आकांक्षा पारे की रचनाएँ
जन्म: 18 दिसंबर 1976
उपनाम जन्म स्थान: जबलपुर, मध्य प्रदेश, भारत कुछ प्रमुख कृतियाँ: एक ट्कड़ा आसमान विविध कहानी पर ’रमाकांत स्मृति’ पुरस्कार (2011) |
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औरत लेती है लोहा हर रोज़ सड़क पर, बस में और हर जगह पाए जाने वाले आशिकों से उसका मन हो जाता है लोहे का बचनी नहीं संवेदनाएँ बड़े शहर की भाग-दौड़ के बीच लोहे के चने चबाने जैसा है दफ़्तर और घर के बीच का संतुलन कर जाती है वह यह भी आसानी से जैसे लोहे पर चढ़ाई जाती है सान उसी तरह वह भी हमेशा चढ़ी रहती है हाल पर इतना लोहा होने के बावजूद एक नन्ही किलकारी तोड़ देती है दम उसकी गुनगुनी कोख में क्योंकि डॉक्टर कहते हैं ख़ून में लोहे की कमी थी। |
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कुछ न कह कर भी बहुत कुछ कह डालती हैं उनमें दिखाई नहीं पड़ती मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें फिर भी वे सहेजी जाती हैं एक अविस्मरणीय दस्तावेज़ के रूप में ऐसी ही तुम्हारी एक तस्वीर सहेज रखी है मैंने मैं चाहती हूँ उभर आएँ उस पर तुम्हारे मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें ताकि तस्वीर की जगह सहेज सकूँ उन्हें और तुम नज़र आओ उस निश्छल बच्चे की तरह जिस के मुँह पर दूध की कुछ बूंदे अब भी बाक़ी हैं। |
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करती हूँ कोशिश निकाल सकूँ मन से तुम्हें न जाने कब यादें बन जाती हैं तुम्हारी ख़ुशी के गीत। घोर निराशा के क्षण में रीते मन के साथ संघर्ष की पगडंडियों पर चुभता है असफलता का कोई काँटा अचानक उसी क्षण जान नहीं पाती कैसे यादें बन जाती हैं तुम्हारी धैर्य के पल। डबडबाई आँखों को रखती हूँ खुला उस पल यादें बन जाती हैं तुम्हारी दुख में गाई जाने वाली प्रार्थना। |
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अपनी कहानियों में मैंने उतारा तुम्हारे चरित्र को उभार नहीं पाई उसमें तुम्हारा व्यक्तित्व। बांधना चाहा कविताओं में रूप तुम्हारा पर शब्दों के दायरे में न आ सका तुम्हारा मन इस बार रंगों और तूलिका से उकेर दी मैंने तुम्हारी देह असफलता ही मेरी नियति है तभी सूनी है वह तुम्हारी आत्मा के बिन |
Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
तुम्हें भूलने की कोशिश के साथ लौटी हूँ इस बार मगर तुम्हारी यादें चली आई हैं सौंधी खुश्बू वाली मिट्टी साथ चली आती है जैसे तलवों में चिपक कर पतलून के मोड़ में दुबक कर बैठी रेत की तरह साथ चले आए हैं तुम्हारे स्मृतियों के मोती। |
Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
इस बार मिलने आओ तो फूलों के साथ र्दद भी लेते आना बांटेंगे, बैठकर बतियाएंगे मैं भी कह दूंगी सब मन की। इस बार मिलने आओ तो जूतों के साथ तनाव भी बाहर छोड़ आना मैं कांधे पे तुम्हारे रखकर सिर सुनाऊंगी रात का सपना। इस बार मिलने आओ तो आने की मुश्किलों के साथ दफ़्तर के किस्से मत सुनाना तुम छेडऩा संगीत मैं देखूंगी तुम्हारे संग चांद का धीरे-धीरे आना। इस बार मिलने आओ तो वक़्त मुट्ठी में भर लाना मैं कस कर भींच लूंगी तुम्हारे हाथ हम दोनों संभाल लेंगे फिसलता हुआ वक़्त यदि असम्भव हो इसमें से कुछ भी मत सोचना कुछ भी मैं इंतज़ार करूंगी फिर भी। |
Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
श्रेष्ठ कविताएं हैं सिकंदरजी ! पढ़ कर अच्छा लगा, लेकिन वर्णित परिस्थियां कहीं-कहीं व्यथित भी करती हैं ! समाज की स्थिति वाकई सोचनीय है, कवयित्री उसी से हमें रू-ब-रू कराती है ! बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बधाई !
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
:fantastic:एक और उत्तम प्रस्तुति सिकंदर जी की ओर से.
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