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arvind 14-11-2012 12:03 PM

सफलता की सीढ़ी।
 
इस सूत्र मे दिये गए आर्टिक्ल का लेखक मै नहीं हूँ। नेट पर, समाचार पत्रो इत्यादि मे इधर-उधर बिखरे पड़े लेखो का यह एक संकलन है, जिसे मैंने एक जगह इकट्ठा किया है, ताकि फोरम पर आने वाले लोग इसका फायदा उठा सके।

arvind 14-11-2012 12:04 PM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
जीयें वर्तमान में, पर सोचें भविष्य के बारे में

बात उस समय की है, जब मैं दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था. मेरे अंकल वहीं सरकारी नौकरी में थे. एक दिन मैं अपने मित्रों के साथ उनके पास बैठा था. उन्होंने हम सभी साथियों से एक सवाल पूछा, ‘‘यदि एक बच्चे और एक बूढ़े की उंगलियों में एक ही तरह की आग से चटका लग जाये तो पहले कौन सामान्य होगा?’’ जवाब में हम सभी ने कहा, ‘‘बच्चा.’’

हालांकि इसका कारण हम नहीं बता सके. उन्होंने इसका कारण बताते हुए कहा, ‘‘बच्चा जल्दी ही पुरानी तकलीफ़ों को भूल कर जिंदगी में आगे बढ़ता है, सीखता है. लगातार नयी चीजें सीखने की आदत उसका विकास करती है, जबकि बूढ़ा हमेशा पुरानी बातों को पकड़ कर बैठता है.

हमारे अंदर ही बच्चा होता है और हमारे अंदर ही बूढ़ा भी होता है. यह हम पर है कि हम अपने अंदर किस प्रकार की सोच विकसित करते हैं. यदि कोई बीती बातों को बार-बार दोहराता है. अपनी उपलपब्धियों के सहारे जीता है तथा वर्तमान और भविष्य में अपने विकास की नहीं सोचता है, वह मानसिक रूप से बूढ़ा हो जाता है.

ऐसे लोगों से सफ़लता भी दूर होती जाती है.एक बड़ी कंपनी ने एक ऊंचे पद के लिए विज्ञापन निकाला. विज्ञापन में उन्होंने लिखा कि‘‘हमें तीस साल कार्यानुभव वाले युवा की जरूरत है.’’बात साफ़ थी कि उस तरह के अनुभववाले की उम्र 50 से कम नहीं हो सकती.

बहुत से बुजुर्ग लोगों ने अपना एनर्जी लेवल युवाओं की तरह बताते हुए आवेदन किया. शॉर्टलिस्ट करने के बाद उम्मीदवारों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया. सेलेक्शन के बाद कंपनी की टीम से पूछा गया कि आपने इतनी अधिक ऊर्जा से भरे बुजुर्गों में से युवा किसे माना ? टीम ने कुछ इस तरह जवाब दिया, ‘‘जब भी किसी बुजुर्ग से अपने कार्य के अंदाज के बारे में पूछा जाता, तब वह अपना अनुभव बताते थे, उनमें से अधिकतर लोग 90 प्रतिशत से ज्यादा समय अपनी पिछली उपलबधियों के बारे में बता देते थे और बचे 10 प्रतिशत समय में अपनी कार्यशैली व प्लानिंग के बारे में बताते थे.

हमने उस बुजुर्ग को सबसे युवा माना, जिसने संक्षेप में पिछली बातें बतायी तथा ज्यादातर समय वर्तमान व्यापार की स्थिति व भविष्य की प्लानिंग के बारे में बताया.’’युवा वही होते हैं, जो ज्यादातर वर्तमान में जीते हैं और भविष्य के बारे में सोचते हैं.

एक बात का हमेशा ध्यान रखें कि आप जब भी किसी से आगे की प्लानिंग के बारे में बताते हैं, तो वह खुद ही समझ लेता है कि आपने पहले क्या और कितना किया होगा. अगर आप अपनी उपलब्धियों के बखान में लग जायें और भविष्य की योजनाओं पर चर्चा ही न करें, तो आपकी उपलब्धियां भी शक के घेरे में आ जायेंगी. च्वाइस आपकी है कि आप युवा रहना चाहते हैं या बुजुर्ग.

बात पते की
-युवा वही हैं, जो वर्तमान में जीते हैं और भविष्य के बारे में सोचते हैं.
-लगातार नयी चीजें सीखने की आदत विकसित करें.
-आप जब भी किसी से आगे की प्लानिंग के बारे में बात करते हैं, वह खुद समझ लेता है कि आपने पहले क्या और कितना किया होगा

arvind 14-11-2012 12:08 PM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
समय का महत्व जानते हैं फ़िर भूल क्यों जाते हैं ?

समय का कितना महत्व है, यह सभी जानते हैं. खासतौर से इसलिए भी क्योंकि समय के महत्व के बारे में लोग बचपन से ही सुनते आये हैं. लोगों ने इसे सुनने की आदत बना ली है, लेकिन प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में ज्यादातर लोग इसे लागू नहीं कर पाते हैं. रजनीश में हर काम को टालने की आदत थी. मेज पर फ़ाइलों की लाइन लगी रहती और वे हर दिन यही सोचते कि थोड़ा ही तो काम है, कल कर लूंगा.

मैंने उनसे पूछा कि इस आदत से आपको परेशानी नहीं होती है क्या? उनका जवाब था, ‘‘नहीं, यदि काम एक-दो दिन टाल दिया जाये, तो क्या फ़र्क पड़ जायेगा. दुनिया कौन-सी इधर की उधर हो जायेगी. काम तो हो ही जाता है न.’’इसी आदत के कारण शुरू में उन्हें काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. बाद में उन्होंने अपनी आदत में सुधार किया. अपने पास एक डायरी रखने लगे. मुझसे मिले, तो मैंने पूछा कि यह डायरी कैसी है? उन्होंने बताया कि इसमें मैंने सारा काम समय के साथ नोट किया है. एक काम जब शुरू करता हूं, तो दूसरे काम की प्रेरणा मिलती रहती है.

इससे काम तय सीमा में पूरा हो जाता है.महान वैज्ञानिक फ्रेंकलिन की एक पुस्तक की दुकान थी. एक बार उनकी दुकान पर एक ग्राहक आया और एक किताब की ओर इशारा करते हुए काउंटर पर बैठे व्यक्ति से पूछा, ‘‘इस किताब का मूल्य क्या है?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘दो डॉलर.’’ कुछ देर वह चुप रहा, फ़िर उसने पूछा, ‘‘इस दुकान के मालिक कहां हैं? मुङो उनसे बात करनी है.’’ काउंटर वाला व्यक्ति बोला, ‘‘अभी वो आधे घंटे बाद यहां आयेंगे. ग्राहक बोला, ‘‘ठीक है मैं आधे घंटे बाद ही आता हूं.’’ मालिक के आने के बाद फ़िर उसने पूछा, ‘‘इस किताब का मूल्य क्या है?’’ मालिक ने कहा, ‘‘सवा दो डॉलर.’’ ग्राहक ने कहा, ‘‘अभी तो आपका स्टाफ़ दो डॉलर बता रहा था और आप सवा दो डॉलर बता रहे हैं.’’ फ्रेंकलिन कुछ नहीं बोले और अपना काम करते रहे. थोड़ी देर सोचने-विचारने के बाद उस ग्राहक ने फ़िर पूछा, ‘‘अच्छा बताइए, मैं आपको इसका क्या उचित मूल्य दूं?’’फ्रेंकलिन ने इस बार कहा, ‘‘ढाई डॉलर.’’ इस बार ग्राहक सकते में आ गया और शिकायत के लहजे में तुनक कर कहा, ‘‘पर अभी-अभी तो आपने सवा दो डॉलर बताया था. क्या आपके यहां किसी चीज के दाम तय नहीं हैं. एक बार में एक ही ग्राहक को बार-बार बदल कर कीमत बता रहे हैं.’’ तब फ्रेंकलिन ने उसे शांतिपूर्वक समझाया, ‘‘देखो युवक शायद तुम्हें समय की कीमत का ज्ञान नहीं है. इतनी देर से तुम मेरा और मेरे स्टाफ़ का समय बर्बाद कर रहे हो. किताब लेनी होती, तो तुमने कब की ले ली होती. अब जो समय हमारा खराब किया है, उसका मूल्य भी तो इसमें शामिल है.’’ यह सुनते ही ग्राहक को समय का ज्ञान हुआ और वो मूल्य चुका कर किताब ले गया.

बात पते की
-समय समाप्त हो जाने के बाद किसी चीज का कोई महत्व नहीं रह जाता.
-काम को टालें नहीं, सही समय पर उसे पूरा करने की कोशिश करें.
-समय के महत्व के बारे में हम सभी जानते हैं, लेकिन जब फ़ॉलो करना होता है, तो टालने के रवैये से बाज नहीं आते.

arvind 15-11-2012 03:53 PM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
आदतें बदलना मुश्किल जरूर है, नामुमकिन नहीं

बदलाव एक सहज प्रक्रिया है. जो बदलता है, वो टिकता है. लेकिन जो नहीं बदलता, वो नहीं टिकता. चाहे वह समाज हो, देश हो या फ़िर व्यक्ति. बदलने के लिए जो नजरिया चाहिए, वो हमें कोई और नहीं दे सकता. अपनी आदतों को बदलने के पहले हमारा पहला सवाल यही होता है, कि क्यों बदलूं? ऐसा इसलिए क्योंकि बदलने से पहले अपने ईगो को मारना पड़ता है.

अपने अंतरमन में मौजूद झूठे स्वाभिमान को कुचल कर आगे बढ़ना पड़ता है.ऑफ़िस में काम करते वक्त व्यवहार, शैली और आदतों को लेकर लगातार बदलाव की प्रक्रिया चलती रहती है. इन सब चीजों में जरूरी यह है कि बदलाव बेहतरी के लिए हो. इस बदलाव से हमारा जीवन बेहतर बने. हम बदलाव से तभी तक डरते हैं, जब तक कदम नहीं बढ़ाते. जिस दिन बदलाव के लिए कदम बढ़ा देंगे, उसी दिन से हमारी कमजोरी हमारी असली ताकत बन जायेगी.

हम बेहतर हो जायेंगे. निश्चित रूप से आदत बदलना बहुत आसान नहीं है, लेकिन नामुमकिन भी नहीं है. अगर हम अपनी खराब आदतों को नहीं बदलेंगे, तो न केवल हम अपना नुकसान करेंगे, बल्कि उनका भी नुकसान करेंगे, जो हम पर भरोसा करते हैं.बचपन में एक कहानी सुनी थी. भुवननगर में एक राजा राज करता था. उसके भवन के शयनकक्ष में एक जूं रहती थी. वह नियमित रूप से राजा का रक्तपान कर सुखपूर्वक जीवनयापन करती थी. एक दिन कहीं से एक खटमल राजा के शयनकक्ष में आ गया. जूं ने खटमल से कहा, ‘‘ मैं यहां बरसों से रह रही हूं. अत राजा के इस शयनकक्ष पर सिर्फ़ मेरा अधिकार है. मैं तुम्हें यहां रहने की अनुमति नहीं दे सकती. तुम तुरंत चले जाओ.’’खटमल ने कहा, ‘‘आज तक मैंने किसी राजा के अच्छे रक्त का सेवन नहीं किया है. मेरी सालों से मनोकामना है कि मैं भी कभी इस अवसर का लाभ उठाऊं. मुझे सिर्फ़ दो-तीन दिन यहां अपने साथ रहने की अनुमति दे दो.’’ इस प्रकार खटमल ने जूं को विश्वास में ले लिया. जूं ने शर्त रखी कि उसे राजा के निद्रामग्न होने तक धैर्य धारण करना होगा.

खटमल सहमत हो गया.रात में राजा अपने शयनकक्ष में आकर लेटा, तो खटमल आदत से मजबूर अपनी जिह्वा पर काबू नहीं रख पाया. उसका धैर्य खत्म होता गया तथा राजा के जागते में ही वह उसका रक्त चूसने लगा. शरीर में खटमल की चुभन से बेचैन राजा चिल्ला कर उठ खड़ा हुआ. सेवक बिस्तर आदि की बारीकी से छानबीन करने लगे. खटमल को भागने का मौका मिल गया, लेकिन नौकरों की नजर छिप कर बैठी जूं पर पड़ गयी. उन्होंने जूं को मार डाला. कहानी बताती है कि कैसे अपनी आदत नहीं बदलनेवाले खटमल की वजह से जूं को जान गंवानी पड़ी.

बात पते की
-जिस दिन से हम बदलाव के लिए कदम आगे बढ़ा देंगे, उसी दिन से हमारी कमजोरी हमारी ताकत बन जायेगी.
-अपनी गलत आदतों के कारण न केवल हम अपना नुकसान करते हैं बल्कि उनका भी नुकसान करते हैं, जो हम पर भरोसा करते हैं.

arvind 15-11-2012 03:57 PM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
कमियों का रोना न रोयें हर कोई है खुद में खास

अपने जीवन में हम सभी आगे बढ़ना चाहते हैं. इसके लिए अक्सर खुद की किसी दूसरे से तुलना भी करते रहते हैं. आगे बढ़ने के क्रम में यह पहलू अच्छा है. लेकिन एक आम इंसानी स्वभाव यह भी है कि हम कभी-कभी खुद को दूसरे से इस कदर श्रेष्ठ समझने लगते हैं कि सामनेवाले की अनदेखी कर बैठते हैं.

यही नहीं, व्यक्तिगत या व्यावसायिक जीवन में किसी दूसरे की मीन-मेख निकालने का एक भी मौका हाथ से गंवाना नहीं चाहते. ठीक उसी तरह, जैसे कोई सास अपनी बहू की कमियों को उजागर कर एक अलग-सा आत्मसुख का बोध करती है. लेकिन इस तरह न केवल हम दूसरे की राह में रोड़े अटकाने का काम करते हैं, बल्कि अपना व्यक्तित्व, छवि भी खराब करते हैं. फ़िल्म ‘तारे जमीन पर’ में आमिर खान ने भी यही संदेश देने की कोशिश की है कि हर कोई अपने आप में खास होता है. इसलिए दूसरे की कद्र करना सीखें. मेरे एक मित्र द्वारा इमेल की गयी एक छोटी-सी कहानी से शायद आप इस बात को समझ सकेंगे.

एक किसान के पास दो बाल्टियां थीं, जिन्हें वह एक डंडे के दोनों सिरों पर बांध कर उनमें तालाब से पानी भर कर लाता था. उन दोनों बाल्टियों में से एक के तले में एक छोटा-सा छेद था, जबकि दूसरी बाल्टी अच्छी हालत में थी. तालाब से घर तक के रास्ते में छेदवाली बाल्टी से पानी रिसता रहता और घर पहुंचते-पहुंचते उसमें आधा पानी ही बचता था. अच्छी बाल्टी को रोज-रोज यह देख कर खुद पर घमंड हो गया. वह छेदवाली बाल्टी से कहती कि वह आदर्श बाल्टी है और उसमें से जरा-सा भी पानी नहीं रिसता.

छेदवाली बाल्टी को यह सुन कर बहत दुख होता था. छेदवाली बाल्टी जीवन से निराश हो चुकी थी. एक दिन रास्ते में उसने किसान से कहा, मैं अच्छी बाल्टी नहीं हूं. मेरे तले में छोटे से छेद के कारण पानी रिसता रहता है और तुम्हारे घर तक पहुंचते-पहुंचते मैं आधी खाली हो जाती हं.

किसान ने छेदवाली बाल्टी से कहा, क्या तुम देखती हो कि पगडंडी के जिस ओर तुम चलती हो उस पर हरियाली है और फ़ूल खिलते हैं, लेकिन दूसरी ओर नहीं. ऐसा इसलिए कि मुझे हमेशा से ही इसका पता था और मैं तुम्हारे तरफ़ की पगडंडी में फ़ूलों और पौधों के बीज छिड़कता रहता था, जिन्हें तुमसे रिसने वाले पानी से सिंचाई लायक नमी मिल जाती थी. दो सालों से मैं इसी वजह से अपने देवता को फ़ूल चढ़ा पा रहा हं. यदि तुममें वह बात नहीं होती, जिसे तुम अपना दोष समझती हो, तो हमारे आसपास इतनी सुंदरता भी नहीं होती.

मुझमें और आपमें भी कई दोष हो सकते हैं. दोषों से भला कौन अछूता रह पाया है. कभी-कभी ऐसे दोषों और कमियों से भी हमारे जीवन को सुंदरता और पारितोषिक देनेवाले अवसर मिलते हैं, इसीलिए दूसरों में दोष ढूंढ़ने के बजाय उनमें अच्छाई की तलाश करें. सुलझे लोग तमाम कमियों के बीच से भी सफ़लता का रास्ता ढूंढ़ ही लेते हैं.

- बात पते की
* जीवन में आगे बढ़ना है तो कभी भी अपनी श्रेष्ठता का घमंड न पालें.
* हमेशा दूसरों की कमियों को उजागर करने की बजाय उस ऊर्जा का इस्तेमाल खुद को आगे ले जाने में करें.
* तमाम कमियों के बीच से भी सफ़लता का रास्ता निकल सकता है.

arvind 16-11-2012 12:05 PM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
एकदम से किसी पर यकीन न करने में ही भलाई है

मूलत: हम इतने सीधे होते हैं कि भावनाओं में बह कर तुरंत किसी पर विश्वास कर लेते हैं, फ़िर जब दिमाग लगाना शुरू करते हैं, तो उस विश्वास में कई तरह के लोभ, पेच और षडयंत्र नजर आने लगते हैं और तब हम संभल जाते हैं. लेकिन ऐसा कम ही लोगों के साथ होता है कि वे संभल पाते हैं.

हममें से ज्यादातर लोग तुरंत ही किसी पर विश्वास कर लेते हैं और यह मान बैठते हैं कि अमुक व्यक्ति अगर ऐसे बोल रहा है, तो वह धोखा नहीं दे सकता. ऐसा नहीं है कि किसी पर विश्वास ही न किया जाये, लेकिन किसी पर विश्वास करने से पहले खुद को समय दें. सोचें, समझें, विशलेषण करें और तब एक फ़िर सोचें कि क्यों सामनेवाले पर विश्वास किया जाये? अगर जवाब मिल जाता है, तो जरूर विश्वास करें.

लेकिन ध्यान रहे, आंखें खोल कर विश्वास करें, आंखें मूंद कर नहीं. आंखें मूंद कर विश्वास करेंगे, तो धोखा मिलेगा ही. किसी पर विश्वास करना आपकी सबसे बड़ी ताकत भी बन सकती है और यही विश्वास आपकी कमजोरी भी बन सकती है. यह विश्वास आपकी ताकत बनेगा या आपकी कमजोरी, यह इस पर निर्भर है कि आप किस पर और कितना विश्वास कर रहे हैं.

एक वन था. उसमें एक बलशाली हाथी रहता था. वैसे तो ना वह किसी को परेशान करता था, ना किसी के काम में दखल देता था, फ़िर भी कुछ जानवर उससे जलते थे. एक चतुर भेड़िया हाथी के पास गया और कहा-‘‘प्रणाम! आपकी कृपा हम पर सदा बनाये रखिये महाराज! मैं एक भेड़िया हूं. मुझे जंगल के सारे प्राणियों ने आपके पास भेजा है. हम आपको जंगल का राजा बनाना चाहते हैं.’’ हाथी खुश हो गया.

भेड़िया कहने लगा, ‘‘मुहूर्त का समय नजदीक आ रहा है, जरा जल्दी चलना होगा हमें.’’ भेड़िया जोर-जोर से भागने लगा और उसके पीछे हाथी भी जैसे बन पड़ा, भागने की कोशिश में लगा रहा. बीच में एक तालाब आया. उस तालाब में ऊपर-ऊपर तो पानी दिखता था, लेकिन नीचे काफ़ी दलदल था. भेड़िया छोटा होने के कारण आसानी से कूद कर तालाब को पार कर गया. हाथी अपना भारी शरीर लेकर जैसे ही तालाब में जाने लगा, तो दलदल में फ़ंसता ही चला गया.

निकल न पाने के कारण से वह भेड़िए को आवाज लगा रहा था- ‘‘अरे दोस्त, मेरी जरा मदद करोगे? मैं इस दलदल से निकल नहीं पा रहा हूं.’’ हाथी की आवाज सुन कर भेड़िये का जवाब अलग ही आया- ‘‘अरे मूर्ख हाथी, मुझ जैसे भेड़िये पर तुमने यकीन तो किया, लेकिन अब भुगतो और अपनी मौत की घड़ियां गिनते रहो, मैं तो चला.’’ यह कह कर भेड़िया खुशी से अपने साथियों को यह खुशखबरी देने के लिए दौड़ पड़ा. बेचारा हाथी. इसीलिए कहा गया है कि एकदम से किसी पर यकीन ना करने में ही भलाई होती है.

- बात पते की
* ज्यादातर लोग तुरंत ही किसी पर विश्वास कर लेते हैं.
* विश्वास करें, लेकिन उसे बनने के लिए समय दें.
* आपका विश्वास आपकी ताकत बनेगा या आपकी कमजोरी, यह इस पर निर्भर है कि आप किस पर और कितना भरोसा कर रहे हैं.

arvind 16-11-2012 12:06 PM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
जितना ज्यादा चाहिए उतना अधिक श्रम करें

रॉकी 4-5 सालों बाद एक दोस्त की शादी में अपने तीन अजीज दोस्तों से मिला. एक अर्से बाद जहां स्कूल-कॉलेज के पुराने यारों से मिलने की खुशी थी, वहीं मन के एक कोने में इस बात की कसक भी थी कि काश! आज मैं भी इनकी तरह एक कामयाब इंसान होता.

यह टिस कैसे नहीं उठती, आखिर चारों ने एक साथ सपने देखे, एक साथ खेले-कूदे और एक साथ पढ़ाई की. लेकिन कैरियर की राह में सभी बिछड़ गये. आज कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर, तो कोई बैंकिंग प्रोफ़ेशनल. सबकी आमदनी भी ऐसी कि कार, घर से लेकर ऐशो-आराम की सारी सुविधाएं उन्हें प्राप्त थीं. सिर्फ़ एक क्लर्क की नौकरी करनेवाला रॉकी ही इन तीनों से पीछे रह गया. यही बात रॉकी को कचोटती रहती और वह दोस्तों के सामने खुद को छोटा भी महसूस करता.

यह कहानी हमारे आपके बीच की है. क्या वजह है कि जीवन में एक समान अवसर पानेवाले लोग एक-दूसरे से आगे-पीछे हो जाते हैं? क्या वजह है कि एक क्लास में एक ही किताब पढ़नेवाले 50 बच्चों में से कोई फ़र्स्ट, कोई सेकेंड, कोई थर्ड, तो कोई फ़ेल हो जाता है? एक मजदूर था, जिसे आवश्यकता होती तो मजदूरी करता, वरना कभी यूं ही रह जाता.

एक बार उसके पास खाने को कुछ नहीं था. वह घर से मजदूरी ढूंढ़ने निकल पड़ा. धूप बहत तेज थी. उसे एक व्यक्ति दिखा, जिसने एक भारी संदूक उठा रखा था. उस व्यक्ति को मजदूर की जरूरत भी थी. उसने संदूक मजदूर को उठाने के लिए दे दिया. संदूक को कंधे पर रख कर मजदूर चलने लगा. उसके पैरों में जूते नहीं थे. सड़क की जलन से बचने के लिए कभी-कभी वह किसी पेड़ की छाया में खड़ा हो जाता. पैर जलने से वह झुंझला उठा और उस व्यक्ति से बोला- ईश्वर भी कैसा अन्यायी है. हम गरीबों को जूते पहनने लायक पैसे भी नहीं दिये.

उसकी बात सुन व्यक्ति खामोश रहा. दोनों थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि उन्हें एक ऐसा व्यक्ति दिखा, जिसके पैर नहीं थे. वह जमीन पर घिसटते हए चल रहा था. यह देख व्यक्ति मजदूर से बोला- तुम्हारे पास तो जूते नहीं हैं, परंतु इसके तो पैर ही नहीं हैं. जितना कष्ट तुम्हें हो रहा है, उससे कहीं अधिक कष्ट इसे हो रहा होगा. तुमसे भी छोटे और दुखी लोग संसार में हैं. तुम्हें जूते चाहिए, तो अधिक मेहनत करो. हिम्मत हार कर ईश्वर को दोष देने की जरूरत नहीं.

ईश्वर ने नकद पैसे तो आज तक किसी को भी नहीं दिये, परंतु मौके सभी को बराबर दिये हैं. उस व्यक्ति की बातों का मजदूर पर गहरा असर हआ. वह उस दिन से अपनी कमियों को दूर करने में जुट गया और अपनी योग्यता व मेहनत से जीवन को बेहतर बनाने में सफ़ल भी हुआ.

जीवन से जितनी अपेक्षाएं आपको हैं, उस मुताबिक परिश्रम भी करें. असफ़लता के लिए किस्मत को कोसना या संसाधन का रोना रोना, कुंठा की वह चादर है, जिससे अपनी कमियों को ढंक कर सिर्फ़ झूठा संतोष ही प्राप्त किया जाता है, सफ़लता नहीं.

- बात पते की
* जीवन में अवसर सभी को मिलते हैं, बस इसे पहचानने की जरूरत है.
* असफ़लता के लिए किस्मत या भगवान को कोसने की बजाय अपनी कमियों को दूर कर आगे बढ़ें.
* मन में कुंठा पालने की बजाय मेहनत को अपनी ताकत बनायें.

arvind 17-11-2012 11:36 AM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
दूसरों को मूर्ख समझना सबसे बड़ी मूर्खता

हम अक्सर इसी खुशफ़हमी में रहते हैं कि हम बहुत बुद्धिमान हैं और सामनेवाला हमारी बुद्धिमानी या होशियारी को समझ नहीं सकता. यहां तक तो ठीक है, लेकिन अगर हम खुद को बुद्धिमान और सामनेवाले को मूर्ख समझ लें, तो हम बड़ी परेशानी में फ़ंस सकते हैं. कई बार ऐसा होता है कि व्यक्ति बहुत चतुरता दिखाने के कारण ही बेवकूफ़ बन जाता है.

ज्यादातर लोग यही सोचते हैं कि वे सामनेवाले के सामने खुद को जैसा प्रजेंट कर रहे हैं, सामनेवाला उसे उसी रूप में ले रहा है, जबकि ऐसा होता नहीं है. अगर ऐसा होता, तो दुनिया की नजर में हर व्यक्ति वैसा ही हो जाता, जैसा वह सोचता है.मैं यह नहीं कहता कि आप खुद को बेवकूफ़ समझे, क्योंकि यह सोच आपसे आपका आत्मविश्वास छीन सकता है. आप होशियार रहें, लेकिन समझदार भी, ताकि सामनेवाले को बेवकूफ़ समझने की मूर्खता न करें.

इंजीनियरिंग के चार छात्र परीक्षा से ठीक एक दिन पहले रात में शराब पीते रहे. उन्होंने उस रात परीक्षा की बिल्कुल भी तैयारी नहीं की. अगले दिन सुबह उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये. उन्होंने एक योजना पर विचार किया. खुद के कपड़े और हाथ बिल्कुल गंदे कर लिये. कपड़ों में ग्रीस और धूल लगी हुई थी. इसी हालत में वे चारों कॉलेज के डीन के पास पहुंचे और कहा, ‘‘महाशय, कल रात हमलोग शादी की एक पार्टी में गये थे. वापसी में कार का चक्का पंक्चर हो गया. बहुत मुश्किल से गाड़ी को धक्का देकर वापस ले गया. अब हमलोग इस स्थिति में नहीं हैं कि परीक्षा में शामिल हो सकें. आप हमारी स्थिति देख ही रहे हैं.’’ डीन अच्छे व्यक्ति थे, उन्होंने कहा, कि ‘‘ठीक है, तुमलोग तीन दिन का रेस्ट ले लो.’’ चारों ने कहा, ‘‘ठीक है सर, तीन दिन बाद हमलोग इस परीक्षा के लिए पूरी तरह तैयार रहेंगे.’’

तीन दिन बाद तीनों पूरी तैयारी के साथ परीक्षा देने कॉलेज डीन के पास पहुंचे. डीन ने कहा, ‘‘चूंकि यह स्पेशल केस में ली जा रही परीक्षा है, इसलिए चारों को अलग-अलग क्लासरूम में बैठना होगा.’’ चारों छात्र इसके लिए तैयार हो गये, क्योंकि अपने हिसाब से उन्होंने परीक्षा की पूरी तैयारी कर ली थी. टेस्ट में 100 अंकों के केवल 2 सवाल पूछे गये. पहला सवाल 2 अंकों का था- आपका नाम क्या है? और दूसरा सवाल 98 अंकों का था- कौन-सा टायर पंक्चर हुआ था? असल में जब लड़कों ने डीन को परीक्षा की अवधि बढ़ाने के लिए मना लिया, तो उन्होंने सोचा कि डीन को उन्होंने बेवकूफ़ बना दिया है. इंज्वॉय भी कर लिया और परीक्षा की तैयारी के लिए तीन दिन भी मिल गये. लेकिन डीन बेवकूफ़ नहीं बने थे, उन्होंने नहला पर दहला दिया और तब चारों लड़कों के पास न तो बोलने के लिए कुछ था, न लिखने के लिए.

बात पते की-
-खुद को होशियार समझें, लेकिन दूसरों को बेवकूफ़ न समझें.
-होशियारी के साथ समझदारी भी जरूरी है.
-इस खुशफ़हमी में न रहें कि आप सबसे बुद्धिमान हैं और खुद को उसी रूप में पेश कर सकते हैं, जिस रूप में आप चाहते हैं.

arvind 17-11-2012 11:37 AM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
छोटे-से-छोटे काम की भी तारीफ़ करना सीखें

नील्स हेनरिक डेविड बोर डेनामार्क के भौतिकविज्ञानी थे, जिन्होंने क्वांटम विचारों के आधार पर हाइड्रोजन परमाणु के स्पेक्ट्रम की व्याख्या की. उन्होंने ही नाभिकीय विखंडन का सिद्धांत प्रस्तुत किया.

20वीं सदी में उन्हें सर्वाधिक प्रभावित करनेवाले वैज्ञानिकों की सूची में शामिल किया जाता है. 1975 में उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला. एक बार वे सोवियत संघ की विज्ञान अकादमी के भौतिक संस्थान पहुंचे. वहां उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया. बोर उन दिनों फ़िजिक्स में अपने रिसर्च के लिए जाने जाते थे.

उनका इंस्टीटय़ूट उस समय के चर्चित युवा वैज्ञानिकों से भरा हुआ था. उसमें काम करने के लिए वैज्ञानिक लालायित रहते थे. वहां काम करने वालों में फ़ूट डालने की कोशिश भी की गयी पर किसी को सफ़लता नहीं मिली. विज्ञान अकादमी के भौतिक संस्थान के अधिकारी बड़ी देर तक अनेक विषयों पर बातचीत करते रहे.

थोड़ी देर बाद वे बोले, ‘‘सर, यदि आपको बुरा न लगे तो मैं एक निजी बात आपसे पूछना चाहता हूं.’’ नील्स बोर ने कहा, ‘‘जरूर पूछिए. मैं जवाब देने के लिए हाजिर हूं.’’ इस पर अधिकारी बोले, ‘‘सर, आपके साथ काम करनेवाले लोग हमेशा खुश रहते हैं.

आपका संस्थान दिन-प्रतिदिन प्रगति की ओर अग्रसर है. आखिर इसका क्या राज है?’’प्रश्न सुनने के बाद नील्स बोर मुस्कराते हुए बोले, ‘‘इसका बहुत छोटा-सा राज है और वह यह कि मैं अपने संस्थान में काम करनेवाले छोटे से छोटे व्यक्ति के काम की भी भरपूर तारीफ़ करता हूं. इसके अलावा मुझे उनके सामने कभी भी अपनी गलती स्वीकार करने में संकोच या झिझक नहीं होती.

मुझे लगता है शायद इसलिए सभी खूब मन लगाकर काम करते हैं और अपनी भरपूर क्षमता दिखाने में लगे रहते हैं. उनमें आपस में एक सकारात्मक होड़ लगी रहती है. इसका फ़ायदा पूरी संस्था को होता है.’’ अधिकारी यह रहस्य जान कर दंग थे.

एक सफ़ल लीडर बनना है, तो आपको दूसरों के काम की तारीफ़ करनी होगी. तारीफ़ एक ऐसा टूल्स है, जो कर्मचारियों को तुरंत मोटिवेट करता है. तारीफ़ एक टॉनिक की तरह है. इसमें कंजूसी नहीं करना चाहिए.

असल में तारीफ़ करना इतना आसान भी नहीं है. हमें हमेशा कर्मचारियों की गलतियां अधिक और खूबियां कम दिखायी देती हैं. वास्तविकता यह है कि एक कर्मचारी के लिए तीराफ़ उतनी ही जरूरी है, जितनी एक लीडर के लिए.

मुश्किल यह है कि आज एक आम आदमी किसी की तारीफ़ बरदाश्त नहीं करता, लेकिन वह अपनी तारीफ़ जरूर सभी से चाहता है. तारीफ़ के महत्व का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि अमेरिकी देशों में हर साल 10 जुलाई को इंटरनेशनल एप्रीसिएशन डे मनाया जाता है, ताकि लोग तारीफ़ के महत्व को समझ सकें.

बात पते की

- तारीफ़ करें और अपनी गलती स्वीकारें, टीम की सफ़लता का यही मंत्र है.
- तारीफ़ एक ऐसा टूल्स है, जो किसी को भी तुरंत मोटिवेट कर सकता है.
- अगर आपको खुद की तारीफ़ पसंद है, तो आपको दूसरों की भी तारीफ़ करनी चाहिए.

arvind 20-11-2012 03:58 PM

Re: सफलता की सीढ़ी।
 
दबाव में ही क्यों होता है बेहतर परफ़ॉरमेंस?

उस समय मैं कॉलेज में था. मेरे प्रिय मित्र रजनीश ने एक दिन मुझसे कहा, ‘‘यार मेरी अजीब-सी फ़ितरत है. थकता हूं तो पूरी ताकत से साइकल चलाता हूं. लड़ाई में हारता रहता हूं, तो पूरी हिम्मत से मुकाबला करता हूं और परीक्षा सिर पर आती है, तभी जम कर पढ़ाई करता हूं.’’

देर से ही सही, लेकिन मुझे समझ में आया कि उसकी खुद का आकलन करने की क्षमता कम उम्र मे ही बहुत अच्छी थी. हममें से ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा होता है. दबाव में हमारी परफ़ॉर्मेस ज्यादा होती है. हम बहुत बार पहले से ही आनेवाले कार्य, दबाव, परीक्षा या परेशानी के बारे में जानते हैं, फ़िर भी दबाव बढ़ने तक पूरी क्षमता से कार्य नहीं करते, जबकि हमें मालूम रहता है कि अधिक दबाव में दक्षता कम हो जाती है और परिणाम खराब होने की संभावना बढ़ जाती है. हम सभी ने कई बार सही समय पर तैयारी न करने का दुष्परिणाम भोगा है.

एक बड़ी कॉरपोरेट कंपनी में लंच लेकर जब कर्मचारी लौटे, तो बड़े दरवाजे पर एक पोस्टर पर लिखा था कि कंपनी में आपकी तरक्की के सबसे बड़े दुश्मन की मृत्यु हो गयी है और ऑडिटोरियम में उसकी डेड बॉडी पड़ी है. यह सूचना जिसके लिए है, वह समझ ले. सभी सोच में पड़ गये. प्रत्येक व्यक्ति किसी ना किसी को अपनी तरक्की में बाधा समझता था.

सब हॉल में लाइन से पहुंचे. एक के बाद एक ताबूत पर फ़ूल चढ़ाने जाते और ऊपर कांच से अंदर देखते तो चौंक जाते. अंदर एक आईना लगा था, जिस पर लिखा था, कार्य टालने की आदत से आप अपना सबसे बड़ा दुश्मन बन जाते हैं हम सही वक्त पर अपना कार्य कर अपने को ऊंचाइयों पर पहुंचाने के लिए सबसे बड़े दोस्त बन सकते हैं और टालने की प्रवृत्ति पाल कर सबसे बड़े दुश्मन भी.

लास्ट डे ही बिल जमा करना या लास्ट डे ही एसाइनमेंट पूरा करना हमारी आदत में शामिल है. हमारे ऑफ़िस में कुछ दिनों पहले ही एक सज्जन का आयकर सैलेरी से काट लिया गया. वे बड़े परेशान हो गये. जबकि उन्हें लगभग एक महीने पहले ही फ़ॉर्म दिया गया था और कहा गया था कि इसे भर कर भेज दें, नहीं तो सैलेरी से पैसा काटा जायेगा. उस समय उन्होंने ध्यान नहीं दिया, लगा कि चलो सैलेरी कटने से पहले ही भेज दिया जायेगा, लेकिन टालने की आदत के कारण वे चूक गये.

मजेदार बात यह कि जब उन्हें एचआर से बताया गया कि अगर आप एक घंटे में फ़ॉर्म भर कर दे देते हैं, तो एक महीने बाद आपका पैसा वापस हो जायेगा, तो उन्होंने आधे घंटे में ही फ़ॉर्म भर कर भेज दिया. काम बहुत छोटा था, सिर्फ़ टालने की आदत के कारण ही इतनी परेशानी हुई. असल में हम टालते इसलिए हैं, क्योंकि हमारे पास प्लान नहीं होता. हम यह निर्णय ही नहीं ले पाते कि हमें कब क्या काम करना है. एक बार व्यवस्थित हो कर देखें, आपको सफ़ल होने से कोई नहीं रोक सकता.

बात पते की
-लास्ट डे ही बिल जमा करना या लास्ट डे ही एसाइनमेंट पूरा करना हमारी आदत में शामिल है. सफ़ल होना है तो हमें व्यवस्थित होना होगा.
-दबाव में ही काम करने की आदत न डालें. कई लोग दबाव में ही बेहतर परफ़ॉर्म कर पाते हैं. ऐसा करने पर गलती की संभावना ज्यादा रहती है.


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