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-   -   सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी) (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=11498)

rajnish manga 28-12-2013 08:57 PM

सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)
 
सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)
Sukhanvar (Great Urdu Poets & their Poetry)
एक झलक



मित्रो, हम इस सूत्र में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त ग़ज़लों, नज्मों और कविताओं को प्रस्तुत करेंगे. आशा है इस आयोजन में मुझे आपका सहयोग पहले की तरह ही मिलता रहेगा. सूत्र की शुरुआत हम फैज़ अहमद 'फैज़' की एक मशहूर ग़ज़ल से कर रहे हैं.

rajnish manga 28-12-2013 09:03 PM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
लौह-ओ-कलम
फैज़ अहमद 'फैज़'
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/i...iZ0nu5fJZNW33Q
हम परवरिश-ऐ-लोह-ओ-कलम करते रहेंगे,
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे।


असबाब-ऐ-ग़म -ऐ-अश्क़ बहम करते रहेंगे,
वीरानी-ऐ-दौराँ पे करम करते रहेंगे।


हाँ! तल्खी-ऐ अय्याम अभी और बढेगी,
हाँ! अहल-ऐ-सितम मश्क-ऐ-सितम करते रहेंगे।


मन्ज़ूर ये तल्खी, ये सितम हमको गवारा,
दम है तो मदावा-ए-अलम करते रहेंगे।


मैखाना सलामत है तो हम सुर्खी-ऐ-मय से,
तज़इन दर-ओ-बाम-ऐ-हरम करते रहेंगे।


बाक़ी है लहू दिल में तो हर अश्क़ से पैदा,
रंग-ऐ-लब-ओ-रुख़सार-ऐ-सनम करते रहेंगे।


इक तर्ज़-ऐ-तगाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक,
इक अर्ज़-ऐ-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे।


मेरा फ़ोरम के सभी मित्रों से निवेदन है कि वे फैज़ साहब के कलाम को निम्नलिखित सूत्र पर और विस्तारपूर्वक पढ़ सकते हैं और उसका आनन्द ले सकते हैं:

http://myhindiforum.com/showthread.php?t=5187

Dr.Shree Vijay 28-12-2013 09:51 PM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
Quote:

Originally Posted by rajnish manga (Post 437827)

मैखाना सलामत है तो हम सुर्खी-ऐ-मय से,
तज़इन दर-ओ-बाम-ऐ-हरम करते रहेंगे।


फैज़ अहमद 'फैज़' साहब की
बेहतरीन नज्मो मेसे एक .........


dipu 29-12-2013 07:23 AM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
great

rajnish manga 29-12-2013 10:28 AM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
Quote:

Originally Posted by dr.shree vijay (Post 437906)

फैज़ अहमद 'फैज़' साहब की
बेहतरीन नज्मो मेसे एक .........


Quote:

Originally Posted by dipu (Post 437945)
great


सूत्र को पसंद करने के लिये डॉ. श्री विजय और दीपू जी का हार्दिक धन्यवाद.

rajnish manga 29-12-2013 10:38 AM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था के तू है तो दरखशां है हयात

तेरा ग़म है तो ग़मे-दह्र का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सवात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूं न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक़ बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-बजा बिकते हुए कूचाओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीब बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

rajnish manga 03-01-2014 10:09 PM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
परवीन शाकिर (Parveen Shakir)
(जन्म: 24 नवंबर 1952. निधन: 26 दिसंबर 1994)
कुछ प्रमुख कृतियाँ:खुली आँखों में सपना, ख़ुशबू, सदबर्ग, इन्कार, रहमतों की बारिश, ख़ुद-कलामी,

rajnish manga 03-01-2014 10:12 PM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
ग़ज़ल: रफ़ाक़त

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी

सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों
मैं अपने घर के अँधेरों को लौट आऊँगी

बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी

वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किससे रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी

वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उसके इशारों पे सर झुकाऊँगी

बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी

अब उसका फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुनगुनाऊँगी

जवाज़ ढूँढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उसको भूल जाऊँगी


rajnish manga 03-01-2014 10:16 PM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
ग़ज़ल
परवीन शाकिर
मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से

बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे

इस बार जो इन्धन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शजर से

मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से

ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से

बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से

पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से

निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से



sombirnaamdev 03-01-2014 11:12 PM

Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
 
सुंदर ग़ज़लों से सुसज्जित के एक बेहतरीन सूत्र बधाई स्वीकार करें रजनीश जी जारी रखें

आपका अपना
सोमबीर नामदेव


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