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dipu 20-06-2013 05:28 PM

हिंदी कहानियां
 
मां ने कई फोटोग्राफ्स सामने रख दी थीं। मैं खूबसूरत लेकिन बुद्धिमान लडकी चाहता हूं, लेकिन यह पता करना मुश्किल है कि वह विटी है या नहीं।

एकाएक दिमाग में तान्या का नाम क्लिक किया। मेरी कॉलेज के दिनों की दोस्त है। उसे हम विटी कहते थे। बुद्धिमान थी, मगर सांवली होने के कारण शायद किसी के दिल को नहीं भाई। कैंपस सिलेक्शन में उसे जॉब मिल गई थी। फेसबुक पर उससे कनेक्शन है। उसी से पूछता हूं- विटी, आर यू ऑनलाइन?

या! सर्चिग फॉर ए गुड हॉली डे पैकेज..

यानी अच्छे मूड में हो..

हां बिलकुल, कोई प्रॉब्लम सॉल्व करनी है?

क्या बात है! इतनी जल्दी समझ गई यार..,

लडकी का चक्कर है क्या?

यही समझ लो, मां ने अल्टीमेटम दिया है शादी करने का..

तो मान लो उनकी बात..

वो तो ठीक है पर इतनी सारी फोटोग्राफ्स में पता कैसे लगाऊं कि लडकी है कैसी?

कैसी लडकी चाहिए?

दिमागदार होनी चाहिए..

यानी विटी जैसी?

हां, लेकिन फोटोज से कैसे पता लगाऊं?

अच्छा अगर लडकी बुद्धिमान हो, मगर सुंदर न हो तो चलेगा? वैसे मुझे जवाब मालूम है, फिर भी तुमसे सुनना चाहती हूं।

यार, ये कैसा सवाल है? तुम तो मेरी प्रॉब्लम बढा रही हो..

चलो छोडो.., चार-पांच फोटो छांट लो, फिर पता लगाने की कोशिश करते हैं।

ठीक है..।

तान्या से बात हुई तो मन थोडा हलका हुआ, मगर दिमाग उधेडबुन में फंस गया। आखिर मैं लडकियों से पूछूं क्या? उनकी आने वाली जिंदगी की प्लानिंग के बारे में पूछ सकता हूं, कुछ क्लू तो मिलेगा।

पहला फोटो है तन्वी का, जो बैंगलोर में ही है। उसका ऑफिस तो दूर भी नहीं है। मैं फोन घुमा देता हूं, हाय! इज दिस तन्वी?

यस!

तन्वी, राहुल दिस साइड, मुझे आपकी ओर से मैरिज प्रपोजल मिला है.., आई एम इन इन्फोसिस। आपसे मिलना चाहता हूं..

ठीक है..

टाइम क्या ठीक रहेगा?

इसी संडे इवनिंग!

ओके, शाम छह बजे मैं आपके ऑफिस की लॉबी में आ जाऊंगा..

यह फोटो से थोडी अलग दिख रही थी। फोटो ट्रडिशनल ड्रेस में थी, अभी वह जींस-टॉप में कंफर्टेबल और स्मार्ट दिख रही थी। शायद सीधी ऑफिस से आ रही थी।

हाय तन्वी! हाउ आर यू? चलो अब बैठ कर आराम से बात करेंगे।

राहुल, यह हमारी पहली मीटिंग है। क्या हम ख्ाुलकर हर बात कर सकते हैं?

क्यों नहीं?

तो पहले तुम यह बताओ कि अपनी पार्टनर से तुम्हारी क्या अपेक्षाएं हैं?

तन्वी, तुम पढी-लिखी समझदार लडकी हो। जाहिर है कि सामने वाले को आसानी से परख सकती हो। सोचो हम दोनों की जॉब अच्छी है, शक्ल-सूरत से भी हम परफेक्ट मैच हो सकते हैं और क्या चाहिए? तुम बताओ कि तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिए?

..जिंदगी में तो हम जो कोशिश करेंगे वही मिलेगा। लेकिन मैं महत्वाकांक्षी लडकी हूं। यहां तक पहुंचने और एक लग्जूरियस लाइफ जीने के लिए मैंने बहुत मेहनत की है।

लग्जरी यानी गाडी, फ्लैट, छुट्टियां..?

यह सब तो है, मगर मुझे कुछ अलग चाहिए

क्या मतलब है तुम्हारा?

यही कि अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी बनाएं..

वादा तो नहीं, हां, कोशिश कर सकता हूं

राहुल, तुम्हें बुरा लगेगा, लेकिन कोशिश के लिए मेरे पास वक्त नहीं है। इसलिए मैं यही चाहूंगी कि पूरी तरह सफल न सही, लेकिन इस राह पर पिछले तीन-चार साल से चल रहे किसी इंसान को खोजूं।

इस बातचीत के बाद तो कहने को कुछ बचा ही नहीं। तन्वी, फिर कभी बात होती है।

इस मुलाकात के बाद मुझे लगा कि तन्वी जैसी लडकियां खुद की काबिलीयत नहीं, बल्कि पति के कंधों पर चढ कर राज करना चाहती हैं। मैंने तान्या से इसका जिक्र किया, मगर वह मुझसे सहमत नहीं दिखी। बोली-

देखो राहुल, हमारे समाज में लडकी अगर भावी पति के रूप में एक कंधा खोज रही हो तो इसमें गलत क्या है?

ऊपर उठने के लिए दूसरे का कंधा क्यों?

पति दूसरा कैसे है?

मगर वह जरूरत से ज्यादा डिमांडिंग नहीं? क्यों? तन्वी खुद एक मुकाम पर है, मेहनत का मतलब समझती है। अगर तुम्हें एक ऐसी लडकी मिलती जो खुद कुछ न कर रही होती, मगर बडे बिजनेसमैन की बेटी होती, अपने मां-बाप के कहने से तुमसे शादी करती तो क्या वह यह नहीं चाहती? फर्क सिर्फ इतना होता कि उसे मालूम ही नहीं होता कि वह चाहती क्या है? तन्वी विटी है, उसे पता है कि वह खुद से क्या चाहती है.. पर क्या यह सिचुएशन खतरनाक नहीं है? यदि मैं उसकी अपेक्षा पर खरा न उतरा तो?

तुम फिर भूल रहे हो कि तन्वी विटी है। वह कोई चांस नहीं लेगी। वह पहले ही सफल व्यक्ति से शादी करेगी। सच कहूं तो वह तुम्हें रिजेक्ट कर चुकी है और वह जिससे भी शादी करेगी, उसके लिए हमेशा नए चैलेंज पैदा करेगी और उसे जीवन में आगे ही बढाएगी।

तान्या की बात से सच कहूं तो अंदर से कांप उठा हूं। विटी लडकियां तो बहुत खतरनाक किस्म की होती हैं। मैं समझ गया था कि मेरे लिए पत्नी का मतलब है ऐसी लडकी, जो मुझे वैसे ही स्वीकारे जैसा मैं हूं। खैर, दूसरी फोटो ट्राई करता हूं। रजनी, यह भोपाल में रहती है और एक इंटर कालेज में पढाती है।

हैलो! मुझे रजनी जी से बात करनी है..

आप कौन?

मैं राहुल बोल रहा हूं। रजनी जी का मैरिज प्रपोजल मेरे पास आया है..

जी, मैं रजनी बोल रही हूं, पर आपको पापा से बात करनी होगी, मैं उन्हें बुलाती हूं।

जब तक रजनी पापा को बुलाती, मैंने फोन काट दिया। यह लडकी तो बिना पापा से पूछे कोई कदम नहीं बढा सकती। फिर सोचने लगा कि यह भी तो हो सकता है कि उसके पापा पुराने

खयालात के हों। चलो, देखते हैं। शादी के बाद तो रजनी को मेरे ही साथ रहना होगा और सोचा जाए तो यह एक तरह से अच्छी बात ही है कि बिना कंसल्ट किए यह कोई कदम नहीं बढाएगी। अचानक मेरा मोबाइल बज उठा।

हैलो..जी मैं राहुल बोल रहा हूं..

हां बोलिए, मैं रजनी का पिता बोल रहा हूं। अंकल, फोन इसलिए किया कि प्रपोजल मुझे ठीक लगा है, पर मैं सोचता हूं कि रजनी से बात करना ठीक रहेगा..

बेटा इसके लिए तो तुम्हें भोपाल आना होगा, क्योंकि रजनी अकेले ट्रेवल नहीं कर सकती अंकल बात तो ई-मेल से भी हो जाएगी। हां, यह ठीक रहेगा..।

ई-मेल करने से पहले कई संशय मन को घेर रहे थे। जो लडकी अकेले यात्रा नहीं कर सकती, वह विटी तो नहीं होगी। शायद उसने परिवार से इतर कुछ सोचा ही न होगा। उसका अपना दिमाग तो होगा ही नहीं। वैसे यह अच्छी पॉलिसी है। इसका माता-पिता से कभी विवाद नहीं हुआ होगा।

मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच गया कि लडकी पढी-लिखी है, पर विटी नहीं है। मेरे हर निर्णय पर इसकी सहमति होगी, लेकिन शायद मुझे कभी किसी बात पर सलाह न दे पाएगी, क्योंकि इसका अपना व्यक्तित्व बना ही नहीं है। मेरा मन हलका हो गया और फिर मैंने रजनी को ई-मेल भी नहीं किया।

अब मैंने बी-क्लास लडकियों के बायोडेटा टेबल से हटा दिए। एक फोटो पर नजर टिकी। नाम है-पारुल। गुडगांव की किसी कंसल्टेंट कंपनी में है। उसे ई-मेल करता हूं।

हाय पारुल! मुझे आपका बायोडाटा मेरी मां ने दिया है। मैं आपसे बात करना चाहता हूं। हाय! मेल के लिए थैंक्स, देखिए, मैरिज के लिए और खासतौर पर इंडियन मेल्स के लिए मेरे बडे फिक्स विचार हैं। कोई भी डिसीजन मैं तुमसे मिले बिना नहीं कर सकती! मैं अगले हफ्ते बैंगलोर आ रही हूं। मैं अपनी स्टे डिटेल्स और टाइमिंग्स मेल कर रही हूं, बाकी वहीं फिक्स कर लेंगे।

पारुल हूबहू वैसी थी, जैसी फोटो में थी, स्मार्ट, आत्मविश्वास से भरी, सुंदर..। हम एक रेस्टरां में आए। बात मैंने शुरू की।

क्या लेंगी आप?

सूप, फिर डिसाइड करेंगे कि क्या लेना है।

ओके, आप बैंगलोर पहली बार आई हैं?

राहुल, मैं अपने विचारों को लेकर सीरियस हूं। फिलहाल आज के दिन तक मैं तीन लडकों के साथ डेट कर रही हूं। वे यूं तो अलग-अलग पृष्ठभूमि के हैं, लेकिन एक पॉइंट पर आकर वे एक जैसे हो जाते हैं।

किस पॉइंट पर? हिम्मत जुटा कर मैंने कहा। मैं तीन डेट की बात से ही सिहर चुका था।

वह भी बताऊंगी। तुम बताओ कि तुम्हें कैसी लडकी चाहिए?

इंडिपेंडेंट, राय मांगूं तो मुझे सही राय मिले।

इतनी इंडिपेंडेंट तो मैं हूं। खैर तुम बताओ, बैंगलोर में कितने सालों से हो तुम?

यही कोई चार साल..

कभी रीअल इस्टेट में इन्वेस्ट किया है?

हां...क्यों?

ईएमआई कितनी है?

लगभग चालीस हजार..

क्या बी-टाउन में इन्वेस्ट के बारे में सोचा? मेरा मतलब जैसे लखनऊ या आगरा?

नहीं..

क्यों? इसमें ईएमआई कम होती..

मेरा मानना है कि रीअल इस्टेट में सबसे बडा फैक्टर सिक्योरिटी है। बैंगलोर में मैंने इन्वेस्ट किया है तो मैं कभी भी चेक कर सकता हूं।

राहुल, इस बारे में तुम्हारी रिसर्च ठीक नहीं है। मैंने लखनऊ में पैसा लगाया है। मान लो हमारी शादी हो जाए और मैं इन्वेस्ट करना चाहूं तो तुम मुझे क्या सलाह दोगे?

यह डिपेंड करेगा कि तुम कहां इन्वेस्ट करना चाहती हो..

बिलकुल सही। मान लो मैं भोपाल में पैसा लगाना चाहूं। बिल्डर नया हो, लेकिन उसकी मार्केट साख अच्छी हो, मुझे रिटर्न भी अच्छा मिल रहा हो और प्रोजेक्ट भी डेढ-दो साल में पूरा होने वाला हो तो..

मैं ऐसे इन्वेस्टमेंट के लिए ना कहूंगा।

क्यों?

क्योंकि यह छोटा बिल्डर है, संयोग से इसके दो प्रोजेक्ट ठीक-ठाक रहे होंगे, लेकिन उसकी आर्थिक क्षमता अच्छी नहीं हो सकती।

अगर मैं फिर भी कहूं कि यह ठीक है.. तो मैं कहूंगा कि शादी के बाद हम दोनों की राय मिले, तभी कोई निर्णय लेना चाहिए।

मैं कहूंगी कि मेरा निर्णय सही है और मैं कॉन्फिडेंट हूं तो..?

मैं तुम्हें रोकने की कोशिश करूंगा..

यह तो गलत होगा। राहुल मैं सोचती हूं कि 21वीं सदी में भी तुम सोचते हो कि निर्णय लेने से पहले मैं तुम्हें तैयार करने में समय व्यर्थ करूं।

मुझे डर है कि ऐसी स्थिति में मेरे लिए शादी एक घुटन भरी जिंदगी ही साबित होगी, बल्कि हम दोनों के लिए ही..

अब मैं चौंक उठा। मुझे लगा कि शायद मैं अपनी बात को समझा नहीं पा रहा हूं। देखो पारुल, अगर तुम्हें लगता है मैं तुम पर हावी होने की कोशिश करूंगा तो यह गलत है..

नहीं, मैं तुम्हें करेक्ट करना चाहूंगी। तुम यह नहीं सोच रहे हो। लेकिन जो निर्णय मैं लेना चाहती हूं, उस पर तुम्हें कॉन्फिडेंस नहीं है और तुम कोई चांस भी नहीं लेना चाहते। अगर मेरा निर्णय ठीक निकलेगा तो हम दोनों को अपने इन्वेस्टमेंट पर अच्छा रिटर्न मिल सकता है।

तुम्हारी बात सही है पारुल, लेकिन यह भी संभव है कि हमारा इन्वेस्टमेंट सेफ न हो?

आशंकाएं तो कई हो सकती हैं। रिस्क फैक्टर हमेशा रहेगा। बडे बिल्डर्स का प्रोजेक्ट भी लंबा खिंच सकता है, वह एक प्रोजेक्ट का पैसा दूसरे पर डाइवर्ट कर सकता है। देखो राहुल मैं कंसल्टिंग जॉब में हूं और तुम सॉफ्टवेयर में। मुझे लगता है कि इन मामलों में मेरा एक्सपोजर तुमसे ज्यादा है और तुम्हें मेरी सलाह माननी चाहिए। पारुल, फिर भी मैं यह कहना चाहता हूं कि कंसल्टेंट का जॉब और रीअल लाइफ दोनों अलग-अलग चीजें हैं।

राहुल, जानते हो तुम्हारी समस्या क्या है? अभी तक तुम ऐसी लडकी से मिले ही नहीं जो इन्वेस्टमेंट जैसे सो-कॉल्ड मेंस व*र्ल्ड में दखल रखती हो, इसलिए तुम मुझ पर भरोसा नहीं कर पा रहे हो। न सही, मगर मैं तुम्हें कॉन्फिडेंस देना चाहती हूं। अगर मैं पहली बार ही तुम्हें वह भरोसा न दिला सकी तो तुम हमेशा अपने निर्णय मुझ पर थोपोगे।

मगर पारुल, मुझे तो लग रहा है कि तुम मुझे डॉमिनेट करने की कोशिश कर रही हो।

यही तो मैं सोच रही हूं कि तुम मुझ पर हावी होने की कोशिश कर रहे हो। अच्छा चलो एक काम करते हैं। तुम अपनी तरह इन्वेस्ट करो और मैं अपनी तरह। एक-दो साल बाद रिजल्ट बताएंगे कि कौन सही है।

मतलब?

यही कि दो-तीन साल शादी के लिए इंतजार किया जा सकता है।

शादी का इन बातों से क्या मतलब है?

मतलब है मिस्टर राहुल। मैंने मेहनत करके आर्थिक आजादी पाई है। तुम चाहते हो कि शादी के नाम पर मैं तुम पर आर्थिक निर्णयों के लिए निर्भर हो जाऊं।

मैं पारुल से कह तो नहीं पाया मगर यह बात पक्की थी कि मुझे इतनी आजाद लडकी नहीं चाहिए। मैंने पारुल का ध्यान रेस्टरां के मेन्यू कार्ड की ओर खींचा।

वह जैसे इसके लिए तैयार बैठी थी, राहुल, जाने दो इन बातों को। इतनी खूबसूरत जगह है और खाना भी बेहतरीन है तो शादी को लेकर इतनी बातें क्यों करें। तुम्हें बताऊं कि पिछली तीनों डेट्स मैंने इसीलिए रिजेक्ट की हैं कि वे भी शादी के नाम पर मेरी आजादी पर डाका डाल रहे थे और मैं इतनी मूर्ख नहीं हूं कि उनकी बातों में आ जाऊं।

dipu 20-06-2013 05:29 PM

Re: हिंदी कहानियां
 
गरीब मगर अमीर औरत

वह चुपचाप छोटी कोठरी में खडी है। घर के लोग इसे छोटी कोठरी कहते हैं। यह और बात है कि घर की अन्य दो कोठरियां भी इसी तरह..। तीस साल पहले उसने कहा था कि जंग में प्यार नहीं होता लेकिन प्यार में जंग संभव है। इसलिए तुमसे कहती हूं, अगर इस हादसे को टालना चाहते हो तो मेरी बात मान लो।

तब मैं कैरम का कॉलेज व डिस्ट्रिक्ट चैंपियन था, फुटबाल का भी बेहतरीन खिलाडी था, टीम का कप्तान। हर मैच जीत कर, हाफ पैंट और हरी-सफेद जर्सी में उसके यहां पहुंच जाता। वह दरवाजे पर इंतजार करती। मैं दूर से जीत का इशारा करता और वह तालियां बजा कर मेरा स्वागत करती थी।

ऐसे ही किसी दिन वह गेट पर खडी थी। मैंने उसके करीब आकर कहा था-

इस दरवाजे पर मेरी आहट को रुकी तू, कहीं गुजरे न यहीं से कहारों के कदम.. कि मेले में हाथ छूटी बच्ची की तरह फिर हर शाम मरेगी..हर उम्मीद तोडेगी दम!

अगर ऐसा हुआ..

तो समझ लूंगा मैं-

इस व्यापारी से जग ने

इक और भरम दिया है

कि जैसे- गरीबी से घिरी किसी औरत ने- इक और बीमार-सी बच्ची को जनम दिया है!

वह गुमसुम मुझे देखती रही। सांप सूंघी सी! क्या हुआ गुडिया? मैं जीत कर आया हूं। स्वागत नहीं करोगी एक कप चाय से?

जंग में प्यार नहीं होता, मगर प्यार में जंग संभव है। इसलिए कहती हूं, अगर इस हादसे को टालना चाहते हो तो बात मान लो..।

मैं समझा नहीं..

तुम्हारे दोस्त तुमसे गोल मांगते हैं, लगभग हर मैच में तुम गोल करते हो। तुम भूल जाते हो कि मैंने भी तुमसे कुछ मांगा है।

क्या?

कहानियां और लाल चूडियां..

पर मुझे हरा पसंद है। हरी चूडियां चलेंगी?

नहीं-। यूं समझ लो कि मुझे लाल रंग प्रिय है। अधिकार मांग रही हूं, नहीं मिलेगा तो छीन कर लूंगी। जंग में सब कुछ जायज है।

और सचमुच, वह मुझसे कहानियां लिखवाने लगी। जब भी कहानी छपती, उसे लगता, उसने एक किले का कब्जा कर लिया। वह एक के बाद एक जंग जीतती गई। अचानक एक दिन वक्त के आतंकवादी ने कुछ इस तरह छल से हमला किया कि हमारा प्यार लहूलुहान हो गया। उसकी शादी हो गई। उस रोज मैंने फिर एक कविता लिखी-

ये तू कि जिसने मेरी पीडा को छांव दी

अब होके अलग अश्कों में ढली जाती है..

ये तू नहीं-हर औरत की कोई लाचारी है

जो सिक्के की तरह हाथों से चली जाती है..

ऐसी ढेरों पंक्तियां डायरी के पन्नों के बीच फूलों की तरह दब कर सूख गई। कहीं कोई खुशबू नहीं, हरापन नहीं। लेकिन मुझे हरा रंग पसंद था और तबसे तो और, जबसे बुध की महादशा शुरू हुई- ॐ बुं बुधाय नम:।

अंतिम बार उसने कहा था, मेरी शवयात्रा में आओगे?

शवयात्रा?

डोली उठेगी तो लोग रोएंगे, जैसे अर्थी उठने पर रोते हैं। देखना, लाल साडी और लाल चूडियों में तुम्हारी गुडिया कैसी लगती है!

मैंने कहा, हमारे प्यार को सलीब दी गई है। लहू की बूंदों से हम तर हो गए। तुम मुझे भी प्यार का लाल रंग दिए जा रही हो। अब बाकी की उम्र हमें इस रंग से मुक्ति नहीं मिलेगी।

मगर एक दिन उसे मुक्ति मिल गई। उसके माथे पर लाल रंग पोंछा गया। इन तीस वर्षो में हम नहीं मिले। मैं पटना आ गया और वह बेगमसराय चली गई। अपने-अपने परिवारों में हम खो गए। मैं साहित्यिक कार्यक्रमों के सिलसिले में कई बार बेगमसराय गया, लेकिन उससे नहीं मिला। मुंगेर आने से पहले हम बेगमसराय में रहते थे। 1954 में घर-बार बेच कर मुंगेर आए। उसने कहा, कैसा संयोग है कि तुम बेगम सराय से मुंगेर चले आए, मैं बेगमसराय जा रही हूं। तुम्हें नहीं लगता कि हम खुद से भाग रहे शरणार्थी जैसे हैं?

अधिकतर धार्मिक उन्माद में ऐसे हालात बनते हैं, जब आदमी को शरणार्थी बनना पडता है। हमारे बीच धर्म की दीवार कहां रही? मैंने कहा तो वह बोली, जो पूरे मन व आत्मा की गहराई से धारण किया जाए, वही धर्म है। हम प्यार को धारण कर धार्मिक बन गए। प्यार के धर्म ने हमें 12 वर्षो तक विश्वास की तकली पर चढा कर एहसास के धागे में बदल दिया है। पहले तुम रुई की तरह कहीं उड रहे थे, मैं कहीं और भटक रही थी। अब हम धागा बन चुके हैं। अब हमें कोई अलग करके फिर से रुई में तब्दील नहीं कर सकता। ध्यान रखना, विश्वास की तकली पर काता गया एहसास का धागा तुम्हारी गलती से टूट न जाए। एहसास और सांस, दोनों के टूटने से मृत्यु होती है..।

तुम्हारे जाने के बाद मेरा क्या होगा?

अब तुम कहीं और मैं कहीं! दोनों हम बन चुके हैं। हम यानी विश्वास की तकली पर 12 वर्षो तक काता गया एहसास का धागा। याद रखो, एहसास और रिश्ते में फर्क होता है। रिश्ते में अकसर लोग समझौते करते हैं-झुकते हैं, झेलते हैं। कभी-कभी रिश्तों में एहसास का पौधा भी जन्म लेता है। सांस व एहसास, दोनों के टूटने से मौत होती है। सांस टूटने से इंसान मरता है, एहसास टूटने से प्यार।

..यही वजह थी कि मैं बेगमसराय जाकर भी उससे नहीं मिला। एहसास के उस धागे को रोजरी या जनेऊ की तरह धारण कर मैं धार्मिक बन गया। मैंने धर्म परिवर्तन नहीं किया। लेकिन यह सुन कर कि वह अकेली और दुखी है, मैं खुद को नहीं रोक सका।

..कई लोगों से उसके बारे में पूछा। कोई उसे नहीं जानता था। मन कांच की तरह चटक गया। हे प्रभु! इस शहर में, इस कदर अनजान-अनाम है मेरी गुडिया!

एक आदमी ने कहा, कहीं आप ग्रीन दीदी के बारे में तो नहीं पूछ रहे हो?

मैं चौंका। ग्रीन दीदी.. ग्रीन मैडम.. ग्रीन मेमसाहब..! यहां उन्हें उनके नाम से तो गिने-चुने लोग ही जानते हैं। हरी चूडियों से भरी कलाइयां, हरी साडी.., सभी ने अपनी उम्र के हिसाब से उनका नामकरण किया है। पर अब सफेद सूती साडी..नंगी कलाइयां..।

मैं जाता हूं तो वह दरवाजा खोलती है.. तुम? आओ, भीतर आओ।

मैं उसे देख कर सोचने लगा, कभी इसने कहा था, जंग में प्यार नहीं होता, मगर प्यार में जंग संभव है। वह भीतर जाती है और कुछ देर में ही चाय लेकर आ जाती है।

नंगी कलाइयां, सफेद सूती साडी, सफेद रंग! पर उसे तो लाल रंग प्रिय था!

तुम क्या सोचने लगे? चाय पियो न?

मैंने प्याली हाथ में लेकर चुस्की ली। वह चुपचाप मुझे देखती रही। फिर धीरे से बोली, तुम अपना खयाल नहीं रखते, देखो तो तुम्हारे बाल कितने सफेद हो गए हैं।

और तुमने? जिंदगी के खूबसूरत रुमाल के कोने में तुमने एहसास का जो धागा सहेजा था, उसे कीडों के हवाले क्यों किया?

हां, यह सच है कि इस घर में आकर मेरी देह और इच्छाओं को वक्त की दीमक धीरे-धीरे चाटने लगी। मगर अब तो सब खत्म हो गया है.., वह फफक कर रोने लगी।

खुद को जब्त कर बोला, गुडिया, हम तो समझे थे कि होगा कोई छोटा-सा जख्म, मगर तेरे दिल में तो बडा काम रफू का निकला.., उसके आंसू पोंछने के लिए हाथ बढाया तो वह खडी हो गई, न, मुझे स्पर्श न करना। कल उनकी पत्नी थी, अब विधवा हूं। सांस टूटने से इंसान मरता है-रिश्ता नहीं, चाहे झेला हो या समझौते पर टिका हो।

मैंने देखा, वह आंसू पोंछ रही थी। मैं जेब में हाथ डाल कर कुछ टटोलने लगा। दरवाजे पर आकर कहा, अच्छा ग्रीन, चलता हूं।

वह निकट आ गई, तुम्हें मेरा नया नाम पता चल गया! सच है कि शादी के बाद मैंने हरी चूडियां व साडियां ही पहनीं, ताकि जख्म हरा रहे। पति के होने और प्रेमी के न होने के एहसास को मैंने भरपूर जिया है..। और हां, ये रुपये तुम मेज पर भूल आए थे।

रख लो, शायद तुम्हारे काम आ जाएं।

कुछ लोगों का उसूल है-मुहब्बत करो, खाओ-पिओ-मौज करो। ऐसे लोग मुहब्बत को सिक्के की तरह एक-दूसरे के जिस्मों पर खर्च करते हैं और आखिरी वक्त में कंगाल हो जाते हैं। कुछ इसे बेशकीमती समझ कर खामोशी से दिल के बैंक में रख छोडते हैं। रकम बढती जाती है। मैंने यही किया था। वर्षो का बही-खाता तुम्हारे भी पास होगा?

मैंने हाथ बढाया- उसने मेरी हथेली पर रुपये रख दिए। दरवाजा फिर बंद हो गया।

मैंने देखा, घर की खपरैल छत टूटी हुई थी।

दीवारें दरक गई थीं। बावजूद इसके वर्षो का बही-खाता खोलने पर पता चला, दरवाजे के उस पार एक अमीर औरत रहती है।

dipu 20-06-2013 05:30 PM

Re: हिंदी कहानियां
 
सफेद किला

एक सुबह मुझे पाशा की हवेली में बुलाया गया। मैं यह सोचते हुए गया कि शायद उसकी पुरानी हांफने वाली बीमारी लौट आई है। पाशा व्यस्त था और मुझे एक कमरे में इंतजार करने को कहा गया। चंद लमहे बाद एक दरवाजा खुला। मुझसे उम्र में लगभग 5-6 साल बडा एक शख्स अंदर आया। मैंने उसे देखा तो हैरान रह गया। हम दोनों हूबहू एक जैसे थे। इतनी समानता कैसे? यह तो मैं ही था। यों महसूस हुआ जैसे कोई मेरे साथ चल रहा हो और जिस दरवाजे से मैं पहले दाखिल हुआ था, उसके सामने वाले दरवाजे से मुझे दोबारा अंदर लाया गया हो। आंखें चार होते ही हमने एक-दूसरे को सलाम किया, लेकिन वह उतना हैरान नहीं था। फिर मुझे लगा शायद मुझे कोई भ्रम हुआ है। मुझे आईना देखे ही एक साल हो गया है। उसके चेहरे पर दाढी थी, जबकि मैं सफाचट था।

..सोच ही रहा था कि दरवाजा खुला और मुझे अंदर आने को कहा गया। पाशा मेरे हमशक्ल के पीछे बैठा था। मैंने पाशा को बोसा दिया। फिर इरादा किया कि जब वह मेरी खैरियत पूछेगा तो मैं अपनी काल कोठरी की तकलीफें बयान करूंगा और कहूंगा कि अब मैं वतन लौटना चाहता हूं। मगर वह सुन ही नहीं रहा था। लगता था, पाशा को याद था कि मैं विज्ञान, खगोल-विद्या, इंजीनियरिंग जानता हूं। उसने पूछा- तो क्या आसमान पर की जाने वाली आतिशबाजियों के बारे में भी मुझे कुछ आता है? बारूद के बारे में? मैंने फौरन कहा- हां, लेकिन जिस लमहे मेरी आंखें दूसरे आदमी की आंखों से चार हुई, मुझे शक हुआ कि कहीं ये लोग मेरे लिए कोई जाल न बिछा रहे हों।

दरअसल पाशा अपनी शादी के मंसूबे बना रहा था। उसे वह अद्वितीय ढंग से करना चाहता था, जिसमें आसमान पर की जाने वाली आतिशबाजी भी शामिल थी। मेरे हमशक्ल को पाशा खोजा (आका) कह रहा था। हमशक्ल ने कहा, पुराने समय में सुल्तान की पैदाइश के मौके पर आतिशबाजी का बंदोबस्त किया था। पाशा का ख्ायाल था कि मैं इस मामले में उसकी मदद कर सकूंगा। अगर तमाशा अच्छा पेश किया गया तो ईनाम मिलेगा। मैंने हिम्मत करके पाशा से कहा कि मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूं तो बदले में पाशा ने मुझसे पूछा, यहां आने के बाद कभी चकले (कोठे) की तरफ गए हो? मैंने इनकार किया तो वह बोला, अगर तुम्हें स्त्री की चाह नहीं तो कोठरी से आजादी हासिल करने से क्या होगा? वह चौकीदारों से असभ्य भाषा में बात कर रहा था। मेरे चेहरे के परेशान हाव-भाव देख कर उसने दिल खोल कर कहकहा लगाया।

सुबह जब मैं अपने हमशक्ल के कमरे की ओर जा रहा था तो मुझे लगा कि मेरे पास उसे सिखाने को कुछ नहीं, मगर हकीकत में उसका इल्म भी मेरे इल्म से ज्यादा नहीं था। हम एकमत थे कि नाप-तोल कर सावधानी से प्रायोगिक बुरादा तैयार करें और रात को सुरदिबी के पास शहर की बुलंद फसीलों के साए में उन्हें दागें और फिर उसका निरीक्षण करें। बच्चे अचंभित होकर हमारे कारिंदों को रॉकेट छोडते देखते और हम अंधेरे में पेडों के नीचे चिंतित खडे नतीजे का इंतजार करते। इन प्रयोगों के बाद कभी चांदनी में तो कभी घोर अंधेरे में मैं अपने अनुभव एक छोटी-सी नोटबुक में लिखता। रात गुजरने से पहले हम खोजा के कमरे में लौटते, जिससे गोल्डन हॉर्न का दृश्य दिखाई देता था। हम बडी तफ्सील से उन पर बहस करते।

उसका घर छोटा व उबाऊ था। प्रवेश द्वार टेढी-मेढी सडक पर था, जो किसी गंदे पोखर के बहाव से गंदलाई थी। फर्नीचर नहीं था। वह चाहता था कि मैं उसे खोजा (आका) कहूं। वह मुझे गौर से देख रहा था, मानो मुझसे कुछ सीखने को इच्छुक हो, मगर क्या? इस बारे में वह तय नहीं कर पाया था। मैं छोटे दीवानों पर बैठने का आदी नहीं था, इसलिए खडे-खडे ही प्रयोगों के बारे में बातचीत करता। कई बार मैं कमरे में बेचैनी में टहलता। मेरा विचार है, खोजा को उसमें मजा आता था। वह बैठे-बैठे दिल भर कर मुझे देख सकता था, चाहे लैंप की मद्धिम रोशनी में ही।

उसकी निगाहों को अपना पीछा करते देख कर मुझे और बेचैनी होती कि उसने हमारे चेहरे की समानता पर अब तक ध्यान नहीं दिया था। मुझे यह भी खयाल आया कि हो सकता है वह यह बात जानता हो लेकिन अंजान रहने का ढोंग कर रहा हो। लगता था, जैसे मुझसे अपना दिल बहला रहा हो।

पाशा मुझ पर धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डाल रहा था। एक बार हम प्रयोगों के बारे में बात कर रहे थे तो खोजा ने पूछा कि मैंने धर्म परिवर्तन क्यों नहीं किया? शायद वह मुझे खुफिया ढंग से उलझाने की कोशिश में हो। मैंने जवाब नहीं दिया, पर उसने ताड लिया।

एक रात, किसी रॉकेट के असामान्य ऊंचाई तक पहुंचने पर ख्ाुश होकर खोजा ने कहा कि वह भी कभी ऐसा रॉकेट बना सकेगा, जो चांद तक जा सके। सारा मसला बारूद की सही मात्रा का था और ऐसे ढांचे के निर्माण का जो उस बारूद को बरदाश्त कर सके। मैंने ध्यान दिलाया कि चांद बहुत दूर है, लेकिन बीच में ही वह बोला कि यह बात उसे भी इतनी ही मालूम है। लेकिन क्या यह पृथ्वी का निकटतम ग्रह नहीं है? मैंने इस बात पर हामी भरी। दो दिन बाद एकाएक आधी रात के वक्त उसने दोबारा सवाल उठाया, मुझे चांद के निकटतम ग्रह होने पर इतना विश्वास क्यों है? हो सकता है, यह मेरा दृष्टिभ्रम हो। तभी मैंने उससे पहली बार अपनी खगोल विद्या का जिक्र किया और कॉस्मोग्राफी के आधारभूत नियमों की संक्षिप्त व्याख्या की। मैंने देखा कि वह ध्यान से सुन रहा है, लेकिन कुछ कहने से हिचकिचा रहा है। कुछ देर बाद जब मैं खामोश हो गया तो उसने कहा कि वह भी टोलेमी का इल्म रखता है। अगले दिन उसने एक भद्दा-सा अनुवाद मेरे हाथ में पकडाया। अच्छी तुर्की न जानने के बावजूद मैंने उसे पढ लिया। मेरी दिलचस्पी सिर्फ ग्रहों के अरबी नामों में थी और मैं जोश में आने के मूड में नहीं था। जब खोजा ने मुझे अप्रभावित देखा तो किताब रख दी। वह नाराज सा दिखा। उसने यह किताब चांदी के सात सिक्कों के एवज में खरीदी थी। किसी आज्ञाकारी छात्र की तरह मैंने दोबारा किताब उठाई और पृष्ठ पलटते हुए पुराना डायग्राम देखने लगा। इसमें बडे भद्दे अंदाज में ग्रहों को दिखाया गया था और उन्हें पृथ्वी के अनुरूप क्रम दिया गया था। हम बडी देर तक विचार-विमर्श करते रहे।

पूरी तैयारी के बाद हमने वह तमाशा दिखाया, जिसे हमने फव्वारा नाम दिया था। पांच आदमियों जितनी ऊंची मचान के मुंह से शोले बरसने लगे। तमाशबीनों को नीचे की ओर लपकते शोलों का दृश्य बेहतर नजर आया होगा। पहले तो कागज की लुगदी से ढले बुर्जो व फौजी किलों ने आग पकडी और फिर वे शोलों में भक्क से उड गए। ये पिछले सालों की विजय के प्रतीक के तौर पर था, जब उन्होंने मुझे बंदी बनाया था। दूसरी नावें हमारी नाव पर रॉकेटों के धमाकों के साथ हमलावर हुई थीं..।

अगली सुबह पाशा ने सोने से भरी थैली खोजा को भिजवाई-परियों की कहानी की तरह। उसने कहलवाया कि वह प्रदर्शन से बहुत खुश है। हम अगली दस रातों तक आतिशबाजी दिखाते रहे। दिन में जले ढांचों की मरम्मत करते। नित नए करतबों के मंसूबे बनाते और रॉकेटों को बारूद से भरने के लिए कैदियों को बुलवाते। इस तैयारी में एक ग्ाुलाम आंखें ही खो बैठा, जब बारूद की दस थैलियां उसके चेहरे के पास फट पडीं। शादी का जश्न खत्म होने के बाद मैं खोजा से दोबारा नहीं मिला। मैं उसकी टटोलती निगाह से दूर रहना चाहता था। वापस घर जाऊंगा तो सबको बताऊंगा कि वह मेरा हमशक्ल था। मैं अपनी कोठरी में बैठे रह कर रोगियों का निदान करता। फिर एक दिन पाशा का बुलावा आया। मैं खुशी से उछल पडा। पहले उसने मेरी तारीफ की, फिर कहा यदि मैं धर्म बदल लूं तो मुझे आजाद कर देगा। मैं भौचक्का रह गया। जब मैंने इंकार किया तो वह तैश में आ गया। मैं अपनी काल कोठरी में लौट आया।

तीन दिन बाद पाशा ने मुझे फिर बुलाया। वह अच्छे मूड में था। उसने फिर मुझे भांपने की कोशिश की और प्रलोभन दिया कि किसी खूबसूरत लडकी से मेरी शादी करवा देगा। मेरे इंकार पर उसने झुंझला कर कहा, तुम बेवकूफ हो। उसने मुझे फिर काल कोठरी में भिजवा दिया। तीसरी बार पाशा के बजाय एक दारोगा मिला। शायद मैं इरादा बदल लेता, लेकिन दारोगा की धमकी से मुझे ग्ाुस्सा आ गया। मैंने फिर इंकार कर दिया। वह मुझे निचली मंजिल पर ले गया, वहां किसी दूसरे के हवाले कर दिया गया। दूसरा व्यक्ति ऊंची कद-काठी वाला था। उसने भी मेरा बाजू पकडा और बाग के कोने में ले गया। वहां एक दूसरा व्यक्ति हमारे सामने आया। उसके हाथ में छोटी-सी कुल्हाडी थी। एक दीवार के पास दोनों रुके। उन्होंने मेरे हाथ-पैर बांधे और बोले यदि मैं धर्म नहीं बदलता तो मेरा सर कलम कर दिया जाएगा। वे मेरा फैसला जानना चाह रहे थे। मैं इंकार करता रहा। आखिर उन्होंने एक ठूंठ की ओर इशारा किया। मुझे घुटनों के बल बिठाया और उस पर मेरा सिर रख दिया। मैंने आंखें बंद कर लीं। एक ने कुल्हाडी हवा में बुलंद की। दूसरे ने कहा, शायद मैं फैसले पर पछता रहा हूं, इसलिए मुझे खडा कर दिया गया।

मुझे दोबारा छोड दिया गया। वे ठूंठ के पास वाली जमीन को खोदने लगे। मुझे लगा, शायद वे मुझे यहीं दफन करेंगे। मैं यह नहीं चाहता था। मुझे वक्त चाहिए था। मैं यह फैसला आनन-फानन नहीं कर सकता था। उन्होंने मुझे दोबारा बुलाया और धक्का देकर बिठाने लगे। किसी को दरख्तों के दरमियान हरकत करता देख मैं सिटपिटा गया। यह तो मैं था, लेकिन लंबी-सी दाढी में, हवा में बेआवाज चलता। मैंने चाहा कि दरख्तों में चलते अपने भूत को आवाज दूं, लेकिन ठूंठ पर सिर दबे होने के कारण बोल नहीं पाया। मैंने खुद को किस्मत के हवाले कर दिया। उन्होंने मुझे दोबारा खडा किया और गुर्रा कर बोले कि पाशा तुम्हारे इंकार से क्रोध में आ जाएगा, तुम मान क्यों नहीं जाते? फिर मेरे हाथ आजाद करते वक्त उन्होंने मेरी मलामत की कि मैं ऊपर वाले से नहीं डरता। वे मुझे हवेली में लाए। इस बार पाशा ने नरमी बरती। बोला कि उसे यह बात अच्छी लगी कि मुझे पता चल गया था कि वह निचली मंजिल में मौजूद था और मेरा इंतजार कर रहा था। मुझे एहसास हुआ कि यह खोजा ही है, जिसे मैंने बाग में दरख्तों के पार देखा था। हम पैदल चलते हुए उसके घर आए। उसने पूछा कि क्या मुझे भूख लगी है? मौत का डर अभी तक मुझ पर छाया था और मैं इस हालत में नहीं था कि कुछ खा-पी सकूं, फिर भी रोटी और दही के कुछ निवाले लिए। वह मुझे आश्वस्त होकर यों देख रहा था जैसे कोई देहाती अभी-अभी बाजार से नफीस घोडा खरीद लाया हो और उसे चारा खाते देख रहा हो।

बाद में उसने कहा कि मैं उसे सब सिखा दूं तो मुझे आजादी मिल जाएगी। यह सब क्या था, इसे जानने में महीनों लगे। इसमें हर वह चीज शामिल थी, जो मैंने प्राइमरी और सेकंडरी स्कूल में सीखी थी, वह सब जो काल कोठरी की किताबों में लिखा था, जिन्हें अगले दिन उसने नौकरों से मंगवा लिया। वह सब जो मैंने देखा-सुना था और जो मैं दरियाओं, पुलों, झीलों, गुफाओं, बादलों व समुद्रों के बारे में कह सकता था। जलजलों व ज्वालामुखी के बारे में मैं सब कुछ जानता था, लेकिन उसे सर्वाधिक रुचि खगोल-विद्या में थी..।

खिडकी से चांद की रोशनी अंदर आ रही थी। उसने कहा कि हमें चांद व जमीन के बीच वाले उस ग्रह का पता जरूर लगाना होगा, जो अब तक नहीं लग सका है। मैं उसका चेहरा देखता रहा। वह मेरा हमशक्ल था और मुझ सा बनना चाहता था। फिर धीरे-धीरे उसने सीखने की बात छोड दी। अब वह कहता था कि हम दोनों खोज कर रहे हैं-मिल कर एक-दूसरे के सहयोग से.. इसमें न कोई गुरु है, न कोई शिष्य..।

dipu 20-06-2013 05:31 PM

Re: हिंदी कहानियां
 
नीम का पेड़

तेज आवाज के साथ बस रुकी तो आंखें खुल गई। उफ! कुछ देर पहले ही तो आंख लगी थी। रात भर सो नहीं पाए थे। पत्नी ने टोका भी, मगर उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी। बाबू जी के जाने के बाद पहली बार गांव जा रहे थे।

खिडकी से झांका-बिहारमऊ, इतनी जल्दी! लगता है काफी देर तक सोए रह गए। यहां से आधे घंटे का सफर है। शहर आने से पहले सुंदरगंज में उतर कर दूसरी बस पकडेंगे और घंटे भर बाद गांव आ जाएगा। दुकानों पर भी नजर गई। दस सालों में कुछ भी न बदला। मुन्ना इलेक्ट्रिकल्स, चांदसी दवाखाना, संतोष मेडिकल.., केवल एसटीडी बूथ की जगह साइबर कैफे हो गया था। पूरे इलाके में एक ही एसटीडी बूथ होने के कारण यहां भीड रहती थी। पिता यहीं से फोन करते थे। अंतिम बार भी यहीं से फोन किया था, चाचा के लडके ने दरवाजे पर अनार का पेड लगाया है। कुछ कहूं तो लडता है कि घर पर कब्जा नहीं कर रहा हूं। तुम आओ तो हाता घेरवा दो, तभी घर-द्वार बचा रहेगा।

वह झुंझला कर बोले, बाबूजी पिछले पांच सालों से हाता घेरवाने की रट लगा रहे हो। तीस-चालीस हजार का ख्ार्च होगा, कहां से आएगा इतना?

इतने दिन से नौकरी कर रहे हो! इतने पैसे भी नहीं हैं? पिता ने भी तल्ख्ाी से कहा।

ख्ार्च भी तो हैं। तुषार और नीलम की पढाई और शादी। वह जरूरी है या घर का हाता?

घर भी जरूरी है बेटा, लापरवाही दिखाओगे तो लोग उखाड फेंकेंगे। पुरखों की जमीन कोई यूं ऐसे छोड देता है क्या? पिता लाचारी से बोले। चाचा भी तो अपने हैं। जरा सी जमीन के लिए हजारों ख्ार्च करूं? मैं तो कहता हूं आप भी यहां आ जाइए, मगर आपका तो मन गांव में ही रमता है। आपके जाने के बाद कोई अनार लगाए या आम, मैं नहीं आऊंगा देखने, बात ख्ात्म कर उन्होंने बेरुख्ाी से फोन काट दिया।

कुछ देर तक मन तिक्त रहा। पिता मजबूरी नहीं समझते। हालांकि वे अपनी जगह सही हैं। जानते हैं पिता आहत होंगे, लेकिन उनके सामने घरेलू चिंताएं हैं, यह बात पिता को कैसे समझाएं! ..चाचा पिता से बहुत छोटे थे। उनकी पढाई, शादी, नौकरी.. सारे इंतजाम पिता ने किए। जमीन बेच कर नौकरी लगाई। अब जमीन के लिए ही लडाई-झगडा चल रहा है। गांव में थे तो पिता की हर बात सही लगती थी। इसलिए नहीं कि वे पिता थे, इसलिए कि वे सही थे। चाचा बडे हिस्से पर कब्जा किए थे। पिता के पास दो कमरे-आधा आंगन ही था। मेहमान आते तो परेशानी होती। फिर मिट्टी का पुराना घर गिरा। जमीन का बंटवारा हुआ तो पिता ने घर बनवाया। इसमें सारी जमा-पूंजी ख्ार्च हो गई। मां ख्ाुश थीं लेकिन बीमार भी रहने लगीं। पैसे ख्ात्म हो चुके थे। एक दिन वह चल बसीं।

तब तक वे ग्रेजुएशन कर चुके थे। पिता चाहते थे कि गांव के स्कूल में पढा लें। खेती-बाडी चलती रहेगी, पैसा भी आता रहेगा। यहींसे पिता से वैचारिक मतभेद शुरू हुए। मां को खोने के बाद पैसे की कीमत पता चल गई थी। खेती से तो खाद-पानी डालने के पैसे भी न जुटते थे। वे पढाई के साथ खेत में काम करते, लेकिन बमुश्किल पांच-छह महीने का राशन जुट पाता था। बाकी दिन हाथ तंग रहता। फिर शहर आ गए। वक्त के थपेडों ने उन्हें गांव से अलग कर दिया..। बिहारमऊ से पिता ने जिस दिन फोन किया था, उसके दो दिन बाद ही चाचा का फोन आया कि पिता नहीं रहे। उस दिन फोन करके तपती दोपहरी में लौटे तो बुख्ार था। लू लग गई थी। वह सन्न रह गए। पिता को लू लगी या उन्होंने अपनी बातों से ठेस लगाई।

..बिहारमऊ में चाय-पानी के लिए उतरे यात्री बस में लौटने लगे थे। ड्राइवर सीट पर बैठ गया था। उनकी नजर फिर एसटीडी बूथ को खोजने लगी। ऐसा लगा बूथ को नहीं,पिता को ही हटाया गया है। पिता मौत के बाद भी यहां जीवित थे, बूथ हटा कर उन्हें मार दिया गया है। उन्होंने रुमाल से भर आई आंखें पोंछ लीं।

आधे घंटे बाद वे सुंदरगंज पहुंच गए थे। चाचा का बेटा मनोज उन्हें लेने आने वाला था, लेकिन काफी देर तक कोई न दिखा। वह पिता के जिगरी दोस्त गनपत की दुकान पर चले गए। गनपत उन्हें देखते ही तराजू एक किनारे रख पैर छूने दौडा, का भइया, बाबू जी चला गयेन त तू एकदमै बिसराय दिहा.. दस बरस होइ गवा तोहार दर्शन को।

गनपत से गले मिले तो लगा पिता से गले मिल रहे हैं। पिता के जीवित रहते वे कभी गनपत से गले नहीं मिले थे। पिता कहीं भी आते-जाते, कुछ घडी वे गनपत की दुकान पर जरूर बैठते। गनपत बताने लगा कि कैसे साइकिल चला कर पिता यहां आते थे फोन करने। दुकान पर आते तो वह खोवे की ताजी मिठाई खिलाता और झोले में भी रख देता। मौत से दो दिन पहले जब पिता काफी थके दिख रहे थे। उसे तभी लग गया था कि कोई अनहोनी होने वाली है।

पिता की चर्चा ने भावुक बना दिया। बात बदलते हुए बोले, काका, बिहारमऊ का एसटीडी साइबर कैफे में बदल गया है।

हां भइया, मोबाइल के जमाने में एसटीडी पीसीओ की क्या दरकार? अब त सुंदरगंज मा कइयौ पीसीओ खुलि ग अहय..

गनपत की दुकान पर बैठे काफी देर हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद उन्होंने खेती-बाडी चाचा के सुपुर्द कर दी थी। पत्नी ने समझाया था कि चाचा को ही घर सौंप दें तो तेरहवीं के बाद शहर जाते हुए उन्होंने चाचा-चाची के पैर छूते हुए कहा था, अब आपके भरोसे है खेती-बाडी और घर। दीया-बत्ती कर देंगे तो अच्छा रहेगा।

अरे बेटा, मेरा ही घर है न, तुम भले ही कुछ सोचो पर हमारे मन में द्वेष नहीं है.., समय-समय की बात है। तुम्हारे पिता हमें यहां फटकने नहीं देते थे और तुम हमें घर सौंप कर जा रहे हो! उनकी आत्मा तो नहीं कलपेगी? कहते हुए चाची व्यंग्य में हंसीं। पत्नी ने मौके की नजाकत पहचानते हुए कहा, चाची, पुरानी बातें दिल से निकाल दो। आपके ही बच्चे हैं हम, यह घर भी आपका ही है।

बहू, हमने तुम्हें कभी पराया नहीं समझा, कहते हुए चाची ने उन्हें गले लगा लिया।

रास्ते भर वे कुढते रहे कि क्यों चाचा-चाची की बात का जवाब नहीं दिया? फिर शहर लौटे तो धीरे-धीरे गांव को भूल ही गए।

पिता का गांव लौटने का आग्रह उन्हें तब समझ आया जब उनका बेटा यू.एस. चला गया और उसने वहीं रहने का मन बना लिया। बेटी ससुराल जा चुकी थी। रिटायर हो गए। पत्नी के होते हुए भी गहरा अकेलापन था। बच्चों का सामीप्य खोजते-खोजते वे पिता के नजदीक होते जा रहे थे। धीरे-धीरे पिता ही बनते जा रहे थे। पिता को गए दस वर्ष हो गए। तेरहवीं के बाद गांव नहीं जा सके थे। चाचा-चाची और उनके बच्चों ने भी कभी गांव आने को आमंत्रित नहीं किया।

..सोच की कडियां टूटीं। एकाएक वे उठे। बैग हाथों में टांगे तो गनपत ग्राहकों को छोड कर आ गया, अरे भइया, हम पहुंचाई देब..

तुम दुकान देखो काका, मैं चला जाऊंगा। चला कइसे जाब्या? भोला साइकिल निकाल, हम भइया क पहुंचाइ के आवत अही..तू तब तक दुकान संभाल।

दोनों निकल पडे गांव की ओर। घर पहुंच कर चाचा जी को आवाज दी। चाची बाहर निकलीं, अरे बेटा, आ गए? मनोज तो तुम्हें लेने सुंदरगंज जाने वाला था। दोपहर में खाना खाकर सोया तो सोता ही रह गया।

कोई बात नहीं चाची, गनपत काका थे तो मुश्किल नहीं हुई, उन्होंने बात संभाल ली। गांव आने का जो उत्साह था, तिरोहित हो चुका था। पिता थे तो ऐसा अकेलापन कभी महसूस नहीं हुआ था। उन्होंने घर की तरफ नजर घुमाई। गहरा सूनापन आंखों से होते हुए दिल में उतर गया। इतना उजाड-वीरान! घर के सामने इतनी ख्ाली जगह पहले नहीं थी। याद आया नीम का पेड था। एकदम से चिल्लाए, चाचा नीम का पेड कहां गया?

हां बेटा, कटवाना पडा

लेकिन क्यों?

सुखवन-पाती के लिए। कुछ भी नहीं सूझता था उसकी छांव में।

इतना बडा आपका द्वार है, वह कम था? आपको पता था न कि वह पेड बाबू जी ने लगवाया था? न चाहते हुए भी उनकी आवाज में उग्रता आ गई थी।

बच्चे की तरह पाला-पोसा था पिता ने नीम को। वे शहर आए तो पिता को उसी पेड में बेटे का चेहरा दिखता था। गर्मी की ढलती दोपहरी में जब छतनार पेड तले खाट बिछा कर लेटते तो चेहरे पर तृप्त भाव उभरता। पेड पिता के लिए कीमती था, लेकिन वे कहां समझ पाए! पेड घर के मुख्य दरवाजे के सामने था। नीम के नीचे बैठने के लिए दरवाजे से 20-25 कदम चलना पडता था। अकेले होते तो चलते समय कदम गिना करते। उन्होंने नीम वाली जगह पर कुछ ईटें रख दीं। बोले, यहां फिर से नीम लगाऊंगा।

घर के भीतर गए। एक कमरे में चाचा के घर का फालतू सामान भरा था। मां-पिता के बक्से ग्ायब थे। पिता के कमरे में भूसा देख वे तिलमिला उठे। चाचा की ओर देखा तो बोले, घर ख्ाली था, सो भूसा रखवा दिया। इस बहाने आना-जाना बना रहता है। चाचा की बातें अनसुनी कर वे आंगन की ओर बढे। आंगन की दीवार में छोटा-सा छेद किया गया था। जहां से चाचा के घर का गंदा पानी बह कर आंगन से होता हुआ उनके घर की नाली में मिलता था।

यह क्या है चाचा जी?

बेटा, बाहर की नाली यहां से पास है, सुरेश ने यहीं से पानी का निकास कर दिया।

चाचा यह आपके भाई का घर था! गंदे पानी का निकास करते हुए कुछ तो सोचते?

फिर वे भूसे से भरे पिता के कमरे की देहरी पर बैठ गए। कुछ देर में ही अजीब सी बेचैनी घेरने लगी, मानो पिता भूसे में दबे हों और छटपटा रहे हों। उन्हें कैसे भी बचाना होगा।

क्या कर रहे हो बेटा?

भूसा हटा रहा हूं..,

मैं ख्ाली करवा दूंगा, तुम आराम करो, चाचा का स्वर धीमा था। नहीं, अभी हटाना है इसे., वे खांची में भूसा भर-भर बाहर रखने लगे तो मनोज-सुरेश भी हाथ बंटाने लगे। घंटे-डेढ घंटे में कमरा साफ हो गया। भोजन तैयार हुआ तो चाची बुलाने आई। उनकी भूख मर गई थी, फिर भी बेमन से उठे और भोजन करने लगे। चाचा-चाची भी स्तब्ध थे। खेत-घर को वे अपना ही मान बैठे थे, अचानक उसे हाथ से निकलता देख घबरा उठे। चाची ने गर्म रोटी परोसते हुए कहा, मैं घर साफ कराना चाह रही थी, लेकिन कोई मिला नहीं। चाचा ख्ाुद कर लेते लेकिन पिछले एक हफ्ते से घुटने के दर्द से परेशान हैं। तुम परेशान न हो बेटा, कल मैं सफाई कर दूंगी। अब हम भी ज्यादा दिन के तो हैं नहीं। जब तक हैं, तभी तक साज-संभार कर सकते हैं। चाचा तो कहते हैं कि अपना खेत परती रहे पर भैया के खेत में बुआई होगी..।

खाना खाकर वे सो गए। सुबह जल्दी उठे और नहा-धो कर तैयार हो गए।

दो-चार दिन रुक जाते बेटा, इतने दिन बाद तो आए हो.., चाची ऊपरी मन से बोलीं।

चाची, शायद कल ही लौट आऊं। बहू को लिवाने जा रहा हूं। यहां नीम का पेड लगाना है, हाता घेरवाना है। सुरेश, घर के आगे तुमने जो अनार और आंवले के पेड लगाए हैं, चाहो तो काट कर ले जा सकते हो।

कैसी बात करते हो भैया?

कोई दिक्कत न हो इसलिए कह रहा हूं। चाची, एक ताला-चाबी दे दीजिए।

ताला क्यों बंद करोगे बेटा, तुम बहू को लाओ, मैं घर की सफाई करा लेती हूं। आते ही बहू को काम में झोंक दूंगी क्या! दो-चार दिन के लिए आती है थोडा चैन से रहे।

नहीं चाची, मैं रिटायर हो गया हूं। शहर में मेरे लिए है ही क्या? अब गांव में रहूंगा।

ताला बंद कर चाबी उन्होंने जेब में रखी और एक नजर घर और चाचा पर दौडाई। लगा मानो नीम का पेड फिर हरा हो गया है। पेड के नीचे खडे पिता मुस्करा रहे हैं..।

dipu 20-06-2013 05:31 PM

Re: हिंदी कहानियां
 
नई पौध

रात के ग्यारह बज चुके थे। प्रकाश दंपती के सोने का समय टलता जा रहा था। नींद आंखों पर दस्तक देकर लौट चुकी थी। नींद से वैसे भी इनके संबंध मधुर नहीं कहे जा सकते। दोनों दवा खाकर नौ बजे बिस्तर पर जाते हैं। सब ठीक रहा तो कुछ देर बाद नींद आ जाती है। तडके पांच बजे उठते हैं। सैर-योग, चाय-नाश्ते के बाद साथ बैठते हैं। प्रकाश पचहत्तर पार और मिसेज्ा प्रकाश सत्तर की। दोनों शांति से रह रहे थे, लेकिन पिछले कुछ दिनों से शांति पर जैसे ग्रहण लग गया था। नींद की गोलियां प्रभाव खो रही थीं। पडोस में शोर बढ रहा था।

पडोस का मकान आर्या जी का है। अच्छे मित्र हैं। दोनों ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में नौकरी की और उच्च पदों से सेवानिवृत्त हुए। आर्या जी के कहने पर प्रकाश जी ने प्लॉट ख्ारीद तो लिया, लेकिन नागपुर में घर बनाने का उनका इरादा न था। आर्या जी का ही आग्रह था जो उनका भी घर बन गया। आर्या जी जानते थे कि प्रकाश रेती-गिट्टी-सीमेंट के झंझट में पडने वाले हैं नहीं। यही होगा कि रिटायरमेंट के बाद प्लॉट बेच कर फ्लैट ख्ारीद लेंगे। पीछे पडकर उन्होंने अपने साथ प्रकाश जी का भी मकान बनवा लिया।

लेकिन आर्या जी के भाग्य में रिटायरमेंट के बाद नागपुर में रहना नहीं लिखा था। रिटायर हुए तीन साल ही हुए थे कि मिसेज आर्या का कैंसर से निधन हो गया। अकेले आर्या जी नागपुर में रहकर क्या करते! बेटा पुणे में इंजीनियर है। इसलिए उन्होंने नागपुर का मकान किराए पर उठा दिया और ख्ाुद बेटे के पास चले गए। पिछले दस सालों में जो भी किराएदार रहे, उनसे प्रकाश दंपती को कोई कष्ट नहीं हुआ। वक्त-ज्ारूरत लोग मदद ही करते। किराएदार के लिए रखी जाने वाली शर्तो में आर्या जी की एक शर्त यह भी थी कि पडोस में रहने वाले प्रकाश-दंपती को परेशानी न हो। मकान में मरम्मत होनी थी, जो आर्या जी गर्मियों में आकर कराना चाहते थे। लिहाज्ा पिछले किराएदार के जाने के बाद उन्होंने छात्रों को रख लिया, ताकि परीक्षा के बाद मकान ख्ाली करवाया जा सके।

पहले दो महीने अच्छे बीते। इंजीनियरिंग के दो छात्र थे। सुबह नौ बजे निकलते तो रात को ही लौटते थे। एक बार मिसेज्ा प्रकाश ने पूछा भी एक छात्र से कि क्या इतनी रात तक कॉलेज लगता है? नहीं आंटी, हम दोस्तों के यहां चले जाते हैं। बोर होते हैं यहां अकेले। कुछ दिन बाद तीसरा छात्र आया, फिर चौथा और दो-एक सप्ताह में छात्रों की संख्या का सही अनुमान लगाना कठिन हो गया। लेकिन प्रकाश दंपती को परेशानी नहीं हुई। पडोस गुलज्ार हो गया था। धीरे-धीरे पडोस में छात्र बढने लगे। माहौल बदलने लगा। देर रात तक जमघट रहता। दो छात्र शाम को फाटक खोलते दिखाई देते तो सुबह पांच-सात छात्र मकान से निकल कर कॉलेज जाते। पढाई कम, धींगामुश्ती अधिक होती। ज्ाोर-ज्ाोर से गाने बजते। कई बार वे ख्ाुद भी गाते। शोर तब शुरू होता, जब प्रकाश दंपती का सोने का समय होता। आख्िार एक दिन पानी सिर से ऊपर हो गया तो मिसेज्ा प्रकाश वहां गई, बोलीं, देखो बच्चों, आप देर रात तक शोर करते हो, इससे हमारी नींद हराम हो जाती है।

आंटी जी, आप खिडकी-दरवाज्ो क्यों नहीं बंद कर लेतीं? एक छात्र ने प्रतिक्रिया दी।

अरे बेटा, खिडकी-दरवाज्ो तो बंद ही रहते हैं। उसके बावजूद शोर सुनाई देता है।

अरे, इस उम्र में भी आप लोगों को इतना तेज्ा सुनाई देता है। हम पहले जहां रहते थे, वहां तो रात-रात भर ऊधम मचाते थे, किसी ने कुछ नहीं कहा।

तो वहीं क्यों नहीं रहे? यहां क्यों आ गए?

वो हमारा ट्रेड-सीक्रेट है, एक छात्र ने लापरवाही से जवाब दिया था।

हमारे कान अब तक सही हैं, शायद इसीलिए तकलीफ ज्यादा होती है। हम हाइपरटेंशन के मरीज्ा हैं। रात को नींद की गोली खाकर सोते हैं। गोली लेने पर भी नींद न आए तो समझो अगला दिन परेशानी में गुज्ारेगा। आंटी, ब्लड-प्रेशर, आथ्र्राराइटिस, प्रोस्टेट, उनींदापन तो बढती उम्र के साथ सीने पर लगने वाले तमगे हैं जो दर्शाते हैं कि आप बुज्ाुर्ग हो गए। बल्कि आंटी हमारे साथ डांस करने आ जाएं। खाना हज्ाम होगा तो नींद भी आ जाएगी।

मिसेज्ा प्रकाश को ग्ाुस्सा तो आया, लेकिन उन्होंने ऊपरी मन से इतना ही बोलीं, मेरा बेटा मनीष इंजीनियर है। बैंगलोर में है। मैंने उसे तो कभी ऊधम मचाते नहीं देखा।

एक छात्र बोला, आंटी जी, पुरानी बात मत कीजिए। दस साल पहले मोबाइल देखा था आपने? यहां छतों पर जो डीटीएच छतरियां दिख रही हैं वे थीं पहले? आपका बेटा सात साल पहले इंजीनियर बन गया। उसे जॉब भी मिल गया। पर आंटी आज क्या हाल है, पता है? आपके बेटे की पूरी पढाई में जितना ख्ार्च आया होगा, उतना तो एक साल में आ जाता है। हमें कितना टेंशन है, आप लोगों को क्या पता! ऐसे में, हम मस्ती करके टेंशन दूर करना चाहते हैं तो आपको प्रॉब्लम हो जाती है।

बहस निरर्थक जानकर मिसेज्ा प्रकाश लौट आई। सुबह प्रकाश जी ने आर्या जी को फोन पर पूरी कहानी सुना दी। आर्या जी ने छात्रों से न जाने क्या कहा कि दो-चार दिन शोर कुछ कम हुआ। लेकिन फिर शोर-शराबा शुरू हो गया। 31 दिसंबर की रात तो उनके सब्र का बांध टूट गया। शोर सुबह के तीन बजे तक चलता रहा। आख्िार प्रकाश जी वहां गए। मिसेज्ा प्रकाश आशंकित हुई। पीछे-पीछे वह भी चली गई। प्रकाश जी बोलते रहे-मगर छात्रों के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। आख्िार उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट कराने की बात कही तो छात्र शांत हुए। सुबह तक प्रकाश दंपती करवटें बदलते रह गए। अगले दिन उन्होंने फिर आर्या जी को फोन लगाया। आर्या जी अगले संडे ही नागपुर आ गए और छात्रों से मकान ख्ाली करने को कह दिया। उनके सबसे छोटे साले भैरोप्रसाद नागपुर में रेजिडेंट कलेक्टर थे। उनका हवाला देते हुए आर्या जी ने छात्रों को चेतावनी दी कि पुलिस में रिपोर्ट करने पर उनका करिअर चौपट होते देर नहीं लगेगी।

यहां के लोग बाहरी छात्रों को मकान किराए पर नहीं देना चाहते थे, इसलिए उन्हें मुश्किल हो सकती थी। आर्या जी की पुणे की बस शाम को थी। वे निकलने वाले थे कि दो छात्र मिलने आ गए। कहने लगे, चलिए अंकल, हम आपको बस स्टैंड तक छोड देते हैं।

नहीं। आप लोगों ने मेरे बुज्ाुर्ग मित्र का मन दुखाया है। इसलिए मैं आपसे बात करना भी मुनासिब नहीं समझता, आर्या जी फट पडे। हम शर्मिदा हैं अंकल। हमारे कुछ दोस्त आ जाते थे। प्लीज्ा हमें माफ कर दीजिए। इस समय नया घर ढूंढना हमारे लिए मुश्किल है। मेहरबानी करके सेशन चलने तक हमें यहां रहने दीजिए। आर्या जी जल्दी में थे। उन्होंने मकान ख्ाली करने की तारीख्ा देकर फैसला प्रकाश जी पर छोड दिया। इस घटना को दो हफ्ते बीत गए थे। प्रकाश दंपती के तेवर में कोई फर्क नहीं आया था। अलबत्ता अब शोर-शराबा थम चुका था और छात्र पढाई में जुटे नज्ार आने लगे थे। मगर एक दिन फिर पडोस में शोर मचा। प्रकाश जी ने सोचा कि ख्ाुद जाकर उन्हें डांट दें। लेकिन मिसेज्ा प्रकाश ने मना कर दिया। कहने लगीं, ये उम्र होती ही है मस्ती की। बेचारे दिन-रात किताबों में लगे रहते हैं। एकाध दिन मस्ती कर लेंगे तो क्या हो जाएगा। किसी का बर्थ डे है शायद आज, इसलिए पार्टी कर रहे हैं।

प्रकाश जी का क्रोध ख्ात्म नहीं हुआ। बोले, कल ही आर्या को फोन करके कहता हूं कि पुलिस में रिपोर्ट कर दे। एक दिन लॉकअप में रहेंगे तो होश ठिकाने आ जाएंगे।

देखिए ये नई पौध है। ख्ाुद में मगन। इन्हें न तो समाज की चिंता होती है और न मां-बाप की। फिर हमारी क्या चिंता करेंगे ये! मिसेज्ा प्रकाश ने कहा तो प्रकाश जी बोले, कल ही फैसला कर डालता हूं..। दोनों सो गए। रात में अचानक प्रकाश जी की नींद खुली। उन्हें कुछ आवाज्ा सी सुनाई दी। देखा मिसेज्ा प्रकाश बिस्तर पर नहीं हैं। तभी एक चीख-सी सुनाई दी। लगा मानो कोई किसी का गला घोंट रहा है। सहमे हुए से बिस्तर से उठे और बाथरूम की ओर मुडे ही थे कि किसी ने सिर पर भारी चीज्ा से वार कर दिया। कुछ समझ पाते इससे पहले ही वे बेहोश हो चुके थे।

..होश आया तो देखा, हाथ और सिर पर पट्टी बांधे मिसेज्ा प्रकाश उनके सिरहाने बैठी हैं। प्रकाश जी ने कुछ याद करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें मूर्छा-सी आ गई। हॉस्पिटल में नीरव शांति पसरी थी। कुछ देर बाद उन्होंने फिर आंखें खोलने की कोशिश की। अबकी उनकी नज्ार कमरे में एक ओर बिछे बेंच पर गई। वहां कोई लेटा था। उन्होंने धीमी आवाज्ा में पूछा, मनीष आ गया क्या?

नहीं, यह तो गुरु है, हडबडाकर आंखें खोलते हुए मिसेज्ा प्रकाश ने जवाब दिया। प्रकाश जी को चालीस घंटे बाद होश में आया देख पत्नी का चेहरा खिल उठा।

गुरु!

हां, पडोस में रहने वाला वही लडका, जिससे हमारी बहस हुई थी।

ये यहां क्यों है!

इन्हीं के कारण जीवित रह पाए हैं हम लोग। मैं बाथरूम के लिए उठी तो देखा पिछवाडे के दरवाज्ो की कुंडी खुली है। मुझे लगा शायद रात में लगाना भूल गई हूं। बंद करने गई थी कि किसी ने पीछे से मेरा मुंह बंद कर दिया। दूसरे ने आकर मेरे गले पर छुरा रख दिया। मुझे समझ आ गया कि घर में चोर घुस चुके हैं। चोरों ने इतनी देर में सब कुछ समेट लिया था। बैंक से आज ही जो कैश लाई थी, वह भी साफ कर दिया। मैं पांच मिनट बाद उठती तो वे भाग चुके होते।

आपके उठने के पहले से एक चोर पलंग के पास खडा था। मैं उसे देख रही थी पर, मेरा मुंह दबा होने के कारण कुछ कर नहीं पा रही थी। उन्होंने मुझे बुरी तरह जकड रखा था। आपके उठते ही उसने आप पर वार कर दिया। आप जैसे ही गिरे, मुझमें न जाने कहां से इतनी ताकत आ गई और मैंने ज्ाोर लगा कर ख्ाुद को छुडा लिया। पीछे के दरवाज्ो से भाग कर ज्ाोर-ज्ाोर से चोर-चोर चिल्लाने लगी। शोर सुन कर ये बच्चे तुरंत बाहर निकल आए। इन्होंने चोरों का दूर तक पीछा किया। बाकी तो भाग निकले, एक इनके हाथ आ गया।

मुझे अस्पताल में किसने दाख्िाल किया?

इन्हीं बच्चों ने। एक ने पुलिस को फोन करके चोर को उनके हवाले किया। दूसरे ने एंबुलेंस बुलवाई। आपके सिर से काफी ख्ाून बह चुका था। डॉक्टरों ने कहा कि ख्ाून चढाने की ज्ारूरत पडेगी तो इन्होंने ही चार बोतल ख्ाून दिया। ..आप यकीन नहीं करेंगे, उस रोज्ा आधी रात को न जाने कहां-कहां से यहां बीस बच्चे इकट्ठे हो गए थे। सब इनके साथ पढने वाले छात्र थे। सुबह तक एक भी यहां से नहीं हिला। मैं भी कुछ देर के लिए बेहोश हो गई थी। मुझे होश आया तो कहने लगे, आंटी जी, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए। आपका बेटा नहीं है पास में तो न सही, हम 20-25 छात्र हैं। हम आप दोनों को कुछ नहीं होने देंगे। दवा लाना, घर की देखभाल, डॉक्टर, पुलिस जैसे सारे काम ये बच्चे ही संभाल रहे हैं। पैसे निकालने के लिए एटीएम कार्ड देने लगी तो बोले, आंटी, अभी रहने दीजिए। आप दोनों ठीक होकर घर आ जाएंगे, तब दे दीजिएगा। अभी हम लोगों ने मैनेज कर लिया है।

मनीष को फोन नहीं किया तुमने? प्रकाश जी ने जानना चाहा।

पहला फोन इन बच्चों ने ही किया था उसे। मैंने नंबर दे दिया था। मैं तो बात करने की स्थिति में थी ही नहीं। मनीष ने कई मर्तबा डॉक्टर से बात की। आज सुबह फिर बात हुई तो कह रहा था कि ऑफिस में कोई ज्ारूरी प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसमें उसका होना ज्ारूरी है। इसलिए वह कल रात वहां से निकल कर परसों सुबह यहां पहुंचेगा। गुरु ने ही मनीष को आश्वस्त किया है। कल फोन पर मैंने उसे कहते सुना, मनीष भाई, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए। हम लोग यहां हैं। आप अपना काम ख्ात्म करके ही आइए। तब तक हम सब संभाल लेंगे।

प्रकाश जी ने पास के बेंच पर सोए हुए गुरु पर एक नज्ार दौडाई। हिलने-डुलने में भी असमर्थ प्रकाश जी अपने हृदय में उमडी हिलोर को केवल नज्ार के माध्यम से ही गुरु के शरीर तक पहुंचा सकते थे। मिसेज्ा प्रकाश से यह छिपा न रह सका। कहने लगीं, दो रातों से सोया नहीं है यह बच्चा। आज जब डॉक्टर ने कहा कि अब ख्ातरा टल चुका है तो मैंने जबरदस्ती इसे दूध-ब्रेड खाने को दिया और डांट कर इसे यहीं बेंच पर सो जाने को कहा। इनके भी पढने-लिखने के दिन हैं, एग्ज्ौम्स होने वाले हैं, लेकिन ये लोग दो दिनों से यहां शिफ्ट-ड्यूटी बजा रहे हैं। ..मज्ोदार बात यह है कि ये सब बिहार के पूर्णिया जिले के रहने वाले हैं। आप जानते हैं यह गुरु तो मेरीगंज का है।

मेरीगंज?

हां, वही मेरीगंज जिसका उल्लेख फणीश्वर नाथ रेणु जी के मैला आंचल में आता है। खेलावन यादव जैसे चरित्र मेरीगंज के ही तो हैं उस उपन्यास में। गुरु बता रहा था, आंटी जी, मैंने घर की गाय का दूध पिया है। इसलिए इतना हट्टा-कट्टा हूं। ऐसे दो-चार चोरों को तो मैं अकेले ही निपटा देता। मिसेज्ा प्रकाश पिछले दो दिनों में घटित कई बातें बतलाना चाहती थीं, लेकिन प्रकाश जी को फिर नींद आ गई। नींद में भी उनका एक हाथ आधा उठा था, मानो बेंच पर सोए हुए गुरु को आशीष दे रहे हों। एक पल में मन में जमी सारी कडवाहट धुल चुकी थी।

dipu 20-06-2013 05:32 PM

Re: हिंदी कहानियां
 
जिद

उद्देश्यहीन भटकाव अंदर-बाहर। कभी पार्क की तरफ देखती हूं तो कभी अंदर आकर टीवी देखती हूं। मन किसी काम में लग ही नहीं रहा, मानो किसी ने सारी शक्ति निचोड ली है। जी में आ रहा है कि चीख-चीख कर रोऊं, चिल्लाऊं कि किसके लिए जी रही हूं? इस बडे से घर का सन्नाटा मुझे भयावह लग रहा है। बच्चे पार्क में खेल रहे हैं। रोज्ा शाम मैं उन्हीं को देखकर मन बहलाती थी। बच्चों को लेकर उनकी मां आतीं, कभीकभार पिता भी आते हैं। उन्हें देख कर दिल को सुकून मिलता था, लेकिन आज पता नहीं क्यों कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। दुनिया जैसे एक छलावा है। कभी-कभी किसी एक व्यक्ति की ज्िाद परिवार को कैसे प्रभावित करती है, इसका जवाब देने के लिए आज अम्मा नहीं रहीं। वह चली गई मुझे एक विशाल ख्ामोश घर के साथ अकेला छोड कर। उनकी ज्िाद की वजह से मैं आज इस स्थिति में हूं। उन्होंने तो शायद सोचा ही नहीं होगा कि उनके जाने के बाद मेरा क्या होगा। सोचा होता तो इस घर में भी रौनक होती। शादी के पच्चीस साल होने जा रहे हैं, लेकिन मातृत्व सुख से वंचित हूं। मन में एक हूक सी उठती है। काश कोई मेरा भी होता जो मां कहता और मुझसे लिपट जाता। जिसकी एक हंसी में मुझे सारी दुनिया हंसती दिखाई देती और जिसकी आंखें नम होतीं तो मैं रोने लगती।

..पीछे देखती हूं तो ख्ाुद को ख्ाुशमिज्ाज लडकी के रूप में देखती हूं। ससुराल आते ही मैंने सबका मन मोह लिया था। यहां बस चार लोग थे। जबकि मैं एक बडे परिवार से आई थी। तीन बहनें, एक भाई और ताऊ जी का परिवार। हम बहनों की आपस में ख्ाूब बनती थी। हर छुट्टी पर रिश्तेदारों के बच्चे भी रहने आ जाते। भरे-पूरे परिवार में रहने की आदत थी। ससुराल आई तो मन ही नहीं लगता था। यहां सिर्फ सास, ससुर, पति और मैं। ससुर उच्च अधिकारी थे और प्रभात इकलौती संतान। शायद इसीलिए उन्हें लाड-प्यार से रखा गया। अम्मा कहती थीं, उनकी इच्छा थी कि उन्हें दो-तीन बच्चे हों, लेकिन ऐसा न हुआ।

शादी के एक-दो साल तो हंसी-ख्ाुशी में गुज्ार गए। धीरे-धीरे सहेलियों, रिश्तेदारों की गोद भरने लगी, कुछ सहेलियां तो दूसरे बच्चे की तैयारियां करने लगीं, लेकिन मेरे यहां कोई अच्छी ख्ाबर नहीं थी। तब कहीं जाकर अम्मा का दिमाग्ा ठनका।

फिर जो सिलसिला शुरू हुआ, वह कुछ ही समय पहले थमा है। हम डॉक्टरों के पास दौडने लगे। ज्योतिषियों से लेकर सारे गुरु-महाराज तक के पास अम्मा चली गई। दूसरी ओर मैंने धीरे-धीरे ख्ाुद को समाज से काट लिया। जहां भी जाती, लोगों का सवाल होता, नेहा, ख्ाुशख्ाबरी नहीं सुना रही हो? अंत में मैंने निर्णय लिया कि हम एक बच्चे को गोद लेंगे। मैंने प्रभात को समझाने की कोशिश की कि हम बच्चा नहीं पैदा कर सकते, पर किसी अनाथ बच्चे को गोद तो ले सकते हैं। प्रभात राजी हो गए। तय हुआ कि अगली सुबह अम्मा-पापा को बता कर शहर के अनाथ आश्रमों में चलेंगे। मैं कल्पनालोक में उडान भरने लगी। सोचती थी एक लडकी गोद लूंगी। उसके लिए ढेर सारे सुंदर कपडे ख्ारीदूंगी। लेकिन नियति ने शायद कुछ और सोच रखा था। सुबह मैंने घरेलू काम जल्दी-जल्दी निपटाए और अम्मा की पूजा समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगी। एक-एक क्षण भारी लग रहा था। डर भी रही थी कि कहीं अम्मा ने मना कर दिया तो! घर में उन्हीं की चलती थी। बाबूजी व प्रभात उनकी बात का विरोध नहीं कर पाते थे। अम्मा पूजा घर से बाहर निकलीं। उनके चेहरे पर चिंता की झलक थी। उन्होंने मेरे चेहरे को भांप लिया। मैंने सबको चाय दी और प्रभात की तरफ देखा ताकि वह बात शुरू करें। प्रभात के चेहरे पर असमंजस के भाव थे। शायद सोच रहे हों, कहां से बात शुरू करें। फिर उन्होंने गला खंखारते हुए कहा, अम्मा, हम सोच रहे हैं कि अब देरी करने के बजाय हम बच्चा गोद ले लें। प्रभात के इतना कहते ही मानो घर में सन्नाटा पसर गया। अम्मा ने बिना मुझे बोलने का मौका दिए अपना निर्णय सुना दिया, नेहा, कान खोलकर सुन लो, इस घर में बच्चा आएगा तो वह तुम्हारी कोख से जन्मा होगा। अनाथ आश्रम से इस घर में बच्चा नहीं आएगा। प्रभात, तुम्हारे पिता भी इकलौती संतान थे, तुम भी इकलौते हो। मेरा अटूट विश्वास है कि तुम्हें भी एक बच्चा तो ज्ारूर होगा। बस उस परमपिता परमेश्वर और गुरु जी का विश्वास करो। यह मेरा अंतिम निर्णय है। मैं जीते जी अपना निर्णय को नहीं बदलने वाली.., बिना चाय को हाथ लगाए वह अपने कमरे में चली गई और दिन भर दरवाज्ा नहीं खोला। हम तीनों उन्हें आवाज्ा देते रहे। हर बार कमरे से जवाब आता, मैं ठीक हूं, मुझे अकेला छोड दो।

घर का माहौल दमघोंटू हो गया। उस दिन किसी ने कोई बातचीत नहीं की, न खाना खाया। शाम को अम्मा कमरे से निकलीं। पूजा घर में आरती की और फिर ड्राइंग रूम में आई। हमें बुलाकर बोलीं, प्रभात-नेहा, तुम दोनों मुंबई जाओ और वहां फिर से सारे टेस्ट करा लो। टेस्ट ट्यूब बेबी के लिए भी कोशिश करके देखो। किसी सही हॉस्पिटल के डॉक्टर से मिलने का समय लेकर तुम लोग अपना ट्रेन रिज्ार्वेशन करा लो। अम्मा अपने कमरे में चली गई। मैंने पापा की ओर देखा कि शायद वह कुछ बोलें, मगर वह सदा की तरह निरपेक्ष थे। प्रभात की चिंता, झल्लाहट चेहरे पर दिखने लगी थी। मेरी निग्ाहों से बचने के लिए उन्होंने बाहर का रुख्ा कर लिया। मैं किसी तरह अपने कमरे में पहुंची। मन में आया कि चीख-चीख कर रोऊं, लेकिन संभ्रांत घर की बहू चिल्ला कर रो भी नहीं सकती। रात में प्रभात लौटे। पीठ थपथपाकर बोले, कितना रोओगी नेहा, अब चुप हो जाओ। उन्होंने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया, तब जाकर मुझे लगा कि उनके अंदर भी कम हलचल नहीं है। मैं तो रो सकती हूं, वह पुरुष हैं, चाहें भी तो रो नहीं सकते।

अगली सुबह अम्मा जी ने हमारा फैसला पूछा तो प्रभात की चुप्पी टूटी। उन्होंने कहा, अम्मा आप जैसा कहेंगी-वही होगा। कुछ दिन बाद हम मुंबई आ गए। फिर से टेस्ट और दवाओं का दौर शुरू हो गया और अंतत: वह दिन भी आया जब मुझे बेड रेस्ट दे दिया गया। अम्मा-पापा मेरा ध्यान रखते। मैं आशान्वित थी। दिन गुज्ार रहे थे, लेकिन नियत समय पर आकर फिर भ्रम टूट गया। कोख ख्ाली रही।

समय हर ज्ाख्म को भरता है। मैं वक्त से हारने वाली नहीं थी। मैंने ख्ाुद को व्यस्त कर लिया। किताबें मेरी दोस्त थीं, लाइब्रेरी की मेंबरशिप भी ले ली। बच्चों को पेंटिंग सिखाने लगी। इस बीच एक दिन पापा को हार्ट अटैक पडा और वह दुनिया से कूच कर गए। अम्मा के लिए यह कहर था। घर की ख्ामोशियां और बढ गई। मगर अम्मा का निर्णय न बदला तो न बदला। हर बार कुछ नए टेस्ट होते मगर नतीजा सिफर रहा। उम्र निकलती गई। शानो-शौकत वाला घर खंडहर बनने लगा, मगर अम्मा की ज्िाद कायम रही।

..एक साल पहले अम्मा भी चली गई। कल उनका वार्षिक श्राद्ध हो गया। रिश्तेदारों के जाने के बाद मैं अकेली रह गई। प्रभात भी पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए, हर चीज्ा से निरपेक्ष हो गए हैं। उम्र इतनी हो गई है कि बच्चा गोद लेकर उसकी सही परवरिश के बारे में भी नहीं सोच पाती।

..लेकिन आज का दिन मेरे लिए कुछ ख्ास सौगात लेकर आया। प्रभात ऑफिस से आए तो उनके चेहरे पर अलग सी आभा दिखी मुझे। चाय पीने के बाद बोले, नेहा मैंने सोचा है कि हम ग्ारीब और अनाथ बच्चों के लिए स्कूल खोलेंगे। इन वंचितों को मुफ्त शिक्षा देकर अगर हम आत्मनिर्भरता की ओर बढा सके तो हमारे दिल का बोझ भी कुछ कम हो सकेगा। तुम व्यस्त रहोगी और बच्चों का भविष्य भी सुधर सकेगा..।

आज बरसों बाद प्रभात के चेहरे को अलग रौशनी में देख रही हूं। उनके चेहरे पर दृढ इच्छा और आत्मविश्वास है। मेरे दिल का बोझ उतरने लगा है। मैं नम आंखों के साथ कंप्यूटर की ओर बढ गई। स्कूल खोलना है तो उसकी रूपरेखा भी बनानी होगी न!

dipu 20-06-2013 05:33 PM

Re: हिंदी कहानियां
 
पंद्रह साल बाद..

तीसरी बार डोर बेल बजाने के बाद भी दरवाज्ा न खुला तो मैं चौंकी, क्या बात हो सकती है? कुहू दरवाज्ा क्यों नहीं खोल रही है? उसी ने तो फोन करके बुलाया था, जूही आज मैं फ्री हूं। उमंग बिज्ानेस टूर पर गए हैं। हम बैठ कर आराम से बातें करेंगे। लंच यहीं करना.., वह फोन पर ही ढेरों बातें करने को आतुर थी।

आसाम में मेरे परिचित कम हैं। पति के कलीग्स के अलावा बस कुहू ही थी जो मेरी सहेली थी। इंदौर में एक हॉस्टल में हमने तीन साल रूम पार्टनर बन कर बिताए थे। सहेलियां-राज्ादार भी थीं हम। शादी के बाद भी फोन और ख्ातों के माध्यम से हम जुडे रहे। मेरे पति की पोस्टिंग आसाम हुई तो मुझे तसल्ली हुई कि कुहू यहां है। दरवाज्ा खुला तो कुहू खडी थी। उसके मुस्कराते चेहरे को देख कर मुझे भांपते देर नहीं लगी कि वह बहुत रो चुकी है। उसे देखते ही मैं बोली, कुहू, तुम्हारे पति उमंग सच कहते हैं कि तुम्हारी आंखें रोने के बाद बेहद ख्ाूबसूरत हो जाती हैं। कुहू की आंखों के कोर भीगे थे। बात बदलती हुई बोली, आओ जूही, देर हो गई। चलो, पहले खाना खाते हैं। मैंने उसका हाथ पकडा, बात क्या है कुहू? अरे कुछ नहीं यार, आज मैंने एक वाइरस को ख्ात्म कर दिया, जो मेरी लाइफ की विंडो को खा रहा था.., बस उसी की पार्टी समझ लो। बात बिंदास तरीके से शुरू की थी, लेकिन खत्म करते-करते उसका गला भर आया। मैंने धीरे से पूछा, पराग की बात कर रही हो तुम? उन दोनों के बीच कैसा संबंध था, इससे दोनों ही अनजान थे, लेकिन कुछ ऐसा था, जिसने दोनों को बरसों तक जोडे रखा। कुहू की तो हर बात अनूठी थी। सुंदर नहीं थी, लेकिन ग्ाज्ाब का चुंबकीय आकर्षण था उसकी बडी-बडी काली आंखों में। जो एक बार देख ले, खो जाए उनमें। शरारती और चंचल थी, बस हंसना-हंसाना...। इसी हंसी-मज्ाक में एक दिन दोपहर में यूं ही फोन घुमाने लगी। एक नंबर लगा तो बोली, हेलो। दूसरी ओर से एक सॉफ्ट और दिल को छू लेने वाली पुरुष की आवाज्ा सुनाई दी। (कुहू ने बाद में मुझे उस घटना के बारे में बताया था) कुहू उससे ऐसे बातें करने लगी जैसे पहले से उसे जानती हो। कुछ देर बातें करने के बाद बोली, अच्छा पराग आपसे फिर बातें होंगी। अभी फोन रखती हूं। बाद में वह मेरे पास आई और बोली, यार आज तो मज्ा आ गया। पहली बार किसी लडके से बात की है। तुझे कैसे पता कि वह लडका ही था, तूने शक्ल तो नहीं देखी? मैंने उसे डांट दिया। कुहू बोली, अरे उसने ही तो बताया कि वह वकालत कर रहा है, तो फिर लडका ही हुआ न..।

कुहू पढाई में अच्छी थी, पढती कम थी लेकिन नंबर अच्छे लाती थी। मगर मैं ज्यादा पढने के बाद भी कम मा*र्क्स लाती थी।

इस घटना के बाद तो पराग से फोन पर बातें करने का सिलसिला ही चल निकला। एक दिन पराग को उसने हॉस्टल बुला लिया। चेहरे पर ख्ाुशी के साथ थोडी घबराहट भी थी। हॉस्टल की आया तारा बाई ने आवाज्ा दी, कुहू मेहता, आपसे कोई मिलने आया है.., सुनते ही वह दौडी और पीछे-पीछे मैं भी भागी कि देखूं तो वह भाग्यशाली है कौन!

पराग भी कुछ घबराया-सकुचाया सा था। गोरा रंग, हलकी भूरी आंखें और घुंघराले बाल..। वह सचमुच सुंदर था। वे दोनों हॉस्टल में एक पेड के नीचे आमने-सामने बैठे थे। पहली मुलाकात थी, दोनों ही नर्वस थे। आख्िार कुहू ने ही चुप्पी तोडी पराग के हाथ पर बने एक बडे से काले निशान के बारे में पूछते हुए, यह निशान कैसा है? ग्रीस लग गया है या जल गया है? पराग के चेहरे पर हलकी सी हंसी आई, यह मेरा बर्थ मार्क है।

पहली मुलाकात औपचारिक ही रही। मैं संगीत की शौकीन थी, लेकिन कुहू को ख्ास दिलचस्पी नहीं थी संगीत में। एक दिन वह दोपहर की नींद ले रही थी कि तारा बाई ने फिर आवाज्ा लगाई, कुहू मेहता आपके लिए फोन है..। कुहू हडबडी में उठकर भागी। लौटी तो ज्ाोर-ज्ाोर से हंस रही थी। बोली, आज तो पराग ने फोन पर गाना भी सुनाया। आवाज्ा अच्छी है उसकी। साथ में मूवी चलने को कह रहा था। यार अकेले तो मुझे डर लगता है, तू भी चल न साथ में।

ख्ौर मैंने अच्छी सहेली होने का फज्र्ा निभाया। मूवी के बाद मैंने कुहू को छेडा, कुहू, मूवी के दौरान पराग ने तुम्हारा हाथ पकडा कि नहीं..? मेरी बात पर वह हैरानी से बोली, अरे वह रोमैंटिक मूवी थी, भुतहा फिल्म नहीं..जो वह डर कर मेरा हाथ पकडता! मुझे उसकी मूर्खता पर हंसी आई। एक दिन कुहू बोली, जूही, यह पराग किसी दिन ज्ारूर बडा गायक बनेगा। आज उसने मुझे फिर से गाना सुनाया। मैंने उसे धीरे से टटोला, कुहू, तुम्हें प्यार-व्यार तो नहीं हो गया है न! मेरी बात पर वह खिलखिलाई, जूही, प्यार का चक्कर अपने बस का नहीं। प्यार है क्या? बस एक केमिकल रिएक्शन है। अच्छा, चल यार भूख लगी है।

..एग्ज्ौम्स शुरू हुए और धीरे-धीरे ख्ात्म भी हो गए। कुहू के पेपर्स मुझसे पहले ख्ात्म हुए। वह अगले ही दिन घर जाने की तैयारी करने लगी। अगली सुबह सात बजे उसकी बस थी। मेरे साथ मेरी एक सहेली बिंदू भी उसे बस स्टैंड तक छोडने पहुंची। वहां पराग भी था। चलते समय उसने बिंदास तरीके से हम तीनों से हाथ मिलाया और और बस में बैठ गई।

...कुहू बीते दिनों में डूबी हुई मुझसे दिल की बातें शेयर कर रही थी। जूही, एक बात कहूं, मैं उस दिन वहीं उसी बस स्टैंड पर खडी रह गई उसका हाथ थामे। मैं वहां से कभी जा ही नहीं पाई..। पराग से हाथ मिलाते हुए जब मैंने उसके चेहरे को देखा तो उसकी आंखों में मुझे वह दिखा, जिसे शायद आज तक मैं नहीं देख पाई थी। इसके बाद मैंने उसे अपनी सगाई की ख्ाबर दी तो भी उसका चेहरा उतर गया था। तब मुझे लगा कि शायद यह प्यार का कोई एहसास है।

चल चाय पीते हैं जूही.., कुहू चाय बनाने रसोई में चली गई। मैं भी उसके पीछे-पीछे आ गई और पूछा, अच्छा कुहू, इसके बाद तुम कभी मिली पराग से? हां, फेसबुक पर, वह बताने लगी, हॉस्टल से घर आने के कुछ समय बाद ही मेरी शादी उमंग से हो गई। उमंग जैसा ज्िांदादिल इंसान पाकर मैं ख्ाुश थी। उसके जीवन का फलसफा है, जिओ और जीने दो। पार्टी, मौज-मस्ती और घूमने-फिरने का शौकीन है उमंग। लेकिन बिना मेरे कहीं नहीं जाता। हम कई बार विदेश यात्राएं कर चुके हैं। बेटे को हॉस्टल में डाला है ताकि हमारे साथ उसकी पढाई ख्ाराब न हो..।

मुझे याद है, कुहू से जब भी कभी फोन पर बात होती, वह उमंग की तारीफों के पुल बांध देती। लेकिन उसकी बातों के अंत में एकाएक एक अनजानी सी ख्ामोशी छा जाती और वह फोन रख देती। विवाह के 15 साल बाद भी दोनों का हनीमून ख्ात्म नहीं हुआ था, लेकिन कभी-कभी कुहू की आंखों के आगे एक जोडा भूरी आंखें आ जातीं और वह बात करते-करते कहीं खो जाती। जूही, एक दिन उमंग ने कहा कि मैं फेसबुक पर अकाउंट बना लूं। इससे पुराने दोस्तों से संपर्क हो सकेगा। इस तरह फेसबुक पर अकाउंट बन गया। कुछ दिन बाद ख्ायाल आया कि पराग को सर्च करूं, क्या पता वह भी फेसबुक पर हो। नाम टाइप करते ही असंख्य पराग दिखने लगे। लेकिन एकाएक एक तसवीर पर नज्ार टिक गई। यह तो वही पराग दिख रहा था। फिर मैंने उसका प्रोफाइल चेक किया। शहर, कॉलेज, जन्मतिथि सब वही..। कुहू ने झट से पराग के मेसेज-बॉक्स में संदेश छोड दिया, क्या मैं तुम्हें याद हूं?

15 दिन बाद पराग का संदेश आया, हां। मेसेज आते ही कुहू ने पराग को अपना मोबाइल नंबर भेज दिया। कुछ देर बाद पराग ऑनलाइन दिखा और चंद पलों में ही दोनों भूल गए कि उनका जीवन 15 साल आगे बढ चुका है। कुहू एक बेटे की मां है और पराग दो बच्चों का पिता। पराग का फोन भी आ गया। उसने पूछा, पराग, तुमने अपने घर पर मेरे बारे में किसी को कुछ बताया है? पराग की मां को पता था कि उनका बेटा कुहू से अकसर फोन पर बातें करता है। इसलिए जब पराग ने अपनी मां को कुहू की सगाई के बारे में बताया तो उन्होंने राहत की ही सांस ली थी। यह बात पराग ने ही कुहू को बताई थी। कुहू के इस सवाल पर पराग हंसा और कहा, मैंने तुम्हारे बारे में पत्नी को नहीं बताया है और बताऊंगा भी नहीं। मां तो अब हैं नहीं और पत्नी इतनी शक्की है कि उसे ज्ारा सा बताया तो बडा सा बखेडा खडा हो जाएगा।

चैटिंग का सिलसिला चलता रहा। पराग अकसर शिकायत करता कि वह बीच में ही भाग गई। तब एक दिन कुहू ने भी नाराज्ागी जताते हुए कहा, पराग, तुमने मुझे रोकने की कोशिश की? मैं किसके भरोसे रुकती?

पराग ने लिखा, कुहू, काश हमारे पास कोई टाइम मशीन होती तो हम 15 साल पीछे चले जाते.., कुहू ने तुरंत लिखा, मैं तो अब भी 15 साल पीछे चल रही हूं। पराग ने जवाब में किसी गाने की लाइन लिख दी। अच्छा तो म्यूज्िाक का भूत उतरा नहीं अभी तुम्हारे दिल से? कुहू ने तुरंत चैट किया।

कुहू जितना पराग के करीब जाती, उसके मन में अपराध-बोध उतना ही बढता जाता। उसे लगता शायद ग्ालती कर रही है। वह विवाहित है और उसे यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए। फिर उसने उमंग को सब कुछ बताने का फैसला किया। डिनर के बाद उसने पति के सामने एक-एक कर सारी बातें बताई और साथ में यह भी कहा कि यह उसी का कसूर है। उसी ने पहले फेसबुक पर पराग को ढूंढा। उमंग भी संजीदा हो गए, लेकिन फिर उन्होंने परिपक्वता दिखाते हुए कहा, कोई बात नहीं कुहू, जीवन ऐसे ही चलता है। जैसा चल रहा है-चलने दो, बहुत टेंशन मत लो।

अगले दिन कुहू ने पराग को सारी बात बताई तो उसे अचंभा हुआ। बोला, िकस्मत वाली हो कुहू जो तुम्हें ऐसा जीवनसाथी मिला। मोनिका ने तो मुझे कैद में जकड रखा है।

एक दिन पराग ने मोनिका की बात फोन पर कुहू से करवाई। उसने कुहू से तो प्यार से बातें की, लेकिन बाद में पराग की जान सांसत में डाल दी। या तो वह जान दे देगी, नहीं तो पराग कुहू को अपनी ज्िांदगी से बाहर करे। अगले दिन पराग का मेसेज आया, सॉरी कुहू मैं अब तुमसे कोई बात नहीं करूंगा। मोनिका को इस पर सख्त ऐतराज्ा है। कुहू को रोना आ गया। पराग को फोन मिलाती रही, मगर उसने फोन नहीं उठाया। अंत में उसने मेसेज किया, एक बार तो बात करो पराग। मुझे पता चले कि हुआ क्या है?

थोडी देर में पराग का फोन आया। बोला, मेरे घर में बवाल मच गया है। तुमसे फोन पर मोनिका की बात क्या करवा दी, वह तो मेरे पीछे ही पड गई है। तुमसे हाथ जोड कर प्रार्थना करता हूं कि मुझे माफ कर दो और अपनी ज्िांदगी अपने हिसाब से जिओ। कुहू बोली, कोई बात नहीं पराग, अब मैं तुमसे मिलने के लिए 15 साल और इंतज्ार कर लूंगी। दूसरी ओर से फोन कट गया।

...कुहू ने फोन से पराग का नंबर डिलीट कर दिया और फेसबुक पर उसे अनफ्रेंड कर दिया। जूही, नंबर तो डिलीट कर दिया, पर जो नंबर 15 साल से नहीं भूली, उसे अब कैसे भूल जाऊं। शायद कुछ बातें इंसान के बस में नहीं होतीं। जानती हूं, कॉलेज के दौर में मैं उससे सिर्फ फ्लर्ट कर रही थी, लेकिन बाद में उससे जुडती चली गई। जब पराग को पता था कि उसकी पत्नी इतनी शक्की है तो उसे मुझसे संपर्क आगे नहीं बढाना चाहिए था। पहले ही मुझे बता देता। जब तक उसे सुविधा रही, उसने मुझसे बातें की लेकिन जैसे ही सुविधा ख्ात्म हुई, उसने संपर्क काट लिया। कुहू रोते हुए दिल का बोझ मुझसे बांट रही थी। मुझे याद आया, एक दिन कुहू ने कहा था, जूही, हम औरतों के दिल में कई चैंबर होते हैं। एक में हमारी गृहस्थी होती है, दूसरे में मायका-सहेलियां। एक तीसरा कोना भी होता है, जिसमें हमारी चंद यादें होती हैं। जब कभी फुर्सत मिलती है, हौले से इन्हें झाड-पोंछ देते हैं और फिर वापस वहीं रख देते हैं। मैं सोचने लगी कि क्या यह वही लडकी है जो प्यार को केमिकल रिएक्शन मानती थी और दिल को ख्ाून की सप्लाई का एक साधन!

..कुहू कोई सोलह साल की किशोरी नहीं, परिपक्व स्त्री थी और मैं उसे सिर्फ समझा ही सकती थी। वह भी यह बात जानती थी कि विधि का विधान कोई नहीं बदल सकता। जो सामने है, जो मिला है-बस वही अपना है। जो नहीं मिला, दरअसल कभी था ही नहीं।


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