साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हिंदी ही क्या समस्त भाषाओं में साहित्यकारों के जीवन में बहुत से विनोद प्रसंग जुडे रहते हैं। इन प्रसंगों से गंभीर दिखने वाले रचनाकारों की एक सहज और आत्मीय छवि बनती है। हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में कीर्तिशेष संपादक स्व. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने महान साहित्यकारों के ऐसे रोचक और मनोरंजक संस्मरणों की एक पूरी शृंखला प्रकाशित की थी। उर्दू साहित्य में इसकी पुरानी परंपरा रही है और इसी वजह से उर्दू के महान रचनाकारों के बारे में आम जनता में भी बहुत से लतीफे प्रचलित हैं। मीर, गालिब के शेरों से सामान्य व्यक्ति भी परिचित है और उनके रोचक प्रसंगों से भी। इस सूत्र में प्रस्तुत करूंगा कुछ ऐसे ही रोचक एवं मनोरंजक संस्मरण।
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दरबार में कविता
मलिक मुहम्मद जायसी बेहद कुरूप थे। एक बार वे अमेठी के काव्य-प्रेमी राजा के दरबार में पहुंचे तो राजा समेत दरबार में उपस्थित तमाम लोग उन्हें देखकर बुरी तरह हंसने लगे। जायसी ने अपने सुमधुर कण्ठ से बस एक अर्द्धाली सुनाई और सबको निरुत्तर कर दिया, ‘मोहि कां हंससि कि कोंहरहिं।’ अर्थात् मुझ पर हंस रहे हो या बनाने वाले ईश्वर रूपी कुम्हार पर। कवि और राजा के बीच ऐसे ही एक संवाद का प्रसंग जयपुर के राजा मान सिंह प्रथम के काल का है। महाकवि बिहारी के भांजे लोकनाथ चौबे भी जयपुर दरबार के कवि थे। चौबेजी को महाराज कहा ही जाता है। तो एक बार चौबेजी गांव गए हुए थे। वहां उन्हें रुपयों की आवश्यकता हुई, तो उन्होंने स्थानीय सेठ को राजा के नाम एक हजार की हुण्डी लिख कर दे दी, साथ में एक प्रशस्ति का छंद भी लिख कर दे दिया। राजा मान सिंह ने हुण्डी तो स्वीकार कर ली, लेकिन जवाब में एक दोहा भी लिख भेजा, इतमें हम महाराज हैं, उतमें तुम महाराज। हुण्डी करी हजार की नेक ना आई लाज।। |
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आलोचक की व्यंग्योक्ति
एक बार आचार्य रामचंद्र शुक्ल और लाला भगवानदीन बाजार में एक शरबत की दुकान पर पहुंचे। दुकानदार ने वहां नए जमाने के हिसाब से महिलाओं को परिचारिका रखा हुआ था। जब दोनों ने शरबत पी लिया तो लालाजी ने पूछा, ‘कितना दाम हुआ?’ परिचारिका ने मुस्कुराते हुए जब दाम दस आने बताया तो तीन गुना दाम सुनकर लालाजी विचलित हुए। उन्होंने आचार्यजी की ओर प्रश्*नवाचक दृष्टि से देखा तो आचार्य जी अपनी सनातन गंभीर मुद्रा में बने रहे और बोले, ‘दे दीजिए दस आने, इसमें शरबते-दीदार की कीमत भी शामिल है।’ इसी प्रकार एक बार एक अध्यापक शुक्लजी के पास आए और स्कूली पाठ्यक्रम में लगी हुर्ह एक कविता ‘चीरहरण’ को निकालने की मांग करने लगे। उन्होंने कहा, ‘यह कविता एकदम निकाल देनी चाहिए। भला आप ही बतलाइये, इसे बालकों को कैसे पढ़ाया जाएगा?’ शुक्लजी ने शांत भाव से कहा, ‘परेशान क्यों होते हैं? कह दीजिएगा कि कृष्णजी स्काउटिंग करने गए थे।’ |
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राष्ट्रकवि और द्राक्षासव
एक बार राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त अपने दिल्ली आवास से बाहर गए हुए थे। पीछे से राय कृष्णदास आए और साथ में द्राक्षासव की एक बोतल भी ले आए। जब तक राय साहब रहे गुप्तजी बाहर थे। राय साहब जाते वक्त खाली बोतल मेज पर छोड़ गए। गुप्तजी लौटे तो बोतल देखकर मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने बोतल उठाई तो खाली बोतल पाकर निराश हो गए। क्रोध में गुप्तजी ने एक कविता लिख डाली- कृष्णदास! यह करतूत किस क्रूर की? आए थके हारे हम यात्रा कर दूर की। द्राक्षासव तो न मिला, बोतल ही रीती थी! जानते हमीं हैं तब हम पर जो बीती थी! ऐसी घड़ी भी हा! पड़ी उस दिन देखनी- धार बिना जैसे असि, मसि बिना लेखनी! |
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बैरंग डाक का दोहा
डाकघर में बैरंग चिट्ठियों पर आधी गोल मुहर लगाई जाती है और दोगुना डाक-व्यय वसूल किया जाता है। एक अज्ञात कवि ने इस पर एक अद्भुत दोहा लिखा है- आधी मुहर लगाय कें, मांगत दूने दाम। याही सों इन जनन को, पड्यो ‘डाकिया’ नाम।। |
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निराला की मस्ती
महाकवि निराला को अक्सर किसी चीज की धुन चढ़ जाती तो वे उसी में डूबे रहते। मृत्यु से पूर्व एक बार उन्हें अंग्रेजी काव्य की धुन सवार हो गई तो उन्होंने तमाम अंग्रेज कवियों को पढ़ डाला। मिल्टन और शेक्सपीयर उन्हें खास तौर पर पसंद थे और अक्सर कहते थे कि कविता में इन दोनों को कौन पछाड़ सकता है। एक बार होली के दिन सुबह से ही निराला जी विजया के रंग में थे और मौन धारण कर रखा था। आने वाले लोग उनका मौन देखकर चले गए। बस गिनती के लोग रह गए। किसी ने निराला जी से कहा कि होली का दिन है पंडितजी, इस वक्त तो कोई होली होनी चाहिए। निराला जी को होली गाने की धुन सवार हो गई तो लगे होली गाने। उस दिन करीब ढाई-तीन घण्टे तक निराला जी होली गाते रहे। जब गाते-गाते मन भर गया तो कुछ देर चुप रहने के बाद बोले, ‘बस यहीं-हिंदी की इन होलियों में -मिल्टन और शेक्सपीयर हिंदी से मात खा जाते हैं!’ |
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हिंदी से हिंदी अनुवाद
बहुत से लेखकों की भाषा अत्यंत क्लिष्ट होती है। सौंदर्यशास्त्र के विद्वान लेखक रमेश कुंतल मेघ भी ऐसे ही रचनाकारों में हैं। एक किस्सा उनके बारे में प्रचलित है। हुआ यह कि एक बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और रमेश कुंतल मेघ का आमना-सामना हो गया। औपचारिक बातचीत के बाद मस्तमौला द्विवेदी जी ने कहा, ‘डॉ. साहब अब तो आपकी किताबों का भी हिंदी अनुवाद आ जाना चाहिए।’ |
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हिंदी के पितामह का एक चुटकुला
भारतेंदु हरिश्चंद्र अपनी पत्रिका ‘श्रीहरिश्चंद्र चंद्रिका’ में चुटकुले प्रकाशित किया करते थे। प्रस्तुत है उस जमाने की भाषा में एक चुटकुला- एक नवयौवना सुंदरी चतुर चरफरी वसंत ऋतु में अपनी बहनेली के यहां गई और कुछ इधर उधर की मन लगन की बातें कर रही थी कि प्यासी हुई और पानी मांगा। इसकी उस मुंहबोली बहन ने कोरे कुल्हड़े में पानी भरकर ला दिया जो इसने मुह लगाकर पिया तो कुल्हड़ा होठों से लग रहा। वह खिलखिला कर हंसी और इस दोहे को पढ़ने लगीः रे माटी के कुल्हड़ा, तोहे डारों पटकाय। होंठ रखे हैं पीउ, तू क्यों चूसे जाय।। यह सुन उसकी बहनेली ने कुल्हड़े की ओर से उत्तर दियाः लात सही मूंकी सही उलटे सहे कुदार। इन होठन के कारने सिर पर धरे अंगार।। |
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कुछ चुटकुले-कुछ जातक कथाएं-1
हिंदी साहित्य में एक समय ‘धर्मयुग’ ने साहित्यकारों के बारे में कुछ चुटकुलानुमा प्रहसन प्रकाशित किए थे। उनमें से एक महान आलोचक डॉ. नामवर सिंह के बारे में था। दिल्ली में सड़कों पर नई-नई ट्रेफिक लाइटें लगी ही थीं। एक व्यक्ति लाईट के साथ अपनी दिशा बदल लेता था। कभी दांए तो कभी बांए मुड़ जाता था। ट्रेफिक पुलिस के सिपाही ने उसकी गतिविधि को देखकर कहा, ‘ऐ धोती वाले बाबा, तुम कभी दांए तो कभी बांए क्यों जाते हो?’ वहीं दो लेखक भी पास में खड़े थे। दोनों ने एक साथ कहा, ‘यह पुलिसवाला नामवर जी की आलोचना को कितनी अच्छी तरह से समझता है।’ |
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कुछ चुटकुले-कुछ जातक कथाएं-2
एक समय हिंदी में लेखकों को लेकर बहुत सी जातक कथाओं की रचना की गई थी। प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी ने ऐसी ही कुछ जातक कथाएं सुनाई। एक गरीब किसान को खेत में खुदाई करते हुए एक बड़ा-सा टब मिला। उसने माथा पीट लिया कि निकलना ही था तो कोई खजाना निकलना चाहिए था। उसने झल्लाइट में एक गाजर टब में फेंक दी। टब में गिरते ही गाजर एक से दो हो गई। किसान ने दो गाजर फेंकी तो चार हो गईं। वह जो भी चीज टब में डालता वो दोगुनी हो जाती। जमींदार को इसका पता चला तो उसने टब अपने घर मंगवा लिया, क्योंकि जमीन तो उसी की थी, जिसमें टब निकला। इसके कुछ ही दिन बाद देश में राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। सरकार ने लोगों का ध्यान बंटाने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्कृति महोत्सव जैसे आयोजन शुरु करने का फैसला किया। संस्कृति से जुड़े लोगों की खोज की जाने लगी, लेकिन सरकार के पास ऐसे लोगों की बहुत कमी थी। ऐसे में सरकार को किसी ने उस टब को उपयोग में लेने की सलाह दी। सरकार ने उस टब की मदद से एक अशोक वाजपेयी जैसे कई अशोक वाजपेयी बना डाले और सबको विभिन्न सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों में नियुक्तियां दे दीं। |
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