Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
नागर जी कानपुर गए हैं
यह उन दिनों की बात है जब डॉ. धर्मवीर भारती अभी इलाहाबाद में अभी एक शोध-छात्र ही थे. साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से उनका लेखन हिंदी जगत में अपनी पहचान बना रहा था. उनकी एक-दो पुस्तकें भी छप चुकी थीं. हिंदी के मूर्धन्य लेखक अमृतलाल नागर से उनका व्यक्तिगत परिचय था लेकिन लखनऊ उनके निवास स्थान पर जाने का अवसर न मिला था. एक बार भारती जी किसी काम से लखनऊ गए और श्री केशव चन्द्र वर्मा के साथ हज़रत गंज में घूम रहे थे कि अचानक तय किया कि अमृत लाल नागर जी के यहाँ जाया जाये. आगे का हाल स्वयं भारती जी के शब्दों में सुनिए – शाम ढलने लगी थी. चौक पहुंचे. कई गलियों की ख़ाक छानी. सब उन्हें जानते थे, खोमचे वाले, हलवाई, फूल वाले, पान ज़र्दा वाले. सभी ने इतने उत्साह से रास्ता बताया कि हम गुमराह होते होते बचे. पहुंचे. एक पुराने ढर्रे का मकान (बाद में दूसरे मकान में चले गए थे). वे रहते थे ऊपर वाली मंजिल में, बाहर से ही जीना था. सीढियां चढ़ते दिल धड़क रहा था. क्या बताएँगे कि क्यों आये हैं? क्या बात करेंगे. बात करेंगे भी या नहीं. अगर कहीं न मिले तो? जीने पर खड़ी सीढियां थी और गली के मकान के बंद जीने जैसी सीलन और अँधेरा. ऊपर दरवाजा बंद था. घंटी – वंटी का रिवाज तो तब था नहीं. पहुँच कर कुण्डी खड़काई. क्षण भर बाद दरवाजा खुला और भाभी (स्व. श्रीमती प्रतिभा नागर) की पहली झलक मिली. लम्बी, तन्वंगी, बादामी रंग की साड़ी और अजब सा उजास फैलाता हुआ रंग. “कहिये?” उन्होंने थोड़ी रुखाई से पूछा. “नागर जी हैं क्या?” “नहीं,” वे बोली बड़ी गंभीरता से, “वो तो कानपुर गए हैं.” हम दोनों हतप्रभ! इतनी हिम्मत कर के आये भी और नागर जी हैं ही नहीं. अब क्या करें हम लोग? वे प्रतीक्षा में खड़ी रहीं कि हम लोग या तो जायें या कुछ कहें. मैंने हिम्मत कर के कहा, “नमस्कार, नागर जी कानपुर से आयें तो कह दीजियेगा, इलाहाबाद से भारती और केशव आये थे?” “भारती और केशव ... “ उन्होंने जैसे याद करने के लिए दोहराया ... और सहसा घर के अन्दर से जोर से आवाज आयी .... “अरे चले आओ भैया भारती, केशव आ जाओ, आ जाओ .... मैं यहीं हूँ !” नागर जी अन्दर से पुकार रहे थे. दरवाजा पूरा खुल गया. भाभी कुछ खीज कर झटके से अन्दर चली गयीं. |
Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हम दोनों चमत्कृत, अन्दर गए, दूर पर दीवार के सहारे एक ऊंचे से तख़्त पर नागर जी बैठे थे. हाथ में तख्ती थी, जिस पर कागज़ लगे थे, देख कर हंसे जोर से .....
“भैया, ऐसा है कि यही तखत जो है न, हमारा कानपुर है. जब लिखते पढ़ते है यहाँ बैठ कर तो तुम्हारी भाभी से कह देते हैं कि आने-जाजे वालों से कह देना, कानपुर गए हैं. आओ भारती, केशव भी यहीं आ जाओ, कानपुर में !” हम दोनों चौक लखनऊ के उस कानपुर में बैठने की जगह बना ही रहे थे कि भाभी दो गिलास पानी लेकर आयी. बिना किसी को संबोधित किये बुदबुदा रहीं थीं, “बाहर वालों के सामने हमारी हंसी उड़ती है, खुद ही तो .... “ “अरे ये बाहर वाले कहां हैं? नागर जी कुछ मनुहार के से स्वर में बोले, “और तुमने झूठ क्या कहा ... यह कानपुर तो है ही !” “रहने दो.” भाभी की आवाज में मनुहार के प्रभाव से थोड़ी खनक आ गई थी ... “हरदम नाच नचाते रहते हैं !” “अरे खाली पानी?” नागर जी ने टोका. “आ रहा है, आप ये कुर्सी ले लीजिये ...” भाभी ने टीन की कुर्सी मेरी ओर बढ़ाई और चली गयीं. हम लोग बातों में मशगूल हो गए. “सेठ बांकेलाल” (नागर जी की प्रख्यात कृति) का ज़िक्र आया और लो लखनऊ के उस कानपुर में आगरा प्रकट हो गया और किनारी बाजार की रौनक छाने लगी. थोड़ी देर में लखनऊ फिर लौटा, जब भाभी दो तश्तरियों में चौक लखनऊ की मिठाइयाँ रख कर लायीं – हरे चने की बर्फी, पिश्ते का लड्डू, लाल पड़े और मलाई की गिलोरियां. फिर नागर जी की ओर देखा और हंस पड़ीं. पल्ले से मुंह ढंककर हंसी दबायी और चली गयीं. फिर नहीं आयीं. हम लोग लौटे तो हमारे साथ थी नागर जी की निश्छल हंसी, लच्छेदार बातें, लाल पेड़ों का सौंधा सौंधा स्वाद, और भाभी के व्यक्तित्व की दीप्त उजास – जैसे धुंधलके में नाक की लौंग का हीरा छवि मारता है न, कुछ-कुछ वैसा. (यह अंश डॉ. धर्मवीर भारती के एक श्रद्धांजलि संस्मरण में से लिया गया है जो उन्होंने श्रीमती प्रतिभा नागर, जिन्हें आदरपूर्वक ‘बा’ कह कर संबोधित किया जाता था, के निधन -28 मई, 1985- के बाद लिखा था) |
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चौक यूनिवर्सिटी के वी.सी. पं. नागर
यहां पं. राम विलास शर्मा का एक संस्मरण दिया जा रहा है – मैंने नागर जी से कहा, “अब तुम पी.एच.डी. कर डालो” नागर जी बोले, “पहले इंटर करना पड़ेगा, फिर बी.ए, फिर एम.ए, बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. अब पी.एच.डी, वी.एच.डी. का मोह नहीं है. पहले था. तुमने पंडित की उपाधि दे दी वह बहुत है. फिर कुछ रुक कर बोले, “चौक हमारी यूनिवर्सिटी, हम उसके वाईस चांसलर हैं.” (डॉ. राम विलास शर्मा की पुस्तक ‘पंचरत्न’ से) |
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हास्य विनोद सआदत हसन मंटो के साथ
किसी ने मंटो साहब से पूछा, “मंटो साहब ! पिछली बार जब आप मिले थे, तो आपसे यह जान कर बेहद ख़ुशी हुयी थी कि कि आप ने शराब से तौबा कर ली है, लेकिन कितने अफ़सोस की बात है कि आज आप फिर पिए हुए हैं.” “ठीक कहा आपने किबला ! फ़र्क सिर्फ इतना है कि उस दिन आप खुश थे और आज मैं खुश हूँ.” |
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हास्य विनोद सआदत हसन मंटो के साथ
एक बार जिगर मुरादाबादी लाहौर तशरीफ़ लाये तो तो कुछ स्थानीय लेखक और कवि उनसे मुलाक़ात करने उनके ठहरने की जगह तशरीफ़ लाये. जिगर बहुत आत्मीयता से हर आगंतुक का स्वागत कर रहे थे कि सआदत हसन मंटो ने भी जिगर साहब से हाथ मिलाते हुए कहा, “किबला ! अगर आप मुरादाबाद के जिगर हैं तो यह खाकसार लाहौर का गुर्दा है.” |
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हास्य विनोद सआदत हसन मंटो के साथ
एक दिन मंटो साहब बड़ी तेजी से रेडियो-स्टेशन की इमारत में दाखिल हो रहे थे कि वहां बरामदे में मडगार्ड के बिना एक साइकिल देख कर क्षणभर के लिए रूक गए और फिर दूसरे ही क्षण उन्हें कुछ शरारत सूझी और वह चीख चीख कर पुकारने लगे, “राशद साहब ! जनाब राशद साहब ! ज़रा जल्दी से बाहर तशरीफ़ लाइए !” शोर सुन कर नज़र मो. राशिद के अलावा कृशन चंदर, उपेन्द्रनाथ अश्क और रेडियो स्टेशन के अन्य कर्मचारी भी उनके सामने आ खड़े हुए. “राशद साहब ! आप देख रहे हैं इसे !” मंटो ने इशारा करते हुए कहा, “यह बिना मडगार्ड की साइकिल ! खुदा की कसम यह साइकिल नहीं, बल्कि हकीकत मैं आपकी कोई नज़्म मालूम पड़ती है.” |
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राजेंद्र सिंह बेदी और आटे की बोरियां
उर्दू के मशहूर अफसानानिगार राजेंद्र सिंह बेदी बम्बई में रहते थे और फिल्म प्रोडक्शन से जुड़े हए थे. उसी दौरान उनके पास एक लम्बी सी मोटर कार भी थी. उन्हीं दिनों पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक संत सिंह सेखों ‘पंजाबी साहित्य केंद्र’ के बुलावे पर बम्बई पधारे थे. बेदी साहब भी प्रोग्राम में शिरकत कर रहे थे. प्रोग्राम के बाद बहुत से लेखक भी सेखों जी के साथ ही बेदी साहब की कार में बैठ गये. उनको अपने अपने ठिकाने पर पहुंचाने की ज़िम्मेदारी बेदी साहब की थी. रास्ते में पंजाबी लेखक सुखबीर ने चुटकी लेते हए कहा, “बेदी साहब, यह गाडी आपके प्रोड्यूसर होने की सही निशानी है. “क्यों नहीं,” एक अन्य लेखक बोला, “गाड़ी क्या है, पूरा छकड़ा है.” “और इसमें आटे की बोरियां भी लादी जा सकती हैं!” अब की बार सेखों जी बोले. इस बार बेदी साहब ने भी सेखों जी की ओर मुस्कुरा कर देखा और बोले, “वही तो लाद कर लिए जा रहा हूँ.” |
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मूर्खों जैसी बात प्रसिद्ध हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु से उनके एक मित्र ने कहा, “तुम जब भी नशे में रहते हो तो हमेशा मूर्खों जैसी बातें करते हो.” इस पर रेणु जी ने कहा, “मैं नशे में मूर्खों जैसी बात करता हूँ, यह एक अस्थाई बात है और तुम जो हमेशा मूर्खों जैसी बात करते हो, वह एक स्थाई बात है.” |
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बे-अदबों से सीखा है
हकीम लुकमान अपनी तहजीब और अदब के लिए शहर भर में बहुत मशहूर थे और लोग उनकी बड़ी इज्ज़त करते थे.एक दिन हकीम लुकमान से उनके एक मित्र ने उनसे पूछा, “आपने यह अख़लाक़ और तहजीब कहाँ से सीखी?” “बे-अदबों से और बेतहजीबो से.” उत्तर मिला. “हकीम साहब, आप भी खूब मज़ाक करते हैं. भला ऐसे लोगों से भी कोई सीख सकता है?” मित्र ने आश्चर्य से उनकी ओर देखते हुये कहा. मित्र की बात सुन कर हकीम लुकमान मुस्कुराये और बोले, अरे जनाब, इसमें हैरानी की क्या बात है? मैंने इन लोगों में जो बुरी बातें देखीं, अपने आप को उनसे दूर रखा. इस तरह अच्छाइयां मुझमे स्वतः आती गईं.” |
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पादुका पुराण
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पैत्रिक गाँव जोड़ासांको में अक्सर साहित्यिक गोष्ठियां आयोजित होती रहतीं. शरच्चंद्र बाबु भी इनमे भाग लिया करते थे. कहते हैं कि हर बार किसी न किसी का जूता खो जाता था. एक बार शरत बाबु नया जूता पहन कर आये. इस डर से कि कहीं यह चोरी न चला जाये, उन्होंने जूते को अखबार में लपेट कर हाथ में ले लिया. रवि बाबू ने उनसे पूछ लिया, “यह तुम्हारे हाथ में क्या है?” शरद बाबु को कुछ उत्तर देते न बना. वह चुप चाप सिर झुकाए खड़े रहे. रवि बाबु बोले, “लगता है कोई पुस्तक लिये खड़े हो? शायद यह ‘पादुका पुराण’ है?” शरद बाबु हैरान हो गये! तभी सभा में एक ठहाका गूँज उठा. |
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