स्वर्ग जाने की टिकटें
मैंने सुना है कि एक धर्मगुरु स्वर्ग जाने की टिकटें बेचता था-सभी धर्मगुरु बेचते हैं। स्वभावत:, कुछ अमीर खरीदते तो प्रथम श्रेणी की देता। गरीब खरीदते, द्वितीय श्रेणी के। तृतीय श्रेणी भी थी, और जनता-चौथी श्रेणी भी थी। सभी लोगों के लिए इंतजाम स्वर्ग में होना भी चाहिए। तरह-तरह के लोग हैं, तरह-तरह की सुविधाएं होनी चाहिए। काफी धन उसने इकट्ठा कर लिया था लोगों को डरा-डराकर नर्क के भय से। लोग खाना न खाते, पैसा इकट्ठा करते कि टिकट खरीदनी है। यही कर रहे हैं लोग। खाना नहीं खाते, मैं देखता हूं तीर्थयात्रा को जाते हैं। कपड़ा नहीं पहनते, मंदिर में दान दे आते हैं। खुद भूखों मरते हैं, ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। सदियों से डरवाया है ब्राह्मण ने कि हम ब्रह्म के सगे-रिश्तेदार हैं।
भाई- भतीजावाद। अपना नाता करीब का है, करवा देंगे तुम्हारा इंतजाम भी। खुद खाओगे, कोई पुण्य न होगा। ब्राह्मण को खिलाओगे, पुण्य होगा। लोग भूखों मरते हैं, पंडे-पुरोहितों को देते हैं। उस धर्मगुरु ने बहुत धन इकट्ठा कर लिया। एक रात एक आदमी उसकी छाती पर चढ़ गया जाकर, छुरा लेकर। और उसने कहा, निकाल, सब रख दे! उसने गौर से देखा, वह उसकी ही जाति का आदमी था। उसने कहा, अरे! तुझे पता है, नर्क में सड़ेगा। उसने कहा, छोड़ फिकर, पहली श्रेणी का टिकट पहले ही खरीद लिया है, सब निकाल पैसा। तुमसे ही खरीदा है टिकट। वह हम पहले ही खरीद लिए हैं, उसकी तो फिकर ही छोड़ो। अब नर्क से तुम हमें न डरवा सकोगे। वे कोई और होंगे जिनको तुम डरवाओगे। हम टिकट पहले ही ले लिए हैं; अब तुम सब पैसा जो तुम्हारे पास इकट्ठा किया है तिजोड़ी में, दे दो। लोग यही कर रहे हैं। इसको तुम चरित्र कहते हो! भय पर खड़े, लोभ पर खड़े व्यक्तित्व को तुम चरित्र कहते हो! यह चरित्र का धोखा है - ओशो |
Re: स्वर्ग जाने की टिकटें
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