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-   -   ख़्वाहिश की गठरी (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=3522)

Dr. Rakesh Srivastava 16-10-2011 09:04 AM

ख़्वाहिश की गठरी
 
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया .
जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ;
यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया .
इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ;
कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया .
जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ;
मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया .
आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ;
एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया .
जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ;
दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया .
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .


रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव
विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ.
शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली )

Sikandar_Khan 16-10-2011 09:15 AM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
Quote:

Originally Posted by dr. Rakesh srivastava (Post 112852)
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया
:bravo::bravo:
जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ;
यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया .
इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ;
कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया .
जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ;
मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया .
आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ;
एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया .
जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ;
दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया .
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .


राकेश जी
बहुत ही खूबसूरत तहेदिल से दाद कुबूल करेँ |

abhisays 16-10-2011 09:17 AM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
[QUOTE=Dr. Rakesh Srivastava;112852]
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .
QUOTE]


पूंजीवादी व्यवस्था पर गहरी चोट. एक बार फिर से लाजवाब कविता देने के आपका बहुत बहुत आभार. :fantastic::fantastic::fantastic:

ndhebar 16-10-2011 09:59 AM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
Quote:

Originally Posted by Dr. Rakesh Srivastava (Post 112852)
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया .

रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव
विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ.
शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली )

क्या लिखते हैं प्रभु
एक और मास्टरस्ट्रोक :bravo::bravo:

Big boss 16-10-2011 10:54 AM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
Quote:

Originally Posted by dr. Rakesh srivastava (Post 112852)
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया .
जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ;
यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया .
इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ;
कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया .
जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ;
मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया .
आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ;
एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया .
जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ;
दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया .
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .

रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव
विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ.
शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली )

बहुत ही खूब माशा अल्लाह क्या लाजवाब लिखते हैं आप

singhtheking 16-10-2011 10:57 AM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
nice poem. you seem to be a good poet. keep it up. :bravo::bravo::bravo:

roshan 16-10-2011 08:25 PM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
आजकल इस तरह के नयी रचनाये काफी कम देखने को मिलती है. राकेश जी :bravo:

Dr. Rakesh Srivastava 16-10-2011 10:40 PM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
सिकंदर जी ,
आपका शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava 16-10-2011 10:41 PM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
Abhisays जी ,
आपका शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava 16-10-2011 10:43 PM

Re: ख़्वाहिश की गठरी
 
n d hebar जी ,
आपका शुक्रिया .


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