सरदर्द का इलाज उर्फ़ भक्त का समर्पण
सरदर्द का इलाज उर्फ़ भक्त का समर्पण
- ओशो कथा कहती है कि श्री कृष्ण भगवान ने जब सिरदर्द मिटाने के लिए भक्तों से उनकी चरण धूलि मांगी, तब सबने इंकार कर दिया, लेकिन गोपियों ने चरणधूलि दी।प्रभु, इस प्रसंग का रहस्य बताने की कृपा करें। रहस्य बिलकुल साफ है। बताने की कोई जरूरत नहीं है। सीधा-सीधा है। दूसरे डरे होंगे। दूसरों की अस्मिता रही होगी, अहंकार रहा होगा। अब यह बड़े मजे की बात है। अहंकार को विनम्र होने का पागलपन होता है। अहंकार को ही विनम्रहोने का खयाल होता है। तो जो दूसरे रहे होंगे, उन्होंने कहा, पैर की धूलभगवान के लिए? कभी नहीं। कहां भगवान, कहां हम! हम तो क्षुद्र हैं, तुमविराट हो। हम तो ना-कुछ हैं, तुम सब कुछ हो। लेकिन इस ना-कुछ में भी घोषणाहो रही है कि हम हैं, छोटे हैं। हमारे पैर की धूल तुम्हारे सिर पर? पापलगेगा, नर्क में पड़ेंगे। लेकिन गोपियां जो सच में ही ना-कुछ हैं, उन्होंने कहा हमारे पैर कहां? हम कहां? हमारे पैर की धूल भी तुम्हारे हीपैर की धूल है। और यह धूल भी कहां? तुम ही हो। और फिर तुम्हारी आज्ञा हो गईतो हम बीच में बाधा देनेवाले कौन? हम कौन हैं जो कहें नहीं? प्रेम की विनम्रता बड़ी अलग है। ज्ञान की विनम्रता थोथी है, धोखे से भरी है।ज्ञानी जब तुमसे कहता है, हम तो आपके पैर की धूल हैं, तुम मान मत लेना।जरा उसकी आंख में देखना। वह कह रहा है, समझे कि नहीं, कि हम महाविनम्र हैं! >>> |
Re: सरदर्द का इलाज उर्फ़ भक्त का समर्पण
तुम यह मत कहना कि ठीक कहते हैं आप; बिलकुल सही कहते हैं आप। तो वह नाराजहो जाएगा और फिर कभी तुम्हारी तरफ देखेगा भी नहीं। वह सुनना चाहता है कितुम कहो, कि अरे! आप और पैर की धूल? नहीं-नहीं। आप तो पूज्यपाद! आप तोमहान, आपकी विनम्रता महान। वह यह सुनना चाहता है कि तुम कहो कि आप महान।
दूसरों ने इंकार कर दिया होगा। कृष्ण के सिर में दर्द है, इससे उन्हेंथोड़े ही मतलब है! उन्हें अपने नर्क की पड़ी है, कि पैर की धूल दे दें और फंसजाएं। यह भी खूब आदमी फंसाने के उपाय कर रहा है! अभी पैर की धूल दे दें, फिर फंसें खुद। तुम्हारा तो सिरदर्द ठीक हो, हम नर्क में सड़ें। नहीं, यहपाप हमसे न हो सकेगा। इनको अपनी फिक्र है। गोपियों को अपना पता ही नहीं है।इसलिए उन्होंने कहा, पैर की धूल तो पैर की धूल। इसे थोड़ा समझ लेना। प्रेम के अतिरिक्त और कोई विनम्रता नहीं है। गोपियां तो समझती हैं सब लीलाउसकी है। यह सिरदर्द उसकी लीला, यह पैर, यह पैर की धूल उसकी लीला। वहीमांगता है। उसकी ही चीज देने में हमें क्या अड़चन है? तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी यह भगवान, जिसने दुनिया बनाई हो–यजदां, स्रष्टा; कभी-कभी हंसता तो होगा; कैसा दिलचस्प जुर्म किया! यह दुनिया बनाकर कैसा मजेदार पाप किया! >>> |
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प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहांशिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है। सब शिष्टाचारके नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम महानियम है।सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; किसी और नियम की कोईजरूरत नहीं है।
ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां हीअलग हैं। वे दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। जिसको हमज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती-रत्ती हिसाब लगाता है। कर्म, कर्मफल, क्याकरूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा। भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे। पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता है। वहकहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप हीकरेंगे। भक्त का समर्पण आमूल है। मदहोशी! बेहोशी! परमात्मा के हाथ में अपनाहाथ पूरी तरह दे देना–बेशर्त। वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं ने–सर जोड़कर बदनामकिया–खूब सिर मारा और बदनाम किया, तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फूलों केरंग जैसी शराब को वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न होती। >>> |
Re: सरदर्द का इलाज उर्फ़ भक्त का समर्पण
वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया
वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी भक्त तो शराबी जैसा है। ज्ञानी हिसाबी-किताबी है। दोनों के गणित अलग-अलग हैं। भक्त तो जानता ही नहीं क्या बुरा है, क्या भला है। भक्त तो कहता है, जो भगवान करे वही भला। जो मैं करना चाहूं वह बुरा, और जो भगवान करे वह भला। तो गोपियों ने सोचा होगा, भगवान कहते हैं अपनी चरण-रज दे दो, उन्होंने जल्दी से दे दी होगी। भगवान कराता है तो भला ही कराता होगा। उनका समर्पण समग्र है। ** |
Re: सरदर्द का इलाज उर्फ़ भक्त का समर्पण
निश्छल प्रेम के बारे में ये जो लेख है बहुत गहन है भाई भगवन से भक्त का सच्चा प्रेम कोई गोपियों से सीखे उनकी बराबरी तो कोई नहीं कर सकता। किन्तु हमारे मानव समाज की बात करें तो शिष्टाचार थोड़ा ही सही, आ ही जाता है जैसे की एक माँ औऱ बच्चे का प्रेम। .. एक माँ अपने बच्चे से अनहद प्यार करती है उसके लिए सब सुख न्योछावर करती है किन्तु एक उम्र के बाद कुछ शिष्टाचार का पालन जरुरी होता है
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