देकर कितनी ख़ुशी मिलती है ? " " कहा ना - - - बहुत अधिक . " " जितना की मुझे मिली ? " गुलशन ने आह भरकर पूछा . गेसू झुंझलाकर बोली -- " ओफ्फोह - - - क्यों वातावरण खराब करने पर तुले हो ! पायल के दीवाने - - - आँख खोलकर तो देखो , दुनिया कितनी खूबसूरत है . कितनी रंगीन और मस्ती भरी है . " " लेकिन मुझे तो ऐसा कभी नहीं अनुभव हुआ . " " तो आओ - - - आज मैं अनुभव कराऊँ . " गेसू आवेश में आकर तेजी से बोली और उसने गुलशन को अपनी तरफ घसीटकर , अपनी बाहों में भींचकर , गुदाज़ छाती से लगा लिया और पुनः बोली -- " लो - - - अनुभव करो . कुछ हुआ अनुभव ? " अचानक में हुए गेसू के इस मादक हमले से हड़बड़ाकर गुलशन किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया . उसकी तो मति ही मारी गयी . विवेक शून्य हो गया . कुछ घड़ी बाद थोड़ा सँभालने पर - - - एक बार तो उसके मन में ख़याल आया कि वो गेसू को जवाब दे दे . उसे जहाँ - तहाँ चूम ले . मन भी मचला - - - फिर भी उसने ऐसा नहीं किया . क्योंकि मुई शराफत बिलार बनकर रास्ता जो काट गई . उसने अपने को जल्दी से गेसू की गिरफ्त से छुड़ा लिया और लम्बी सांस लेकर आश्चर्य से बोला -- " बाप रे बाप . " " क्या बाप रे बाप ? " " गेसू ! तुम इतनी सेक्सी क्यों हो ? " " वो औरत ही क्या - - - जो सेक्सी न हो ! सच्चाई अनुभव करा रही हूँ तो सेक्सी कहते हो !! सेक्स सुखद दाम्पत्य की धुरी है , इस बात को गाँठ बाँध लो . यह भी सच है कि सेक्सी औरतों का वैवाहिक जीवन अपेक्षाकृत अधिक सफल व सुखी रहता है . इसलिए मात्र मेरे बारे में ऐसा सोचना तुम्हारी अज्ञानता या भ्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं . सच तो ये है कि मैं तुमसे थोड़ी सी बेतकल्लुफ भर हूँ . ऐ मेरे नासमझ दोस्त ! तुम्हें नहीं मालूम - - - औरतों में मर्दों की अपेक्षा कई गुना सेक्स की चाहत मौजूद रहती है . यदि उनके पास आर्थिक पराधीनता , लाज शरम का आवरण और चुगलखोर शारीरिक संरचना न होते , तो आज दुनिया का कुछ दूसरा ही रूप होता - - - और तुम मर्द दुम दबाये उनसे बचते फिरते . " हक्का - बक्का गुलशन चुप रहा . वह तो बस दीदे फाड़े टुकुर - टुकुर गेसू की ओर एकटक निहार रहा था . गेसू उसे वक्त से आगे की लड़की नज़र आ रही थी . उसकी ये दशा देखकर गेसू ने मुस्कराकर पूछा -- " यूँ टकटकी लगाये मुझे क्या देख रहे हो ! कुछ समझ रहे हो , जो मैं कह रही हूँ ? " " हाँ - - - समझ भी रहा हूँ और हल्का सा नमूना भुगत भी चूका हूँ . " वह रुआंसा होने का अभिनय करके बोला . उसके मुख के भाव देखकर गेसू हंस पड़ी . गुलशन भी उसकी हंसी में शामिल हो गया . गेसू बोली -- " चलो - - - घर लौट चलें . " " हाँ चलो . बहुत देर हो चुकी है . अब तुम्हें शीघ्र घर पहुंचना चाहिये - - - वरना तुम्हारे पिताजी निश्चित ही परेशान होंगे - - - क्योंकि एक लड़की का पिता होना , काँटों का मुकुट पहनने जैसा होता है . हर पल अनेकों आशंकाये , बहुतेरे कुविचार मन को मथे रहते हैं . खासकर तब - - - जब उसकी लड़की जवान होने के साथ - साथ गज़ब की खूबसूरत भी हो . " गुलशन ये कहते - कहते हँस दिया . गेसू को समझ न आया कि वह मुस्कराये या शर्माये . सो उसने बीच का रास्ता अपनाया . और फिर - - - दोनों अपने - अपने घर लौट आये . और घर पहुँच कर - - - प्रसन्न मन गुलशन आज के दिन और गेसू के आगोश में बीते उन मादक पलों के बारे में विचार कर रहा था . गेसू के साथ उसका आज का दिन , उसके ख़याल में बहुत अच्छा गुज़रा था - - - और वो भी ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि आम तौर पर नारी एक ईश्वरीय उपहार है , जिसे स्वर्ग से वंचित धरती के पुरुषों के पास ईश्वर ने उसकी क्षति पूर्ती हेतु दुनिया में भेजा है . [17] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 11 ) सेठ करोड़ी मल ! पायल की इज्जत का असफल सौदागर !! आज इसी सेठ के एक ख़ास कमरे में कुछ ख़ास बातों के लिए ख़ास - ख़ास लोग एकत्र हुए थे . इससे पहले की बात चीत शुरू होती - - - सेठ का ख़ास डॉक्टर उसके स्वास्थ्य - परीक्षण के लिए आ गया - - - क्योंकि सेठ की तबीयत पिछले कुछ रोज़ से ढीली - ढाली चल रही थी . अब चूंकि डॉक्टर गलत समय पर आ ही धमका था - - - और उसे पहले निपटाना भी ज़रूरी था - - - अतः अखबार पढ़ते - पढ़ते ही सेठ ने कहा -- " चलो - - - शुरू हो जाओ डॉक्टर . " कुछ देर तक सेठ का स्वास्थ्य - परीक्षण करने के बाद डॉक्टर बोला -- " सेठ ! तुम तो एकदम चकाचक हो - - - फिर मुझे बेकार बुलाया . तुमको कोई मर्ज़ नहीं है . " " कमाल करते हो डॉक्टर . अगर मुझे कोई मर्ज़ नहीं है तो फिर ये डिलीवरी मार्का दर्द , रेगिस्तान मार्का टेम्प्रेचर , थ्री - डी मार्का आँखों का वर्क , ये - - - ये सब आखिर क्या - क्यूँ है मुझे ? जब रोग पकड़ने की तमीज नहीं , तो क्या ख़ाक डॉक्टरी पढ़ी है तुमने ! " सेठ ने व्यंग्य करते हुए धिक्कारा . डॉक्टर भी चिढ़कर बोला -- " क्या समझ रखा है तुमने मुझे ! पांच अलग - अलग मुल्कों से डॉक्टरी पढ़ी है मैंने . " " इससे क्या फर्क पड़ता है ! मैनें पचास जगहों की अलग - अलग लड़कियों का भोग लगाया है . " " क्यों ? " " क्योंकि वैध राज धरती धकेल कहा करते थे कि जो पुरुष कुल जमा इक्यावन अलग - अलग लड़कियों से रस प्राप्त करता है - - - उसे बुढ़ापा कभी नहीं आता . " " फिर ये बुढ़ापा तुम पर क्यों मंडरा रहा है ? " " क्योंकि इक्यावनवीं नहीं मिली . " " तब दवा की क्या ज़रुरत ! इक्यावनवीं ढूंढो . " डॉक्टर ने हंसकर कहा . सेठ भी हंसकर बोला -- " हाँ - - - यही करना होगा . " डॉक्टर ने पूछा -- " सेठ ! एक बात बताओ !! तुम जैसे कुछ मर्दों में औरतों के मामले में नित नयेपन की इच्छा क्यों होती है ? " सेठ अखबार रखते हुए बोला -- " बस यूं समझो प्यारे ! औरत और अखबार मुझे एक से लगते हैं . सोचो - - - सुबह जब नया अखबार आता है , तो कैसी बेचैनी होती है . उसका इन्तज़ार होता है . फिर सरसरी नज़र से उसे पढ़ा जाता है . एक बार - - - दो बार - - - तीन बार - - - . लगता है - - - कहीं कोई कोना छूट न जाये . किसी ख़ास चीज़ को कितनी लगन से कई बार पढ़ते - दोहराते हैं . और फिर जब पूरा - - - चप्पा - चप्पा पढ़ लिया जाता है , तो ख़त्म हो जाता है . दिलचस्पी समाप्त हो जाती है . अब क्या करें ! दूसरे दिन फिर नया अखबार तो चाहिये ही . नहीं समझे ? " " समझ गया . " " क्या समझे ? " " यही - - - कि सचमुच तुम्हें इक्यावनवीं की सख्त ज़रुरत है . जल्दी ढूंढो . लेकिन सेठ ! मैं तो लम्बी उम्र के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि औरतें वो अनन्त खांईं हैं , जिनमें आदतन बार - बार झाँकने वाले कभी न कभी उनकी गहराई में गिरकर ऐसे गुम हो जाते हैं कि उनका पता - ठिकाना खोजना असंभव हो जाता है . इसलिए वो खुशनसीब हैं जिन्हें ख़ुदा नई - नई औरतों के चस्के से बचाये - - - वरना कभी न कभी ढोल की तरह गले मढ़कर कोई न कोई अबला ज़िन्दगी का तबला बजा डालती है . " इतना कहकर डॉक्टर हँसता हुआ चला गया . और सेठ ने अपने पालतू गुण्डों की ओर आँखें तरेर कर शहंशाही जिद की -- " क्यों बे ! लल्लू - कल्लू !! कुछ सुना तुमने ? डॉक्टर कहता है इक्यावनवीं ढूंढो . जाओ - - - लेकर आओ . " " मगर किसे बॉस ? लल्लू ने पूँछा . " पायल को . वो इसी शहर में कहीं है . " " कैसे जाना बॉस ? " " अपना पुराना मुच्छड़ चौकीदार एक दिन आकर बता रहा था . अबे वही - - - जिसे चोरी करने पर मैंने ठोंक - पीट कर काम से हटा दिया था . " " कुछ पता तो बताया होगा उसने बॉस ! " " नहीं . साला पूरा सही पता बताने के वास्ते मुझसे बड़ी ढिठाई से लम्बी रकम मांगनें की जुर्रत कर रहा था . उस वक्त मैं भी पिनक में था . सो मैंने गुस्से में उसके पिछवाड़े जहां पर लात मारी - - - ससुरा वहीँ से थैंक यू की आवाज़ छोड़ता हुआ भाग निकला . " " तब तो उसे ढूँढने में काफी मुश्किल होगी बॉस . " " अबे तो क्या तुम लोगों को आसान काम के लिये पाल - पोस कर सांड बनाया है मैंने . जाओ ! दो दिन में ढूंढ कर उसे मेरे पहलू में हाज़िर करो . और कान खोलकर सुन लो - - - न ला सके , तो तुम बेकारों को मारकर अपने फ़ार्म के वास्ते तुम लोगों की खाद बनवा दूँगा . " कल्लू ने समझाया -- " बॉस ! अपने सिर पर सवार बैताल को काबू करो - - - वरना कहीं लेने के देने न पड़ जायें . मेरी मानो तो भूखी मछली की तरह केवल आटा ही न देखो , काँटा भी देखो - - - क्योंकि वो कॉलेज - कढ़ी छोकरी है . चान्स वो लेती होगी , डान्स वो करती होगी . स्वीमिंग - टैंक में वो नहाती होगी , किसी की याद में आँसू वो बहाती होगी . डेटिंग वो करती होगी , वेटिंग वो करती होगी . बोतल वो फोड़ती होगी , दिल वो तोड़ती होगी . मुर्गा वो छीलती होगी , मछली वो लीलती होगी . लौंडिया खतरनाक भी साबित हो सकती है . और फिर - - - हम और कोई राजी लड़की भी तो खरीद सकते हैं ! क्या ज़रुरत है , चालबाजी से उसे यहाँ तक लाने की !! " सेठ बोला -- " अबे बांगडू - - - तुझे नहीं मालूम , ज़िन्दगी एक जुआ है . जीतने के लिये जुए की बाजियों में तरह - तरह की चाल चलना बहुत जरूरी है . " " ज़िन्दगी एक जुआ है - - - ये माना बॉस ! पर हम जुए को शराफत और ईमानदारी के साथ भी तो खेल सकते हैं . क्या ज़रुरत है की जुआ बेईमानी से ही भरा हो ! " " हाँ बॉस ! " लल्लू ने कल्लू का समर्थन किया -- " दुनिया में बिकाऊ माल की कुछ कमी तो है नहीं - - - फिर क्या ज़रुरत है कि एक भले मानस की इज्जत का मोती चुगा जाय . " " अबे चो s s s प . सालों ! किराये के टट्टुओं के मुँह में जुबान शोभा नहीं देती . काट के रख दूँगा . " सेठ तैश में आकर बोला -- " हरामखोरों ! तुम्हें क्या मालूम - - - वो कीमत पहले ही ले उड़ी है . वो साली मेरा दस हज़ार रुपया लेकर भागी थी जबकि दस उसका भडुवा अंकल पहले से डकार चुका था . एक बार हत्थे चढ़ जाय तो कोका पंडित की पूरी किताब रटा दूँगा उसे . " कल्लू बोला -- " मगर बॉस आप तो बताते थे कि वो लोमड़ी से ज्यादा चालाक और मछली से अधिक चिकनी है . फिर हम लोग उसे आप तक कैसे लायें ? ज़रा खुलकर बतायें . " " मछली पकड़ी है कभी ! तरीका ये है कि मोती और चालाक मछली फांसने के लिए जाल हमेशा गहरे जल में डालना पड़ता है . चालाक मछली आसानी से कभी सतह पर नहीं मिलती . " " मैं अब भी आपका मतलब नहीं समझा बॉस . थोड़ा और खोलकर समझायें . " " उफ़ - - - फूटी मेरी किस्मत . पता नहीं कहाँ - कहाँ के फार्मी अंडे इकट्ठे करके से रहा हूँ मैं . कोई नतीजा निकलता नहीं दिखता . अबे ढक्कन ! और कितना खोलूँ !! अब क्या खोल - खोल कर पूरा नंगा ही देख लेने पर समझोगे तुम मुझे ? अबे तेरी जात का अभिमन्यु तो पेट के भीतर ही चक्र व्यूह भेदन जैसा टेढ़ा काम सीख गया था - - - और तू हंडिया फोड़ कर बाहर निकल आने के बावजूद इतनी सीधी सी बात नहीं समझ पा रहा . अबे खाली खोपड़ी के - - - वो जहाँ कहीं भी हो , उसे अगवा कर लो . और सुनो ! अगर दो दिनों में , तुम दोनों ने ये काम न किया - - - तो तुम लोगों का काम तमाम कर दिया जायेगा ." " मगर हम उसे पहचानेंगे कैसे ? " “ थोड़ी ही देर में उसकी फोटो तुम्हें मिल जायेगी . उसी के सहारे पहचानना . वर्ना तुम निठल्लों की मौत तुम्हें पहचान लेगी . समझे ! " सेठ ने कुटिल मुस्कान बिखेर कर कहा और पलट कर दूसरे कमरे में चला गया . [18] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 12 ) पायल को जिस घड़ी का बेसब्री से इन्तजार था , वो नज़दीक आ गयी थी . चंचल और पायल की शादी की तारीख सांचे में ढलकर स्पष्ट आकार ले चुकी थी . कार्ड भी छप चुके थे . पायल गुलशन के घर उसको अपनी शादी का निमंत्रण - पत्र देने जा रही थी . आज उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी , गुलशन से नज़रें मिलानें की . एक तरफ उसे अपनी और चंचल की शादी तय होने की ख़ुशी थी , तो दूसरी और अंध प्रेम के कारण गुलशन की बर्बादी का गम था . वह जानती थी कि गुलशन अभी तक आस लगाए बैठा है कि वो चंचल से दूर छिटककर उसकी बाहों में कभी न कभी आ गिरेगी . जब वो गुलशन के घर पहुँची , तो उसने देखा कि वह दरवाजे की तरफ पीठ किये बैठा है और हाथ में उसी की तस्वीर लिये देख रहा है . पायल के पसीज गए दिल की नमी आँखों में उतर आयी . वह दबे पाँव गुलशन के सामने खड़ी हो गयी . उसे सामने देखकर गुलशन बोला -- " बैठो . " बैठते हुए पायल ने बात शुरू करने की गरज से पूछ लिया -- " किसकी तस्वीर देखी जा रही थी ? " गुलशन निराशा से बोला -- " जिसे पाने की आस लिये जिन्दा हूँ . " उसकी बात सुनकर पायल ने सोचा कि वो बिना कार्ड दिए ही वापस लौट जाये . मगर फिर उसके दिमाग में दूसरा विचार आया कि उसे अँधेरे में रखना उचित नहीं . बता देना ही ठीक रहेगा . सच्चाई से मुंह मोड़ना हितकर नहीं . पायल ने अपराधी सा सर झुकाकर अपनी शादी का एक कार्ड गुलशन की ओर बढ़ा दिया . गुलशन ने लिफाफा हाथ में थामते हुए पूछा -- "क्या है ? " जवाब देने के लिये पायल के होठ काँपे , मगर जुबान कमजोर पड़कर गूँगी हो गयी . गुलशन ने लिफाफा खोलकर जैसे ही कार्ड देखा , उसका पूरा शरीर सूखे पत्ते कि भाँति काँप गया और चेहरा अचानक इस कदर अपशगुनी पीला पड़ गया जैसे कि लिफ़ाफ़े पर लगी शगुन की हल्दी का रंग . उसे लगा - - - उसकी आँखों में खूब बड़े दो मोतियाबिन्द उभर आये हैं , जिनके चलते उसके दिमाग में कुछ देर को अँधेरा छा गया हो . और सहमी पायल ने उस क्षण उसकी पथराई आँखों में भयंकर पीड़ा को पसीजते देखा . गुलशन ने अपनी बाईं छाती को हाथ से मसलकर थोड़ी देर तक अपने फड़कते होठ काटे , चेहरे पर बेचैनी लाया और फिर लगातार पायल की तरफ कातर दृष्टि से निहारने लगा . पायल की नज़रें स्वतः झुक गईं . थोड़ी देर बाद ! पायल बिना आँख मिलाये ही उससे बोली -- " गुलशन ! एक बात पूछूँ ? " वह धीमी पराजित आवाज़ में बोला -- " अभी भी कुछ पूछने को बचा है ? " " हाँ . तुम्हें अपना वादा याद है न ? जो तुमने चंचल के घर पर पहली मुलाक़ात में मुझसे किया था . " और उसके इस प्रश्न के साथ ही अपमान और पीड़ा की न जाने कितनी सूइयाँ गुलशन के शरीर में घुस गयीं . ऐसा लगा , जैसे उसे किसी ने तमाचा मारकर तेज़ाब से भरे टब में धकेल दिया हो . वह तड़पकर बोला -- " वादा ! मात्र वादे की बात करती हो . अरे मुझे तो कॉलेज के जमाने के वो फागुनी बयार में डूबे सतरंगी दिन भी याद हैं , जिन्हें तुम भूल चुकी हो . फिर भी पायल - - - मेरे वादे पर यकीन रखो . वादा खिलाफी नहीं होगी . क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ . पवित्र प्यार . और असली प्यार वादे से कभी मुकर नहीं सकता . " पायल बोली -- " गुलशन ! मैं चाहती हूँ कि शादी करके तुम भी सुख का जीवन व्यतीत करो . मानोगे न मेरी बात ? करोगे न विवाह ? " " विवाह - - - शादी - - - ब्याह ! ये किसी और ही देश की जुबाने हैं पायल . मैं ये भाषा नहीं जानता . मै तो सिर्फ गम की जुबान बोलता हूँ . सच तो ये है पायल - - - कि जिस तरह कोई कांटेदार बेल नन्हे से पौधे को अपनी लपेट में ले लेती है , उसी तरह तुम्हारे प्यार ने मुझे अपनी बाहों में समेट लिया है . " पायल चुप रही . वह बोलती भी क्या . गुलशन ने बड़ी मासूमीयत व बेबसी से कहा -- " एक बात पूछूँ पायल ? क्या तुम्हें मुझ पर बिल्कुल दया नहीं आती ? " इतना कहकर गुलशन पायल के कन्धों पर अपने कंपकपाते हाथ टिकाकर और उसकी आँखों में आँखें डालकर रो पड़ा . उसके आँसू एकबारगी भरभरा कर बह उठे . मानो कोई पहाड़ी बादल अचानक फट पड़े और अपने भीतर तैर रहे कुल पानी को एक साथ ज़मीन पर छोड़कर त्वरित बाढ़ का कारण बन जाये . ऐसी वेग वान बाढ़ ! जिसकी चपेट में आकर बड़े - बड़े स्थिर पत्थर भी लुढ़क कर बह जायें . पायल के लिये ये बड़ी असमंजस की घड़ी थी . उसके लिये गुलशन की यह ह्रदय विदारक स्थिति असहनीय हो गयी . उसे लगा कि वह गुलशन की आँखों से उमड़ रहे आंसुओं की बाढ़ में डूबी - बही जा रही है . उसकी आँखों से भी आंसुओं की तेज़ धारायें फूट पड़ीं . उससे रहा न गया और दिल के हाथों मजबूर होकर वह गुलशन से लिपट गयी . गुलशन के प्रति उसके मन में करुणा इस तरह फूट पड़ी , जैसे पुत्र - वत्सला जननी के स्तनों से ममता की निर्झरनी दुग्ध - धारा . जब कुछ न सूझा तो उसके सिर को अपनी छाती से टिकाकर वह अपने हाथों से जहाँ - तहां गुलशन को सहलाकर उसे मौन सांत्वना देने लगी . कुछ देर बाद ! भावुक भयी पायल ने कहा -- " गुलशन ! लगता है तुम जैसा विशाल मना भी भावना में बहकर मेरे आचरण का तटस्थ व उचित मूल्यांकन नहीं कर सका . सुनो ! प्रत्येक व्यक्ति की सोच - - - उसकी प्राथमिकतायें और जीने के तरीके प्रथक - प्रथक होते हैं . कोई ज़रूरी तो नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारे ही दृष्टिकोण से तुम्हारी सुविधानुसार सोचे व करे . स्वनिर्मित पूर्वाग्रहों के कारण शायद तुम यह सोच भी नहीं सकते कि मेरे मन में तुम्हारे प्रति कितना श्रृद्धा - भाव है . मैं तुम्हारी भलमनसाहत की बड़ी कद्र करती हूँ . किन्तु इज्जत करना एक बात है और प्यार व शादी करना बिल्कुल उलट दूसरी . इज्जत किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति की - की जा सकती है मगर गंभीर प्यार करने व उसे सफल विवाह तक पहुंचाने के वास्ते खुले व विस्तृत दिमाग से काम लेना पड़ता है . जबकि तुम प्यार और शादी के सन्दर्भ में दिमाग से नहीं बल्कि एकतरफा दिल से काम ले रहे हो . सच पूछो तो मैं स्वयं से अधिक तुम्हें पसन्द करती हूँ . इसीलिये तुम्हारा दुःख मुझसे देखा नहीं जाता . तुम्हारी दशा देखकर एक अपराध - बोध सा मुझ पर गहरा प्रभाव डाल रहा है . लगता है - -- - तुम्हारे इस बिगड़े हाल के लिये मैं और सिर्फ मैं ही जिम्मेदार हूँ . यदि कहीं यह प्रभाव स्थायी रूप धारण कर गया तो शायद मैं खुद को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगी . लेकिन हकीकत ये भी है कि मैं चंचल से अत्यधिक प्यार करती हूँ . उसके बगैर अपने भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकती . यह जानने सुनने के बावजूद भी अगर तुम सोचते हो कि मुझसे विवाह करने के अतिरिक्त तुम्हारे पास सुख से रहने का कोई और विकल्प नहीं है तो मैं अपने ह्रदय में तुम्हारे प्रति असीम श्रृद्धा कि खातिर तुम्हारे प्यार पर अपना प्यार कुर्बान कर दूँगी . चंचल को बेमन से त्याग कर तुमसे शादी कर लूंगी . क्योंकि युगों - युगों से स्त्री जाति से त्याग की ही अपेक्षा तो की जाती रही है और अबला स्त्री चाहे - अनचाहे मन - बेमन से प्रायः ऐसा करती भी आयी है . जाओ गुलशन - - - तुम भी क्या याद करोगे कि कोई लड़की तुम्हारी ज़िन्दगी में आयी थी . मगर हाँ - - - एक बात अभी से साफ़ करे देती हूँ - - - कि सच्चे मन से तुम्हें प्यार दे पाऊंगी या नहीं - - - ये तो अभी मैं भी नहीं कह सकती . ये तो आने वाला वक्त ही बतायेगा . चलो - - - तुमसे सहानुभूति और श्रृद्धा वश ही सही - - - किन्तु आज मैं स्वयं को तुम्हारे संरक्षण में , तुम्हारे फैसले पर समर्पित कर रही हूँ - - - आगे तुम्हारी मरजी . मैं जानती हूँ - - - अगर मैनें ऐसा न किया तो औरत जात पर बेवफाई का एक और बेमानी ठप्पा लग जायेगा . " पायल का प्रस्ताव सुनकर गुलशन को अपने कानों पर पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ . उसे यकीन नहीं हो रहा था कि पायल पके आम सी यूँ अचानक उसकी झोली में टपक पड़ेगी . मगर ज्यों ही एक साथ उसके जिस्म , रूह और एहसास ने भी सुनने की गवाही दी और जब देर तक बिना रुके पायल के समर्पण के शब्द उसके दिमाग में शहनाई की तरह गूंजते रहे तो उसे अपने कानों पर भरोसा करना ही पड़ा . इसी के साथ उसकी नम आँखों के सामने तिरमिरे से नाचने लगे और वो कुछ बोलना भी चाहा , मगर आवाज़ में कम्पन आ गया और ऐसे नाज़ुक मौकों पर जैसा कि अक्सर होता है - - - शब्द जवाब दे गये . और ऐसे समय पीने वालों को सिगरेट बहुत सहारा देती है . उसने एक सिगरेट मुंह से लगा कर सुलगा ली . इसी के साथ उसका दिमाग कम्प्यूटर की सी तेजी से चलने लगा . बड़ी अजीब उलझन मुंह बाये खड़ी हो गयी थी गुलशन के सम्मुख . ऐसे हालात - - - जहाँ आवेदक भी वही था और निर्णायक भी वही . एक तरफ आवेदक की सी स्वच्छन्दता और दूसरी ओर निर्णायक की भारी भरकम ज़िम्मेदारी . वह दोनों में कोई तालमेल ही नहीं बैठा पा रहा था . आकांक्षा और उत्तरदायित्व के दो पाटों के बीच स्वयं को फंसा - पिसता अनुभव कर रहा था वह . कहाँ तो विगत कई वर्षों से वह पायल और उसके प्यार को पाने के लिये तड़प रहा था और कहाँ अब जब वह उसे नसीब भी हो रही थी तो बिना प्यार की गारन्टी के - - - उस पर रहम खाकर - - - भीख की तरह . इस हेतु उसने उसी के कन्धों पर फैसले की ज़िम्मेदारी भी डाल दी थी - - - समर्पण सहित उसका संरक्षण स्वीकार करके . वह सोच रहा था कि यदि वह चंचल के प्यार में डूबी - नहायी पायल की क्षणिक व तात्कालिक अनुकूल भावनाओं का लाभ उठाकर उससे शादी कर भी ले तो क्या इस अनमने बन्धन से उसका वैवाहिक जीवन सुखमय और सफल हो पायेगा . उसका चंचल मन बारम्बार कह रहा था कि वह पायल के द्रवित ह्रदय में अंकुरित सहानुभूति के ज्वार का लाभ उठाकर उससे शादी की हामी भर दे किन्तु उसकी सत्यवादी आत्मा इन विशेष परिस्थितियों में उसे ऐसा करने से रोक रही थी . और जैसा कि संस्कारवान लोगों में प्रायः होता है - - - मन और आत्मा के द्वंद्व में आत्मा की आवाज़ विजयी रही . इस रीति विशेष से जीतने की अपेक्षा हारने को उसके विवेक ने अधिक श्रेयस्कर समझा . और उधर ! सुलग कर क्षीण होती सिगरेट के साथ - साथ गुलशन के निर्णय हेतु बेचैनी से प्रतीक्षारत पायल का धैर्य भी समाप्त होता जा रहा था . गुलशन की आकाश से भी लम्बी लगती खामोशी के मध्य उसके उत्सुक कानों से जब और अधिक बर्दाश्त न हुआ तो उसके धड़ - धड़ धड़कते दिल ने डरे - दबे पाँव जबान पर आकर गुलशन से जिज्ञासा प्रकट की -- " क्या फैसला रचा तुमने ? किस विधि लिखी मेरी तकदीर ? " " हँ हं ! " गुलशन ने संतोष से लबालब मंद मुस्कान बिखेर कर कहा -- " हम कौन होते हैं किसी की तकदीर लिखने वाले ! ईश्वर का लिखा भला कोई पलट सका है !!हम तो अधिक से अधिक उसे बांचने का अधकचरा प्रयास भर कर सकते हैं . " " फिर भी - - - क्या बाँचा ? मैं भी तो कुछ सुनूँ . " उसके शरीर का एक - एक रोम - कूप कान बनकर सुनने को चौकन्ना हो गया . गुलशन परिपक्वों की तरह बोला -- " पायल ! जिस घड़ी तुमने परम विश्वास से मुझे अपना संरक्षक कहकर निर्णय का अधिकार भी मुझे ही सौंप दिया , उसी पल मुझ पर यह जिम्मेदारी स्वतः नियत हो गयी थी कि मैं खुद से ऊपर उठकर तुम्हारे हितों को सर्वोपरि रखूँ ." " गुलशन ! यूँ पहेलियाँ न बुझाओ . ज़रा जल्दी स्पष्ट कहो - - - मुझे करना क्या होगा ? " " करना क्या है - - - तुम्हारी व चंचल की शादी के जो कार्ड छपे हैं - - - उन्हें जल्द से जल्द बांटना भर होगा . " उसने बुजुर्गों की तरह पायल के सिर पर हाथ सहलाकर पूछा -- " समझी कि नहीं ? '' पायल आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से आँखें नम करके रुंधे कंठ से बोली -- " समझी ! खूब समझी . " " पगली ! क्या समझी ? " " यही - - - कि अब तक मैं ये समझती थी कि केवल ऐफिल टॉवर ही बहुत ऊँचा है - - - किन्तु आज तुम्हें और भी ठीक से समझने के बाद समझी कि अब तक मैं गलत समझती थी . " इतना कहकर उसने अपने पांवों के पंजों पर खूब तनकर बड़ी मुश्किल से गुलशन के चौड़े बुलंद मस्तक को श्रृद्धा वश चूम लिया . न जाने आज क्यों उसे गुलशन का कद कुछ बढ़ा - बढ़ा सा लग रहा था . " चहचहाकर पायल पुनः बोली -- " अच्छा - - - अब मैं चलती हूँ . मुझे अपनी एक सहेली को कार्ड देने जाना है . अभी तो जल्दी है . अगली बार जब मिलूंगी - - - तो बड़े अधिकार पूर्वक तुम्हारे वास्ते भी दो गाँठ हल्दी का प्रबन्ध करने का प्रयास करूंगी . तुम पर दबाव बनाकर . तुम्हें राजी करके . तुम्हारी तन्हाई की दवा की खातिर . किसी सुशीला के साथ तुम्हें गृहस्थी में जकड़ने के लिये . जिससे तुम्हें मेरी छाया से भी मुक्त होने में आसानी रहे . " इसी के साथ - - - गुज़रे ग्रहण के पश्चात भय मुक्त होकर नीड़ से बाहर उजाले में निकले पँछी की भांति वह फुर्र से कमरे के बाहर उड़ - सी गयी . और - - - और उसकी प्रसन्नता को आँखों से नापकर , स्वयं को अपनी उम्र से बड़ा अनुभव करते गुलशन ने यह सोचकर मुस्कान भरी संतोष की एक गहरी सांस ली - - - कि जोड़े निश्चित ही ऊपर से तय होकर नीचे आते हैं . व्यक्ति तो बस अपने तय जोड़ीदार की तलाश में तब तक भटकता है , जब तक वह मिल नहीं जाता . [19] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( अशुभ - 1 3 ) यूँ तो दूंढ - ढूंढ कर लड़कियाँ ताकना सदैव उनका प्रिय शगल था किन्तु इन दिनों ये उनका कुत्सित मनोरंजन नहीं बल्कि भय जन्य विवशता थी . हाँ - - - दो दिनों से पायल की तलाश में लल्लू - कल्लू शहर के गली - कूचों की ख़ाक छान रहे थे - - - मगर पायल तो क्या - - - उसका साया भी उनकी दूरबीन सी आँखों को नसीब नहीं हुआ था . उन्हें इसका डर था कि यदि आज भी वो लोग पायल को न पा सके तो जालिम सेठ उनके साथ न जाने कैसा सलूक करे . दोनों ने कार को सड़क किनारे लगा रखा था और वो सिगरेट फूंक - फूंक कर हर राहगीर मादा चेहरे की तुलना जेब में रखी और आँखों में बसी तस्वीर से कर रहे थे . और तभी ! लल्लू अपनी ओर आती हुई एक लड़की को देख कर चौंक पड़ा . उसने जल्दी से जेब में रखी फोटो निकाली और लड़की के चेहरे से मिलायी . हाँ - - - आने वाली पायल ही थी . ख़ुशी के मारे स्प्रिंग सा उछल कर लल्लू कल्लू से बोला -- " देख तो प्यारे ! छोकरी मिल गयी . कल्लू ने उसकी बात को मज़ाक समझकर दूसरी तरफ ही देखते हुए जवाब दिया -- " हुँह - - - इतना आसान नहीं है , नौकरी और छोकरी का मिल जाना . " " नहीं यार ! तेरी बहन की कसम . सच कहता हूँ . वो - - - उधर देख तो सही . " " अबे - - - साले ! काट के धर दूँगा . तू होश में तो है ! कहाँ ? " अब वो भी गंभीर हो गया . " वो देख - - - वो . वो इधर ही चली आ रही है , बसन्ती साड़ी पहने . " " हाँ यार ! है तो वही . बिल्कुल वही . लगता है - - - गदराया बसन्ती सरसों का समूचा खेत ही खुद चलकर चला आ रहा है , सांड़ सेठ के चरने के खातिर . " " क्या बात है , क्या हुस्न है ! " लल्लू होठों पर कामुक जबान फेरकर बुदबुदाया . " हाँ प्यारे ! माल फुल्ली फ्रेस है और अधपका हुआ है . ना तो कच्चा है और ना ही ज्यादा पका हुआ है . " " वाह - - - क्या कहने , कुछ ना पूछो . लगता है - - - अभी - अभी कसी चोली फट जायेगी और उसमें कसमसाते जवान पंक्षी फुर्र से हवा में उड़ जायेंगे . बिल्कुल असल मामला है , असल . आजकल की तरह नहीं कि ऊपर मचाये बम्पर शोर , अन्दर निकले बिल्कुल बोर . " " यार ! गारन्टी से कह सकता हूँ - - - अभी बीस बसन्त ही देखी है . " " हाँ - हाँ ! तुझे क्यों न मालूम होगी उसकी उम्र !! जैसे हर साल उससे राखी ही तो बंधवाता रहा है तू . " लल्लू ने हंसकर कल्लू की चुटकी ली . " साले ! बहन बनाता है . " कल्लू झेंप गया और खिसियानी हंसी हंसने के बाद अचानक गंभीर होकर बोला -- " यार ! सच पूछो तो मुझे तो दया आ रही है इस कमसिन हसीना पर . मन नहीं करता , इसे उस भैंसे के लिये उड़ाने का . साला अच्छे - भले भूगोल को रौंद कर इतिहास बना देगा . " लल्लू ने समझाया -- " अबे - - - मन में पनपे दया के बीज को फ़ौरन मसल दे , वरना मारा जाएगा . बेटे ! बदमाश और दया का पुराना बैर है . शरीफ बनने की कोशिश की तो मंहगी पड़ेगी . साले सेठ की नज़र टेढ़ी हुई तो हमें उसकी मूंछ के बाल से नाक का बाल बनते देर न लगेगी और फिर वो अपुन को मंदिर के घंटे की तरह पीट - बजा कर हड्डियों तक का सुरमा बना देगा . याद रख - - - दुनिया शरीफ को बदमाश बनने के तो हज़ार मौके देती है मगर बदमाश को शरीफ बनने का एक भी नहीं . और फिर - - - सेठ का हुक्म नहीं बजायेगा , तो खायेगा क्या ? " " - - - - - - . " कल्लू चुप रहा . लल्लू पुनः बोला -- " जा ! जाकर शिकार पर जाल डाल . " इन दोनों के नापाक इरादों से बेखबर , पायल हाथों में शादी का कार्ड लिये एक सहेली को देने जा रही थी . जब वह इनकी कार के नज़दीक पहुंची , तो कल्लू उससे बड़े अदब से बोला -- " बहन जी ! जरा सुनिए तो . " " कहिये ! " पायल अपनी बदकिस्मती के एकदम समीप आ गयी . और तभी - - - -पीछे से कल्लू ने उसकी नाक पर क्लोरोफार्म से भीगा रूमाल रखकर उसे कार में ढकेल दिया . कल्लू लपक कर कार चलाने लगा . उसे चन्दन की लकड़ी चील के घोसले तक पहुंचाने की जल्दी जो थी . [20] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 1 4 ) होश में आने पर पायल ने स्वयं को एक कमरे में पाया . वो पलंग पर पड़ी थी . उसका सिर पीड़ा से फटा जा रहा था , जैसा कि क्लोरोफार्म का नशा टूटने पर प्रायः होता है . उसने गर्दन घुमा कर खोजी नज़रों से चारों तरफ देखा . कमरे की सभी खिड़कियाँ बन्द थीं . दरवाज़ा भी . वह सोचने लगी कि यहाँ तक वो कैसे आयी . तभी कोई आवाज़ सुनकर उसका ध्यान दरवाज़े की तरफ गया . आवाज़ दरवाज़ा खुलने की ही थी . दरवाज़ा खुलते ही पायल चौंक पड़ी - - - क्योंकि अन्दर आने वाला व्यक्ति सेठ करोड़ी मल था . उसे देखते ही पायल का सम्पूर्ण शरीर डरे हुए कबूतर की भाँति काँप उठा . दरवाज़ा बन्द करके सेठ ने भीतर से चिटकनी चढ़ा दी और फिर वो पायल की ओर मुड़ा . उसने पायल की ओर पहला कदम बढ़ाया , तो उसकी आँखों से शराब झाँक रही थी . उसने पायल की ओर दूसरा कदम बढ़ाया , तो उसकी आँखों से एक अजीब सी भूख झाँक रही थी . दुनिया की सबसे पुरानी भूख , जो कभी नहीं मरती . उसने पायल की ओर तीसरा कदम बढ़ाया , तो उसकी आँखों में डरावनी कहानियों के क्रूर खलनायक झाँक रहे थे . उसने पायल की ओर चौथा कदम बढ़ाया , तो उसकी मरोड़ी मूछों की बड़ी - बड़ी नोकें शराफत के सीने में चुभने को विकल नज़र आ रहीं थीं . उसने पायल की ओर पांचवां कदम बढ़ाया . वह पायल की ओर बढ़ता ही रहा . उसे अपनी ओर बढ़ता देखकर पायल के शरीर में भय की तरंग दौड़ गयी . वह घबड़ाकर पलंग के नीचे कूद गयी . सेठ ने सड़े हुए अंगूरों के रस में डूबा एक भयानक कहकहा लगाया , जिसकी वजह से उसका पूरा शरीर कम्पन करने लगा . अचानक वह शांत होकर बोला -- " आखिर मिल ही गयी ! मिलती क्यों न !! हमने तुम्हारी खोज में कुओं तक में बांस जो डलवा दिए थे . कहाँ - कहाँ नहीं ढूँढा तुम्हें . " इस वक्त सेठ पायल को मौत का परमिट काटने वाला जिन्न मालूम दे रहा था . उसने डरते - डरते पूछा -- " मुझे क्यों कैद किया है ? आखिर तुम्हें मुझसे क्या चाहिये ? " " आय - - - हाय - - - हाय ! " सेठ बेशर्मी से बोला -- " मेरी जान !! अब तुम इतनी बच्ची भी नहीं रही कि तुम्हें दूध का रंग बताया जाय . सृष्टि की शुरुवात से लेकर आज तक एकान्त में एक मर्द जवान औरत से क्या चाहता रहा है ? तुम अच्छी तरह जानती हो कि मुझे तुमसे क्या चाहिये . इजाज़त हो तो बत्ती बुझा दूं ! तुम्हें भी सुविधा रहेगी और देश में बिजली की भी कुछ बचत हो जायेगी . कहो गुलबदन ! क्या इरादा है ? " " नहीं s s s . " वह कानों पर हाथ लगाकर क्रोध में चीखी . सेठ के शब्द उसे ऐसे लगे जैसे किसी ने खौलता हुआ शीशा उसके कानों में उड़ेल दिया हो . सेठ कुत्सित मुस्कान के साथ बोला -- " वा s s वाह ! जाने जाँ !! गुस्से में तो और भी क़यामत ढा रहा है तुम्हारा रूप . और किस - किस को क़त्ल करने का इरादा है ? नज़दीक आ जाओ मेरे . भूस में अँगार गिराकर दूर क्यों खड़ी हो ? " उसके भीतर वासना गरजने लगी - तरजने लगी . उसने आगे बढ़कर ठीक उसी तरह झटक कर पायल को अपनी बाहों में ले लिया , जिस तरह से कोई बाज़ किसी मासूम चिड़िया को झपट लेता है . " कमीने . " वह कसमसाई और एक झापड़ कामांध सेठ के गाल पर मार कर उसे झटका दिया . सेठ की पकड़ ढीली हो गयी . वह उसकी गिरफ्त से निकलकर दूर हो गयी , जैसे दाढ़ों के बीच भिंचा हुआ ग्रास फिसल जाये . चोट खाकर सेठ गुर्राया . उस कुत्ते की तरह , जिसे हड्डी के टुकड़े को सामने देखकर घिनौने ढंग से गुर्राने की आदत होती है . वह बोला -- " ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो . मैंने ज़िन्दगी भर आदमी ही चराये हैं , जानवर नहीं . " इसी के साथ - - - उसने लपककर पायल की साड़ी का एक छोर पकड़ लिया . वह अपनी कलाई लगातार घुमाकर साड़ी को अपने हाथ पर लपेटने लगा . उसकी लार से सनी जबान उसके होठों पर तेजी से फिर रही थी . " कमीने - - - मैं तेरा खून पी जाऊंगी . " पायल ने चीखकर कहा . साथ ही वह घूमने लगी , ताकि सेठ की पकड़ में न आ सके . इसी प्रयास में उसकी साड़ी , जो कि द्रोपदी कि चीर नहीं थी , पूरी तरह खुलकर गुलाबी - गोरे बदन से अलग हो गयी . वह ओट तलाशने दीवार की तरफ भागी . उसे ऐसा लग रहा था , जैसे वह किसी हिंसक पशु की मांद में दाखिल हो गई है . अपनी दशा देखकर वह गिड़गिड़ाने लगी -- " मुझ पर दया करो . देखो ! मुझे अपवित्र मत करो . " सेठ ने तेज़ कहकहा छोड़कर कहा -- " अच्छा - - - तो तुम अभी तक पवित्र हो ? क्या कहने मेरी सरकार के . घर से भागकर - - - न जाने किस - किस घाट का पानी पीकर आयी होगी और चली हो पवित्र बनने . बिना डकारे सौ - सौ चूहे खाकर बिल्लो रानी हज को जा रही हैं . हा - - हा - - हा . " सेठ की आँखें नशे में लाल हो रहीं थीं . वह बोलता रहा -- " हरामजादी ! पिछली बार तू स्टूल से मेरा सिर फोड़कर भागी थी . आज मैं तेरी किस्मत ही फोड़ दूंगा . साली ! तुझे तबले की थाप और सारंगी की झंकार के बीच न पहुंचा दिया , तो मेरा नाम सेठ करोड़ीमल नहीं . तुझे तो आज की रात मैं वो बनाकर छोडूंगा , जो रुपयों से गर्म बिस्तर पर पराये मर्दों से लापता बाप वाले पुत्तर पाती हैं . " " मैं तेरी इच्छा कभी न पूरी होने दूँगी . मैंने अपनी इज्जत तुम जैसे कमीनों के लिए सहेज कर नहीं रखी है . " " ससुरी - - - इज्जत वाली बनती है . आवारा शराबी भडुवे अंकल के साए में वर्षों रही लौंडिया बदचलन न होगी क्या ? " " तू समझता है कि बांस के वंश में सब बांस ही रहते हैं . ये क्यों भूलता है कि जिस बांस कि लाठी बनती है , उसी बाँस की पवित्र बाँसुरी भी बनती है . " " और आज वही बाँसुरी मैं बजाऊंगा . जी भरकर बजाऊंगा . सारे सुर निकालूँगा . कोई राग नहीं छोडूंगा . रात भर बजाऊंगा . हा - - हा - - हा . " सेठ अपने भद्दे दांतों का प्रदर्शन करते हुए हंसा . इसके तुरन्त बाद उसने पायल पर चीते सी छलांग लगाकर उसे अपनी बाहों के घेरे में ले लिया . पायल उसकी बाहों में फंसी हिरनी की भाँति तड़पने लगी . सेठ के हांथों की हरकत से ' चर्र s s s ' की एक आवाज़ हुई और उसका ब्लाउज फट गया . उसकी सुडौल गोरी देह का कुछ हिस्सा बेपर्दा होकर सेठ को ललचाने लगा . वह कसमसाई -- " मुझे छोड़ दे कमीने . " सेठ बोला -- " कैसे छोड़ दूं ! अभी तो तुम्हारे फूल जैसे शरीर को मसला भी नहीं है . " " मैं - - - मैं कहती हूँ , जाने दे मुझे . " " कहाँ जाओगी जान ! सेठ करोड़ी मल को जो माल पसन्द आ जाता है , वो एक रात उसका बिस्तर जरूर गर्म करता है . " पायल सिसकने लगी . वह हिम्मत हारने लगी थी . मगर सेठ ढिठाई से तर कहकहे छोड़ता रहा और कहता रहा -- " वाह - - - क्या बात है ! बिल्कुल पटाखा लग रही हो - - - पटाखा . आज की रात तुम्हारे रूप और जवानी की आतिशबाजी हमारे दिल में जगमगायेगी . " पायल कमरे में रखी मेज़ से टकरा गयी . अपना सन्तुलन कायम न रख पाने के कारण वह पीठ के बल फर्श पर गिर पड़ी . सेठ भी उसी के ऊपर लड़खड़ाकर ढेर हो गया . सेठ का बोझ बर्दाश्त न कर पाने के कारण वह चीखने लगी . " मुझे छोड़ दे कमीने - - - वर्ना मैं चीख - चीख कर भीड़ इकट्ठी कर लूंगी ." " हा - - हा - - हा . " सेठ हँसा -- " चीखो ! जी भर कर चीखो . मेरी जान , ऐसे ही ख़ास कामों के लिए बना ये ख़ास कमरा - - - एक पूँजीपति , सेठ करोड़ीमल का है . इसीलिये इसका दरवाजा भी काफी समझदार है . से सिक्कों की खनक तो बाहर जाने देता है मगर अबला की सिसक को भीतर ही कैद कर लेता है . जानेमन ! कमरा साउण्ड - प्रूफ है . तुम्हारी चीखें दीवारों से टकराकर दम तोड़ देंगी . " " उफ़ - - - कुत्ते . " " चलो मैं कुत्ता ही सही मेरी जान , मगर तुम भी तो लावारिस दोना ही हो . लावारिस दोने में तो कोई भी कुत्ता मुंह मार सकता है . " सेठ पायल के शरीर के चारों तरफ पड़े हुए अपनी बाहों के घेरे को तंग करने लगा . उसकी बाहों में कैद पायल फड़फड़ाती रही - - - जैसे कसाई के हाथ में जकड़ी हुई मुर्गी , जैसे शेर के पंजे में कसमसाती हुई हिरनी , जैसे बगुले की चोंच में तड़पती हुई मछली . तभी उसके मस्तिष्क - पटल पर कोई विचार बिजली की तरह कौंध गया . उसने भरपूर ताकत से सेठ की कलाई में अपने दांत गड़ा दिये . सेठ की कलाई लहूलुहान हो गयी . पायल ने भी अपने मुंह में खून का स्वाद अनुभव किया . दर्द के कारण सेठ बिलबिला रहा था . उसकी पकड़ ढीली पड़ गयी . पायल ने मौके का पूरा फायदा उठाया . वह पाप की बाहों से छिटक कर दूर जा खड़ी हुई . तभी निराशा के काले बादलों के बीच आशा रुपी बिजली चमकी . उसकी आँखों में अलमारी पर धरी फलों की टोकरी में रखा चाक़ू लपलपा उठा . उसने लपक कर चाकू उठा लिया . " अब अगर एक भी कदम आगे बढ़ाया , तो मैं ये चाकू तेरे दिल में घुसेड़ दूँगी . " वह साहस बटोर कर बोली . सेठ अब तक स्वयं को संतुलित कर चुका था . पायल के हाथ में फनफनाता चाकू देखकर पहले तो वह कुछ अचकचाया , मगर फिर हिम्मत जुटा , कृतिम मुस्कान बिखेरते हुए बोला -- " ज़ालिम ! जिस दिल में तुम उतर चुकी हो - - - चाहो तो उसमे चाक़ू भी उतार दो . मगर ज़रा अपना ख्याल करके वार करना - - - क्योंकि मेरे दिल में तुम भी छुपी बैठी हो . चोट खा जाओगी . " इतना कहकर वह पायल की ओर बड़ी सावधानी पूर्वक बढ़ने लगा . सेठ को अपनी तरफ बढ़ता देखकर पायल ने अत्यधिक फुर्ती दिखाते हुए उसके रीति कालीन दिल पर वीर कालीन वार करना चाहा . मगर पुराना खिलंदड़ सेठ उससे भी ज्यादा फुर्तीला साबित हुआ . वह बिजली की सी तेजी से अपनी जगह छोड़कर बगल को हट गया और साथ ही साथ उसने एक हाथ में पायल की चाकू वाली कलाई थामकर मरोड़ दी और चाकू छीनकर अपनी जेब के हवाले करके दूसरा हाथ उसकी कमर में डालकर उसे अपनी तरफ घसीट लिया . वह दांत किटकिटाकर बोला --" साली ! हम शिकारपुर में नहीं बसते , जो तेरा शिकार हो जायें . समझ ले ! अब अगर नखरे दिखाये , तो ऐसे करारे तीन हाथ मारूंगा कि छः का पहाड़ा पढ़ती नज़र आयेगी . सुन ! विश्वामित्र ने भी अकाल में कुत्ते का मांस स्वीकार किया था . तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम मेरे सामने आत्म समर्पण कर दो , वर्ना मारकर जंगल में फिंकवा दूंगा , जहां मुझसे भी खतरनाक जानवरों की भूख मिटाओगी . " पायल ने धमकी दी -- " तुम्हारे चंगुल से निकलते ही मैं तुम्हारे खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दूँगी . तुम पकडे जाओगे . " धमकी बेअसर साबित हुई . सेठ लापरवाही भरे अंदाज़ में बोला -- " नहीं - - - नहीं . तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती - - - क्योंकि मेरी जेब चुस्त और ताल्लुकात दुरुस्त हैं . वैसे भी कई लम्बी नाक वालों की नाक मेरे पास गिरवी रखी है . मेरे गिरफ्तार होते ही उनके बीच नाक - संकट उत्पन्न हो जायेगा और वो मुझे इस संकट से उबार लेंगे . और फिर - - - तुम्हें अपनी बदनामी का ख्याल भी तो - - - . " सेठ अपनी ही शान में कसीदे पढ़ता जा रहा था , मगर पायल अनुभव कर रही थी कि सेठ की पकड़ कुछ ढीली पड़ती जा रही थी . पायल ने बचाव का आखिरी उपाय करने का फैसला किया . उसने सेठ की दोनों जाँघों के बीच की नाज़ुक मगर ख़ुराफ़ात की जड़ पर भरपूर ताकत से एक लात जड़ दी . यह सोचकर कि न रहेगा बाँस , न बजेगी बाँसुरी . सेठ दर्द से बिलबिला उठा . वह पायल को छोड़ , चोट खाए अंग को पकड़कर बैठ गया . मौका अच्छा देखकर पायल दरवाजे की तरफ भागी . दरवाजे के पास पहुंचकर उसने चिटकनी गिराकर दरवाजा खोलना चाहा . मगर निष्ठुर दरवाजा न खुला . वह समझ गयी कि उसकी किस्मत के सारे दरवाजे अब बन्द हो चुके हैं . आखिरी उम्मीद भी दम तोड़ बैठी . वह मुड़कर सेठ की तरफ कातर दृष्टि से देखने लगी . बिल्कुल वैसे ही , जैसे कोई पस्त शिकार चारों तरफ से घिरकर बेबसी से क्रूर शिकारी को निहारता है . उसे पूरी तरह बेबस देखकर सेठ विजयी कहकहा लगाने लगा -- " बिल्ली आखिरी एक दांव अपने लिए भी बचाकर रखती है मेरी जान . मेरे आदमियों ने दरवाज़ा बाहर से बन्द कर रखा है . वैसे भी हम अपने मंदिर में आने वाले किसी भी व्यक्ति को बिना चरणामृत लिये नहीं जाने देते . अब बोलो ! क्या इरादा है ? " उसका स्वर जीते हुए खिलाड़ी की तरह दृढ़ था . पायल को महसूस हुआ , जैसे उसके दिमाग में सैकड़ों पंखे चल रहे हैं . उसका शरीर सूखे पत्ते की भाँति काँप गया , सर चकराने लगा , पिंडलियाँ थर्रा उठीं और दिल मुहर्रम के ढोल की तरह बजने लगा . वह जहाँ खड़ी थी , वहीँ ढह गयी . सेठ ने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों में उठाकर पलंग पर पटक दिया . उसके सुन्न शरीर और पराजित मस्तिष्क में प्रतिरोध की शक्ति समाप्त हो चुकी थी . और फिर ! इसके बाद पक्षाघात से पीड़ित सरीखी पायल ने महसूस किया , जैसे उसके ऊपर कोई भूखा चमगादड़ पँख बिखराकर लिपटा हुआ है , जो थोड़ी ही देर में अपनी नुकीली जीभ से उसका खून चूसकर अपनी भूख मिटा लेगा . पायल की आँखों से बेबस सितारे टूट - टूट कर तकिया भिगोने लगे . वह गरीब - लाचार की आशाओं की तरह सिसकियाँ लेती रही , कराहती रही - - - शायद कुछ बोली भी , मगर आवाज़ जगह - जगह से दरक गई और उसके निर्बल बोल सेठ के ऊपर से इस तरह लुढ़कते रहे , जैसे किसी चिकने पत्थर से पानी फिसल रहा हो -- बेअसर . सचमुच वो पत्थर - दिल था . पिघल जाना जिसकी शान के खिलाफ था . विवश पायल को अचानक ऐसा लगा , जैसे किसी विशाल अज़गर ने उसे डस लिया हो . दर्द से दरक कर उसकी तेज़ चीख निकल पड़ी . बावज़ूद इसके , वह अज़गर सदृश सेठ की गिरफ्त में फँसी अपने जिस्म की हड्डियाँ तुड़वाती रही . उसकी दयनीय दशा से बोझल पलंग लगातार कराहता रहा . एक , दो , तीन , चार , पांच , छः - - - - - - और बारह . दीवार घड़ी के घन्टे ने अपनी समस्त संचित ऊर्जा का उपयोग कर बारहवीं चोट मार कर , जब रात के बारह बजने का ऐलान किया , तो सेठ ने महसूस किया कि अचानक वह काफी हल्का हो गया है . कुछ ही देर में सब कुछ शान्त हो गया था , जैसे किसी तेज़ आंधी ने लम्बी यात्रा के बाद चुप्पी साध ली हो . अब पायल के पास पड़ा सेठ आँधी से गिरे पेड़ की भाँति निश्चेष्ट पड़ा था और पायल का भीतर - बाहर उस झाड़ी की तरह हिल रहा था , जो तूफ़ान के थपेड़े झेल रही हो . वो महसूस कर रही थी कि वो एक ऐसा मैदान है , जिस पर की सारी पगडंडियाँ तक मिट गयी हों . एक ऐसी डाल है , जिस पर के सारे फूल झर गये हों , सारे घोसले उजड़ गये हों और जिस पर मनहूस उल्लुओं ने बसेरा कर लिया हो . वह सेठ के लिये अब एक ऐसी किताब थी , जिसका पन्ना - पन्ना सेठ कई बार पढ़ चुका था . काफी कुछ सोचते रहने के बाद , सब कुछ खो चुकी पायल अपना होश भी खो बैठी . [21] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 1 5 ) होश में आने पर पायल को अपना पोर - पोर चूसा हुआ और टूटता अनुभव हुआ . उसने अपने अस्त - व्यस्त कपड़े ढीक किये और फिर घुटनों के बीच सिर डालकर मेले में खो गये किसी बेबस बच्चे की भाँति बैठी सुबकने लगी .उसकी निस्तेज आँखों से आँसुओं की धार फूट पड़ी और होठ कांपने लगे . वह अनुभव कर रही थी कि आबाद जंगल वीरान हो चुके हैं . पंक्षी डालों पर से उड़ चुके है . झरने सूख गये हैं . बौर लगे पेड़ों को कीड़ा चाट चुका है . अब कुछ नहीं हो सकता -- कुछ भी नहीं . पायल की ज़िन्दगी की काली रात का उदय हो चुका था . जबकि बाहर सूरज काफी पहले डूब चुका था और सेठ की अपवित्र कोठी के नज़दीक अँधेरे में खिले हुए फूलों की उदास सुगंधों के बीच पवित्र कैथोलिक चर्च का अन्धकार में डूबा ऊँचा मीनार जंग लगे आकाश को छूकर मानों कुछ शिकायत दर्ज करा रहा था . पायल के बगल में करवट बदलकर निढाल पड़ा सेठ थकान से बोझल डरावने खर्राटे ले रहा था . वो उसे इस तरह डरी हुई नज़रों से देख रही थी , जैसे उसके बगल में कोई भूत लेटा हो . भूत - - - जो उसके भविष्य पर हमेशा सवार रहेगा . बहुत देर तक विचारों में गुम रहने के बाद , अचानक वो जोर - जोर से सेठ के बदन को पीटने लगी . पायल के नाज़ुक हाथों की चोट खाकर सेठ की नींद टूट गयी . वो उसके हाथों को झटककर हँसते हुए बोला -- " देखा ! मेरे हाथ कितने लम्बे हैं !! " " - - - - - - - " पायल चुप रही . वो कहता रहा -- " मैंने तुम्हारे कुछ फोटो वक्त - ज़रुरत के लिये चुपके से खिंचवा लिये हैं - - - और ये तो तुम समझ ही सकती हो कि आज की काली रात के फोटो कैसे रंगीन होंगे . अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि जब भी तुम्हें बुलवा भेजूं - - - बिना चूँ - चपड़ के चली आया करना , वरना इन्हें छपवाकर शहर की दीवारों पर सजवा दूंगा -- तुम्हारी इज्ज़त में चार चाँद लगवाने की ख़ातिर . " सुनकर सन्न हुई पायल पत्थर के बुत की तरह बैठी रही . सेठ बोला -- " अब तुम जा सकती हो . " वो पूर्ववत रही . सेठ चीखा -- " सुना नहीं ! अब फूटती हो - - - या सारे सबक आज ही सिखाऊँ ? " सुनकर सिहर उठी पायल उठकर दरवाजे के बाहर हो ली . चलते समय उसके मन को अपने कांपते पाँव मन - मन भर के महसूस हो रहे थे . [22] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 1 6 ) आज पहली बार !प्रोफ़ेसर साहब के पूरे घर में उदासी और बेचैनी पसरी पड़ी थी . क्योंकि पायल सुबह की गई , अभी तक वापस न आयी थी . सभी का उदास और बेचैन होना स्वाभाविक था - - - क्योकि पालतू जीव तक के खो जाने पर भी परिवार को दुःख होता है - - - जबकि पायल तो अब इस घर की सदस्य सी बन गयी थी और कुछ ही दिनों में बहू बनने वाली थी . प्रोफ़ेसर साहब बेचैनी और बेबसी से इधर - उधर घूम रहे थे . गेसू हर आहट पर बार - बार दरवाज़े की तरफ देखती थी कि कहीं पायल तो नहीं . और शहर की कौन सी ऐसी जगह बची थी जहाँ चंचल ने पायल की चप्पा - चप्पा तलाश न की हो . वह उन दूर - दराज़ की गलियों तक की ख़ाक छान आया था , जहाँ इससे पहले वह कभी नहीं गया था . पायल के गुम हो जाने का गम उसे दीमक की तरह चाटे जा रहा था . उसका दिल किसी अमंगल के बोझ तले बैठा जा रहा था . उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे , क्या न करे . एक वाक्य में - - - एक गंभीर उदासी और बेचैनी का बादल पूरे घर के मन - आँगन में मूसलाधार बरस रहा था . यहाँ तक कि प्रोफ़ेसर साहब की घरेलू नौकरानी रधिया भी एक कोने में बैठी आंसू बहा रही थी . पायल के लापता हो जाने का उसे भी बहुत अफ़सोस था - - - क्योंकि घरेलू नौकर - नौकरानी जब काफी पुराने हो जाते हैं , तो परिवार के सदस्य सरीखे बन जाते हैं . उस घर पर उनके कुछ अधिकार ठहरते हैं - - - और वो अधिकार ही ऐसा बंधन बन जाते हैं कि उसी परिवार में उनकी पूरी ज़िन्दगी बीत जाती है . वो परिवार के सुख में सुखी और दुःख में दुखी होते हैं . इसीलिए इस दुःख की बेला में रधिया का आंसू बहाना स्वाभाविक ही था . घर में लगे विद्दयुत बल्ब वोल्टेज कम हो जाने के कारण बहुत धीमी , मातमी व बीमार रौशनी दे रहे थे - - - और उससे भी ज्यादा बीमार प्रोफ़ेसर - परिवार अपने को अनुभव कर रहा था . गुलशन को भी गेसू ने खबर कर दी थी . वो भी आ गया था . उसे बताया गया था कि जब से पायल उसके व अपनी सहेली के घर अपनी शादी का निमंत्रण - पत्र देने निकली थी , नहीं लौटी थी . आखिर इतनी देर तो लगेगी नहीं , इस काम में . और फिर - - - बिना बताये आज तक वो कभी कहीं रुकी भी नहीं थी . दो बज गए थे रात के . धीरे - धीरे दो बजे का समय तीन में बदल गया , जो एक युग से लम्बा बीता और दीवार घड़ी ने तीन आवाजें कीं . घबराहट और बेचैनी के कारण गुलशन कमरे में इधर - उधर चक्कर काट रहा था और अपनी बायीं हथेली पर रह - रह कर दायाँ मुक्का दे मारता था . वह तय नहीं कर पा रहा था कि पायल किसी दुर्घटना का शिकार हो गयी या फिर - - - . और तभी ! हाँ - - - ठीक उसी समय लुटी - पिटी सी काया लिये पायल ने सिर झुकाये हुए कमरे में प्रवेश किया . उसके प्रवेश के साथ ही सबकी समस्त इन्द्रियां आँख बन गयीं . उसके बाल बिखरे हुए थे , वस्त्र अस्त - व्यस्त और चेहरा निस्तेज था . कपड़ों पर सिलवटों से लिखी इबारत साफ़ पढ़ी जा सकती थी . पायल की दशा देखकर सभी हक्के - बक्के रह गये और उनकी पथराई आँखों ने आंसुओं से उसकी अगवानी की . पायल उन लोगों से नज़रें मिलाने में झिझक रही थी . उसका मन चाह रहा था कि वह किसी दीवार के छेद में चींटी बनकर घुस जाये . किसी को चेहरा न दिखाये . बड़ी विषम परिस्थिति थी उसकी , जिसमे दोष किसी का होता है और मुंह कोई और चुराता है . पिटी हुई गोटियों सा मुंह लिये पायल को सामने देखकर सभी ने आधे चैन की सांस ली . प्रोफ़ेसर साहब लपककर उसके नज़दीक पहुंचे और उसको अपनी बाहों में लेकर उसकी पीठ सहलाकर पूछने लगे -- " क्या बात है बेटी ? कैसे देर हुई ? " " - - - - - - - . " वो चुप रही . " बोलती क्यों नहीं पायल ! क्या हुआ ? " एकाएक जैसे बाँध टूट गया . वह भरभरा कर रोते हुए बोली -- " सेठ ने मेरी इज्जत लूट ली . उसने मेरे फोटो भी खींचे . प्रोफ़ेसर साहब ! आदमी क्या हमेशा कुत्ता ही रहेगा और औरत बिस्तर ? " सभी पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा , ये बात सुनकर - -- - और कुछ देर के लिये प्रोफ़ेसर साहब को तो लगा जैसे उनके चेहरे परे ढेर सारी झुर्रियां उभर आयीं हों और वो अचानक बूढ़े हो गये हों . उन्होंनें पूछा -- " कौन सेठ ? " " करोड़ी ! सेठ करोड़ीमल . " वह रोती रही . गुलशन के जबड़े भिंच गये . उसका चेहरा उसकी परेशानी से उपजे किसी संकल्प की कहानी कह रहा था . किसी ने पायल से अधिक कुछ न पूछा . वैसे अब पूछने को बचा भी क्या था ! पायल प्रोफ़ेसर साहब की बाहों में पड़ी रोती रही और वो केवल उसका सिर सहलाकर मौन सांत्वना देते रहे . उन्होंने उसे रोने से रोकने की कोई कोशिश न की . यह सोचकर - - - कि आंसू यदि बह जाये तो पानी , रह जाये तो जहर . परिवार पर अचानक गिरी इस गाज से गेसू का दिमाग कुन्द हो गया - - - जबकि चंचल के मन - मस्तिष्क में विभिन्न विचारों के बवंडर उत्पात मचाने लगे . [23] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 17 ) उस दिन की घटना ने पायल पर बहुत बुरा असर छोड़ा था - - - मगर प्रोफ़ेसर साहब , गुलशन और गेसू की तसल्ली उसे कुछ सामान्य बनने में मदद कर रही थी - - - किन्तु चंचल के तार कुछ बेसुरे से लग रहे थे . तारों का ढीलापन उसे साफ़ महसूस हो रहा था . उसका व्यवहार उसे कुछ बदला - बदला सा लग रहा था . वह उससे कतराने लगा था . भरसक नज़रें चुराने लगा था . आजकल वह घर में ही पड़ी रहती थी . एक दिन अनुकूल एकांत मिलने पर उसने चंचल से पूछ ही लिया -- " क्या बात है चंचल ? देखती हूँ - - - आजकल मेरे प्रति तुम्हारा व्यवहार कुछ बदल सा गया है . उपेक्षा बढ़ती ही जा रही है . तुम वो न रहे , जो थे . " " नहीं ! ऐसी तो कोई बात नहीं ." वह टालने लगा . " चंचल ! पायल गंभीर होकर बोली -- " औरत अपने प्रति आने वाले प्यार और आकर्षण में भले ही एक बार को भूल कर जाये , लेकिन अपने प्रति होने वाली बेरुखी और उपेक्षा को पहचानने में कभी भी भूल नहीं कर सकती . बोलो ! बताओ - -- - आखिर बात क्या है ? " " क्या बताऊँ ! कुछ बात हो - - - तब न बोलूँ !! " " बात तो कुछ है जरूर ! तभी तो , शादी की तारीख सिर पर खड़ी है और तुम चुप मारकर बैठे हो . मुझे तो दाल में कुछ काला नज़र आ रहा है . क्या शादी का इरादा छोड़ दिया है ? ' " यूँ ही समझ लो . " वह पत्थर बन गया . चंचल ने जो कहा - - - वो पायल के लिये खौलते पानी से कुछ कम न था . छाले - फफोले से पड़ गये उसके दिल पर . चंचल के प्रति उसकी मोतीचूर सी श्रृद्धा जैसे आकाश से अचानक गिरकर चकनाचूर हो गयी . दाल में कुछ काला नहीं - - - बल्कि पूरी दाल ही काली जानकर पायल का दिल किसी बड़ी बाज़ी हारे हुए जुआरी की तरह बैठ गया . उसकी बुद्धि को काठ मार गया . वह चंचल की ओर ऐसी निगाहों से देखने लगी , जिसमे कब्र मुंह फाड़कर दिखायी दे रही थी . वह आश्चर्य भरी बाणी में बोली -- " क्या कहते हो तुम ! होश में तो हो !! क्या उसी बात को लेकर - - - ? " " हाँ ! ठीक समझी तुम . " " पर मेरे सतरंगी सपनों का क्या होगा चंचल ? मेरी रंगीन कल्पनाओं पर क्या गुजरेगी ? मैं तो अपनी बदरंग जिंदगी जी रही थी . वो तुम्ही तो थे , जिसने मेरे जीवन को तितलियों से रंग - ढंग दिये . सपनों , उम्मीदों , आशाओं को पंख पहनाकर उड़ना सिखाया . और अब - - - . " वह मरी आवाज़ में बोली -- " मैंने कभी सोचा भी न था कि अचानक यूँ इतना बड़ा तूफ़ान आएगा , जिसकी काली धूल में घिरकर हमारी दिशायें बदल जायेंगी . हमारे रिश्ते चिटक जायेंगे . और वो कहानी - - - जिसे हम प्यार कि चटक स्याही से लिखा करते थे , अधूरी रह जायेगी . बोलो , चंचल बोलो - - - जवाब दो - - - मेरा कुसूर क्या है - - - मुझे सजा क्यों ? " वह सिसकने लगी . " - - - - - - " चंचल पत्थर का बुत बना रहा . वह चंचल का कन्धा हिलाते हुए बोली -- " चंचल ! मेरे अपने चंचल देखो - - - मुझ पर पर रहम करो . मुझ बेसहारा पर तरस खाओ . जीने का उपदेश सुनकर मौत की खांईं में मत ढकेलो . मुझे अपना लो , वर्ना मैं लुट जाऊंगी - - - कहीं की न रहूंगी . आखिर उस घटना में मेरा क्या दोष ? मैंने सहयोग तो नहीं किया था उसमे ! फिर मुझे दण्ड किस बात का ? " " कुछ भी हो - - - इस तरह , तन की पवित्रता नष्ट होने के बाद लड़की को बीबी बनाने की हिम्मत मुझमे नहीं . पायल मैं समाज भीरू एक साधारण आदमी हूँ . हो सके तो मुझे भूल जाओ . मैं भी कोशिश करूंगा , तुम्हें भूलने की . " आँख झुकाये , बड़ी कोशिश से इतना कहकर अनमना सा चंचल ज्यों ही कमरे से बाहर निकला , उसका पाँव दरवाजे के किनारे रखे सजावटी गमले से टकरा गया . गमला विश्वास के पात्र की तरह तड़ाक से टूटकर बिखर गया और पायल घूमता माथा पकड़कर बैठने को मजबूर हो गयी . एक बार फिर , सदा की भांति , आदमी के गुनाह की सजा बेगुनाह औरत को सुनायी गयी थी . [24] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 1 8 ) गमला गिरने की आवाज़ सुनकर , उसी के सहारे रधिया कमरे में लपकी . एक बार तो उसे कमरा विधवा की मांग की तरह सूना नज़र आया - - - मगर फिर हर कोना नज़रों से खंगालने पर कमरे के एक कोने में पायल अचेत नज़र आयी . चेहरे पर पानी के छीटे मारने व गाल थपथपाने के बाद काफी प्रयास से वह उसे होश में ला पायी . होश आते ही पायल उसकी गोद में मुँह डालकर बच्चों की तरह मानो ममता तलाशते हुए रोने लगी . काफी कुछ पहले से ही जान रही रधिया द्वारा कारण पूछने पर पायल ने अपने बोझल मन की गठरी खोल दी . रधिया ने उसकी पीठ सहलाते हुए दिलासा दी -- " भगवान का शुक्र मनाओ बेटी - - - चंचल ने तुम्हें शादी से पहले छोड़ा है . यह सोचकर सब्र करो कि यदि शादी के बाद ये नौबत आती - - - तब तो तुम कहीं की न रहती . देखना ! अभी तो तुम्हारे सामने ज़िन्दगी के और भी रास्ते खुलेंगे . " " किन्तु मेरी ज़िन्दगी तो चंचल के इन्कार के साथ ख़त्म हो गयी है . " " नहीं बेटी ! ऐसा मत कहो . जब तक ज़िन्दा हो - - - ज़िन्दगी ख़त्म नहीं होती . बस - - - हादसों से ठिठक कर कुछ देर थोड़ा ठहरती भर है . गुज़रते वक्त के साथ - - - हादसों के धूमिल पड़ते ही ज़िन्दगी कुछ नये सबक सीख कर फिर से रफ़्तार पकड़ लेती है . " " मगर मुझे लगता है - - - मैं चंचल के बिना जी न पाऊंगी . " " हर जान से प्यारे के सदा के लिये बिछड़ने पर पहले - पहल ऐसा ही जान पड़ता है - - - जैसे जान ही चली जायेगी - - - पर बाद में धीरे - धीरे स s s s ब ठीक हो जाता है . पहले सी , वो बात भले ही न रहे ---मगर ज़िन्दगी तो रहती ही है . वैसे भी - - - तुम्हें हो न हो - - - मुझे तो यकीन है कि कुछ ही दिनों में सब ठीक हो जायेगा . जहां तक मैंने समझा है - - - चंचल कुल मिलाकर अच्छा लड़का है . बस - - - ज़माने की छीटा - कशी से थोड़ा सहम गया है . तुम धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करो . देखोगी , कि घुटने पेट की ही तरफ आकर मुड़ते हैं . मेरा मन कहता है - - - बीतता समय निश्चित ही उसे साहस और सद्बुद्धि देगा . और एक बार को यदि ऐसा न भी हुआ , तो भी तुम उसे काफी कुछ भूल तो जाओगी ही . उसके बगैर जीने की आदत पड़ते - पड़ते पड़ ही जायेगी . एक दिन तुम खुद देखोगी कि साधारण सा दिखने वाला इन्सान असाधारण दुखों से भी कैसे पार पा लेता है . " " इतने बड़े दुःख को सहने के लिये मन भर का मन चाहिये . कहाँ से लाऊँ ! मेरी ज़िन्दगी तो जैसे तूफानों से घिर गयी है . कुछ उपाय नहीं सूझता . " " जब ज़िन्दगी के सफ़र में कोई तूफ़ान आया हो तो सबसे अच्छा उपाय ये रहता है कि चुपचाप जमकर खड़ी हो जाओ और सही समय की प्रतीक्षा करो . जब तूफ़ान गुज़र जाय तो फिर से अपनी राहें तलाशो . हाँ ! एक उपाय और भी है , दुखों से उबरने का . जब अपने दुःख असह्य हो जाएँ तो अपने से अधिक दुखी लोगों की ज़िन्दगी में झांको . इससे तुम्हें अपने दुःख अपेक्षाकृत हल्के लगने लगेंगे और उन्हें कतरा - कतरा ज़िन्दगी के लिये दुखों से जूझता देखकर तुम्हें जीने की नयी प्रेरणा मिलेगी . और सुनो - - -अगर तुम्हें कभी भी मुझ गरीब के सहारे कि आवश्यकता अनुभव हो तो बिना संकोच मेरे घर चली आना . ये एक दुखी औरत का दूसरी दुखियारी से वादा है कि अगर तुम चाहोगी तो मैं तुम्हारी जवानी की छतरी बन जाऊँगी . शायद इस उम्मीद में कि कभी तुम मेरे बुढ़ापे की लकड़ी बनोगी . " रधिया की सांत्वना और प्रस्ताव विशेष से कृतज्ञ हुई पायल उसकी ममत्व से लबालब आँखों में झांककर ये महसूस कर रही थी कि आर्थिक रूप से गरीब होने का अर्थ ये कतई नहीं कि व्यक्ति विचारों और भावनाओं से भी गरीब हो . [25] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 1 9 ) मुस्कराहट - - - पायल के होठों पर अधिक दिन न टिक सकी . चंचल के प्रतिकूल व्यवहार और परिस्थितियों की आंच ने उसकी मुस्कान को पिघलाकर आँखों की राह बह जाने पर मजबूर कर दिया था . वह उड़ती हुई पतंग की तरह सतरंगी अभिलाषा लिये ऊँचे आकाश में मंडरा रही थी , किन्तु बीच में ही डोर टूट जाने के कारण उसे लड़खड़ाकर ज़मीन पर गिर जाना पड़ा था . चंचल उसकी अँधेरी ज़िन्दगी में कुछ समय के लिये जुगनू की तरह चमक कर चला गया था . किन्तु जुगनुओं के चमकने से अँधेरे तो ख़त्म नहीं होते . अब फिर उसका जीवन उस पालकी की तरह था , जो दुल्हन बिना सूनी हो . वह अपने को ऐसी डाल अनुभव कर रही थी , जिसकी रौनक को पतझड़ की नज़र लग गयी हो . पायल ने कभी सोचा भी न था कि चंचल के वियोग का थैला ज़िन्दगी के कंधे पर लटकाकर अब अकेले ही उम्र काटनी होगी . उसे क्या पता था कि धूप - छाँव सी पल छिन बदलती हरज़ाई ज़िन्दगी में एक दिन वो चंचल को ख़्वाबों की तरह खो बैठेगी . अगर वो जानती होती कि आशिक की बेवफाई दर्द की कहानी और आंसुओं का समन्दर होती है , तो वह कभी भी इश्क का गुनगुनापन कलेजे में बसाकर आग पैदा न करती . ऐसी आग ! जो अब उसके भविष्य को जलाने पर तुली है . ज्यों - ज्यों दिन अपने चौबीस - चौबीस घंटों की बरात लेकर गुज़रते जा रहे थे , त्यों - त्यों पायल व चंचल में फासला बढ़ता ही जरह था . गुज़रते वक्त के साथ पायल की भरी - पूरी बरगद सी देह बाँस बनती जा रही थी . दिनों दिन उसकी हालत भूकंप झेल चुकी पुरानी इमारत की तरह ढहने लगी . ये संभावना लगभग दम तोड़ रही थी कि चंचल अपना फैसला बदलेगा . उसे लगने लगा था कि अब तो चंचल की यादों को वक्त के ताबूत में बन्द करके ही जीना होगा . उसकी जंग खायी हुई आशा एक मोमबत्ती की तरह गल रही थी , घुट - सिसक रही थी . ऐसा लगता था - - - ससुराल से लांक्षित तिरस्कृता , किसी बेबस की बेटी सी उसकी आशा को क्षय रोग हो गया हो और वह तिल - तिल कर घटती जा रही है - - - और एक दिन अचानक उसका ह्रदय - स्पंदन रुक जाएगा . वह अपने आशान्वित जीवन को दुखद मोड़ देने का ज़िम्मेदार सेठ करोड़ीमल को मानती थी , जिसने उसकी शहद सी ज़िन्दगी एक ही झटके में नीम कर दी थी . कभी - कभी तो वह उस नर पिशाच का खून तक कर देने की बात सोचती थी . परन्तु वास्तव में वह एक निरीह अबला ही तो थी , जो सोच तो बहुत कुछ सकती थी , पर कर कुछ भी नहीं सकती थी . वह भली - भाँति जानती थी कि यदि सचमुच ही चंचल ने उससे शादी नहीं की तो वह इस घर में चन्द दिनों की ही मेहमान है . उसे नया ढौर खोजना ही होगा . क्या रधिया की शरण ! लेकिन खुद दूसरों के सहारे पलने वाली कमजोर औरत चाहकर भी उसे किस विधि - बूते पालेगी !! कहीं ऐसा न हो कि उसे सहारा देने के प्रयास में चंचल की नज़र से गिरकर वह खुद बेसहारा - बेकार बन जाये . तब - - - कौन सा होगा नया ठिकाना ! उसकी दिमागी उथल - पुथल में अनेकों अपरिपक्व विचार बारम्बार करवटें ले रहे थे . कभी उसे लगता कि वह आत्महत्या कर ले , तो कभी सोचती कि समाज से बदला ले , जिसने उसे बर्बाद किया है . कहीं का नहीं छोड़ा . तब क्या करे ! कहाँ जाये !! कोठे पर ? हाँ ! कोठा ही ठीक रहेगा . सेठ ने भी तो उस अभागी रात यही कहा था कि वो मुझे तबले की थाप और सारंगी की झंकार के बीच पहुँचने को मजबूर कर देगा . हाँ ! वेश्या बनना ही ठीक है , बदला लेने के लिये . और चारा ही क्या है दूसरा . और फिर - - - एक उसी के फिसल जाने से क्या ! शरीर का व्यापार तो आजकल फैशन की तरह फ़ैल रहा है . जब आबरू संभाले न संभली तो और दूसरा रास्ता भी क्या ! उसे वेश्या बनना ही पड़ेगा - - - क्योंकि उसे अब कोई नहीं अपनायेगा . हाँ ! वो समाज से बदला लेकर रहेगी . वो ऐसी म्यान बनेगी , जिसमे एक नहीं - - - सैकड़ों तलवारें रहती हैं -- कभी कोई , कभी कोई . वेश्या ! जिसके यहाँ न नाज़ , न नखरा , न चालाकी , न हठ , न जिद - - - . जो गहरी विशाल झील सी उदार व आवेगहीन होती है . जिसके किनारे चाहे लेटो , पियो या उतरकर दस - बीस गोते लगा लो . और शांत झील तेज़ नदी की तरह उठाकर पटकती नहीं . सहज भाव से सब कुछ सह - स्वीकार लेती है . हाँ ! अब मुझे भी शहर की उन वासनामय गलियों में बसना पड़ेगा , जहाँ हुस्न की बदशक्ल और दर्दनाक गाथाएँ गूँजा करती हैं . हुस्न ! जिसकी जवानी को समय के जालिम थपेड़े बहकने और बिकने पर मजबूर कर देते हैं . अब मुझे भी कोठे की साँच की आँच में शेष उम्र स्वाहा करनी पड़ेगी . कोठा ! जहाँ मसली हुई कलियाँ झुर्री पड़े गालों पर खुशबूदार खड़िया की पर्त पोतकर पीतल पर सोने का मुलम्मा चढ़ाती हैं . और फिर - - - फिर मर्द धोखा खा जाता है . कोठा ! जहां रूप का हाट सजता है - - - यौवन की बिक्री होती है . जहाँ मर्द - - - जो किसी का बेटा था , किसी का भाई था - - - औरत - - - जो किसी की माँ थी , किसी की बहन थी - - - दोनों अपने - अपने रिश्तों को भूल जाते हैं . उन्हें याद रहती हैं तो सिर्फ वासनामय गर्म साँसें . अब मैं उन दहकती हुई गलियों में बसूँगी , जहां मेरे हमदम , मेरे यार , मेरी मरी हुई आरजूओं से बेखबर मजनूँ , मेरी कमसिन उम्र पर नज़र डालेंगे . लिपस्टिक से पुते मेरे मधुमय होठों को निहारेंगे और फिर अप्सरा से मेरे रूप की चकाचौंध में उनका ईमान डगमगा जाएगा . वो मेरे हुस्न की आँच में पसीज कर मुझे अपनी विकल बाहों में लेने के लिये बेकरार हो जायेंगे . मैं महकते कृतिम सौन्दर्य प्रसाधनों से युक्त ऐसी दहकती नारी बनूंगी , जो समूचे समाज में आग लगा देगी . मैं समाज का ऐसा कोढ़ हूँ , जिसे समाज ने ही कोढ़ी बना दिया है - - - लेकिन मैं पूरे समाज को ही कोढ़ी बना डालूंगी . जिस समाज ने मुझे बर्बाद किया है , मैं उसे भरसक नेस्त नाबूद करके ही दम लूँगी . अगर मैंने ऐसा न किया , तो राह चलते आवारा कामी कुत्ते मुझे जबरन नोच डालेंगे . हर मनचला मुझे लावारिस कटी पतंग जानकार ललचाई नज़रों से लूटने दौड़ेगा . कोई सहारा देने न पहुंचेगा . फिर जो काम हार हालत में होना ही है , तो क्यों बेबसी में किया जाय ! क्यों न स्वेच्छा से करें !! पायल न जाने क्या - क्या ऊट पटाँग सोच रही थी - - - रात से ही . और सोचने - सोचने में ही रात के पत्ते झड़ चुके थे और सुबह की कोपलें निकल आयी थीं . भावी जीवन के प्रति उसके दिमाग में कई विचार आ - जा रहे थे . अचानक उन्हीं लगभग एक समान बदरंग विचारों के बुलबुलों की बजबजाती भीड़ में एक अलग रंग का बुलबुला भी उभरा और वही चमचमाता बुलबुला उसके पिछले विचारों पर पश्चाताप का कारण और आगे के लिये उम्मीद की किरन बन गया . जिसने उसे जीवन का द्वार एक बार फिर से खटखटाने की हिम्मत प्रदान की . धड़कते दिल में उम्मीद का एक छोटा सा दीपक जलाकर वह गुलशन के घर की तरफ चल दी . समय और परिस्थितियाँ व्यक्ति से क्या कुछ नहीं करवा डालते . [26] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 0 ) आज का पुरुषार्थ कल का भाग्य रचता है . इसी धुन में गुलशन अपने घर में बैठा बड़े मनोयोग से कोई प्रतियोगिता - पुस्तक पढ़ रहा था . तभी उसने देखा कि पायल ने कमरे में प्रवेश किया है . देखा कि पायल का मुख मण्डल बासी गुलाब की तरह मुरझाया हुआ है . वह उसके सामने खड़ी होकर गाय की सी बड़ी- बड़ी निरीह आँखों से उसकी तरफ निहारने लगी . उसकी असहनीय पीड़ा उसके चेहरे से झमाझम बरस रही थी . पायल की परेशानी को पढ़कर गुलशन ने पूछा -- " क्या बात है ? काफी परेशान दिख रही हो . सब ढीक तो है ? " पायल एकदम से बुक्का फाड़कर रोते हुए बोली -- " चंचल मुकर गया है . वो शादी से फिर गया है . मैं बर्बाद हो गयी . मेरा हरा - भरा गुलशन वीरान हो गया गुलशन . " वह उस बच्चे की भाँति गुलशन से लिपट गयी , जिसे मानो अपना खोया हुआ अभिभावक मिल गया हो . '' क्या कहती हो तुम ? " आश्चर्य से गुलशन की आँखें फ़ैल गयीं . अभी तक उसे यह बात नहीं मालूम थी . पता भी कैसे होती ! पायल ने बताई ही नहीं थी . पायल उसकी छाती पर सिर रखे रोती जा रही थी . उसके आंसू लगातार बहते जा रहे थे - - - और नारी के आंसुओं में जमाने को बहाने की शक्ति होती है . उसकी आह में पत्थर को भी मोम बना देने का गुण होता है . फिर गुलशन तो एक इन्सान और उसका चाहने वाला था . वह अपने को रोक नहीं पाया . वह बोला -- " मत लुटाओ ये मोती . इन आंसुओं को रोक लो , वर्ना मेरा दिल इन आंसुओं में डूब जाएगा . " मगर पायल के आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे . उसने अपनी गीली आँखें गुलशन की हथेलियों पर टिका दीं - - - और गुलशन अनुभव कर रहा था कि पायल के नर्म - गर्म आंसू उसकी हथेली में सोखकर नसों के जरिये उसके ह्रदय में पहुँच रहे हैं - - - और जब ह्रदय आंसुओं से लबालब भर गया , तो वो आंसू गुलशन की आँखों के रस्ते बाहर रिसने लगे . पायल बोली -- " अब मेरा क्या होगा गुलशन ! जिसे अपना समझी थी वो चंचल भी बीच राह में छोड़कर बेगाना बन गया . दुर्भाग्य मेरे साथ कदमताल कर रहा है . मुझे नहीं मालूम था - - - मेरी बड़े जतन से लिखी कहानी इस तरह पन्ना - पन्ना बिखर जायेगी . न जाने ईश्वर भी मुझसे किस जनम - करम का बदला ले रहा है . गुलशन ने ढाढस बंधाते हुए कहा -- " अच्छे लोगों पर शुरुवाती तकलीफें आती हैं - - - यही भगवान का कुछ अजीब सा अन्याय है . फिर भी - - - यकीन रखो ! मैं तुम्हें गम के सागर में डूबने के लिए मजबूर नहीं होने दूंगा . ईश्वर ने चाहा तो कुछ दिनों में सब कुछ ठीक हो जायेगा . एक दिन नयी रौशनी आयेगी और दुर्भाग्य के अँधेरे छंट जायेंगे . विश्वास रखो पायल ! अँधेरा अमर नहीं है . उसे हर रोज़ उगकर सूरज ये बताता है कि वो उसके रहते लोगों के जीवन पर कालिख नहीं पोत सकता . वक्त ऐसा ही सूरज है पायल . " मगर अब मैं क्या करूँ ! किस भरोसे और उम्मीद पर जियूं ? " पायल ने उसके सीने पर सिर रखे - रखे सुबकते हुए कहा . गुलशन उसके सिर पर हाथ सहला रहा था . इस वक्त उसे अपने आप पर किसी ऐसे जहाज का गुमान हो रहा था , जिसके सीने में समुद्र की किसी छिपी हुई चट्टान से टक्कर खाकर गहरा छेद हो गया हो और जो अपने डेक पर डूबने वाले बच्चों , बूढ़ों और औरतों की दर्दनाक चीखों और दम तोड़ती प्रार्थनाओं के बावजूद गहरे पानी में डूबता चला जा रहा हो - - - उन्हें किनारे पर नहीं लगा पा रहा हो . फिर भी उसने दिलासा दिया -- " दिल छोटा न करो पायल ! जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं , जब हम बिना किसी उद्देश्य के जीते हैं और बिना मौत मर भी जाते हैं . " " मगर देखती हूँ - - - मैं जी न पाऊंगी . दुनिया मुझे जीने न देगी . क्योंकि मुझपर दाग लग चुका है . गुलशन ! आँचल के दाग तो साबुन से धुल जाते हैं , मगर तन के दाग - - - . मेरे माथे पर दाग लग गया है . मेरा मन सुलग रहा है . मेरे भीतर की लड़की टूट चुकी है - - - और इसी आधार पर मेरा सहारा चंचल भी मुझसे दामन छुड़ा रहा है . " " पायल ! जहाज़ जब डूबने को होता है , तो सबसे पहले चूहे उसका साथ छोड़ते हैं . लेकिन अब तुम मुझे अपने जहाज़ का कप्तान समझो . मेरे रहते तुम्हारा जीवन रुपी जहाज़ डूबने नहीं पायेगा . मैं तुम्हें डूबने नहीं दूंगा . मैंने तुम्हें एक फूल की तरह चाहा था . विश्वास रखो - - - मैं ये फूल मुरझाने नहीं दूंगा . समय अलज़बरा के प्रश्न की तरह गंभीर था और कमरे में मद्धिम सी रौशनी बिखेरता हुआ बल्ब टिमटिमा रहा था -- उम्मीद के सितारे की तरह . असुरक्षा की भावना व्यक्ति को स्वार्थी बना देती है . असुरक्षा की भावना से ग्रस्त पायल के स्वार्थ ने डरते - सकुचाते कहा -- " गुलशन ! एक बात पूछूं ? " " पूछो . " " क्या तुम अब भी मुझे उतना ही चाहते हो ? " " उससे भी अधिक . " " तुम मुझसे शादी करना चाहते थे न ! " " हाँ . " " क्या अब भी तुम मुझसे शादी कर सकते हो ? मैं तैयार हूँ गुलशन . हाँ , मैं तैयार हूँ . " पायल जल्दी से बोली -- " बताओ - - - जवाब दो ! " उसका यह अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर गुलशन के आश्चर्य चकित कानों ने उसके मन - मस्तिष्क को असमंजस में डाल दिया .वह तत्काल अनिर्णय की स्थिति में पहुँच गया . उसे समझ नहीं आ रहा था कि किस्मत किस रूप में उसका दरवाज़ा बार -बार खटका रही है . उलझन की इस घडी में अंततः उसने अपनी आदत के अनुसार एक सिगरेट अपने होठों से लगाकर सुलगा ली और विचारमग्न होकर उसके गंदले धुंएँ के बीच कोई साफ़ रास्ता तलाशने लगा . इस समय पायल को एक - एक पल वैसे ही एक - एक युग जितना लम्बा प्रतीत हो रहा था , जैसे कि न्यायाधीश द्वारा फैसला सुनाने से ठीक पूर्व किसी आरोपी को प्रतीत होता है . उसके मौन से उतावली होकर पायल कह उठी -- " बोलो गुलशन ! बोलो . चुप क्यों हो ? कुछ बोलते क्यों नहीं ? " गुलशन धीमे से बोला -- " मुझे सोचने दो पायल . ज़िन्दगी के बड़े फैसले जल्दबाजी में नहीं करने चाहिये . " पायल बेमन से चुप हो गयी . थोड़ी देर बाद जब उसकी पूरी सिगरेट गुल बन गयी तो उसने फिर पूछा -- " कुछ सोचा ? " " हाँ - - - सोच लिया . " " क्या ? " उसका पूरा शरीर कान बन गया . गुलशन ने अपना निर्णय दागा -- " यही - - - कि अब मैं तुमसे शादी नहीं करूंगा . " उसका जवाब सुनकर पायल का दिल धक् से रह गया - - - जैसे पहाड़ से गिर पड़ी हो . उसे लगा - - - जैसे वो कोई जूठी पत्तल हो , जिसमें अब और कोई भला आदमी खाना पसन्द न करेगा . क्योंकि लड़की चाहे सोने की ही क्यों न बनी हो , इज्जत खोयी लड़की को कोई भी पुरुष पत्नी - रूप में बर्दाश्त नहीं कर पाता . फिर भी उसने बस पूछने के लिये चीखकर पूछा -- " मगर क्यों ? " " क्योंकि ऐसा नहीं कि अब तुम्हें मुझसे प्यार हो गया है , जो तुम मुझसे शादी करना चाहती हो . वास्तव में प्यार तो तुम अभी भी चंचल से ही करती हो - - - किन्तु उसके मुकर जाने और अपने असहाय होने के कारण विवशता में मुझसे शादी करना चाहती हो . क्योंकि स्त्री प्रायः असहाय अकेली नहीं रह सकती . पायल ! ये तुम्हारी असुरक्षा की भावना से उपजी विवशता कह रही है कि तुम मुझसे शादी करना चाहती हो . और यही सब सोचकर मैं बड़ी विनम्रता पूर्वक मना कर रहा हूँ . " पायल ने आरोप जड़ा -- " इसका मतलब - -- - तुम भी वही निकले , जो चंचल है . मात्र इन्कार कि तर्ज़ अलग है . अब समझी - - - मर्द होते ही ऐसे हैं . लेकिन गुलशन ! कान खोलकर गाँठ बाँध लो - - - अगर तुमने भी साथ न दिया - - - तो मैं मर जाऊंगी - - - आत्महत्या कर लूंगी . " वो दरवाजे की तरफ लपकी . गुलशन ने उसे झट से पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया - - - मगर पायल चिल्लाती रही -- " मुझे छोड़ दो . मर जाने दो . जब संवार नहीं सकते , तो बिगड़ने से रोकने का भी तुम्हें कोई अधिकार नहीं . छोड़ो - - - मैं कहती हूँ छोड़ो मुझे - - - जाने दो . " उसने पूरी ताकत लगाकर अपने को छुड़ाने का प्रयास किया . वह लगभग विक्षिप्त सी हो गयी थी . उस पर दौरा सा पड़ा था . और ऐसे दौरे को दूर करने का सबसे सुगम उपाय है झटका . गुलशन ने एक झन्नाटेदार झापड़ पायल के नर्म गाल पर मारा . थप्पड़ पड़ते ही एकाएक शान्त होकर वह मूर्खों की तरह गुलशन की तरफ ताकने लगी और फिर उससे लिपट कर बुक्का फाड़कर रोने लगी . गुलशन उसकी पीठ पर हाथ फेरकर समझाने लगा -- " पायल ! बेहूदा बातें किसी भी बहस या आवेश से सही नहीं ठहराई जा सकतीं . व्यक्ति जीने के लिये पैदा होता है और उसके हाथ में सिर्फ जिन्दा रहना है . अपने को पैदा करना या ख़त्म करना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है . ये ईश्वर की मर्जी का खेल है . इसमें नाहक हस्तक्षेप नहीं करना . न चाहते हुए भी ज़िन्दगी को कभी - कभी ऐसे दौर से गुजरना पड़ता है जब सब्र करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं होता . ईश्वर धीरज रखने वालों की लाज रखता है . इसलिए थोड़ा धीरज से काम लो . " इतना कहने के बाद गुलशन खुद ब खुद बुदबुदाया -- " समझ में नहीं आता - - - भाग्य और व्यक्ति क्या मजाक करते हैं आपस में . कुछ लोग भागकर ज़िन्दगी के पास पहुंचना - - - और कुछ दूर चले जाना चाहते हैं . " पायल बोली -- " मेरा विवेक नष्ट हो गया है गुलशन . मेरी तो समझ में नहीं आता कि क्या करूँ , क्या न करूँ . आशा की कोई किरन नहीं दिखती . पता नहीं - - - मेरा क्या होगा . उफ़ - - - परिस्थितियाँ इन्सान को कितना असुरक्षित और विवश बना देती हैं . " " निराशा बहुत बड़ा पाप है पायल . उसे मन में घर मत बनाने दो . ज़रा दुनिया पर नज़र दौड़ा कर तो देखो - - - बड़े - बड़े दुखों के बावजूद भी हर व्यक्ति जीने की छोटी सी चाह लिये कैसे हाथ - पाँव मार रहा है . और फिर - - - अब तुम घबराओ मत . मैं जो हूँ . मैं अपने ईमान और स्वाभिमान कि तरह तुम्हारी रक्षा करूंगा . अब तुम तक आने वाली हर मुसीबत को मुझसे होकर गुज़ारना होगा . " " मगर उनका क्या होगा ? वो तो मेरी ज़िन्दगी की नासूर बनकर रहेंगी . " " क्या ? " " वो तस्वीरें . मेरे फोटो - - - जो सेठ के पास हैं . जिनके सहारे वो मुझे आजीवन कठपुतली की तरह नचाना चाहता है . " उसकी इस बात के साथ ही गुलशन के मस्तिष्क - पटल पर कुछ असहनीय अश्लील दृश्य तेजी से कौंध गए . उसने फट से अपनी आँखें भींच लीं . मगर आँखें बंद करने से विचारों का चित्रण तो रुकता नहीं . उसने आँखों में छलक आये आंसुओं को पोछ कर कहा -- " समस्या के ऊँट को अब मुझे ही किसी करवट बैठाना होगा . फिलहाल मैं चाहता हूँ कि मैं एक बार स्वयं चंचल को समझाने का प्रयास करूँ . तुम एक काम करो . जाकर चंचल तक मेरा ये विनम्र अनुरोध पहुँचाओ कि मैं अपने निवास पर एकान्त में उससे कुछ वार्ता का इच्छुक हूँ . उससे कुछ बात करने के पश्चात ही आगे कुछ करना ठीक होगा . " " मैं कोशिश करती हूँ . " कहकर पायल कमरे के बाहर हो गयी . [27] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 1 ) अगले ही दिन ! चंचल जब गुलशन के घर पहुंचा तो औपचारिक बात चीत के पश्चात , सब कुछ जानते - समझते हुए भी उसने पूछा -- " कहो गुलशन ! मुझे क्यों याद किया ? " गुलशन बोला -- " चंचल ! सुना है - - - तुमने पायल से शादी के इरादे को दफ़ना दिया है !! " उसकी इस बात से चंचल का मन खिन्न हो गया . वह बोला -- " ठीक ही सुना है तुमने . " " मगर क्यों ? " " क्योंकि उसकी एक रात एक बदमाश के ऊपर न्योछावर हो चुकी है . " " इससे क्या होता है ? " " बहुत कुछ होता है इससे . " " मगर क्या ? " " बनो मत . ये तुम खुद और खूब समझते हो . जरूरी नहीं कि हर बात अपने नंगे स्वरूप में ही प्रस्तुत की जाय . " " यार ! मैं तो कहूँगा - - - मिट्टी डालो उस घटना पर . कुत्ता कपास के खेत से होकर गुज़र गया , तो कौन सी चादर बनवाकर ले गया ! " " मगर पाख़ाना तो कर गया . " " छि ! तुम - - - और ऐसी बातें . चंचल ! उसे अपना लो . उसे अपना लो चंचल . " " नहीं - - - अब ये मुझसे संभव नहीं . " " मगर क्यों ? " " क्योंकि समाज कहता है कि स्त्री मिट्टी की हाँडी होती है , जो एक बार पाखाने में पहुँच जाय , तो रसोई के काबिल नहीं बचती . " " तो इसका मतलब ये है कि - - - . " " कि तुम पायल के वकील की हैसियत से बोल रहे हो . " चंचल ने उसकी बात काटकर रूखे स्वर में कहा . गुलशन ने उसकी बात का बुरा न मानने का प्रदर्शन करते हुए कहा -- " नहीं चंचल - - - नहीं . मैं तो एक निर्दोष के सन्तोष की भीख मांग रहा हूँ . चंचल ! मेरी मानो , तो पायल को सहारा दो . अभी भी वक्त है - - - वरना चिटकते रिश्ते टूट जायेंगे . " " गुलशन ! सामाजिक नियमों के घेरे में सामान्य आदमी के अपने कुछ सिद्धांत होते हैं - - - और सिद्धांतों की कुछ अपेक्षायें होती हैं . तुम क्या सोचते हो कि मैं रिश्ते टूटने के भय से अपने सिद्धांत व सामाजिक मान्यतायें तोड़ने का दुस्साहस करूँ ? " " हुँह - - - जरा मैं भी तो सुनूँ ! क्या हैं तुम्हारे सिद्धांत ? " " ये की घर की बहू बनाने के लिये लड़की चाहिए , औरत नहीं . और वैसे भी - - - आम आदमी सब कुछ सहन कर सकता है लेकिन ये बिल्कुल नहीं कि उसकी पत्नी का भूत या वर्तमान में किसी अन्य के साथ शारीरिक सम्बन्ध रहे . " " वाह - - - क्या ख़ूब है तुम्हारे सिद्धांत . ज़रा सोचो - - - अगर तुम्हारी शादी किसी दूसरी कथित लड़की से भी हो जाये , तो क्या तुम डंके की चोट पर कह सकते हो कि तुम्हारी पत्नी सर्व प्रथम तुम्हारे ही शारीरिक संपर्क में आयी है ? और फिर - - - ज़रा पायल कि सच्चाई पर भी तो दृष्टि दौड़ाओ , जिसने घर लौट कर सारी वास्तविकता जस की तस बता दी . वो उस घटना पर आंशिक आवरण भी तो डाल सकती थी . उसे अपने अनुकूल तोड़ - मरोड़ कर भी तो प्रस्तुत कर सकती थी . जिससे उसे तुम्हें खोने का खतरा भी न रहता . " " गुलशन ! बात तो तुम्हारी सच है , किन्तु अब मैं जान - बूझ कर मक्खी तो नहीं निगल सकता ! ! भला नीम की निम्बोली सा कड़ुवा यथार्थ कैसे पचा पाऊंगा मैं !!! " " मैं फिर कहता हूँ चंचल ! केवल मूर्ख और मृतक ही अपने सिद्धांतों को कभी नहीं बदलते . जबकि तुम तो एक पढ़े - लिखे आदमी हो . तुम्हें तो विवेक से काम लेना चाहिये . " " हुँह - - - विवेक ! क्या होता है विवेक ? " " यही - - - कि परिस्थिति विशेष के अनुरूप दिल की कही की जाय . " " तो - - - वही तो कर रहा हूँ मैं . मेरा दिल - दिमाग यही करने को कह रहा है . " " उफ़ चंचल ! " गुलशन बोला -- " क्या तुम उसे स्वयं से दूर करके उसकी याद को दिल से भुला सकोगे ? " चंचल ने कृतिम निष्ठुरता से उत्तर दिया -- " हाँ ! प्रयास करूंगा . भूलते - भूलते भूल ही जाऊंगा . ' " ओह - - - तो इसका मतलब , तुम्हारा दिल , दिल न हुआ , सराय हो गया , जहां लोग आते , ठहरते और जाते रहते हैं - - - और सराय किसी को याद नहीं रखती . " गुलशन झिड़कते हुए बोला -- " चंचल ! आज तुम्हारे इस रूप को देखकर और तुम्हारे सिद्धांतों के जिद्दीपने को जानकार मुझे ये कटु अनुभव हो रहा है कि लोग बहुत स्वार्थी होते जा रहे हैं और दुनियां में कल उन लोगों की समाधियाँ तक नहीं बनेंगी , जो मरने से पूर्व कफ़न से लेकर फूलों तक का प्रबंध खुद नहीं कर जायेंगे . " चंचल चुप रहा . गुलशन ने पुनः पूछा -- " तुम्हारे सिद्धांत ही तुम्हारी और पायल की शादी में टांग मार रहे हैं , या और भी कोई बात है ? " " हाँ - - - और भी बात है - - - जो सर्वाधिक प्रमुख है . उससे शादी के बाद जिसका मुझे सामना करना पड़ सकता है . जिसके सम्मुख अन्य समस्त बातें गौड़ हैं . जिसका इशारा मैं इससे पूर्व भी तुम्हें दे चुका हूँ . " " वो क्या ? ज़रा खुलकर कहो . " " समाज का डर . " चंचल बोला -- " कल जब शहर भर को ये बात मालूम होगी कि पायल एक बदमाश कि बिछावन बन चुकी है , तो क्या कहेंगे लोग ! लोग मुझे हेय दृष्टि से देखेंगे . ताने मार - मार कर मेरा जीना हराम कर देंगे . " " चंचल ! कीड़े - मकोड़ों की भिनभिनाहट के भय से कोई अपने घर में शमा जलाना तो बन्द नहीं कर देता - - - और वैसे भी , समाज को क्या पता है इस बात का !! " " पता चल तो सकता है . सेठ द्वारा लोगों के जान सकने की संभावना तो है . संभावनाओं को नकारा तो नहीं जा सकता . हमें दूर तक सोच कर समझदारी से चलना चाहिए . " " वाह ! किस खूबसूरती से तुमने अपनी बुजदिली को समझदारी का नाम दे दिया . चंचल ! समाज के डर से कमजोर न बनो , वर्ना शैतान के हौसले बुलन्द और उम्र लम्बी होती जायेगी , जबकि पायल जैसे इंसान घुटते - पिसते और मरते चले जायेंगे . " पायल की त्रासदी का दुष्प्रभाव झेल रहा चंचल गुलशन की बार - बार की नसीहतों से चिढ़कर झुंझलाया -- " गुलशन दुनिया में उपदेश का धंधा करने वालों की कमी नहीं , पर ज़िन्दगी की सच्चाइयों से जिसे जूझना पड़ता है - - - वही जानता है . उससे शादी कर लेने पर दुनिया दबी जुबान यही कहेगी कि मेरी पत्नी मुझसे पहले किसी अन्य द्वारा भी भोगी जा चुकी है . और फिर - - - अगर तुम्हें उससे इतनी हमदर्दी है और समाज की परवाह नहीं , तो सूखे उपदेश क्यों देते हो ? शादी क्यों नहीं कर लेते उससे ? " " उफ़ - - - काश तुम मेरी मजबूरी समझ सकते . " उसने पुनः समझाना चाहा -- " हिम्मत से काम लो चंचल . सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी . छोटे से दिखने वाले व्यक्ति को लोग दूरबीन लगाकर देखेंगे . तुम तो पढ़े - लिखे समझदार हो . समाज के फेर में मत पड़ो . अपनी आत्मा की आवाज़ पर ध्यान दो . मुक्त मस्तिष्क से किये गए अपने स्वतन्त्र फैसले पर अमल करो . " " लेकिन मुझे समाज में रहना है - - - और समाज सामाजिक कार्यों में एकाकी फैसलों को नहीं मानता . " " श्रेष्ठ जीवन पद्धति के लिए हम स्वयं ही तो मिल - बैठ कर सामाजिक नियम रचते हैं और वक्त के जल से उनकी जड़ों को सींचकर मज़बूत करते हैं . तब अवरोध उत्पन्न करने की दशा में क्या हम स्वयं ही व्यक्तिगत रूप से उन्हें तोड़ नहीं सकते ? " " मगर तब समाज से हमारा बैर हो जायेगा . वो हम पर ताना मारेगा . हमारा जीना हराम कर देगा . जबकि मुझे समाज के भीतर ही शान्ति से रहना है . " " बैर हो जायेगा तो हो जाने दो . चंचल ! समाज से लड़ो . कुछ शुरुवाती कठिनाइयाँ तो अवश्य आएँगी . पर याद रखो - - - कठिन रास्ते प्रायः खूबसूरत मंजिल तक पहुंचाते हैं . समाज एक न एक दिन अपने आप थक - हार कर चुप हो जायेगा . तुम सुख - चैन से जी सकोगे . " " और उस दिन के इंतज़ार में - - - मैं अपनी ज़िन्दगी का सुनहरा हिस्सा ताने खाते - खाते बर्बाद कर दूं ? न - - - न ! मुझ साधारण आदमी में इतनी हिम्मत नहीं . मुझसे न होगा ये . " " आदमी जब कोई पाप कर गुज़रता है - - - या करने लगता है , तो नाना प्रकार के तर्कों से उसे सही ठहराने की कोशिश करता है . तुम भी यही कर रहे हो चंचल ." बहस द्रोपदी के चीर की तरह खिचती ही जा रही थी . गुलशन ने फिर समझाया -- " चंचल ! कीचड़ में अपना सोना गिर गया हो , तो उसे उठाने के लिए झुकना तो पड़ता ही है - - - और इस प्रयास में गन्दगी के कुछ छींटे भी पड़ सकते हैं , लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि हम छीटें पड़ने के डर से अपने सोने को कीचड़ में ही पड़ा रहने दें . अभी भी वक्त है कि तुम पायल - - - . " " गुलशन ! तुम बेकार ही खली से तेल निकालने का प्रयास कर रहे हो . " चंचल उसकी बात काट कर बोला . गुलशन ने अफ़सोस जाहिर किया -- " समझ में नहीं आता --- तुम्हारी बुद्धि को किसकी नज़र लग गयी है ! " " कुछ भी कहो , मगर सुन लो , तुम अगर आँखें खोल कर देखने से लाचार हो , तो मैं अपनी आँखें बन्द नहीं रख सकता - - - समझे . गुलशन ! ज़िन्दगी छोटी होती है - - - और उसे भोगने की उम्र उससे भी छोटी . क्या जरूरत है कि हम इस छोटी सी अनमोल ज़िन्दगी में जान - बूझ कर मुसीबतों को न्योता दें . हमें ज़िन्दगी के सफ़र में पहले से ही सोच समझ कर साफ़ और सुरक्षित रास्ते चुनने चाहियें . सुनो ! पायल समाज की नज़र में खोटा सिक्का है - - - और खोटा सिक्का जेब का वज़न तो बढ़ाता ही है , साथ ही दुनिया के बाज़ार में चलता भी नहीं . तब मैं क्यूंकर उसको साथ लेकर चलूँ ! " गुलशन ने बात की दिशा बदलकर पूछा - " पर क्या तुम उसके बगैर ठीक से जी लोगे ? " " हाँ . कुछ ही दिनों में सब कुछ सामान्य हो जाना चाहिये . जैसे - तैसे जी ही लूँगा . जीना तो पड़ता ही है . " " किन्तु याद रखो चंचल ! सिर्फ जिंदा रहना ही ज़िन्दगी नहीं कहलाती . अगर ऐसा होता , तो मैला खाकर सुअर और कीड़े - मकोड़े भी ज़िन्दा रहते हैं . महत्त्व इस बात का नहीं कि हम जिये और कितना जिये - - - महत्त्व इस बात का है कि हम कैसे जिये . इसलिये कुछ ऐसा करो कि मरकर भी ज़िन्दा रहो , ऐसा नहीं कि जीते जी मर जाओ . " चंचल को गुलशन के ये शब्द ऐसे लग रहे थे , जैसे उसे धक्का दे - दे कर घर से बाहर निकाल रहे हों . वह चिढ़कर बोला -- " सुनो ! मखमल में लपेटकर मारने से पत्थरों की चोट कम नहीं हो जाती . गुलशन ! तुम हद से आगे बढ़ रहे हो . " " तुम मजबूर जो कर रहे हो . " गुलशन कहता रहा -- " सुन लो ! कुछ ही दिनों में तुम अनुभव करोगे कि पायल को न अपनाकर तुम अपनी ही नज़रों से गिर रहे हो . और चंचल ! आदमी ठोकर खाकर तो संभल सकता है , किसी की नज़रों से उठकर भी गिर सकता है , मगर अपनी ही नज़रों से गिरा हुआ व्यक्ति कभी नहीं उठ पाता . वह तिल - तिल कर जलता है . ऐसा व्यक्ति जब आईने के सम्मुख जाता है तो उसकी लज्जा मुंह चिढ़ाती है उसे . मौत भी उसे सहारा नहीं देती - - - दूर भागती है . " " गुलशन ! कम से कम मेरे दामन में इतने सारे दोष , इतने आरोप तो मत भरो . बहुत कह लिया , अब बस भी करो . मैं तुम जैसे किताबी आदमी से फालतू बहस नहीं करना चाहता . मगर सौ बात की सीधी एक बात सुन लो - - - मैं पायल को चाहता तो हूँ - - - पर उसके प्यार में दीवाना होकर इतना अव्यवहारिक भी नहीं हुआ कि आगा - पीछा कुछ न सोचूँ . सच तो ये है कि उस गिरी को उठाने के फेर में खुद को इतना गिराने का बूता मुझमे नहीं , कि मैं उम्र भर उसका भड़ुआ बनकर जियूं . ज़रा दिमाग से काम लो और सोचो कि यदि उससे शादी के बाद बदमाश सेठ पायल के अश्लील फोटो के बल पर ब्लैक - मेल करके उसे अपने घर जब - तब बुला भेजेगा तो मेरी क्या मनोदशा होगी . क्या तुम मुझसे उम्मीद करते हो कि मैं अपनी पत्नी का भड़ुआ बनकर उसे सेठ के घर बार - बार जीवन भर भेजा करूंगा ! और अगर यदि मैंने ऐसा न किया तो निश्चित ही वो कमीना उन गंदी तस्वीरों को सार्वजनिक करके समाज में पायल के साथ - साथ मुझे भी मुंह दिखाने लायक न छोड़ेगा . तुम तो केवल पायल के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हो . मैं तुम्हारा दुश्मन तो नहीं ! ज़रा मेरी बेबसी का भी तो कुछ ख़याल करो . सिक्के के इस पहलू पर भी तो विचार करो . " अपने अकाट्य तर्कों से गुलशन को निरुत्तर करके चंचल कमरे के बाहर निकल गया और गुलशन धीरे से बुदबुदाया -- " घबराओ नहीं पायल ! मेरे रहते तुम बेसहारा नहीं होने पाओगी . क्योंकि मैंने तुम्हें प्यार किया है . सच्चा प्यार . " [28] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 22 ) गुलशन अपने घर में बैठा पायल के जीवन की गुत्थी सुलझाने की जुगत सोच रहा था मगर कोई भी सिरा हाथ न आने से उसका दिमाग उलझ गया था . बातचीत से हल होने योग्य कोई उपाय ही नहीं सूझ रहा था . चंचल से बात करने के बाद उसे उसकी बातों में भी वज़न लग रहा था . उसकी शंकायें अपनी जगह जायज़ थीं . वह सोच रहा था कि यदि चंचल की शंकाओं को सही ठहराते हुए उन्हें स्वीकार कर वह इस प्रकरण को यहीं विराम दे - दे तो निश्चित ही पायल की बेबस ज़िन्दगी चिंदी - चिंदी बिखर जायेगी . तब फिर वह क्या करे ! इसी उधेड़ - बुन में अन्य संभव विकल्पों पर विचार करने लगा . अचानक कोई विचार उसके मस्तिष्क में कौंधा , जिससे उसकी गर्दन एक विशेष ढंग से यूं तन गयी , मानो उसने कोई दृढ़ निश्चय कर लिया हो . और तभी ! गुलशन - चंचल की वार्ता का परिणाम जानने की उत्सुकता से पायल वहां आ पहुंची . उसका पक्के इरादों वाला तना हुआ चेहरा देखते ही , अपनी बात भूलकर , उसने पूछा -- " क्या सोच रहे हो गुलशन ? " " सोच रहा हूँ , मुझे सेठ से वो तस्वीरें प्राप्त करनी ही होंगी ." " अरे नहीं . ऐसा दुस्साहस भी मत करना . " " वह बाईं हथेली पर अपना दायाँ मुक्का उत्तेजना वश मार कर बोला -- " पायल ! तुम निश्चिन्त रहो . देखना ! मैं उसके शैतानी जाल के ताने - बाने को तोड़कर फेंक दूंगा . " " न - - -ना ! " उसने टोका -- " ऐसा मत सोचो . जोर जबरदस्ती से काम लेने पर उसके खतरनाक इरादे और भी खुंखार हो उठेंगे . और फिर - - - काम भी तो आसान नहीं है . अजगर के पेट में घुसकर अंतड़ियाँ निकालने जैसा काम है और इसमें दिलेरी और ताकत की जरूरत है . " " अभी शायद तुम्हें प्यार की ताकत का अंदाजा नहीं पायल . " " मगर - - - . " " तुम चिन्ता मत करो . शठ के शठ - सा व्यवहार ही उचित होता है . मैं जानता हूँ कि शैतानों के पैरों के नीचे की ज़मीन बहुत कमजोर होती है , इसीलिए अगर कोई हिम्मत से मुकाबला करे तो उनके पाँव बहुत जल्दी उखड़ जाते हैं . " " लेकिन फोटो मिल जाने से क्या समस्या पूरी तरह हल हो जायेगी ? क्या कहा चंचल ने ? कुछ उम्मीद है क्या ? " " कहा तो कुछ नहीं . कोई उम्मीद भी नहीं . फिर भी किसी समस्या के समाधान हेतु सर्वोत्तम प्रयास करना मनुष्य का धर्म है . फल ऊपर वाले पर छोड़ देना चाहिये . क्या पता कब ईश्वर तुम्हारे सितारे रौशन करके सामने वाले की मति फेर दे . वैसे भी यदि मैं फोटो पाने में सफल रहा तो समस्या आंशिक रूप से आसान तो हो ही जायेगी . और इस सूरत में पुनः मैं चंचल को शादी के लिए राजी करने की भरसक कोशिश करूंगा . " " और यदि फिर भी असफल रहे तो ? " " तो " वह जोश में आकर बोला -- " तब मैं तुम्हारे जीवन के मटमैले रंगों को खुद धोकर उन्हें अपने बूते सतरंगी बना दूंगा . यानि ऐसी सूरत में मैं तुमसे शादी करने के लिए खुद हाज़िर हो जाऊंगा , वर्ना दुनिया की नज़र में प्यार बदनाम हो जाएगा . वैसे ये सुन लो पायल ! अब तुम मुझे मिलो या न मिलो , किन्तु यदि तुम खुश रह सकी , अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट रही , तो मेरा प्यार सुखी रहेगा . " पायल की आँखों में कृतज्ञता के आंसू उमड़ आये . वह गुलशन के रोवेंदार मर्दाने सीने पर सिर टिकाकर सुबकने लगी . गुलशन उसके सिर पर हाथ फेरकर बोला -- " चलो - - - मुझे सेठ का घर दिखाओ . " दोनों बाहर निकल कर गंतव्य की ओर चल पड़े . कुछ देर बाद , पायल ने सेठ का घर दिखाकर कहा -- " जाओ - - - पर जल्दी लौटना . मैं घर पर बेसब्री से तुम्हारा इंतज़ार करूंगी . " गुलशन शून्य भाव से बोला -- " संभव है - - - मैं न भी लौट सकूँ . " " तब भी मैं हमेशा तुम्हारा इंतज़ार करूंगी . " पायल ने भाव विभोर होकर कहा . [29] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 3 ) बड़ी सी रहस्यमय कोठी के एक खूबसूरत कमरे के बेश कीमती विदेशी सोफे पर पसरा हुआ सेठ देसी शराब सुड़क रहा था . और तभी ! उढ़के हुए दरवाजे पर भड़ाक से लात मारकर गुलशन धड़ाक से कमरे के भीतर घुस गया . उसके अन्दर प्रवेश करने के तरीके से सेठ को ये समझते देर न लगी की आने वाला अपरिचित व्यक्ति खतरनाक इरादों से लैस उसका कोई विरोधी ही हो सकता है . फिर भी उसने जान - बूझ कर उसे ऐसी नज़र से देखा जैसे कि वह कोई बेकार की वस्तु हो . उसने संयम मगर व्यंग्य सहित उससे पूछा -- " दरवाज़ा टूटा तो नहीं ? " क्रोध में उफनते गुलशन ने जवाब दिया -- " चक्रवात केवल दरवाजे को ही अपना शिकार नहीं बनाता - - - बल्कि उसकी चपेट में आने वाली हर चीज़ नेस्त नाबूत हो सकती है . " " कभी - कभी हवा का नव सिखुवा झोंका भी अपने को तूफान समझ लेता है . " " वो तो अभी तुम्हें मालूम हो जाएगा कि तूफ़ान और हवा के झोंके में क्या अंतर होता है . " गुलशन दांत किटकिटा कर बोला -- " कमीने ! तो तुम्हीं वो शैतान हो जिसके कारण पायल का भविष्य चकनाचूर हो गया . " " अबे बेवकूफ ! शीशे टूटने के ही लिए होते हैं . वो चाहे आज टूटें या कल . मुझसे टूटें या किसी और से . टूटना तो उनकी किस्मत है . " " सुनो ! अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि पायल की तस्वीरें मुझे दे दो . " " ओह - - - समझा . तो तुम उसके भाई साहब हो . " " बदमाश ! मैं तेरा बाप हूँ . " " बेटे ! अगर गीदड़ की मौत आती है , तो वह शहर कि ओर भागता है - - - और अगर किसी बदकिस्मत आदमी के दिन नज़दीक आते हैं , तो वह मेरे करीब आता है . जान की सलामती चाहते हो तो फ़ौरन दफ़ा हो जाओ . " " मैं भागने के लिए नहीं आया सेठ . " " बेटे ! क़ाज़ी ओसामा नियाज़ी का लिखा अफगान इनसाईक्लोपीडिया पढ़ा है ? दुनिया के कुछ नामी जिन्न हैं . उनमें से एक मैं भी हूँ - - - अगर ज़िन्दगी प्यारी है , तो दफ़ा हो जाओ - - - और हाँ - - - यदि मौत से मोहब्बत है , तब रुक सकते हो . " उसने बेहयाई से खींसें निपोर कर धमकाया . गुलशन ने अपनी ज़िन्दगी में ऐसे कई बेहया आदमी देखे थे , जिनकी आँखों में सुअर को बाल था - - - मगर यहाँ तो सेठ की मैली आँखों में समूचा सुअर ही लोटता नज़र आ रहा था . वह बोला -- " मैं कहता हूँ , तस्वीरें दे दो . " " तस्वीर लेने आया है , पायल के भड़ुए . साले ! तस्वीरें तो क्या मिलेंगी - - - हाँ , मैं तुम्हें मार कर तेरी हड्डियाँ तलक जरूर हज़म कर जाऊंगा -- बगैर डकार लिये . " " बेटा चींटे ! मैं कपास हूँ . मुझे गुड़ समझकर खाने का ख़याल महंगा पड़ेगा . " " अबे - - - मैं कपास को धुनकना भी अच्छी तरह जानता हूँ . ऐसी जमकर धुनाई करूंगा तेरी , कि तियाँ - तियाँ बिखर जायेगा . " " अच्छा - - - तो फिर कोशिश करके देखो . मालूम पड़ जायेगा कि कपास किस किस्म की है . कहता हूँ , तस्वीरें दे दो . और सुनो - - - अगर सभ्यता से काम नहीं चला , तो मैं तुम जैसों के वास्ते असभ्यता पर भी उतर सकता हूँ . मैं लखनऊ का रहने वाला नहीं हूँ , जो हर हाल में सभ्यता को ही जीवन में अव्वल दर्ज़ा देते हैं . " क्रोध ने गुलशन को पागल बना डाला था . उसे अपनी नसों में लहू की जगह तेज़ाब दौड़ता लग रहा था . सेठ का भी चेहरा तमतमाया हुआ था . जैसे चेचक निकलने से पहले चेहरे पर लालिमा उग आती है . सेठ गुस्से में बोला -- " तुम शायद मेरे नाम से अंजान हो , वर्ना यूं मौत से खेलने न निकलते . बेटे ! मेरे बारे में इतना ही जान लो कि मैंने उन्हें ही शागिर्द बनाया है , जो अपने को उस्ताद कहा करते थे . कह रहा हूँ - - - भाग जाओ , वरना मेरे हाथों से पचासवां खून हो जायेगा . " " ये तो वक्त ही बतायेगा सेठ - - - कि मरना किसे है . मगर सुन लो ! सितारे शैतान का साथ हमेशा नहीं देते . ये सच है कि उनकी ज़िन्दगी रौबदार होती है , लेकिन ये भी झूठ नहीं कि उनकी मौत बहुत बदसूरत होती है . मैं भी अपनी ज़िन्दगी का पहला और आखिरी क़त्ल नहीं करना चाहता . न ही पुलिस की मदद लेकर पायल की ज़िन्दगी का तमाशा बनाना चाहता हूँ . मैं तो सिर्फ इतना चाहता हूँ कि तुम मुझे तस्वीरें दे दो और मैं लौट जाऊं . " " क्या कहा ! लौट जाऊं ! ! अबे - - - वो लोग कम अक्ल होते हैं जो शेर की मांद में घुसने के बाद वापस लौटने की बात करते हैं . " इतना कहकर सेठ ने जेब से चाकू निकालकर हवा में गुलशन पर फेंक मारा . गुलशन झुककर वार बचा गया और उसने उछलकर सेठ के मुंह पर एक घूँसा जड़ा . घूँसा पड़ते ही उसके ऐनक ने गिरकर फर्श की शरण ली . ऐनक का एक लेंस फ़ौरन शहीद हो गया और दूसरा गंभीर रूप से घायल . सेठ जल्दी से दराज़ में रखा रिवाल्वर निकालकर बोला -- " सुनो ! जो आदमी अपनी ज़िन्दगी की परवाह नहीं करता , उसे दूसरों की जान लेते देर नहीं लगती . इन्सानी खून को बाहर निकालना मेरे रिवाल्वर का शौक है . मैं तुम्हारा खून कर दूंगा . हैंड्स अप - - - अ s s s प . " उसने आदेश दिया . शहंशाही आदेश . सारी शहंशाही रिवाल्वर में होती है और रिवाल्वर उसके हाथ में था . गुलशन ने तत्काल हाथ ऊपर उठा दिये लेकिन फिर - - - वह चीते की सी फुर्ती से सेठ के ऊपर उछला . सेठ ने फ़ौरन रिवाल्वर का घोड़ा दबा दिया . एक अंधी गोली निकली , जो गुलशन के कंधे के निचले किनारे को खुरचती हुई निकल गई . वो सेठ के ऊपर ढेर हो गया . सेठ उसका युवा वज़न बर्दाश्त न कर पाने के कारण लुढ़क गया गया , मगर रिवाल्वर उसके हाथ में ही थी - - - किन्तु रिवाल्वर पर अब गुलशन की भी पकड़ हो चुकी थी . जान बड़ी प्यारी होती है . दोनों कस कर रिवाल्वर पकड़े रहे . दोनों ही पूरी ताकत लगाकर रिवाल्वर की नली में मुंह फैलाए बैठी मौत को अपने से परे ठेलने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे . भूखी नली का विकराल मुंह कभी सेठ की तरफ घूम जा रहा था , तो कभी गुलशन की ओर . बार - बार की इसी कोशिश में एक बार अचानक रिवाल्वर का घोड़ा दबकर हिनहिना उठा . रिवाल्वर ने एक शोला थूका और फिर एक उभरी हुई दर्दनाक चीख लहूलुहान लाश बनकर फर्श पर ढेर हो गयी . [30] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 4 ) गुलशन को सेठ का घर पहचनवाकर पायल उसके घर लौट आयी थी , बल्कि गुलशन ने ही उसे अपने घर लौट जाने को कहा था . वो बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी . उसका एक - एक पल उसे सौ - सौ उलाहने दे रहा था . न जाने कैसे - कैसे बुरे विचार उसके मस्तिष्क को मथ रहे थे . वो सोच रही थी कि उसने गुलशन को सेठ के यहाँ भेजकर अच्छा नहीं किया . सेठ बड़ा कमीना आदमी है . बेचारे गुलशन की जान पर बनी होगी . न जाने क्या बीत रही होगी उसपर . काश ! एक बार वो सही सलामत लौट आये . कितना अधिक मानता है उसे गुलशन . उसके लिए जान हथेली पर लेकर मौत से जूझने गया है . जैसे - जैसे देर होती जा रही थी - - - उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी . कभी - कभी उसके दिमाग में आता था कि वो सेठ के हाथों कहीं - - - . नहीं . नहीं - नहीं . उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिये . ऐसा नहीं हो सकता . वो भला आदमी है और कहते हैं कि भले लोगों के सिर पर सदा भगवान का हाथ रहता है . हे भगवान ! तू ही उसकी रक्षा करना . उसका दिल आज भगवान से मन्नतें मांगनें को मजबूर हो गया था . अच्छे - अच्छे नास्तिक भी जीवन में कभी न कभी ' बुद्धम शरणम् गच्छामि ' हो ही जाते हैं . गुलशन के लिए बेचैन पायल उसे मौत के मुंह में धकेलने के लिए स्वयं को जिम्मेदार मान रही थी . बीतते समय के साथ पायल की आँखों की नमी बढ़ती जा रही थी . उसका भारी मन जोर - जोर से रोने को कर रहा था . वह पलंग पर औंधी लेटकर तकिया में मुंह छिपाकर जोर - जोर से सिसकने लगी . रोते - रोते तकिया गीला हो गया था . तभी पीछे से गुलशन ने कमरे में प्रवेश करके पायल के सिर पर स्नेह भरा हाथ रखा . पायल ने चौंककर मुंह उठाया , तो अपने सामने गुलशन को खड़ा देखकर तेजी से बोली -- " गु - - ल - - श - - न तुम ! तुम ठीक तो हो न !! हाय - - - मेरी तो जान ही निकल गयी थी . कहाँ लगा दी इतनी देर ? " झट से ज़मीन पर उतर कर वह जल्दी - जल्दी गुलशन को टटोलने लगी . इधर से , उधर से , आगे से , पीछे से . जैसे उसे यकीन ही न आ रहा हो , उसके लौट आने का . वह उसे लगातार सहलाती जा रही थी . और तभी - - - उसने अपने हाथ में खून लगा देखा , तो चीख कर बोली -- " ये क्या गुलशन ! क्या हुआ तुम्हें ? " जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही उसने घूमकर उसके कन्धे की तरफ देखा तो कमीज़ के पिछले हिस्से को खून से लथपथ पाया . उसने पुनः घबड़ाकर पूछा -- " यह क्या हुआ ? " " कुछ नहीं ! गोली लग गयी थी . " " हाय राम ! गोली - - - और कहते हो कुछ नहीं . " " हाँ - - - कुछ नहीं होगा . गोली कन्धे को खुरचते हुए निकल गयी थी . बाल - बाल जान बच गई . " " गु - - ल - - श - - न ! " उसके गले से एहसान भरा स्वर उभरा और वह जोर से गुलशन से लिपट गयी , जैसे उसे अपनी बाहों में सुरक्षित कर लेना चाहती हो . गुलशन ने जेब से तस्वीरों का लिफ़ाफा निकालकर पायल से कहा -- " ये रहीं तुम्हारी तस्वीरें . " " तस्वीरें ! " वह उससे अलग होकर आश्चर्य से पूछने लगी -- " मिल गईं ! क्या सच ? लाओ देखूं . " पायल ने उत्सुक हाथ बढ़ाये . " ना - - - न ! इन्हें न देखो , तो ही अच्छा है . " उसका आशय समझ , पायल ने जिद नहीं की . अचानक जैसे उसे कुछ ख़ास याद आ गया हो . वह बोली -- " तुम्हें गोली लगी है - - - इसका मतलब है कि सेठ से झगड़ा हुआ था . क्या हुआ उसे ? " " ऊपर चला गया . चिराग के देर तक धुआं छोड़ते रहने से कहीं अच्छा है उसका बुझ जाना . उसे उसके कुकर्मों की सजा मिल गई . बुरे व्यक्ति का अंत कभी अच्छा नहीं होता ." " क्या कहते हो ! मर गया ? " वह आश्चर्य मिश्रित भय से सिहर उठी और रोते हुए बोली -- " गुलशन ! मुझे माफ़ कर दो . मैं शर्मिंदा हूँ कि मैंने पहले तुम्हारा सही मूल्यांकन न किया - - - और एक तुम हो कि - - - . " " अब छोडो भी इन बातों को . " गुलशन उसकी बात काटकर बोला -- " आगे की सुनो ! जब सेठ मर गया , तो मैंने उसके घर की तलाशी ली . बड़ी मुश्किल से ये फोटो हाथ लगे हैं . और ये भी एक सुखद संयोग ही रहा कि इस पूरे प्रकरण के समय सेठ घर पर अकेला ही था . काम जब बनने होते हैं तो परिस्थितियाँ खुद - ब - खुद अनुकूल होती चली जाती हैं . " पायल बोली -- " चलो तुम्हें किसी अस्पताल ले चलूँ . " " पगला गई हो क्या ! गोली लगने का मामला है . पुलिस - केस हो जाएगा . " " मगर बिना इलाज के तो तुम्हारी जान को खतरा हो सकता है ! " " नहीं - - - कुछ नहीं होगा . गोली थोड़े ही मांस में अटकी है . मात्र गहरा खुरच कर निकल गयी है . और फिर - - - अगर मेरी अब तक की नाकाम ज़िन्दगी तुम्हारे काम आ जाये , तो मुझे गम न होगा . " " चुप भी रहो . क्या मरने - जीने की बातें करते हो . " उसके होठों पर ऊँगली रखकर उसने कहा - - - और उसके आंसू पुनः तेज हो गये . गुलशन चुप हो गया . पायल ने रोते - रोते कहा -- " क़त्ल का मामला है . पुलिस तुम तक भी तो पहुँच सकती है ! " " उम्मीद तो नहीं . मैंने अपने वहां जाने के सभी सबूत भरसक मिटा दिये है . बाकी ईश्वर मालिक . होता तो उसी का चाहा है . अच्छा अब तुम जल्दी से पानी गरम करके मेरा घाव साफ़ करो . " गुलशन ने कहा . कलेजे में काफी कुछ ठंढक लेकर पायल पानी खौलाने के लिए रसोई की तरफ चल दी . [31] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 5 ) कन्धे के ज़ख्म ने गुलशन को परेशान कर रखा था . वह पिछले तीन दिन से पलंग पकड़े था . पुलिस - केस हो जाने के डर से उसे अस्पताल में भरती नहीं कराया जा सकता था और घर पर घाव जल्दी ठीक न होने की जिद ठाने था . जख्म पक चला था और प्रोफ़ेसर साहब के एक परिचित व भरोसे के डॉक्टर का उपचार चल रहा था . वो भी इतना गुप - चुप कि किसी बाहरी को कानोंकान खबर न हो सके . जब गोली लगी थी , तब तो क्रोध व आवेश में होने के कारण तकलीफ दबी रह गयी थी - - - मगर अब उसका ज़ख्म मचल उठा था और किसी नटखट बच्चे की तरह उसे परेशान करने पर तुला हुआ था . और उधर ! चंचल के सदमे की मारी और गुलशन की चिन्ता में दोहरी हुई अशक्त पायल को भी लम्बे ढीठ बुखार ने धर - पकड़ा था . वो भी बिस्तर की मेहमान बनी थी . इसीलिये वो प्रबल इच्छा होने पर भी गुलशन की देखभाल के लिये न जा पा रही थी . मगर गेसू ने गुलशन की सेवा में कोई कसर न उठा रखी थी . और यदि चाहें , तो औरतों में जितनी सेवा - शक्ति होती है , मर्दों में नहीं . तभी तो प्रोफ़ेसर साहब और चंचल तो दिनभर में कुछ एक बार उसके घर पर जाकर उसे देख सुन आते थे - - - मगर गेसू को इतने भर से संतुष्टि कहाँ होने वाली थी . वह रात - रात भर गुलशन के घर रहकर उसकी सेवा करती थी . समय से पट्टी बदलती , दवा पिलाती और जब कभी गुलशन की जलती हुई आँखों पर रहमदिल नींद अपनी मेंहदी रची खुशबूदार उंगलियाँ रखकर उसे अपनी मखमली बाहों में ले लेती , तो वो स्टूल पर बैठी - बैठी - - - उसके पैरों पर सिर टिकाकर एक - आध जिम्मेदार झपकियाँ लेकर खुद को बहला लेती थी . यह सच है कि आदमी चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाये , कितना भी आधुनिक और हिम्मती क्यों न बन जाये , लेकिन जब वो बीमार पड़ जाता है , तो एक बच्चे की तरह असहाय हो जाता है - - - और उस वक्त उसे माँ जैसी किसी ममता व त्याग की मूर्ति की सख्त जरूरत पड़ती है . और उन्हीं दिनों - - - इन बीमारी के दिनों में गुलशन भली - भाँति अनुभव कर रहा था कि गेसू माँ हो गयी - - - फिर नर्स , दोस्त , प्रिया और पत्नी . और औरत एक साथ इतना कुछ हो सकती है - - - ये उसने पहली बार देखा , जाना और महसूस किया था . आज भी ! दर्द से दोहरा गुलशन पूरी रात सो न सका . सुबह के समय , गुलशन को सुलाकर - - - न चाहते हुए भी गेसू को नींद की झपकी लग गयी . वह स्टूल पर बैठे - बैठे पलंग पर सो रहे गुलशन के पैरों पर सिर रखकर नींद की वादियों में खो गयी . सो गयी . गुलशन की आँख खुली तो उसने देखा कि गेसू उसके दोनों पैरों के बीच अपना थका उदास चेहरा छुपाये नींद की चादर ताने पड़ी है . उसकी इस मुद्रा को देखकर उसे अनुभव हुआ कि वह बेकार ही अपने आप को आजतक अकेला समझता रहा . वो अकेला नहीं है . दुनिया में उसके आगे पीछे भी कोई है . सोचते - सोचते सुप्त गेसू को निहारते - निहारते उसका मन गेसू के प्रति एक अजीब सी अनुभूति से ओत - प्रोत हो गया . इस अनुभूति का नाम तलाशते - तलाशते उसकी आँखें भर आयीं . वो बिना पैर हिलाए , हाथों का सहारा लेकर , कमर के बल धीरे से उठ बैठा और पंखे के तेज शरारती झोंकों की छेड़खानी से बिखर गये गेसू के बालों को समेट कर उसकी कनपटी में हौले से फंसाने लगा . उसका दिल चाह रहा था कि वह गेसू को अपने सीने से लगा ले . मगर फिर - - - न जाने क्या सोचकर उसने गेसू की पलंग पर खुली पड़ी हथेलियों को धीरे से चूम लिया . और तभी - - - उसकी सीप सी आँखों से कुछ नर्म - गर्म मोती छलक कर गेसू की हथेलियों पर बिखर गये . हाथों में कुछ गुनगुनी सी गर्मी अनुभव करते ही गेसू कीं कच्ची नींद चिटक गयी . उसे जागा देखकर गुलशन ने जल्दी से अपने मुंह को उसकी हथेलियों से दूर कर लिया और कुछ सोचने की सी मुद्रा बना ली . सब कुछ जान - समझ कर भी गेसू अनजान बनते हुए बोली -- " क्या सोच रहे हो दोस्त ? " " सोच रहा हूँ ! तुम्हारे इतने रूप !! गेसू - - - मैं तुम्हें आज तक समझ न सका . " " वह फीकी हंसी बिखेर कर बोली -- " औरत कभी भी समझ में नहीं आ सकती मेरे दोस्त ! मर्दों को उन्हें समझने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिये . " " हाँ गेसू - - - हाँ . तुम ठीक कहती हो शायद . " वह रुंधे कंठ से बोला . और तभी - - - जैसे धीरज कहीं अस्त हो गया . जैसे विवेक मचल उठा . जैसे मन का बाँध टूट गया - - - और तभी गुलशन ने अधीर होकर , कंधे की पीड़ा की परवाह किये बिना , उसे अपनी बाहों में बांधकर उसके रेशमी गालों को चुम्बनों से मालामाल कर दिया . गेसू फफक कर रो उठी - - - और उसने खुद को गुलशन की बाहों में ढीला छोड़ दिया . उसी के भरोसे . उसी की मरजी पर . कुछ देर बाद ! गेसू ने पूछा -- " गुलशन पता चला है कि पायल ने तुम्हारे सामने शादी का प्रस्ताव रखा था . तुमने क्यों मना कर दिया ? पहले तो तुम उससे शादी के लिए बेहद उतावले हुआ करते थे . उसके प्रति कितने भावुक थे . ' " गेसू भावुक तो उसके प्रति मैं आज भी बहुत हूँ . किन्तु जहाँ तक मैंने समझा - - - पायल की पहली पसन्द तो आज भी चंचल ही है . मैं तो उसकी हमदर्दी अथवा विवशता वश उपजा विकल्प मात्र हूँ . जबकि उसे इस प्रकार इस रूप में पाने की तमन्ना तो मैंने कभी न की थी . और वैसे भी - - - इधर बीच , धीरे - धीरे मेरे विचार अब करवट बदलने लगे हैं . या यूं कहो मेरी तन्द्रा टूटने लगी है . अब धीरे - धीरे मेरी समझ में आता जा रहा है कि भावना और यथार्थ में काफी लम्बा फासला है . पहले शायद मैं भूल कर बैठा था और यथार्थ की महत्ता को अनदेखा करके भावनाओं को महत्व दे बैठा था . और उन्हीं जरूरत से ज्यादा भावना वश संचालित मेरे व्यवहारों ने मुझे रुलाया भी बहुत . " " लेकिन मैं तो अच्छाई इसी में समझती हूँ कि तुम्हें पायल का प्रस्ताव मान लेना चाहिए था . " " माना तो है . हाँ - - - ये बात और है कि आंशिक रूप से -- चंचल से उसका विवाह न हो पाने की दशा में . और मैं समझता हूँ कि उस वक्त की परिस्थितियों को देखते हुए , मेरे इस निर्णय के नीचे यथार्थ की बुनियाद है . और - - - . " और इससे पहले कि गुलशन कुछ और कहता - - - कि बाहर से डाकिये की आवाज़ आयी -- " पोस्ट - मैन - - - रजिस्ट्री ले लें . " गुलशन चौंक कर बुदबुदाया -- " कैसी रजिस्ट्री ! " उसने गेसू से कहा -- " जाओ - - - बाहर जाकर ले लो . " गेसू बाहर चली गयी . थोड़ी देर में वो लिफाफा लेकर लौटी और उसने उसे गुलशन को पकड़ा दिया . गुलशन प्रेषक का नाम देखकर चौंका - - - और फिर बेहद फुर्ती से उसे खोलकर भीतर रखा कागज़ पढ़ने लगा . इसके बाद पागलों की तरह ख़ुशी से झूमकर गेसू को बाहों में लेकर नाचने सा लगा . उसकी ख़ुशी देखकर गेसू भौचक्की रह गयी . उसने अपने को उसकी बाहों से आज़ाद करा कर पूछा -- " क्या बात है दोस्त ! क्या पढ़ लिया - - - जो अचानक आज पहली बार इस कदर बम - बम हुए जा रहे हो ? " " बात ही कुछ ऐसी है गेसू . " उसने उसे पुनः अपनी बाहों में खींच कर कहा -- " मुझे नौकरी मिल गयी . एक आकर्षक नौकरी . अब जाना - - - भगवान के घर देर है - - - अन्धेर नहीं . " " स - - - च ? " गेसू ने आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी में पूछा . गुलशन चहका -- " हाँ गेसू - - - सच . मुझे नौकरी मिल गयी . अब मै बेरोजगार नहीं रहा . मेरा चयन प्रतिष्ठित बहु राष्ट्रीय कम्पनी में एक बड़े अधिकारी के रूप में हो गया . अब जाकर निश्चिन्त हुआ . लगता है , सही समय आ गया है . देखो तो - - - बदसूरत ज़िन्दगी अचानक कैसी खूबसूरत करवट ले लेती है . " " हाय - - - मुझे तो विश्वास ही नहीं आ रहा , अपने कानों पर . क्या तुम प्रतियोगिताओं में बैठते थे ? " " तो क्या तुम समझती हो कि डूब रहा आदमी अपनी पूरी ताकत से हाथ पाँव नहीं मारता ! " " गुलशन ! मै तो सचमुच आश्चर्यचकित हूँ - - - यह खबर सुनकर . " " तुम्हारे लिए इससे भी आश्चर्य की एक सुखद बात और सुनाऊँ ? " " क्या ? जरा जल्दी बताओ . " " तुम्हें नहीं मालूम कि इस पद के लिये साक्षात्कार देने दूर दूसरे शहर मै तुम्हारे पड़े मिले रुपयों की मदद से ही गया था . सच्ची - - - तुम मेरे लिये बड़ी भाग्यशाली साबित हुई . अगर ऐन वक्त पर संयोगवश तुम्हारे पड़े मिले रूपये सहारा न देते तो निश्चित ही आज मुझे ये सुखद दिन देखने को न मिलता . सच ही है - - - कोई - कोई किसी के लिये कितना शुभ होता है . " यह सुखद संयोग सुनकर वह और भी फूलकर कुप्पा हो गयी और बोली - " गुलशन ! मेरे दोस्त !! ईश्वर तुम्हें खूब आगे बढ़ाये . " इतना कहकर वह गुलशन की बाहों से चिपक कर मुस्कराते हुए पुनः बोली -- " मेरे पेट में स्त्री सुलभ अफारा हो रहा है . मैं तो चली - - - घर पर सबको यह खुशखबरी सुनाने . " वह फुर्र से किसी चिड़िया की भाँति दरवाजे के बाहर हो गयी और अपने पीछे एक ऐसी ख़ुश्बू छोड़ गयी - - - जो सिर्फ तरुणियों के बदन से ही आती है -- और वो भी किसी - किसी के . [32] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 6 ) प्रोफ़ेसर साहब अपने इर्द - गिर्द तेजी से घट रहे घटनाक्रम पर पैनी निगाह गड़ाये उसका सूक्ष्म विश्लेषण कर रहे थे . वो अभी तक मौन साधे थे तो सिर्फ इसलिए क्योंकि अच्छी तरह जानते थे कि हर बात को कहने का एक उचित अवसर होता है . समय से पहले या बाद में कहे जाने पर महत्वपूर्ण बात अपना प्रभाव खो बैठती है . अब जबकि घटना चक्र काफी कुछ ठहर गया था तो उन्होंने एकान्त तलाश कर चंचल से दो टूक बात कर लेना उपयुक्त समझा . उन्होंने चंचल से कहा -- " बेटा ! मैं तुमसे तुम्हारे विषय में कुछ बात करना चाहता हूँ . " " मेरे विषय में ! " चंचल ने पूछा -- " कैसी बातें ? " " पायल से तुम्हारे विवाह - सम्बन्धी बातें . " " लेकिन इस सन्दर्भ में अब कौन सा पक्ष बचा है बात करने का ? क्योंकि मैंने तो फैसला कर लिया है , शादी न करने का . " " यही तो वह पहलू है , जिस पर मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ . " " क्यों - - - क्या मैं अपनी ज़िन्दगी के व्यक्तिगत फैसले भी स्वयं नहीं ले सकता ? " " बेटे ! कोई भी ऐसा फैसला या कार्य जिससे दूसरों को असुविधा हो , वह व्यक्तिगत हो ही नहीं सकता . " " फिर तो - - - आपके हिसाब से मैं अपनी ज़िन्दगी के अहम् निर्णय भी अकेले नहीं ले सकता . चलिए - - - आप ही बताइये - - - आप को क्या लगता है - - - क्या मेरा फैसला गलत है ! " " तुम्हारा फैसला गलत है अथवा सही - - - यह विषय गौण है . पहला और मुख्य प्रश्न तो ये है कि कोई फैसला करने का फैसला तुम अकेले ने कैसे ले लिया . " " पिताजी ! घुमा - फिरा कर आप मुझसे यही अपेक्षा तो कर रहे हैं कि मैं स्वयं से सम्बंधित महत्वपूर्ण निर्णय भी अकेले न लूं . " " अवश्य लो . लेकिन क्या ये अनुचित नहीं कि सामूहिक रूप से लिए गए किसी पारिवारिक निर्णय को तुम बिना विचार - विमर्श के अकेले ही उलट दो ! क्या तुम्हारा ये आचरण हम लोगों के लिए असुविधा जनक न होगा ! " " क्या मतलब ! मैं आपका तात्पर्य नहीं समझा . " " मेरे कहने का सीधा सा अर्थ ये है कि जब तुम्हारे अकेले के अनुरोध पर हमारे पूरे परिवार ने तुम्हारी व पायल की शादी का सामूहिक निर्णय लिया था , तो तुम्हारे अकेले द्वारा ही मनमाने तरीके से , बिना हम लोगों को भरोसे में लिए , हमारी सहमति की परवाह किये बगैर , उसे बदल दिया जाना कहाँ तक नीति - सम्मत है ? क्या ये आचरण परिवार की अनदेखी करना नहीं है ? " " आपकी बात सही है और इसका मुझे खेद है . किन्तु मेरा निर्णय गलत है क्या ? " " कम से कम तुम्हारी नज़र में तो नहीं है गलत . लेकिन जहाँ तक मेरा विचार है , वो तुम्हारे निर्णय से भिन्न है . बेटे ! खूब आगा- पीछा सोच समझ कर संक्षेप में मैं ये कहना चाहता हूँ कि तुम पायल से शादी कर लो . गेसू की भी यही इच्छा है . " " पिता s s s जी - - - आप - - - . " " हाँ - - - मेरी यही सलाह है . और ये एक ऐसे आदमी की सलाह है , जिसने दुनिया को तुमसे अधिक देखा , जाना और समझा है . इसीलिए मैं चाहता हूँ कि तुम पायल से शादी कर लो . " " पिताजी ! यह आप कह रहे हैं ! ! ये जानते हुए भी कि किसी बदमाश के हाथों उसकी इज्जत लूटी जा चुकी है . " " लेकिन इसमें उस बेचारी का क्या दोष ? उसका सहयोग तो नहीं था उस कार्य में ? " " मगर पिताजी ! पायल किसी पर पुरुष के संपर्क में - - - ." " चंचल बेटे ! स्त्री को देह के दायरे में बाँध कर परिभाषित मत करो . देह से परे भी उसका अपना एक अस्तित्व होता है . घटनावश देह मैली होने का मतलब चरित्र मैला होना कतई नहीं . वैसे भी ये तुम नहीं , तुम्हारे भीतर समाज द्वारा भरे गए अधकचरे पूर्वाग्रह बोल रहे हैं . अछूती कन्या से ही विवाह का प्राविधान तो हमारे सभ्य समाज ने व्यक्ति को निरंकुश होने से बचाए रखने के लिए बनाया है . यदि ऐसा नियम न हो तो लोग अव्यवस्था उत्पन्न कर दें . भावनाओं पर नियंत्रण न रखकर खुलकर खेलने लगें . किन्तु अपवादों में तो नियम लागू नहीं होते . वहां शिथिलता स्वीकार्य होती है . पायल के साथ घटी घटना तो एक अनैच्छिक विवशता थी . वो अपवाद की श्रेणी में है . आखिर पाश्चात्य देशों में भी तो औरतें अपने जीवन में प्रायः कई - कई शादियाँ करके नये - नये आदमियों के संपर्क में आती हैं . वहां ऐसी औरतों से सहर्ष शादी करने वालों की पर्याप्त संख्या है . यह तो मात्र सोचने का फर्क है . " " किन्तु सोचने का ये अन्तर तो भिन्न - भिन्न समाजों की देन है . पाश्चात्य व भारतीय समाज की सोच का फर्क आपसे छुपा तो नहीं . पिताजी ! जरा सोचिये !! हम जिस तरह के समाज में रहते हैं , यदि उसे मालूम पड़ा तो मेरी सामाजिक स्थिति पर भी तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा . लोग क्या कहेंगे ! " " चंचल ! लोग क्या कहेंगे - - - इस दायरे में सोचना साधारण आदमी की बहुत बड़ी कमजोरी है . इसका उसे प्रतिपल मूल्य चुकाना पड़ता है . ऐसा सोचने वाला व्यक्ति झिझकने और व्यक्त न हो पाने के कारण अपने जीवन में कुछ ख़ास नहीं कर पाता . जबकि मैंने तुम्हें साधारण नहीं बल्कि कुछ ख़ास बनाने के लिये , तुम्हारे व्यक्तित्व को निजता प्रदान करने की नीयत से , तुम्हें उच्च शिक्षा दिलवाई थी . यह सोचकर कि उच्च शिक्षा मनुष्य की सोच को विशिष्ट एवं लचीला बनती है . उच्च शिक्षित व्यक्तियों के विचारों का दायरा व्यापक हो जाता है . ऐसे लोग अपनी पहल पर सामाजिक विचारों को परिष्कृत करने का निरन्तर प्रयास करते हैं और अपने विवेक के कहे अनुसार अपनी इच्छाओं से अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीकर समाज में अपनी स्वतन्त्र पहचान स्थापित करते हुए समाज के लिये नये व्यवहारिक मार्ग प्रशस्त करते हैं . " " हुंह - - - अपना जीवन , अपने अरमान , अपनी पहचान - - - . पिताजी ! ये शब्द बोलने - सुनने में जितने आसान लगते है , वास्तव में उतने हैं नहीं . कोई भी व्यक्ति स्वयं अपनी सोची - चाही ज़िन्दगी भला जी ही कितनी पाता है . अगर ध्यान से देखें तो हम पूरी उम्र प्रायः दूसरों द्वारा थोपी हुई ज़िन्दगी ही तो जीते हैं .क्योंकि हर पल छिन हमें यही विचार तो घेरे रहता है कि लोग क्या सोचेंगे , समाज क्या कहेगा . और इस प्रकरण में तो मेरी शर्तिया सोच ये है कि लोग मेरा नाना प्रकार से प्रबल विरोध करेंगे . राह चलते मज़ाक उड़ाकर मेरा जीना हराम कर देंगे . " " बेटे ! समाज में प्रारम्भिक व सर्वाधिक विरोध तो निकटतम लोग ही करते हैं . उन्हीं का प्रश्रय पाकर विरोध समाज में विस्तार पाता है . जबकि हम - - - जो तुम्हारे निकटतम हैं - - - परिवार के रूप में समाज की सूक्ष्मतम इकाई हैं - - - जब हमारा हार्दिक सहयोग और अभयदान तुम्हारे साथ रहेगा , तो वह प्रतिपल तुम्हें संबल प्रदान करेगा . सोचो ! अगर तुम पर कोई टीका - टिप्पणी करेगा भी , तो इस निर्णय में सम्मिलित रहने के कारण तुम्हारा पूरा परिवार स्वाभाविक रूप से इसे सहने में साझीदार रहेगा , जो तुम्हारे लिये निश्चित ही ढाल का काम करेगा . हम सब मिल - जुल कर परिस्थितियों का सामना करेंगे . एक बात जान लो बेटा ! समाज में बनी - बनायी लीक से हटकर जो साहसी लोग कुछ नया व अटपटा करते हैं - - - इतिहास गवाह है कि समाज का जो वर्ग पहले उनकी खिल्ली उड़ाता है , फिर भी वह निडर यदि डटा रहे तो उसे धमकाता और बातों व हाथों के पत्थर से मारता है . इसके बावजूद भी वह नहीं डिगे तो वही विरोधी समाज भीड़ की शक्ल धारण कर उसकी जय - जयकार करता हुआ उसी के पीछे चल निकलता है . " " मगर क्या मेरा यह आचरण सामाजिक नीति के विरूद्ध न होगा ? ' " बेटे ! क़ानून जिसकी अनुमति देता है , वह कार्य नीति - विरुद्ध हो ही नहीं सकता . क्योंकि क़ानून के निर्माता नीति के मर्मज्ञ एवं बहुसंख्य समाज की भावना के प्रखर प्रतिनिधि होते हैं . और फिर - - - अब तुम समाज की इतनी चिन्ता क्यों करते हो ! अब तो सूचना के प्रमुख स्रोत को ही गुलशन ने ख़त्म कर दिया है . फिर तुम्हें काहे का भय ! कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज के संभावित उलाहने की आड़ लेकर अपने पूर्वाग्रह विशेष के चलते तुम पायल को त्यागने का प्रयास कर रहे हो ! यदि तुम्हारे मन में ऐसी कोई छुपी भावना हो तो ज़रा विचार करो कि यदि कहीं विवाह के उपरान्त पायल के साथ ऐसा कोई हादसा हो जाता तो क्या तुम उसे ऐसी आसानी से छोड़ सकते थे ! तब यही समाज आड़े न आ जाता क्या ? इसलिए मैं फिर कहूँगा कि यदि तुम इन जटिल परिस्थितियों में पायल से शादी कर लेते हो तो उसके मन में निश्चित ही तुम्हारा दर्जा बढ़ जाएगा . वो सारी उम्र तुम्हारे पाँव धोकर पीयेगी . सो अक्लमन्दी इसी में है कि परिस्थितियों के अनुसार ढलना सीखो . वक्त हाथ से निकल गया तो पूरी उम्र हाथ मलते गुज़र जायेगी . बेटे ! अगर गंभीरता से ली जाय तो ज़िन्दगी शतरंज की बिसात से कम नहीं , जहाँ पर एक गलत चाल भी पूरा खेल बिगाड़ देती है . इसीलिए जोर देकर कहता हूँ कि सही राह पर लौटने के लिये कभी भी देर नहीं होती बल्कि हर वक्त सही होता है . इसलिये अब और अधिक देर न करो . जाओ - - - जाकर पायल का हाथ थाम लो . मुझे पूरा भरोसा है - - - सब ठीक हो जायेगा ." " मगर पिताजी ! आप इतने आत्म विश्वास के साथ कैसे कह रहे हैं कि अन्ततोगत्वा सब कुछ ठीक हो ही जायेगा ? " " बेटे ! आत्म विश्वास अनुभवों से उत्पन्न होता है और अनुभव बढ़ती उम्र के साथ स्वतः बढ़ते रहते हैं . साथ ही बड़ों के बीते हुए कल के अनुभव छोटों का आज संवारने में काफी सहायक हो सकते हैं . बशर्ते छोटे अपने से बड़ों का विश्वास करके उनके अनुभवों का लाभ उठायें . " " पिताजी ! फ़िलहाल मैं कुछ सोचना चाहता हूँ . क्योंकि अभी मेरी मनःस्थिति दुविधा और भ्रम से भरी है . मुझे थोड़ा सोचने का अवसर दीजिये . " " हाँ - हाँ - - - जरूर सोचो . खूब सोचो . लेकिन जब इस विषय में सोचना तो यह भी जरूर सोचना कि आखिर वो कौन से मानवीय कारण हैं , जिसके वशीभूत होकर गुलशन ने पायल के लिये इतना बड़ा जोखिम उठाया . " " हाँ पिताजी ! ये प्रश्न तो मुझे कई दिनों से मथ रहा है और मैं चकित हूँ . किन्तु मैंने सोचा कि गुलशन की तबीयत सही हो जाने के बाद ही इसका उत्तर मैं उसी से पूछूंगा . " " बेटे ! तुम सोचते ही रह गये और मैंने गेसू के माध्यम से इसका उत्तर तलाश भी लिया . " " क्या ? " " सुनो ! गुलशन व पायल कभी सहपाठी थे . कॉलेज के दिनों से ही गुलशन पायल को एकतरफा प्यार करता था . किन्तु उसमे जीवन साथी की व्यवहारिक छवि न पाकर पायल केवल दोस्ती तक ही सीमित रही और बाद में तुमसे प्यार करने लगी . सब कुछ जानते - समझते हुए भी उस सच्चे प्रेमी ने विपत्ति में पायल की निस्वार्थ सहायता करके अपना कर्तव्य बखूबी निभाया . मेरे ख़याल से - - - अब तुम्हारी बारी है - - - अपना धर्म निभाने की . अगर तुमसे बन पड़े तो . " इतना सुनकर अवाक रह गये चंचल की आँखों में गुलशन के प्रति श्रद्धा पसीज उठी और उसके मस्तिष्क में उठी भावनाओं की आँधी ने उसके क़दमों को कमरे के बाहर ठेल दिया . [33] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 7 ) यह सत्य है कि व्यक्ति ऐसे लोगों की बातों को अपेक्षाकृत आसानी से और शीघ्र मानता है जो उसके आदर्श होते हैं और जिनकी वह इज्जत करता है . क्योंकि अतीत के अनुभवों के आधार पर वह आश्वस्त रहता है कि वो उसके शुभ चिन्तक हैं और किसी भी दशा में उसे गलत सलाह नहीं देंगे . यही चंचल के साथ हुआ . अपने पिताजी के साथ हुई वार्ता विशेष के सन्दर्भ में काफी चिंतन - मनन करने के पश्चात चंचल के मस्तिष्क में एक वैचारिक क्रान्ति सी आ गयी थी . आमूल चूल परिवर्तन उत्पन्न हो गये थे . पिता द्वारा प्राप्त संबल एवं गुलशन के त्याग ने उसके दिग्भ्रमित मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि उसने अपने मन में खुद के पूर्व निर्णय को रद्द करके पायल को अपनाने का विचार दृढ़ कर लिया . अब उसे पायल के प्रति पिछले दिनों किये गये अपने निष्ठुर व्यवहार पर अत्यधिक ग्लानि हो रही थी . एक अपराध - बोध ने बसेरा कर लिया था उसके मन - मस्तिष्क में . वह सोच रहा था कि पता नहीं उसके कठोर आचरण से घायल पायल उसको क्षमा करेगी भी या नहीं . उस अनुभवहीन को अभी ये नहीं मालूम था कि बेचारी आम औरत के पास चाहे - अनचाहे क्षमा करने के अतिरिक्त दूसरा चारा भी क्या है . युगों - युगों से वो विकल्पहीन विवशता वश पुरुषों को क्षमा ही तो करती आ रही है और पुरुष सदा यह कहकर उसे बहलाता आ रहा है कि स्त्री क्षमा की देवी है - - - महान है . बड़े लीलाधर होते हैं पुरुष . गुलशन के साथ किये गये शुष्क व्यवहार पर भी चंचल को अब बहुत पश्चाताप हो रहा था . उसने निर्णय कर लिया था कि वह अवसर मिलते ही गुलशन से अपने आचरण के प्रति खेद व्यक्त करेगा . उसे पूरी आशा थी कि गुलशन उस प्रकरण को बिसार देगा . क्योंकि उसकी नज़र में वो विशालमना है . ऐसे व्यक्ति तो क्षमा करने और भूल जाने की आदत के चलते निरंतर महान और सर्व प्रिय होते चले जाते हैं . लेकिन वो पायल का क्या उपाय करे . वह तो औसत व्यक्तित्व की ही स्वामिनी है . पता नहीं उसके शुष्क व्यवहार का तीर उसने अपने कोमल ह्रदय में कितने गहरे तक अनुभव किया है . और जब दिल टूटता है तो सीधे दिमाग पर असर पड़ता है . कहीं सामान्य व्यक्ति की सी प्रतिक्रिया स्वरूप चोट खाकर उसके मस्तिष्क में विद्रोह ने जन्म तो नहीं ले लिया . अपराध बोध के सशंकित साए तले वह उस पल की निरन्तर प्रतीक्षा कर रहा था - - - जब अनुकूल एकान्त पाकर वह पायल से वार्ता का साहस जुटा सके . और ईश्वरीय अनुकम्पा से शीघ्र ही ऐसा समय आ गया . इस वक्त घर में केवल चंचल और पायल ही थे . उदास पायल सूने आँगन में रखे एक गमले में लगे हुए अपनी तरह लगभग मुरझा चुके पौधे को पानी देने जा रही थी . दबे पाँव चंचल भी उसके पीछे सकुचाकर खड़ा हो गया . चंचल की समझ में नहीं आ रहा था कि वह संवाद को कहाँ से व कैसे शुरू करे . ये द्वन्द उसके मन को मथ रहा था . सच तो ये था कि इतने दिनों की निष्ठुरता के बाद उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी कि वह पायल से बात करे . थोड़ी देर तक यूँ ही खड़ा - खड़ा वह पायल के बेरौनक हो चले बदन को देखता रहा और फिर कुछ हिम्मत जुटाकर उसके कन्धे पर पीछे से थपकी देकर किसी तरह शब्दों के धक्के से अधर खोलकर बोला -- " चलो - - - जल्दी से तैयार हो जाओ पायल . " " क्यों ? " पायल ने पलटकर आश्चर्य से पूछा . जबकि उसका हाथ गमले में पानी छोड़ने से पहले ही झुका का झुका रह गया . " चलना नहीं है क्या ? " "कहाँ ? " वह वैसे ही हाथ झुकाए - झुकाए मुंह उसकी तरफ करके बोली . " बाज़ार . आखिर सारी खरीददारी हम ही लोगों को तो करनी है . शादी की तारीख कितनी नज़दीक आ गयी है हमारी . " ये सुनते ही पायल के हाथ में थमा पानी का बर्तन लगभग सूख रहे पौधे वाले गमले में खुद - ब - खुद गिर पड़ा और गमला पानी से सराबोर हो उठा . साथ ही उसके कुम्हलाये चेहरे पर अचानक एकबारगी सावन की हरियाली सी छा गयी . उसके हाथ तेजी से थरथराये और मुंह से निकला -- " क्या - - - सच - - - चंचल ? " " हाँ पायल ! - - - हाँ . बिलकुल सच . " चंचल ने अपनी बाँहें फैला दीं . " " पायल उससे लिपटकर उसकी बाहों में समा गयी - - - जैसे उसे इसी पल का सदियों से इन्तजार था . उसके मुंह से हलकी सी आवाज़ निकली -- " चंचल ! मेरी ज़िन्दगी !! तुम मेरी रूठी हुई किस्मत हो . मेरा खोया हुआ चैन हो . तुम मिल गए - - - मुझे सुकून मिल गया . अब मुझे और कुछ न चाहिए चंचल . कुछ भी नहीं . " उसकी डबडबायी आँखों से आंसुओं की फागुनी पिचकारियाँ छूट पड़ीं और वो अपनी दृष्टि ऊपर नीले - चमकीले आकाश में जमाये रही - - - जहाँ उसके प्यार के बिखरे घोसले का तिनका - तिनका फिर से इकठ्ठा हो रहा था . बड़े खूबसूरत आकार में . चंचल ने पायल का माथा चूमकर कहा -- " मुझे माफ़ कर दो पायल . मैंने तुमको बहुत सताया . " मगर पायल ने कुछ भी न सुना . वो तो चंचल के सीने से सटी हुई एक नई ज़िन्दगी के सुनहरे सपने बुनती हुई खुशियों के समन्दर में हिलोरें ले रही थी . अब उसका मुरझाया हुआ चेहरा ऐसे खिल उठा था , जैसे किसी सूख रहे पौधे को पानी मिल गया हो . [34] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
( 2 8 ) पायल से विवाह हेतु चंचल के राजी हो जाने का समाचार गुलशन को मिल चुका था और वह ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि यह समाचार उसके लिए सुखद है या दुखद . काफी माथा - पच्ची के पश्चात उसने ऐसी दुविधा के विशेष क्षणों हेतु सर्वोत्तम तरीका अपनाते हुए तटस्थ भाव से सब कुछ ईश्वर के हाथ छोड़ दिया और अपने उदास कमरे में बैठा अपने भावी जीवन की रूप रेखा तैयार करने लगा . आज न जाने क्यों उसके तन - मन में यह बात बार - बार और बड़ी जोर - जोर से कुलबुला रही थी कि घरनी बिन घर भूत का डेरा . आज उसे अपना ही घर भांय - भांय करता नजर आ रहा था . उसकी इच्छा हो रही थी कि उसे भी अपना घर अब बसा ही लेना चाहिये . गेसू उसे कितना चाहती है - - - वह भी उस समय से , जब वह कुछ भी नहीं था . खूब जानी समझी लड़की है . बुरे दिनों की अच्छी प्रमाणिक संगिनी . सुघढ़ - सफल पत्नी के लगभग सभी गुणों से युक्त है . हाँ - - - निश्चित ही यही चयन सर्वोत्तम रहेगा . आज ही जाकर गेसू को अपने निर्णय से अवगत कराकर आश्चर्य चकित कर दूंगा . ख़ुशी से गदगद हो उठेगी वह तो . तभी गेसू उसके कमरे में दाखिल हुई . लगता है उसकी उम्र बहुत लम्बी होगी . तभी तो याद करते ही आ धमकी थी . ख़ुशी से चहकते हुए गुलशन ने उसे हाथों हाथ लिया . थोड़ी देर तक औपचारिक बातचीत करते रहने के पश्चात अचानक गेसू बन्दूक की तरह दग पड़ी -- " दोस्त ! पिताजी ने मेरी शादी तय कर दी है . उनका कहना है कि चंचल - पायल के साथ - साथ मेरे भी हाथ पीले कर देंगे . " उसकी बात की चोट से गुलशन की सारी सोच ही जैसे छितरा गयी . मानो पहाड़ टूट पड़ा हो उस पर . उसका तो चेहरा पीला पड़ गया . वह चौंक कर बोला -- " और तुमने हाँ कर दी ? " " क्या करती ! चाहती तो बहुत थी कि मेरी शादी तुमसे ही हो - - - प्रयास भी कुछ कम नहीं किये - - - मगर तुम्हारी ढुल मुल नीति के कारण मुझे पिताजी की बात माननी ही पड़ी . गुलशन ! मेरे दोस्त !! इधर बीच मैं अनुभव कर रही थी कि मेरे लिए तुम्हारे इंतज़ार की मोमबत्ती अधिक दिनों तक चलने - जलने वाली नहीं . लौ बुझने से पहले मैं अपना रास्ता ढूंढ लेना चाहती थी . " गुलशन को तो जैसे काठ ही मार गया था . गेसू कहती रही -- " और चारा भी क्या था ! ये तो तुम जानते ही हो कि औरत इन्तज़ार कर सकती है , उसकी जवानी नहीं . और जीने के लिए कोई स्थायी सहारा तो चाहिये ही . आखिर कब तक तुम्हारा इन्तज़ार करते - करते अपनी उम्र को घुन लगाती . उम्र गुज़र जाने के बाद मुझे कौन पूछता ! " गेसू इतना कह गयी - - - मगर गुलशन तो कुछ और ही सोच रहा था . उसके चुप हो जाने पर उसने कहा -- " गेसू ! " " क्या ? " " एक बात पूछूं ? " " पूछो . " " आदमी जिस मकान में रहने की तमन्ना करे , उसकी छत अगर गिर जाये , तो क्या दूसरी छत नहीं डाली जा सकती ? " " हाँ - हाँ - - - क्यों नहीं ! जरूर डाली जा सकती है दूसरी छत . " " तो क्या - - - तुम दूसरी छत डालने में मेरी मदद करोगी ? ' इतना कहते - कहते हवा से डरे दीपक की लौ की तरह गुलशन की मार्मिक आवाज़ काँप उठी और गेसू उसकी औचक बातों का अर्थ निकाल उसे आठवें आश्चर्य की तरह भौचक देखने लगी . गेसू ने कुछ कहना भी चाहा मगर आवाज़ दगाबाजी कर गयी . ये वो क्षण था , जब शब्दों की संपत्ति समाप्त हो जाती है और सशक्त भाषा अशक्त होकर मौन हो जाती है . गेसू को लग रहा था , जैसे अचानक उसके चारों ओर एक साथ हज़ारों फुलझड़ियाँ और पटाखे फूट पड़े हों . जैसे सैकड़ों झरने एक साथ गुनगुना उठे हों . जैसे समूचा आर्केस्ट्रा उफान पर आ पहुंचा हो . उसका तन - मन खुशियों के नगमें अलापने लगा और उसकी तेज़ साँसे साज बनकर झंकृत सी होने लगीं . एक बार तो उसे गुलशन की बात पर यकीन ही नहीं हुआ . मगर फिर करना ही पड़ा . क्योंकि यह दिन पहली अप्रैल का नहीं था और न ही फागुन का महीना था , जो इस तरह ठिठोली की जाय . गुलशन की तरफ देखने पर , जिस क्षण उससे आँखें चार हुईं - - - तो उसने उन कुछ क्षणों में उतना कुछ सोच डाला , जितना की मनुष्य पूरी जिंदगी में करता है . उसने आँखों ही आँखों में गुलशन द्वारा प्रस्तावित संधि - पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये . " मैं तुम्हारी हूँ गुलशन ! तुम्हारी . " आखिर खुशियों में आकंठ डूबी बाईस वर्ष की भरपूर जवानी बोल पड़ी -- " मुझे विश्वास नहीं हो रहा मेरे दोस्त , कि मई की ये गर्म शाम अपने दहकते हुए दामन में महकते हुए इंद्र धनुषी फूलों के ढेर भी लेकर आ सकती है . " इतना सुनते ही गुलशन ने गेसू को गले लगाकर उसका मखमली मुंह चूम लिया और उसे लगा जैसे उसने किसी ताज़ा खिले गुलाब पर अपने होठ रख दिये हों . जबकि गेसू की कजराई पलकें मादक होकर उठीं और फिर लड़खड़ाकर झुक गयीं , मानो कोई दुल्हन सुहाग - सेज पर शर्मा रही हो . गुलशन ने गेसू के चेहरे को अपने हाथों में लेकर आज पहली बार उसे ऊपर से नीचे तक एक विशेष नज़र से सिर्फ देखने के लिए देखा . बल्कि यूँ कहें कि उसकी आँखों ने गेसू के सम्पूर्ण शरीर को छुआ तो उसने अनुभव किया कि दुनिया की सबसे नरम और सोंधी मिट्टी से निर्मित गेसू की सम्मोहक आँखों में बंगाल का जादू और अंगों में राजस्थानी कसाव है . उसकी रंगत कश्मीर की और स्वास्थ पंजाब का है . उसमे गोवा की अल्लढ़ता और हिमांचली सरलता है . उसके चेहरे में सिक्किमी युवतियों सी अपील और बदन में महाराष्ट्रियन मछेरिनों जैसा लोच है . संक्षेप में वह काया से कामिनी , महक से पद्मिनी और कंठ से रागिनी है . उसकी इस कवितामय सुन्दरता पर मुग्ध होकर गुलशन बोला -- " गेसू ! जानती हो - - - आज तुम मुझे कैसी लग रही हो ? " " तुम ही बताओ ? " " बेहद आकर्षक और कीमती औरत . " गुलशन ने उसका माथा चूमकर मुस्कराते हुए कहा . गेसू भी हंसकर बोली -- " दोस्त ! ज़रुरत के वक्त औरत ही क्या - - - हर चीज़ आकर्षक और कीमती हो जाती है . " इसके बाद गेसू ने उसकी बाहों से परे हटकर कहा -- " गुलशन ! मुझे लगता है - - - अब तुम्हें अनुभव हो चुका है कि पहले भावुकता और जल्दबाजी में आकर तुमने अदूरदर्शिता से काम लिया था - - - और अब तुम्हारा ये ख़याल दृढ़ हो चला है कि संसार में केवल भावुकता की बुनियाद पर आधारित प्रेम कभी सफल नहीं हो सकता . शायद तुम्हारा ये भ्रम भी दूर हो चुका है कि केवल प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है . " " हाँ गेसू - - - हाँ . तुमने और समय ने मिलकर मुझे ये अनुभव करा दिया कि प्रेम को व्यक्ति या वक्त नहीं बाँध सकते और कोई जरूरी नहीं कि पहला प्रेम ही अंतिम और सच्चा प्रेम हो - - - बाद का प्रेम समझौता मात्र . अब मैं भली - भांति अनुभव कर रहा हूँ कि प्रथम प्रेम नासमझी भी हो सकता है . गेसू ! सच में तुम धन्यवाद की पात्र हो , क्योंकि तुमने मेरे अव्यवस्थित और भटके हुए विचारों को व्यवस्था और उचित दिशा दी . " " अच्छा - - - एक बात बताओ दोस्त . मेरी शादी दूसरी जगह तय होने की बात जानकार क्या तुम्हें ऐसा अनुभव हुआ था कि तुम मुझसे दूर रहकर अधूरे रह जाओगे ! ठीक से जी न सकोगे ? " " हाँ ! बिलकुल यही लगा था . बल्कि एकबारगी तो ऐसा लगा , जैसे मैं मर ही जाऊंगा , " " धत - - - मरें तुम्हारे दुश्मन . अभी तो तुम्हारी उम्र और काया ऐसीं है कि तुम पर अनेकों मर सकती हैं . इसी भावना को - - - इसी एहसास को प्रेम कहते हैं गुलशन . यही प्यार है . चाहे यह पहला हो या फिर दूसरा . " गुलशन चुप रहा . अचानक गेसू ने गंभीर होकर पूछा -- " दोस्त ! सोचती हूँ - - - उस व्यक्ति के दिल पर क्या बीतेगी , जिससे मेरा रिश्ता तय हो चुका है . तुमसे शादी कर लेने पर उस बेचारे को तो बहुत दुःख होगा . " " हाँ - - - उसे दुःख तो जरूर होगा , मगर बहुत थोड़ा . क्योंकि अभी तुम्हारे और उसके रिश्तों में प्रगाढ़ता नहीं है . और दुःख के आधिक्य का सम्बन्ध रिश्तों की प्रगाढ़ता से है . जबकि तुम्हारी व मेरी शादी हो जाने पर मुझे और तुम्हें - - - दोनों को ही बहुत अधिक ख़ुशी होगी . इस प्रकार - - - होने वाले कुल दुःख की अपेक्षा , कुल सुख की मात्रा बढ़ेगी . अंततः कुल सामाजिक कल्याण में वृद्धि ही होगी . वैसे भी वह व्यक्ति तो ख़ुशी के साथ कहीं और भी शादी कर सकता है , लेकिन मैं - - - . " " बस - - - दोस्त बस . " गेसू ने जोर से हंसकर उसकी बात काटी और बोली -- " अब बस भी करो . यहाँ गणित की कक्षा नहीं चल रही - - - और न ही समाज शास्त्र की . अपने हक़ में आदमी पता नहीं कहाँ - कहाँ से तर्क तोड़कर ले आता है . " उसकी सच्ची बात सुनकर गुलशन सचमुच झेंप गया . गेसू मुस्कराकर पुनः बोली -- " दोस्त ! एक बात कहूं ? " " कहो न . " " मैं तुमसे झूठ बोली थी . " वह हंस दी . गुलशन ने चौंककर पूछा -- " कब ! क्या ? " " अभी थोड़ी देर पहले - - - जो मैंने अपनी शादी तय होने की बात बतायी थी , वह सरासर गप्प थी . " वह हंसती रही . गुलशन आँखें फाड़कर बोला -- " स s s s च ? " " हाँ - - - सच . वास्तव में - - - मैं वो निश्छल झूठ बोलकर अपने प्रति तुम्हारे मन के भाव जानना चाहती थी - - - और वो मैंने जान लिए . पगलू ! मेरी शादी - वादी थोड़े ही तय हुई थी . " " अच्छा s s ! तो ये बात है . " उसने राहत की सांस ली . " और नहीं तो क्या ! क्या तुम समझते हो कि मैंने जिसकी बुरे वक्त में अच्छी पहचान की , अच्छे समय में उसे छुट्टा छोड़ देने की बेवकूफी करती !! वैसे तुम्हारी मौन स्वीकृति तो मुझे उसी दिन मिल गयी थी , जब अपनी बीमारी के वक्त तुमने मुझे आलिंगनबद्ध किया था - - - लेकिन फिर भी मैं चाहती थी कि तुम यह बात अपने मुंह से जल्दी से जल्दी कहो . " " और यह बात अंततः तुमने मुझसे कहलवाकर ही छोड़ी . : इतना कहकर हौले से हँसते हुए गुलशन ने गेसू के सिर पर एक प्यार भरी चपत जड़कर कहा -- " यकीन मानो गेसू ! आज मैं तुमसे शादी का प्रस्ताव स्वयं रखने वाला था किन्तु तुमने तो पहले ही स्वांग रच दिया . मानना पड़ेगा - - - औरतें वाकई बड़ी नौटंकी होती हैं . मगर ये तो बताओ - - - तुम्हें यह बात मेरे मुंह से कबुलवाने की ऐसी भी क्या जल्दी आन पड़ी ? " " ये बात शायद तुम नहीं समझोगे . ये बात और इसकी जल्द जरूरत कोई लड़की पक्ष ही बेहतर समझ सकता है . " " क्या मतलब ? ' "मतलब ये मेरे भोले शंकर - - - कि अब तुम्हें एक सम्मानित नौकरी मिल गयी है और ये खबर फैलते ही अनेकों लड़की वाले , जो पहले तुम्हारी तरफ नज़र उठाकर देखते भी नहीं थे , अब मधुमक्खियों की तरह तुम्हें घेरकर नाना प्रकार और प्रलोभनों से तुम्हारी मति फेरकर तुम्हें मुझसे दूर कर सकते हैं . " " अव्वल तो इसमें कोई सफल होगा नहीं - - - और एक बार को मान लो कि यदि ऐसा हो भी जाए तो तो तुम्हें अच्छे कमाऊ लड़कों की क्या कमी ! " " वो तो ठीक है . मेरी शिक्षा सहित मेरे परिवार का जो सामाजिक स्तर है - - - उसके हिसाब से तो मुझे तुम्हारे समकक्ष अथवा डॉक्टर - इन्जीनियर वर कभी भी आसानी से मिल सकता है . लेकिन दिल की गहराइयों तक असलियत ये है कि मैं यथासंभव तुम्हें खोने का कोई खतरा उठाना नहीं चाहती . " " क्यों ? " " क्योंकि तुम थोड़े से लल्लू और ढेर से नासमझ हो - - - और ऐसे लड़कों से टांका भिड़ाने से उनका शादी के बाद मनमाफिक संचालन करना काफी आसान रहता है . " इतना कहकर वह जोर से हँसते हुए बोली -- " पगलू ! हर बात न तो पूछी जाती है और न ही समझायी जा सकती है . थोड़ा - बहुत तो महसूस करने पर भी छोड़ देना चाहिये . समझे ? " " समझा . " " सुनाओ - - - क्या समझे ? " वह मुंह पर कृतिम डरी मुस्कान लाकर बोला -- " यही - - - कि शादी के बाद , लगता है कि तुम मुझे दाब कर रखने की कोशिश करोगी . " " तो इसमें कौन सी नई बात होगी ! " वह हंसकर अधिकार पूर्वक बोली -- " एक मशवरा अभी से गाँठ बाँध लो - - - अच्छे - अच्छे दारा सिंह भी घर - दाम्पत्य में शान्ति बनाये रखने के वास्ते अपनी बीबी से दबकर रहने की तरकीब अपनाते हैं . " उसकी बिन मांगी नेक सलाह पर गुलशन अपनी तेज हंसी का फव्वारा न रोक सका . गेसू तो पहले से ही हंस रही थी . अचानक गुलशन ने गंभीर होकर पूछा -- " गेसू ! प्रोफ़ेसर साहब क्या सहमत होंगे - - - हमारी शादी के लिये ? " " क्यों नहीं ! उन्हें क्या आपत्ति होगी भला !! मेरी ख़ुशी ही उनकी ख़ुशी है . इन्कार करने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती . मेरे पिताजी तो वैसे भी तुम्हारी काफी इज्जत करते हैं . और फिर - - - भला ऑफिसर लड़का किसे काटता है ! ये क्यों भूलते हो दोस्त - - - कि अब तुम एक अधिकारी हो . " " हाँ गेसू ! मुझे ज्यादा अच्छे से ये भी याद है कि तुम मुझे तब से चाहती हो , जब मैं कुछ भी नहीं था . बस - - - मलाल है तो सिर्फ इतना कि तुम्हें समझने में मुझे थोड़ी देर हुई . " " इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं - - - क्योंकि आँखों के बहुत अधिक नज़दीक रखी किताब की लिखावट थोड़ी देर से ही समझ आती है . खैर - - - छोड़ो इन बातों को . आज एक वादा करो . " " क्या ? " " ये - - - कि अब तुम कभी शराब न पियोगे . " " अरे - - - ये कौन सी असंभव बात है . चलो वादा रहा - - - अब कभी भी बोतल वाली शराब न पियूंगा . अब दूसरी शराब जो मिल गयी है . " " कौन ? ' " तुम . तुम क्या शराब से कोई कम नशीली हो ! खूबसूरत लड़कियों का साथ अपने आप में एक नशा होता है . " उसने गेसू के गाल पर एक थपकी मारी . गेसू शरमाकर बोली -- " धत . " और इसी के साथ अचानक जैसे गेसू को कुछ ध्यान आ गया . उसने पूछा -- " ये बताओ ! क्या नौकरी से सम्बंधित तुम्हारी कोई ट्रेनिंग भी होगी ? " " हाँ . एक खूबसूरत पहाड़ी इलाके में . अगले महीने जाना होगा . " " स s s s च ! " गेसू ख़ुशी और मजाक के सम्मिलित स्वर में बोली -- " तब तो जल्दी से शादी करके कुछ दिनों के लिये मुझे भी अपने साथ लेते चलना . दोस्त ! शायद दयालु भगवान की भी यही मर्ज़ी है कि हम दोनों का हनीमून खूबसूरत वादियों में जोरदार और खूबसूरत ही मने . " " हो बड़ी बदमाश . " कहकर गुलशन ने गेसू को अपनी बांहों में समेट लिया और बोला -- " डियर ! सुना है - - - उस स्थान पर प्रकृति ने अपने जलवे बिखेर रखे हैं . " " गेसू ने गुलशन की आँखों में गहरे झांककर हौले से कहा -- " डार्लिंग ! जलवों की क्या बात करते हो - - - वो तो तुम्हारे भाग्य से भगवान ने मुझे भी कुछ कम नहीं सौंपे . ज़रा शादी हो जाने दो - - - तो एक - एक करके ऐसे - ऐसे जलवे दिखाऊंगी कि तुम्हारी आँखें चुंधिया जायेंगी और तबीयत बाग़ - बाग़ हो उठेगी . " " तुम भी न , बंद गोभी की तरह पर्त दर पर्त खुल रही हो . देखता हूँ - - - तुम दिन - ब - दिन बहुत ढीठ होती जा रही हो . जब देखो - - - बातों के पंख लगाए उड़ती फिरती हो . शादी के बाद एक - एक करके तुम्हारे सारे पंख न कतर डाले - - - तो कहना . " " उस जायकेदार जालिम घड़ी का तो सभी लड़कियों को हर घड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता है जॉनी . " " वह खिलखिला कर हंस पड़ी . गुलशन के होठों के कोने पर भी हंसी का एक नन्हा सा जुगनू झिलमिला उठा . ( समाप्त ) :bye: [35] |
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
अद्भुत कविवर ! आपका गद्यकार रूप फोरम पर देख कर अतीव आनंदानुभूति हुई ! उपन्यास पर प्रतिक्रिया तनिक और पढने के बाद व्यक्त करूंगा ! यह कृति फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए आपका आभारी हूं !
|
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
मित्र आपने जो लिखा है वो वाकई काविले तारीफ है
|
Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
लाजवाब.. बहुत ही बढ़िया... :fantastic::fantastic::fantastic:
|
All times are GMT +5. The time now is 12:08 PM. |
Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.