कुंवर बेचैन की रचनाएँ
कुंवर बेचैन जन्म : ०१ जुलाई १९४२ उपनाम : बेचैन जन्म स्थान : ग्राम ,उमरी ,जिला मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश ,भारत |
Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
दुखों की स्याहियों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी कि जैसे सोख़्ता हो। जनम से मृत्यु तक की यह सड़क लंबी भरी है धूल से ही यहाँ हर साँस की दुलहिन बिंधी है शूल से ही अँधेरी खाइयों के बीच अपनी ज़िंदगी ऐसी कि ज्यों ख़त लापता हो। हमारा हर दिवस रोटी जिसे भूखे क्षणों ने खा लिया है हमारी रात है थिगड़ी जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है घनी अमराइयों के बीच अपनी ज़िंदगी, जैसे कि पतझर की लता हो। हमारी उम्र है स्वेटर जिसे दुख की सलाई ने बुना है हमारा दर्द है धागा जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है कई शहनाइयों के बीच अपनी ज़िंदगी जैसे अभागिन की चिता हो। |
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मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है। तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं तब आया करती थी महक पसीने से आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से अब अनाम जंजीरों ने आ जकड़ी है। तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम शहरों में आते ही बने बहीखाते नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से चेहरे पर अब जाल-पूरती मकड़ी है। तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से अब वह केवल पात-चबाती बकरी है। |
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अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नहीं पाती मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते 'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते |
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अधर-अधर को ढूँढ रही है,ये भोली मुस्कान
जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान नयन-गेह से निकले आँसू ऐसे डरे-डरे भीड़ भरा चौराहा जैसे, कोई पार करे मन है एक, हजारों जिसमें बैठे हैं तूफान जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान साँसों के पीछे बैठे हैं नये-नये खतरे जैसे लगें जेब के पीछे कई जेब-कतरे तन-मन में रहती है हरदम कोई नयी थकान जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान |
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अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाविए। ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए। चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए। मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए। पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए। |
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दरवाज़े तोड़-तोड़ कर
घुस न जाएँ आंधियाँ मकान में, आंगन की अल्पना संभालिए। आई कब आंधियाँ यहाँ बेमौसम शीतकाल में झागदार मेघ उग रहे नर्म धूप के उबाल में छत से फिर कूदे हैं अंधियारे चंद्रमुखी कल्पना संभालिए। आंगन से कक्ष में चली शोरमुखी एक खलबली उपवन-सी आस्था हुई पहले से और जंगली दीवारों पर टंगी हुई पंखकटी प्रार्थना संभालिए। |
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तन-मन-प्रान, मिटे सबके गुमान
एक जलते मकान के समान हुआ आदमी छिन गये बान, गिरी हाथ से कमान एक टूटती कृपान का बयान हुआ आदमी भोर में थकान, फिर शोर में थकान पोर-पोर में थकान पे थकान हुआ आदमी दिन की उठान में था, उड़ता विमान हर शाम किसी चोट का निशान हुआ आदमी। |
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उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे |
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जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से हर पुरवा का झोंका तेरा घुँघरू हर बादल की रिमझिम तेरी भावना हर सावन की बूंद तुम्हारी ही व्यथा हर कोयल की कूक तुम्हारी कल्पना जितनी दूर ख़ुशी हर ग़म से जितनी दूर साज सरगम से जितनी दूर पात पतझर का छाँव से उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से हर पत्ती में तेरा हरियाला बदन हर कलिका के मन में तेरी लालिमा हर डाली में तेरे तन की झाइयाँ हर मंदिर में तेरी ही आराधना जितनी दूर प्यास पनघट से जितनी दूर रूप घूंघट से गागर जितनी दूर लाज की बाँह से उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से कैसे हो तुम, क्या हो, कैसे मैं कहूँ तुमसे दूर अपरिचित फिर भी प्रीत है है इतना मालूम की तुम हर वस्तु में रहते जैसे मानस् में संगीत है जितनी दूर लहर हर तट से जितनी दूर शोख़ियाँ लट से जितनी दूर किनारा टूटी नाव से उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से |
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