दुष्यंत कुमार की कविताएँ
दुश्यन्त कुमार की कविताएँ आधुनिक हिन्दी के कवियों में दुश्यन्त कुमार एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। अपनी अल्प आयु में भी जितना कुछ इन्होंने सृजन किया, वह इन्हें हिन्दी जगत में सदा के लिए प्रतिस्थापित करने के लिए काफ़ी है। मेरी कोशिश होगी कि इनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी यहाँ पोस्ट कर सकूँ। |
Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। -दुश्यन्त कुमार |
Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
एक अच्छे सूत्र की सुरुवात के लिए बधाई
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
बहुत ही उम्दा रचना है दुष्यंत जी की,
ऐसी सुंदर रचनाओं की प्रस्तुती के लिए अनूप जी का आभार ....... |
Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
कहाँ तो तय था कैसे मंजर खंडहर बचे हुए हैं जो शहतीर है ज़िंदगानी का कोई मकसद मुक्तक आज सड़कों पर लिखे हैं मत कहो, आकाश में धूप के पाँव गुच्छे भर अमलतास सूर्य का स्वागत आवाजों के घेरे जलते हुए वन का वसन्त आज सड़कों पर आग जलती रहे एक आशीर्वाद आग जलनी चाहिए मापदण्ड बदलो कहीं पे धूप की चादर बाढ़ की संभावनाएँ इस नदी की धार में हो गई है पीर पर्वत-सी |
Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
मेरा हौसला बढ़ाने के लिए आप सब का आभार।
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें उम्र भर के लिए। न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए। खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही, कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए। वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए। तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर को, ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए। जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए। - दुश्यन्त कुमार |
Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
कैसे मंजर सामने आने लगें हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कँवल के फ़ूल कुम्हलाने लगे हैं। वो सलीबों के करीब आए तो हमको, कायदे-कानून समझाने लगे हैं। एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है, जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं। मछलियों में अब खलबली है, अब सफ़ीने, उस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं। मौलवी से डाँट खा कर अहले मकतब, फ़िर उसी आयत को दोहराने लगे हैं। अब नयी तहजीब के पेशे-नजर हम, आदमी को भूनकर खाने लगे हैं। - दुश्यन्त कुमार |
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जन्म: १ सितम्बर १९३३, ग्राम: राजपुर, जिला: बिजनौर, उ०प्र० मृत्यु: ३० दिसम्बर १९७५ शिक्षा: एम०ए० (हिन्दी), इलाहाबाद पेशा: कवि, नाटक-कार, लेखक, शायर, अनुवादक वृत्ति : सरकारी नौकरी और खेती प्रकाशित रचनाएं : काव्यसंग्रह : सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का वसन्त। काव्य नाटक : एक कण्ठ विषपायी उपन्यास : छोटे-छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष, दुहरी जिंदगी। एकांकी : मन के कोण नाटक :और मसीहा मर गया गज़ल-संग्रह : साये में धूप कुछ आलोचनात्म पुस्तकें, तथा कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद। देहान्त : ३० दिसम्बर, १९७५ दुष्यंत कुमार त्यागी (१९३३-१९७५) एक हिंदी कवि और ग़ज़लकार थे । इन्होंने 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबों का सृजन किया। दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के बिजनौर के रहने वाले थे । जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील (तरक्कीपसंद) शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था । हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था । उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे । इस समय सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की । |
Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
grrrrrrrrrrrrr8 share friend....मिजाज मस्त हो गया ...:bravo:
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