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Dark Saint Alaick 20-10-2011 04:33 PM

कतरनें
 
मित्रो ! एक नया सूत्र शुरू कर रहा हूं ! शीर्षक से आपने शायद अंदाजा लगा लिया होगा ! क्या ... नहीं ? लीजिए, मैं ही स्पष्ट कर देता हूं ! इस सूत्र में मेरा कुछ नहीं होगा ! नेट पर इधर-उधर विचरण करते हुए जो कुछ श्रेष्ठ, मनमोहक, पठनीय और रोचक प्रतीत होगा: उसे यहां प्रस्तुत कर दूंगा ! बस, यही इस सूत्र में मेरा योगदान होगा ! ... तो शुरू करते हैं कतरनें एकत्र करने की यात्रा !

Dark Saint Alaick 20-10-2011 04:37 PM

Re: कतरनें
 
सफेद बालों वाली धूप

-पृथ्वी

धूप इन दिनों अपने बालों में फागुन की मेहंदी लगाकर आसमान की छत पर बैठी रहती है ! सहज स्मित के साथ ! सफेद होती लटों के बारे में सोचकर मंद मंद मुस्कुराते, यादों के गन्ने चूसते हुए ! यादें, जिनमें आज भी गुड़ की मिठास और धनिए की कुछ महक बाकी है !

यह थार की धूप है; जिसकी यादों में मावठ अब भी हौले-हौले बरसती है ! सपने नम- नरम बालू को चूमते हुए उड़ते हैं ! हौसले हर दसमी या पून्यू (पूर्णिमा) को पांच भजन पूरते हैं ! आसमान के चौबारे पर खड़ी फागुन की यह धूप देखती है सरसों की पकती बालियों को, चने के किशोर खेतों को, गेहूं के संदली जिस्म को ! किसान को, जिसके मेहनती बोसों, आलिंगनों, उच्छवासों ने खेतों को नख-शिख इतना सुंदर बना दिया है !

यह सोचते ही धूप खिलखिला पड़ती है और यूं ही मेहंदी के कुछ अनघड़ टुकड़े नीचे गिरते हैं और गेहूं के कई खेत मुस्कुराकर धानी हो जाते हैं ! माघ-फागुन की धूप कुछ यूं ही, टुकड़ों टुकड़ों में खेतों को पकाती है !

धूप को पता है कि यही मौसम है, जब प्रेम और मेहनत की कहानियां परवान चढ़नी हैं ! प्रेम खेतों का फसलों से, प्रेम धरा का मेह से, प्रेम हवाओं का खुशबुओं से और मेहनत किसान की ! मेहनत की कहानी खेत से शुरू होती है तो फसल, खलिहान और मंडी पर आकर समाप्त होती है ! या यूं कहें कि नए रूप में शुरू हो जाती है ! सपनों की कुछ किताबें झोले में आती हैं, नये जीवन की हल्दी हाथों पर रचती है और जीवन यूं ही चलता रहता है ज्यूं फागुन की धूप अपने मेहंदी लगे बालों को सुखाती है !

धूप के रेशमी बालों की कालस या घना काला रंग कोहरे, धुंध और बादलों की तरह उड़ता जा रहा है ! दूर देस से आये पखेरूओं की तरहां; यही कोमल गेसू आने वाले महीनों में जेठ की आंधियों से उलझे और रुखे हो जाने हैं यह बात धूप को भी पता है पर फिलहाल तो वह जीवन के इस मोड़ का आनंद ले रही है, जब मौसम बहुत नरम, नम और हरा है ! सफेद बालों वाली धूप, आजकल अपनी सांसों से लिपट गए मौसमों को जीती है !

Dark Saint Alaick 20-10-2011 05:23 PM

Re: कतरनें
 
ख्यालों के बेबहर पंछियों की बेतरतीब उड़ान .... बतकही यूँ भी !


उस दिन किस बारीकी से दिल का वह बंद कोना छुआ तुमने कि कोई सोया दर्द फिर से जाग उठा ...जब तुमने कहा कि कुछ घाव जो सूखे बिना भर जाते हैं, जीवन भर तकलीफ देते हैं और वह अपने पैरों की एडी में छिपा सा हल्का निशान सहला बैठी . उम्र के किस बीते पल में उस स्थान पर वह घाव हुआ था , कभी ललाई लिए एडी से बहता रक्त तो कभी पीले जख्म से रिसता मवाद...हर कुछ दिनों पर अपनी सूरत बदल लेता था . आम जख्म ही होता तो कोई इतना समय , इतने महीने लगता उसे ठीक होने में ...वह तो नासूर ही हो गया था ,डॉक्टर ने कह दिया कुछ देर और करते तो पैर ही काटना पड़ता ... ऑपरेशन टेबल पर बैठी वह रोई नहीं , बड़ी शांति से देखती रही डॉक्टर किस तरह उस जख्म को कैंची लगी रूई से साफ़ करते थे , मवाद बह कर जमा होता रहा वही नीचे एक बर्तन में , वह सिर्फ चुपचाप देखती रही . क्या दर्द नहीं हुआ होगा उसे , होता तो है ही , मगर वह नहीं रोई , सिर्फ देखती रही और डॉक्टर ने कह दिया बहुत हिम्मती है बच्ची और वह सोचती थी कोई निश्चेतक है जो दर्द को इस तरह गुजर जाने देता है ....आज वहां घाव नहीं है , देखने पर कुछ नजर नहीं आता , मगर भीतर खुजली चलने पर वह हाथ से टटोलकर एडी के उस खोखले स्थान को महसूस करती है , उसी जख्म को ....
और वह सोचती रही उन निशानों को , उन जख्मों को , जिनके कोई हल्के से निशान भी ऊपर से नजर नहीं आते थे ....वह जो उसकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था , बिछड़ा था उससे तब , जब्त किया था उसने ,जीवन की रीत सा ही तो हुआ था मिलना और बिछड़ना भी ...
क्यों किया था उसने ऐसा , समन्दर को कितनी लहरों ने छुआ होता ,क्या फर्क पड़ता है ...फिर उस एक लहर से ही शिकवा !! अपने हिस्से का आसमान तो उसने भी छुआ था , फिर क्या था, जो उसके भीतर ऐसा टूटा , बिना निशान भी जिसका दर्द एडी में हुए उस जख्म जैसा ही ....क्यों !!!
उसने खुद को शाबासी दी , एडी के मवाद जैसा कुछ निकला तो नहीं मगर जाने कौन सा निश्चेतक मस्तिष्क का वह हिस्सा शून्य कर गया कि दर्द हँसता- सा गुजर गया ...और अनजाने में उसने प्रेम के लिए अपने ह्रदय के कपाट हमेशा के लिए बंद कर दिए ... वह प्रश्न अनुत्तरित , वह जख्म अनछुआ ही रह जाता , जो उस दिन उसने कहा नहीं होता ...जख्मों का बिना सूखे भर जाना ठीक नहीं होता ....किस खूबी से छुआ था उसने बिना निशान वाले उस जख्म को !
उसने जोर से आँखें बंद कर ली , चीखी -चिल्लाई , मगर वह शांत सा उसकी अंगुली पकडे उसे आईने के सामने खड़ा कर गया ...देखो , यह तुम हो , जिसके भय से चीख कर अपनी आँखें बंद कर लेती हो , उसने उसे वह सब दिखाया जो वह नहीं देखना चाहती थी .... वह भौंचक थी , यह आईने में उसका ही अक्श था , जिस प्रेम को वह दूसरों में ढूंढती थी , नहीं पाने पर झुंझलाती थी , शिकायत करती थी , रोती थी , चीखती थी , वह स्वयं उसमे ही नहीं था ,या कहूँ खोया नहीं था , सूख गया था....जैसे बहते झरने के स्रोत पर कोई पत्थर की शिला अड़ गयी हो ... अब निर्झरणी- सा बहने लगा उसकी अपनी पलकों से ...आह! प्रेम , तुम मुझमे ही छिपे थे , मैंने तुम्हे कहाँ नहीं ढूँढा !
और दे गया सन्देश ,मैं सूरज अपनी धूप सबके लिए एक सी ही तो बिखेरता हूँ , कोई पौधा पत्थरों की ओट बना कर मुरझा जाए तो मेरा क्या कुसूर....मैं ही हूँ सागर , मेरी लहरें साथ साफ़ धुली चमकदार बालू रेत पर सुन्दर शीपियाँ छोड़ देता हूँ किनारे , सडा गला सब बहा ले जाता हूँ , मुझ जैसी गहराई , विशालता तुममे में ना सही , तुम हो प्रेम की कलकल बहती नदिया -सी , कभी शांत , कभी हलचल मचाती ... सडे गले पत्ते , सब अवांछित किनारे पर आ टिकेंगे , मत सोचो कि किसने क्या कहा , क्या समझा जबकि तुम समझती हो तुम क्या हो, तो किसी को समझाने की कोशिश मत करो , उन्हें खुद समझने दो....नदी को नाला समझने वालों की अपनी किस्मत , उनके हिस्से में तलछट ही है ! जो तुमसे नफरत करते हैं , तुम जैसा ही बनना चाह्ते हैं ....क्या- क्या नहीं समझाया उसने , कभी प्यार से , कभी गुस्से से , कभी डांट कर, कभी गले लगा कर !
और वह भरती गयी भीतर से , प्रेम से ! उसने पाया प्रेम कहीं बाहर नहीं ,है उसमे ही है , चीखना , झूटी मूठी शिकायत जैसी शरारतें करना छोड़ा नहीं है अभी उसने , मगर जानती है , प्रेम कही और नहीं है , स्वयं उसके भीतर है ! जीवन क्यारी की महकती बगिया की खुशबू -सा प्रेम ....कस्तूरी मृग की नाभि- सा स्वयं उसमे ही है !

-वाणी

Dark Saint Alaick 24-10-2011 09:45 PM

Re: कतरनें
 
हम बड़े क्यों हो जाते हैं !!!

-वाणी
सस्ता रिचार्ज आजकल के बच्चों को बहुत ललचाता है ...चूँकि sms के द्वारा बात करना फोन कॉल से सस्ता पड़ता है , इसलिए ज्यादा समय आजकल के बच्चों की अंगुलियाँ अपन मोबाइल पर ही थिरकती रहती है , वो चाहे परिवार के बीच हो या दोस्तों के बीच . ..कभी टोक दो उन्हें कि इतना समय टाइप करने में बर्बाद होता है , इतने में फोन ही कर लो ,तो जवाब मिलेगा , ये सस्ता है ...एक हमारे जैसे आलसीराम , फ़ोन तो बेचारा इधर -उधर पड़ा रहता है किसी कोने में , कभी मैसेज टोन सुनाई देने पर ढूंढना पड़ जाता है . इसलिए मायके और ससुराल की सारी खबर बच्चों के माध्यम से ही पता चलती रहती है , हम तो ज़रूरी होने पर ही फोन करते हैं या फिर मिलने पर सारी बात होती है .

इधर बहुत दिनों बाद भतीजा घर आया तो देखा कुछ नाराज , कुछ उदास सा लगा . थोडा कुरेदने पर पता चला कि महाशय इसलिए नाराज़ थी कि दोनों भाई -बहनों की लडाई में मैंने अपनी बेटी का पक्ष ले लिया था . मैंने समझाया कि उस समय वह सही थी , सिर्फ इसलिए , मैं पक्षपात नहीं करती हूँ , जो गलत होता है , उसे ही डांटती हूँ , मगर बेटा सुनने को तैयार नहीं ...
नहीं बुआ , आप दीदी का पक्ष ले रहे थे , जबकि वो गलत थी . इतनी देर में बिटिया रानी उठाकर आ गयी कमरे से बाहर और दोनों में वाद विवाद शुरू हो गया , तब समझ आया कि पिछले कुछ दिनों से दोनों में अबोला चल रहा था . दोनों को ही ये शिकायत , तुमने ऐसा कहा , तुमने वैसा कहा , और बात भी कुछ गंभीर नहीं थी , बस नोट्स के आदान प्रदान को लेकर कुछ ग़लतफ़हमी थी .
मैं बहुत देर तक समझाती रही , मगर उस पर कुछ असर नहीं . वो बस यही कहता रहा कि आप दीदी की मम्मी हैं , इसलिए उसका पक्ष ले रही है . मैंने बहुत समझाने की कोशिश की ,मगर वह सुनने को तैयार नहीं ..आखिर मैंने कह दिया ," अगर तुझे ऐसा लग रहा है कि दीदी ही गलत है , तो छोड़ ना , जाने दे , कौन तेरे सगी बहन है , कौन सी दीदी , किसकी दीदी , चल जाने दे , तू सोच ही मत "...
क्या जादू हुआ इन शब्दों का , भतीजा एक दम से शांत हो गया ...
अरे वाह , ऐसे कैसे , दीदी तो दीदी ही रहेगी , झगडा होने का ये मतलब थोड़े हैं कि दीदी ही नहीं है ...
अब मुझे हंसी आ गयी , फिर क्या परेशानी है !!
दोनों भाई- बहन देर तक आपस में बहस करते रहे , तूने उस दिन ऐसे कहा , वैसे कहा , ऐसा क्यों कहा , वैसा क्यों कहा , मैं घर के काम निपटाते सब सुन रही थी , जब नाश्ता बना कर लेकर आई तो देखा दोनों की आँखों से गंगा- जमना बह रही थी , मन का कलुष भी शायद इनके साथ बह कर निकल गया था ...
दोनों के सिर पर हाथ फेर कर मैंने कहा ," इतना सबकुछ इतने दिनों तक मन में क्यों छिपाए रखा था , पहले ही कह सुन लेते "...दोनों फिर से हंसी मजाक करते हुए नाश्ता करने लगे .
बच्चों के लडाई झगडे इतने से ही तो होते हैं , कुछ दिन कुछ महीने फिर सब कुछ वैसा ही , मगर वही बच्चे जब बड़े हो जाते हैं , तो सबकुछ बदल जाता है , कभी कभी लगता है , हम बड़े ही क्यों हो जाते हैं , वैसे ही बच्चे क्यों नहीं बने रहते ...सुनती हूँ माता -पिता की प्रोपर्टी और विरासत के लिए भाई- बहन एक दूसरे के खून के प्यासे , तो मन उदास हो जाता है .
ये लोंग बड़े क्यों हो जाते हैं !!!! शायद इसलिए ही कहा गया है मेरे भीतर का बच्चा बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है!

कुछ शब्द कैसे जादू करते हैं , जब कोई लगातार नकारात्मक बातें कर रहा हो , एक बार उसकी हाँ में हाँ मिला दीजिये , देखिये उसका असर , बेशक इसके लिए ज़रूरी है दिल का सच्चा होना , और भावनाओं की ईमानदारी ...
" तू जो अच्छा समझे ये तुझपे छोड़ा है " ...वाद विवाद के बाद अक्सर अपने पति और बच्चों को कह देती हूँ , मुझे भी कहा किसी ने, आप भी कभी किसी खास अपने को कह कर तो देखिये!

Dark Saint Alaick 24-10-2011 09:47 PM

Re: कतरनें
 
फैज़ अहमद फैज़ के खत, दानिश इकबाल की आवाज़ और दुख का उजला पक्ष

-विपिन चौधरी


''दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी सहता रहे और खुश भी रहें"। ये पंक्तियाँ फैज़ अहमद फैज़ ने जेल की चारदीवारी में रहते हुऐ अपनी पत्नी को १५ सितम्बर १९५७ को लिखी थी। ख़त के माध्यम से दुनिया के सामने दुख का अनोंखा और उजला पक्ष रखने वाले फैज़ को आज हम उंनकी जन्म शताब्दी पर याद कर रहे है जिसके तहत देश भर में उन्हें अलग -अलग तरीके से उन्हें याद किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली में भी फैज़ की याद को समर्पित कई कार्यक्रम आयोजित किऐ जा रहे हैं । इसी कडी में एक खूबसूरत कार्यक्रम बीती रविवार को इंडिया हबिटैट सेन्टर की खुली छत पर आयोजित किया गया। रंगमंच और रेडियो के दो दिग्गजों दानिश इकबाल और सलीमा राजा ने फैज़ के लगभग ३०-३५ खतों के सार पढ़े। जिस नाटकीय लय में दोनों ने फैज़ के लिखे को अपनी आवाज़ दी वह बेहद दिल ओ दिमाग को सुकून देने के साथ कानो मै भी शहद घोलने वाला रहा, लगभग ढाई घंटें वहाँ मौजुद लोग मुग्ध हो उन्हें सुनते रहे। उस समय पूरा माहौल फैज़मय हो उठा जब इकबाल बानो और शौकत खान जैसे महान गायकों द्वारा गई उनकी तीन गज़लें को भी सुनाया गया ।

१९५० के उस दौर में जब पूरा उपमहाद्वीप राजनीतिक अशांति से गुज़र रहा था, तब इस प्रबुद्ध दम्पति के ज़ीवन में क्या उधल पुधल चल रही थी इसका पता हमें उनके द्वारा लिखे इन पत्रों से मिला। ये पत्र जीवन को तिरछी नज़र से भी देखने का साहस दिखाते हैं। फैज़ अपने पत्रों में अपनी पत्नि से बार-बार यह गिला कर रहे थे की उन्कें जेल मे रहने से उनहें घर और बहार दोनों की जिम्मेदारेयाँ संभालनी पर रही हैं।

जीवन के किसी मोड पर जब इन्सान का सामना दुःख से होता है तो वह लगभग विचार शुन्य हो जाता है। फैज़ के लिये उस खास घडी से उपजे दुःख के अलग मायने थे, तब समझ मे आता है की दुःख को कितनी शायस्तगी से जीया था फैज़ ने। दुख से घबराने वाले और दुख में ढूब जाने वाले हम सतही चीज़ों पर ही विचार करते रह जाते हैं। पर कहतें हैं कि सामान्यता से ठीक उलट जीवन को बेहतर तौर पर जीने का रास्ता कोई विलक्षण बुद्धी वाला ही खुल कर सामने रख सकता है और इसी सोच का सामने रखा फैज़ ने.

फैज़ के पत्रों के जवाब में उनकी प्रबुद्ध ब्रिटिश पत्नी अल्यस फैज़ के जवाब भी उतने ही गहन और माकूल थे। ये सभी ख़त निजी होते हुऐ भी सामाजिक दृष्टी से महताव्पूर्ण है और जीवन को नयी दिशा दिखाने का काम करते है जब जीवन में सरे राह चलते चलते कई तरह की परेशानियाँ हमें घेर लेती हैं तो उस वक़्त में कैसे उनसे पार पाया जा सकता है यह सोचने का विषय है। सबका दुख अलग-अलग होता है और दुख को देखने का नज़रिया भी। ज़ब हमारे लाख चाहते हुऐ भी जब कुछ अज़ीज चीज़ों की परछाई हमारे पास से बहुत दूर चली जाती हैं और जो चीज़े समय की तेज़ रफ़्तार में हमारे हाथ से छुट जाती है उनहें खोने का दर्द हमें बार बार सालता है । कुछ अति संवेदनशील लोगों के लिए दुख एक टानिक का काम भी करता है और यह भी सच है कि दुःख का वातावरण कला में पैनापन ले आता है तभी जब-जब भी समाज में बडे तौर पर विपत्ति आई है तब कला भी सघनता से उभर आई है। जैसे दक्षिण अफ्रीकन देशों की त्रासदी, नाइजीरिया का गृहयुद्ध, भारत-पाक विभाजन, सोवियत-रुस का विखंडन आदि एक बडी त्रासदी के रूप में जब समाज में उभरी तो कला मे पैनापन आया । नोबल पुरस्कार विजेता ब्रिटिश लेखिका डोरोथी लेंसिंग का मानना है "आँसू वास्तव में मोती हैं" और असदुल्ला खान ग़ालिब भी कह गए है "दर्द के फूल भी खिलते है बिखर जाते हैं, जख्म कैसे भी हो कुछ रोज़ में भर जाते है" लेकिन फैज़ ने दुःख -दर्द का जो मनोवाज्ञानिक विश्लेषण किया है वह बेमिसाल है। निजता बहुत अज़ीज़ चीज़ है मगर उससे इतना विस्तार देना भी ताकि उससे बाकी लोग भी सबक ले सके, यह बडी बात है।

भावनाओं का सार, खुशी का उत्साह, अवसाद की अकड़न, चिंता की चिंता, यह सब मस्तिक्ष में ख़ुशी औरउल्लास की भावनाओं की तरह ही एक आसमानी इंद्रधनुष की तरह से हैं जो क्षणभंगुर होता है।

जहाँ तक शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना को खंगाला के बाद यह निष्कर्ष निकला कि मस्तिष्क सिर्फ एक भावनात्मक केन्द्र नहीं है जैसा कि लंबे समय से यह माना जाता रहा है, बल्कि वहां अलग-अलग भावनाओं की सरंचना भी शामिल है। पुरुषों और महिलाओं के दिमाग मे सुख और दुख अलग- अलग तरह से असर डालते है। न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर जोसेफ फोरगस ने इस पर शोध कर यह परिंणाम निकाला कि नाकारात्मक मूड में लोगों की रचनाशीलाता अधिक बढ़ जाती है। पीडा एक सार्वभौमिक प्रेरक तत्व है, जब हम पीडा में उलझे होते हैं तो इससे बाहर आने के उपाय खोजनें लगते हैं और इसके उबरने के लिये अपनी गतिविधियाँ बढा देते हैं यह ठीक ऐसा ही है जैसे दलदल में फसें होनें पर उस से बाहर निकलनें के लिये हाथ-पाँव मारना। यह सच है जब हम दूर खडे होकर अपने दुख की अनुभूति को देखने, परखने और परिभाषित करने की शमता विकसित करेगें तभी दुसरों के दुख में हमारी भागीदारिता बढ सकेगी। इस मामले में कई संवेदनशील विभूतियों की तरह फैज़ भी धनी थे तभी वे दुख का सटीक विश्लेषण कर सके।

बहरहाल फैज़ अपने इसी खत में आगे लिखते है

"दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी रहता रहे और खुश भी रहें। दुख और ना-खुशी खारिज़े चीज़ें हैं जो हमारी या हादसे की तरह बाहर से वारिद होते है, जैसे हमारी मौजुदा जुदाई हैं। या जैसे मेरे भाई की मौत है ,,, लेकिन नाखुशी जो इस दर्द से पैदा होती है अपने अंदर की चीज़ है ये अपने अंदर भी बैठी पनपती रहती है,,,और अगर आदमी एतीहात ना करे तो पुरी शक्सियत पर काबू पा लेती है,,,दुख दर्द से तो कोई बचाव नहीं ,,,लेकिन ना खुशी पर घल्बा पाया जा सकता है,,,बशर्त की आदमी किसी ऐसी चीज़ से लौ लगा ले की जिसकी खातिर जिंदा रहना अच्छा लगे"।

Dark Saint Alaick 24-10-2011 09:52 PM

Re: कतरनें
 
एक किस्सा....

-अशोक पांडे

फिर उसने कहा .....अल्लाह तुम पर मेहरबान हो! उसका करम तुम्हें नसीब हो!
एक दिन, शेख अल-जुनैद यात्रा पर निकल पड़े। और चलते-चलते उन्हें प्यास ने आ घेरा। वे व्याकुल हो गये। तभी उन्हें एक कुआं दिखा, जो इतना गहरा था कि उससे पानी निकालना मुमकिन न था। वहां कोई रस्सी-बाल्टी भी न थी। सो उन्होंने अपनी पगड़ी खोली और साफे को कुएं में लटकाया। उसका एक छोर किसी कदर कुएं के पानी तक जा पहुंचा।
वे बार बार साफे को इसी तरह कुएं के भीतर लटकाते फिर उसे बाहर खींच कर अपने मुंह में निचोड़ते।
तभी एक देहाती वहां आया और उसने उनसे कहा-
अरे, तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? पानी से कहो कि ऊपर आ जाये। फिर तुम पानी अपने चुल्लू से पी लो।´
ऐसा कह कर वह देहाती कुएं के जगत तक गया और उसने पानी से कहा-
`अल्लाह के नाम पर तू ऊपर आ जा!´ और पानी ऊपर आ गया। और फिर शेख अल-जुनैद और उस देहाती ने पानी पिया।
प्यास बुझाने के बाद शेख अल-जुनैद ने उस देहाती को देखा और उससे पूछा-
`तुम कौन हो ?´
`अल्लाह ताला का बनाया एक बंदा।´ उसने जवाब दिया।
`और तुम्हारा शेख कौन है?´ अल-ज़ुनैद ने उससे पूछा।
`मेरा शेख है .....अल-जुनैद! हालांकि –आह! अभी तक मेरी आंखों ने उन्हें कभी देखा नहीं।´ गांव वाले ने जवाब दिया।
`फिर तुम्हारे पास ऐसी ताकत कैसे आयी?´ शेख ने उससे सवाल किया।
`अपने शेख पर मेरे यकीन की वजह से!´ उस सीधे-सादे देहाती ने जवाब दिया।
और चला गया!

abhisays 24-10-2011 11:10 PM

Re: कतरनें
 
बहुत ही उम्दा कतरने हैं. :fantastic:

Dark Saint Alaick 25-10-2011 04:06 PM

Re: कतरनें
 
लाल किले में भी होता था दिवाली का जश्न


‘‘दोनों फिरकों के लोग एक दूसरे के धार्मिक त्यौहारों में शिकरत करते थे। विभिन्न धर्म के पड़ोसियों के बीच अमन चैन से रहने का चलन था। बादशाह इन मामलों में जिंदगी भर उसूलों का पालन करते थे। वे किले के अठपहलू बुर्ज में बैठकर हिंदुओं और मुसलमानों के त्यौहारों की तैयारियों और तमाशों को देखते थे। इस तरह से भलाई की भावनाएं बढती थीं।’’ ये पंक्तियां एन्ड्रयूज की हैं, जिनमें दिल्ली के बादशाहों की दिवाली की एक झलक मिलती है। उर्दू अकादमी के सचिव अनीस आजमी कहते हैं ‘‘बहुत मेलजोल का दौर था। दीवाली और नवरोज की तो जैसे धूम ही मच जाती थी। शाम को जश्न का नजारा देखने के लिए बादशाह किले के झरोखे में आते थे। बेगमें पर्दों से जश्न देखती थीं।’’

इतिहासकार फिरोज बख्त ने कहा, ‘‘चांदनी चौक के कटरा नील में उन दिनों भी पूजा की कई दुकानें थीं और वहां से पूजा का सामान अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के पास भेजा जाता था। किले के अंदर भी दिवाली की रौनक होती थी। कटरा नील में ही मामचंद की दुकान है जहां से बेगम जीनत महल के लिए श्रृंगार का सामान आलता, मेहंदी, उबटन आदि जाता था। दिवाली के लिए खास तौर पर सामान भेजा जाता था। मामचंद के परदादा हकीम सौदागरमल यह सामान ले कर जाते थे।’’

महेश्वर दयाल के मुताबिक, ‘‘दशहरे के बाद से ही दिवाली की तैयारी शुरू हो जाती थी। घरों की सफाई, पकवान, दुकानों की सजावट, नए बहीखाते....सब कुछ सिलसिलेवार तरीके से होता था। बाजार में खील, खांड के खिलौने, मिठाइयों और सूखे मेवों की खरीदी चरम पर होती। हिन्दू और मुसलमान मिल कर दिवाली मनाते थे। उन दिनों एक आने के 50 मिट्टी के दीए और चंद आनों का सेर भर सरसों का तेल मिलता था। दीये सरसों के तेल से जलते थे और मोमबत्ती केवल अमीर तथा रईस जलाते थे। किले में भी दीवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी। बादशाह को सोने, चांदी और सात तरह के अनाजों के मिश्रण ‘सतनाजे’ से तौला जाता था और बाद में इसे गरीबों में बांट दिया जाता था। सुबह गुसल करके बादशाह लिबास बदलते थे और नजराना कबूल करते थे। रात को किले की बुर्जियां रौशन की जाती थीं। खील, बताशे और खांड के खिलौने, हटड़ियां और गन्ने अमीरों और रईसों में बांटे जाते थे। पटरियां और दुकाने सामान से अटी रहती थीं। हलवाइयों की दिवाली के दौरान ही साल भर की कमाई हो जाती थी। सवा रूपये में कागजी बादाम आता था। यही भाव भुने हुए चिलगोजे का था। सेरों सूखा मेवा घर लाया जाता था। खाने के लिए भी और बांटने के लिए भी। शायद ही कोई मुफलिस और फकीर हो जिसे दिवाली के रोज मिठाई खाने को न मिलती हो।......दिवाली पर जुआ भी खेला जाता था और शहर में हिजड़े ‘छल्ला दे रे मोरे साईं’ गाते फिरते और पैसे लेते।’’ ( महेश्वर दयाल की किताब ‘दिल्ली जो एक शहर है’ का एक अंश)

Dark Saint Alaick 27-10-2011 10:23 AM

Re: कतरनें
 
रोशन है कायनात दीवाली की रात है,
अपने वतन की अलग ही कुछ बात है.

यहाँ हर दिल में ख़ास रौशनी होती है.
प्रेम - मोहब्बत भरे सबके जज्बात है.

मंदिर - मस्जिद- गिरजाघर भी बोले,
एक ही मिट्टी से हमारी मुलाक़ात है.

जाति - जमात में जो बांटे हमसब को,
कह दो हमारी एक हिन्दुस्तानी जात है.

भ्रष्टाचार मिटाने को लड़ रहे हैं हमसब,
पर हम पर ये हो रहा कैसा आघात है ?

अब उठो जागो ऐ मेरे वतन के लोगों,
जम्हूरियत की अब तो निकली बरात है


-रोहतास (सासाराम, बिहार)

Dark Saint Alaick 29-10-2011 01:15 PM

Re: कतरनें
 
'गटारी' सेलिब्रेशन

कहा जाता है कि शराब ऐसी चीज है जिसे लेकर शायर लोग तनिक ज्यादा ही भावुक होते हैं, कोई शराब को खराब बताये तो अगिया बैताल हो जाते हैं। ताना मारते हुए कह भी देंगे कि तुम क्या जानों शराब क्या चीज है। आये तो हो बड़े शुचितावादी बनकर, लेकिन जिस सड़क पर खड़े हो उसमें आबकारी टैक्स से मिले पैसों का भी हिस्सा है। न जाने देश के कितने बांध, कितनी सड़के शराबियों के टैक्स देने के बल पर बने हैं और अब भी बने जा रहे हैं।

इतना ही नहीं, कुछ अति संवेदनशील कवि तो तमाम मौजूदा चीजों से तुलना कर साबित करने लगेंगे कि शराब बहुत बढ़िया चीज है, इसे वो न समझो, फलां न जानो। ऐसा ही किसी शायर ने कभी कहा था कि - अरे यह मय है मय, मग़स ( मधुमक्खी) की कै तो नहीं।

बहरहाल इस वक्त जब मैं यह लेख लिख रहा हूं तब यहां मुंबई तमाम शराब की दुकानें, बार, पब गुलज़ार हैं। मौका है विशेष शराब सेवन का जिसे कि स्थानीय भाषा में 'गटारी' कहा जाता है। यह गटारी अक्सर श्रावण महीने से जोड़कर देखा जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि श्रावण महीने में मांस-मदिरा आदि का सेवन नहीं करना चाहिये। दाढ़ी और बाल काटने से भी बचने की कोशिश होती है। इसलिये जो पियक्कड़ होते हैं वह श्रावण आने के पहले ही जुट लेते हैं क्योंकि अगले एक महीने तक सुखाड़ रहेगा। यह अलग बात है कि कुछ लोग 'गटारी' वाले दिन को एक्सट्रा लेने के बाद पूरे श्रावण महिने में भी डोज लेते रहने से नहीं चूकते। उनका डोज मिस नहीं होना चाहिये। कई शराबी तो यह कहते पाये जाते हैं कि न पिउं तो हाथ पैर कांपने लगते हैं। कोई काम नहीं होता :)

दूसरी ओर 'गटारी' शब्द को लेकर भी बड़ी मौजूं बात सुनने में आई है जिसके अनुसार शराबी इसे गटारी अमावस्या इसलिये कहते हैं क्योंकि इस दिन ढेर सारी शराब गटक कर गटर में गिरने का दिन होता है। यह अलग बात है कि मुंबई के गटर अब कंक्रीट के जंगलों से ढंक चुके हैं। इस गटारी अमावस्या के बारे में यहां तक प्रचलित है कि कुछ कम्पनियों में वर्करों को इस दिन के लिये विशेष भत्ता दिया जाता है। उस भत्ते को 'खरची' का नाम दिया जाता है। कहीं भी गटारी शब्द का उल्लेख नहीं होता। बाद में मिली हुई इस 'खरची' को वर्कर की तनख्वाह में से एडजस्ट कर लिया जाता है। यह सिलसिला काफी पहले से चला आ रहा है।

इस गटारी के कुछ साइड इफेक्ट भी दिखते हैं जैसे कि थर्ड शिफ्ट में काम करने वालों की संख्या में उस दिन भारी कमी आती है। लोग एब्सेंट ज्यादा होते हैं। प्रॉडक्शन घटता है। निर्माण क्षेत्र से जुड़े कार्यों पर भी असर पड़ता है। दूसरी ओर पुलिस को भी काफी मुस्तैदी रखनी पड़ती है। बार आदि अलग से टेबल लगवाते हैं या कुछ इंतजाम करते हैं। कुल मिलाकर वह सारा कुछ होता है जो शराब के धंधे, उससे जुड़े फायदों नफा नुकसान आदि से जुड़ा होता है।

एक चलन यह भी देखा गया है कि पहले जहां गटारी केवल एक शाम की होती थी अब उसमें तीन चार शामें होने लगी हैं। पीने वालों की संख्या बदस्तूर बढ़ती जा रही है। बस मौका होना चाहिये। वैसे भी माना जाता है कि पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये :)

चलते चलते कुछ शराब से जुड़ी पंक्तियां । जहां तक मैं समझता हूँ शराब अच्छी चीज है या बुरी यह अलग बात है लेकिन शराब को लेकर जो शेर बने हैं वो काफी दिलकश हैं। मसलन,

देखा किये वो मस्त निगाहों से बार बार
जब तक शराब आये, कई दौर हो गये

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मेरी तबाही का इल्जाम अब शराब पे है
मैं करता भी क्या तुम पे आ रही थी बात


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रह गई जाम में अंगड़ाइयां लेके शराब
हमसे मांगी न गई उनसे पिलाई न गई


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जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता जहां पर खुदा ना
हो

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फिलहाल प्यासा फिल्म देख रहा हूँ। गजब की पंक्तियां हैं इस फिल्म में।

आज सजन मोहे अंग लगा लो जनम सफल हो जाय......ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है.....हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा दें तो......वाह साहिर लुधियानवी.....वाह !

-सतीश पंचम


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