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jai_bhardwaj 12-08-2013 07:08 PM

ये शाम और तुम ...
 
अंतरजाल में किसी दूसरे नाम से प्राप्त इस लेख को मंच में प्रस्तुत कर रहा हूँ। मूल रचनाकार को हार्दिक धन्यवाद

jai_bhardwaj 12-08-2013 07:08 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...शाम मेरे घर के खाली कमरों में तब भी तुम्हारी आहटें ढूंढेगी...जब कि दूर मैं जा चुकी हूँ पर शाम तुम्हें मिस करेगी. मैं कोई उलाहना भी नहीं दे पाउंगी शाम को कि किसी दूसरे शहर में मुझे एक अजनबी शाम से करनी होगी दोस्ती...चाहना होगा जबरन कि उम्र भर के रास्ते साथ चलने वाले से प्यार कर लेने में ही सुकून और सलीका है.

नए शहर में होंगी नयी दीवारें जिन्होंने नहीं चखा होगा मेरे आंसुओं का स्वाद...जिनमें नहीं छिपी होगी सीलन...जो नहीं जानती होंगी सीने से भींच कर लगाना कि उनमें नहीं उगी होगी सोलह की उम्र से काई की परतें. दीवारें जो इश्क के रंग से होंगी अनजान और अपने धुल जाने वाले प्लास्टिक पेंट पर इतरायेंगी...वाटर प्रूफ दीवारें...दाग-धब्बों रहित...उनमें नहीं होगा चूने से कट जाने का अहसास...उन्हें नहीं छुआ होगा बारीक भुरभुरे चूने ने...उन्हें किसी ने बताया नहीं होगा कि सफ़ेद चूना पान के साथ जुबान को देता है इश्क जैसा गहरा लाल रंग...और कट जाती है जुबान इससे अगर थोड़ा ज्यादा पड़ गया तो...कि जैसे इश्क में...तरतीब से करना चाहिए इश्क भी. गुलाबी दीवारें इंतज़ार करेंगी कीलों का...उनपर मुस्कुराते लोगों की तस्वीरों का...कैलेण्डर का...इधर उधर से लायी शोपीसेस का...कुछ मुखोटे...कुछ नयी पेंटिंग्स का...दीवारों को मालूम नहीं होगा कि मैं घर में यादों के सिवाए किसी को रहने नहीं देतीं.

jai_bhardwaj 12-08-2013 07:09 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
नयी शाम, नए दीवारों वाले घर में सहमे हुए उतरेगी...मेरी ओर कनखियों से ताकेगी कि जैसे अरेंज मैरेज करने गया लड़का देखता है अपनी होने वाली पत्नी को...कि उसने कभी उसे पहले देखा नहीं है...शाम की आँखों में मनुहार होगा...भय होगा...कि मुझे उससे प्यार हो भी या नहीं...बहुत सी अनिश्चितता होगी. मैं छुपी होउंगी किसी कोने में...वहां मिलती दोनों दीवारें आपस में खुस-पुस बातें करेंगी कि इस बार अजीब किरायेदार रखा है मकान मालिक ने...लड़की अकेली चली आई है इस शहर. मैं गीली आँखों के पार देखूंगी...इस घर को अभी सलीके से तुम्हारा इंतज़ार करना नहीं आता.


नयी सड़क पर निकलती हूँ...शाम भी दबे पाँव पीछे हो ली है...सोच रही है कि ऐसा क्या कहे जो इस मौन की दीवार को तोड़ सके...मैं शाम को अच्छी लगी हूँ...पर मैं सबको ही तो अच्छी लगती हूँ एक तुम्हारे सिवा...या ठहरो...तुम्हें भी तो अच्छी लगती थी पहले. वसंत के पहले का मौसम है...सूखे पत्ते गिर कर हमारे बीच कुछ शब्द बिखेरने की कोशिश करते हैं...पूरी सड़क पर बिखरे हुए हैं टूटे हुए, घायल शब्द...मरहमपट्टी से परे...अपनी मौत के इंतज़ार में...सुबह सरकारी मुलाजिम आएगा तो उधर कोने में एक चिता सुलगायेगा...तब जाकर इन शब्दों की रूह को चैन आएगा.

jai_bhardwaj 12-08-2013 07:09 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
इस शहर के दरख़्त मुझे नहीं जानते...उनके तने पर कच्ची हैण्डराइटिंग में नहीं लिखा हुआ है मेरा नाम...वो नहीं रोये और झगड़े है तुमसे...वो नहीं जानते हमारे किसी किस्से को...ये दरख़्त बहुत ऊँचे हैं...पहाड़ों से उगते आसमान तक पहुँचते...इनमें बहुत अहंकार है...या ये भी कह सकते हो कि इन बूढ़े पेड़ों ने बहुत दुनिया देखी है इसलिए इनमें और मुझमें सिर्फ जेनेरेशन गैप है...इतनी लम्बी जिंदगी में इश्क एक नामालूम चैप्टर का भुलाया हुआ पैराग्राफ है...फिर देखो न...इनके तने पर तो किसी ने भी कोई नाम नहीं लिखा है. शायद इस शहर में लोग प्यार नहीं करते...या फिर सलीके से करते हैं और अपने मरे हुए आशिकों के लिए संगेमरमर के मकबरे बनवाते हैं...या फिर उनके लिए गज़लें लिखते हैं और किताब छपवाते हैं...या कि जिंदगी भर अपने आशिक के कफ़न पर बेल-बूटे काढ़ते हैं...इश्क ऐसे तमीजदार जगहों पर अपनी जगह पाता है.


मैं अपनी उँगलियाँ देखती हूँ...उनके पोर आंसुओं को पोछने के कारण गीले रहते रहते सिकुड़ से गए हैं...थोड़े सफ़ेद भी हो गए हैं...अब कलम पकड़ती हूँ तो लिखने में दर्द होता है. अच्छा है कि आजकल तुम्हें चिट्ठियां नहीं लिखती हूँ...मेरी डायरी तो कैसी भी हैण्डराइटिंग समझ जाती है. मंदिर जाती हूँ तो चरणामृत देते हुए पुजारी हाथ को गौर से देखता है...कहता है 'बेटा, इस मंदिर की अखंड ज्योति के ऊपर कुछ देर उँगलियाँ रखो...यहाँ के इश्वर सब ठीक कर देते हैं...बहुत अच्छे हैं वो'. मैं सर पर आँचल लेकर तुम्हारी उँगलियों के लिए कुछ मांग लेती हूँ...ताखे के ऊपर से थोड़ी कालिख उठाती हूँ और कहती हूँ कि इश्वर उसकी कलम में हमेशा सियाही रहे...उसकी आँखों में हमेशा रौशनी और उसके मन में हमेशा विश्वास कि साँस की आखिरी आहट तक मैं उससे प्यार करती रहूंगी.

jai_bhardwaj 12-08-2013 07:10 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...इस घर ने अपनी आदतें कहाँ बदलीं...शाम घर की अनगिनत दीवारों को टटोलती हुयी मुझे ढूंढती रही और आखिर उसकी भी आँखें बुझ गयीं...बेरहम रात चाँद से ठिठोली करती है...चाँद का चौरस बटुआ खिड़की से अन्दर औंधे गिरा है...कुछ चिल्लर मुस्कुराहटें कमरे में बिखर गयी हैं...बटुए में मेरी तस्वीर लगी है...ओह...अब मैं समझी...तुम्हें चाँद से इर्ष्या थी...कि वो भी मुझसे प्यार करता है...बस इसलिए तुमने शाम से रिश्ता तोड़ लिया...मुझसे खफा हो बैठे...शहर से रूठ गए...मेरी जान...एक बार पूछा तो होता...उस चाँद की कसम...मैंने सिर्फ और सिर्फ तुमसे प्यार किया है...हर शाम इंतज़ार सिर्फ तुम्हारा था...चाँद का नहीं. मेरा प्यार बेतरतीब सही...बेवफा नहीं है...और तुम लाख समझदार समझ लो खुद को...इश्क के मामले में कच्चे हो...तुम्हारी कॉपी देखती हूँ तो उसमें लाल घेरा बना रखा है...और एक पूर्णिमा के चाँद सा जीरो आया है तुम्हें...मालूम क्यूँ...क्यूंकि तुम मुझसे दूर चले आये...मेरी कॉपी देखो...पूरी अंगडाई लेकर हाथ ऊपर की ओर बांधे तुम हो...एक चाँद, एक सूरज से दो गोल...पूरे १०० में १०० नंबर आये हैं मेरे.


चलो...कल से ट्यूशन पढने आ जाना मेरे शहर...ओके? मानती हूँ ये वाला तुम्हारे शहर से दूर बहुत है...पर गलती तुम्हारी है...मैं वापस नहीं जाने वाली...तुम्हें इश्क में पास होना है तो मुझसे सीखो इश्क करना...निभाना...सहना...और थोड़ा पागलपन सीखो मुझसे...कि प्यार में हमेशा जो सही होता है वो सही नहीं होता...कभी कभी गलतियाँ भी करनी पड़ती हैं...बेसलीका होना होता है...हारना होता है...टूटना होता है. मुश्किल सब्जेक्ट है...पर रोज शाम के साथ आओगे और दोनों गालों पर बोसे दोगे तो जल्दी ही तुम्हें अपने जैसा होशियार बना दूँगी...जब मेरी बराबरी के हो जाओगे तब जा के फिर से प्रपोज करना हमको...फिर सोचूंगी...तुम्हें हाँ कहूँ या न.

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rajnish manga 15-08-2013 10:03 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
..... गुलाबी दीवारें इंतज़ार करेंगी कीलों का...उनपर मुस्कुराते लोगों की तस्वीरोंका...कैलेण्डर का...इधर उधर से लायी शोपीसेस का...कुछ मुखोटे...कुछ नयी पेंटिंग्सका...दीवारों को मालूम नहीं होगा कि मैं घर में यादों के सिवाए किसी को रहने नहींदेतीं....

... नयी सड़क पर निकलती हूँ...शाम भी दबे पाँव पीछे हो ली है...सोच रहीहै कि ऐसा क्या कहे जो इस मौन की दीवार को तोड़ सके...मैं शाम को अच्छी लगीहूँ...पर मैं सबको ही तो अच्छी लगती हूँ एक तुम्हारे सिवा...या ठहरो...तुम्हें भीतो अच्छी लगती थी पहले. वसंत के पहले का मौसम है...सूखे पत्ते गिर कर हमारे बीच कुछशब्द बिखेरने की कोशिश करते हैं...पूरी सड़क पर बिखरे हुए हैं टूटे हुए, घायलशब्द...मरहमपट्टी से परे...अपनी मौत के इंतज़ार में...सुबह सरकारी मुलाजिम आएगा तोउधर कोने में एक चिता सुलगायेगा...तब जाकर इन शब्दों की रूह को चैनआएगा....

इस शहर के दरख़्त मुझे नहीं जानते...उनके तने पर कच्ची हैण्डराइटिंगमें नहीं लिखा हुआ है मेरा नाम...वो नहीं रोये और झगड़े है तुमसे...वो नहीं जानतेहमारे किसी किस्से को...ये दरख़्त बहुत ऊँचे हैं...पहाड़ों से उगते आसमान तकपहुँचते...इनमें बहुत अहंकार है...या ये भी कह सकते हो कि इन बूढ़े पेड़ों ने बहुतदुनिया देखी है ....

...ताखे के ऊपर से थोड़ी कालिख उठाती हूँ और कहती हूँ कि इश्वर उसकी कलम में हमेशासियाही रहे...उसकी आँखों में हमेशा रौशनी और उसके मन में हमेशा विश्वास कि साँस कीआखिरी आहट तक मैं उससे प्यार करती रहूंगी....

...इस घर ने अपनी आदतें कहाँ बदलीं...शाम घर की अनगिनत दीवारों को टटोलती हुयी मुझेढूंढती रही और आखिर उसकी भी आँखें बुझ गयीं...

...चाँद का चौरस बटुआ खिड़की से अन्दर औंधे गिरा है...कुछ चिल्लर मुस्कुराहटें कमरेमें बिखर गयी हैं...बटुए में मेरी तस्वीर लगी है...ओह...अब मैं समझी...तुम्हें चाँदसे इर्ष्या थी...कि वो भी मुझसे प्यार करता है...बस इसलिए तुमने शाम से रिश्ता तोड़लिया...मुझसे खफा हो बैठे...

...तुम्हें इश्क में पास होना है तो मुझसे सीखो इश्क करना...निभाना...सहना...औरथोड़ा पागलपन सीखो मुझसे...कि प्यार में हमेशा जो सही होता है वो सही नहींहोता...कभी कभी गलतियाँ भी करनी पड़ती हैं...बेसलीका होना होता है...हारना होताहै...टूटना होता है. मुश्किल सब्जेक्ट है...पर रोज शाम के साथ आओगे और दोनों गालोंपर बोसे दोगे तो जल्दी ही तुम्हें अपने जैसा होशियार बना दूँगी...जब मेरी बराबरी केहो जाओगे तब जा के फिर से प्रपोज करना हमको...फिर सोचूंगी...तुम्हें हाँ कहूँ या न.

कथानक के बरक्स कहानी की भाषा इतनी चुस्त, जीवंत और अल्हड़ है कि सबसे पहले उसी पर पाठक का ध्यान अटक जाता है. मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि यहां पर वातावरण का निर्माण जैसे किसी छायावादी कवि की देखरेख में किया गया है, जिसके उदाहरण आपको उपरोक्त वाक्यांशों में यहां वहां बिखरे हए मिल जायेंगे.

अब कुछ शब्द कथानक के बारे में. यह कहानी अलहदगी (या वियोग?) से शुरू हो कर फ्लेशबैक के सहारे दीवारों, कमरों, सड़कों, पेड़ों आदि की धड़कनों और सोचों के बीच से रास्ता बनाती हुई आगे बढ़ती है. इसके बावजूद ऐसा कहीं नहीं लगता कि नायिका का बयान उसकी निराशा से उत्पन्न हुआ है, बल्कि वह तो कथा के अंत में आ कर शरारत के मूड में आ कर (ख्यालों-ख्यालों में) अपने से काफी छोटी उम्र के अपने बिछुड़े हुये साथी को प्यार के कई टोटके तजवीज़ करती है. कहानी नारी और पुरुष के परस्पर प्रेम सम्बन्धों का एक नया आयाम प्रस्तुत करती है. अंत में नायिका अपने बिछुड़े हुये प्रेमी के प्रति प्यार का इज़हार करती है, अपना कमिटमेंट दोहराती है और उसे उम्र भर निभाने का अहद लेती है.


एक श्रेष्ठ कहानी प्रस्तुत करने के लिए आपका धन्यवाद, जय जी.

jai_bhardwaj 16-08-2013 06:22 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
Quote:

Originally Posted by rajnish manga (Post 347648)

कथानक के बरक्स कहानी की भाषा इतनी चुस्त, जीवंत और अल्हड़ है कि सबसे पहले उसी पर पाठक का ध्यान अटक जाता है. मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि यहां पर वातावरण का निर्माण जैसे किसी छायावादी कवि की देखरेख में किया गया है, जिसके उदाहरण आपको उपरोक्त वाक्यांशों में यहां वहां बिखरे हए मिल जायेंगे.

अब कुछ शब्द कथानक के बारे में. यह कहानी अलहदगी (या वियोग?) से शुरू हो कर फ्लेशबैक के सहारे दीवारों, कमरों, सड़कों, पेड़ों आदि की धड़कनों और सोचों के बीच से रास्ता बनाती हुई आगे बढ़ती है. इसके बावजूद ऐसा कहीं नहीं लगता कि नायिका का बयान उसकी निराशा से उत्पन्न हुआ है, बल्कि वह तो कथा के अंत में आ कर शरारत के मूड में आ कर (ख्यालों-ख्यालों में) अपने से काफी छोटी उम्र के अपने बिछुड़े हुये साथी को प्यार के कई टोटके तजवीज़ करती है. कहानी नारी और पुरुष के परस्पर प्रेम सम्बन्धों का एक नया आयाम प्रस्तुत करती है. अंत में नायिका अपने बिछुड़े हुये प्रेमी के प्रति प्यार का इज़हार करती है, अपना कमिटमेंट दोहराती है और उसे उम्र भर निभाने का अहद लेती है.


एक श्रेष्ठ कहानी प्रस्तुत करने के लिए आपका धन्यवाद, जय जी.


निश्चित ही बन्धु, आप कलम के जादूगर हैं। निश्चित ही आप लेखक हैं, निश्चित ही आप कवि हैं और जिस प्रकार से आप लेख के बीच से चुनिन्दा वाक्यांश ग्रहण करते हैं वह आपमें किसी बड़े समाचारपत्र के प्रमुख स्तंभकार की छवि परिलक्षित करता है।

सच में .. जब मैंने इस कथानक को पहली बार पढ़ा था तो इन्ही नीले शब्दों में लिपटे हुए भावों में मुझे आकृष्ट किया था। इन्ही से भाव-विभोर होकर मैंने इस नन्ही सी रचना को पटल पर रखा था। आपकी उपरोक्त प्रस्तुति इस लेख को देखने/पढने वाले वाले हजारों पाठकों की अनुभूति समेटे हुए है। कथा प्रस्तोता आत्ममुग्ध होगया है। आभार बन्धु।

Dr.Shree Vijay 16-08-2013 07:23 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
मित्र रजनीश जी ने इतने सुन्दर शब्दों में व्याख्या करदी की मेरे लिए शब्द ही नही बचे............................................... ....

jai_bhardwaj 17-08-2013 07:17 PM

Re: ये शाम और तुम ...
 
Quote:

Originally Posted by dr.shree vijay (Post 348115)
मित्र रजनीश जी ने इतने सुन्दर शब्दों में व्याख्या करदी की मेरे लिए शब्द ही नही बचे............................................... ....



ठीक है बन्धु, मैं रजनीश जी के शब्दों को ही आपके द्वारा प्रतिध्वनित मान लेता हूँ।

प्रेरक प्रतिक्रियाओं के हार्दिक अभिनन्दन बन्धु।


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