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vindhya 10-02-2015 02:38 AM

Pakhi-अस्तित्व
 
सबसे कम काम में आने वाली ताक से, जब बरसों पुरानी उस डायरी को आज उठाया तो पलटते हुए पन्ने, अनायास ही उन पंक्तियों पर जा रुके, जो कि नवयौवन के उस अजब से सुन्दर दौर में, इन पन्नों पर उतर आईं थीं | वह एहसास लड़कपन के उस आकर्षण का, आज भी बिसरा हुआ सा, कहीं तो छुपा बैठा होगा, जब कल्पना में हम सपनों को जीया करते थे |
होठों पर आई मुस्कान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया मैंने | याद हो आया कि कैसे अपनी उस प्यारी मित्र को झंझोड़ा था, उसके इकतरफा, पागल से मोह को, आत्माभिमान का अक्स दिखाकर, पाश से मुक्त करना चाहा था|
आज पढ़ने पर अतिश्योक्ति सी जान पड़ती ये चंद पंक्तियाँ, अपने सन्दर्भ को ताज़ा सा कर रही हैं, मेरे मन में| शायद इसी लिए इस अहसास को आपसे बाँटने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रही मैं |

कुछ बीस वर्ष पूर्व, अपनी मित्र को समर्पित की थीं मैंने ये पंक्तियाँ......

चाहूँ क्यूँ ...बनूं पसंद किसी की ,
मिटाऊं क्यूूँ...इच्छायें खुद ही की...


क्यूँ भागूं मैं पीछे उसके,
जो हर पल भरमाता है...


तकती क्यूँ रहूँ राह उसकी,
जो छोड़, दूर चला जाता है ...



क्यूूँ बदलूं मैं खातिर किसी के,
सह क्यूूँ लूं सारे तोड़ ज़िंदगी के...


क्यूूँ सोचूँ करे कोई स्वीकार,
समझूँ क्यूूँ ख़ुशी का इसे द्वार...


जीवन यदि ये मेरा है तो,
क्यूूँ हक़ इसपर औरों का है...


इतने 'क्यूूँ', पर उत्तर नहीं है,
उसपर जहाँ साधे चुप्पी है...


कोई तो समझे आखिर ये,
कि अस्तित्व तो मेरा भी है...

Deep_ 10-02-2015 10:29 AM

Re: Pakhi-अस्तित्व
 
बहुत ही सटीक और सही बात है आपकी पंक्तियों में। नारी के मन में उठते ईस "क्यूं" का जवाब क्या किसी के पास नहीं? दुनिया की नारी के प्रति ईस रवैये पर सच में गुस्सा आता है।
नारी को सहनशीलता की मूरत का खिताब देते देते....जाने कितने अन्याय हम कर जाते है।


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