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Dark Saint Alaick 17-07-2012 10:29 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
प्रकृति बदल देती है प्रवृत्ति

राजकुमार स्थावर सर्ग की उच्छृंखल वृत्तियों और उद्दंडता से जितना उनके पिता राजा दुमिल दुखी थे, उससे अधिक वहां की प्रजा थी। वह हर वक्त अपनी उच्छृंखल वृत्तियों और उद्दंडता में ही मगन रहते थे। महाराज दुमिल ने उनकी इस प्रवृत्ति को दूर करने के लिए एक से बढ़कर एक विद्वान बुलाए, अच्छे-अच्छे नैतिक उपदेशों के लिए उस समय के नामी-गरामी वक्ताओं की भी व्यवस्था की, किंतु जिस तरह चिकने घड़े पर पानी का प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार राजकुमार स्थावर सर्ग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनका वही रवैया जारी रहा। अंत में महाराज दुमिल ने पूज्यपाद अश्वत्थ की शरण ली और उनसे आग्रह किया कि जो भी हो, वे उन्हें इस परेशानी से मुक्त करें। प्रजा के हित को ध्यान में रखकर महर्षि अश्वत्थ ने राजकुमार को ठीक करने का आश्वासन तो दे दिया, पर उन्होंने महाराज से स्पष्ट कह दिया कि उनकी किसी भी योजना में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं की जानी चाहिए। महाराज दुमिल ने उस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। महर्षि अश्वत्थ की आज्ञा से सर्वप्रथम स्थावर सर्ग की राज्य वृत्ति रोक दी गई। उनके पास की सारी संपत्ति छीन ली गई और सम्राट की ओर से उन्हें बंदी बनाकर अप-द्वीप पर निष्कासित कर दिया गया। यह वह स्थान था, जहां न तो पर्याप्त भोजन ही उपलब्ध था और न ही जल। अतिवृष्टि के कारण रात में सो सकना कठिन था। वहां दिन में हरदम हिंसक जंतुओं का भय बना रहता था। कुछ ही दिन में स्थावर सर्ग सूख कर कांटा हो गए। अब तक तो उनके मन में जो अहंकार था, वह प्रकृति की कठोर यातनाओं के आघात से टूटकर चकनाचूर हो गया। महाराज को इस बीच कई बार पुत्र के मोह ने सताया भी, पर वे महर्षि अश्वत्थ को वचन दे चुके थे, इसलिए कुछ बोल भी नहीं सकते थे। समय पूरा होने को आया। प्रकृति के संसर्ग में रहकर स्थावर सर्ग बदले और जब लौट कर आए, तो सबने उनका मुखमंडल दर्प से नहीं, करुणा और सौम्यता से दीप्तिमान देखा। जो काम मनुष्य नहीं कर सके, वह प्रकृति की दंड व्यवस्था ने पूरा कर दिखाया। प्रजा ने राहत की सांस ली। यह कथा पढ़ कर भी कोई सज्जन कुछ न समझें हों, तो उनके लिए स्पष्टीकरण है - प्रकृति के वैषम्य को देखें, फिर उसके पारस्परिक संबंधों पर विचार करें, स्पष्ट हो जाएगा कि मनुष्य का बदलना कितना आसान है।

Dark Saint Alaick 27-07-2012 03:46 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
कठिनाइयों से सबक लें

जीवन की भौतिक उपलब्धियां आपकी खुशी तय नहीं कर सकतीं। आपकी शिक्षा और आपका प्रभावशाली सीवी आपकी जिंदगी नहीं है। जीवन कठिन है, जटिल है। किसी के नियंत्रण में नहीं है। समझदारी है कठिनाइयों से सबक लेने में और अपनी ऊर्जा को सही दिशा में इस्तेमाल करने में। सच्ची खुशी तब मिलती है, जब आप अपनी वास्तविक क्षमताओं को समझने लगते हैं। इसलिए पराजय से घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हार हमें खुद को पहचानने का मौका देती है। इसका फायदा उठाइए। ईश्वर ने इंसान को वह कल्पनाशक्ति प्रदान की है, जिसकी मदद से वह दूसरों की तकलीफों को महसूस कर सकता है, पर ज्यादातर लोग दूसरों के बारे में सोचना ही नहीं चाहते। वे दूसरों की पीड़ा समझने के लिए अपने दिल-दिमाग के दरवाजे नहीं खोलना चाहते। वे अपने संकरे घेरे में जीना चाहते हैं। यह सही नहीं है। आप जितना ज्यादा शिक्षित, योग्य और संपन्न हैं, आपकी जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा है और यह जिम्मेदारी अपने देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। दुनिया के अन्य हिस्सों में रह रहे लोगों के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी बनती है। कई बार ऐसा हो सकता है कि जिस क्षेत्र में कोई विफल रहा हो, उसी क्षेत्र में आप सफल हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति हमेशा जीतता ही रहे। कभी-कभी आपको हार का सामना भी करना पड़ता है। विफलता से कोई नहीं बच सकता। हार ही से आप यह तय कर सकते हैं कि आपके अंदर कितनी जबरदस्त इच्छाशक्ति है, अनुशासन है। ऐसा भी हो सकता है कि आप विफलता या हार से परिचित न हों, लेकिन आपके मन में भी हार-जीत को लेकर चिंता जरूर होगी। अब यह तो आपको तय करना है कि आपके लिए हार का क्या मतलब है। लोग अपने-अपने ढंग से आपके ऊपर हार-जीत के मानक थोपने की कोशिश करेंगे, लेकिन यह भी आपके ऊपर है कि उस मानक को आप किस संदर्भ में लेते हैं।

Dark Saint Alaick 27-07-2012 03:48 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
संत इबादीन की सादगी

फारस के विख्यात संत इबादीन हमेशा खुदा की इबादत और दीन-दुखियों की सहायता में लगे रहते थे। वह रूखा-सूखा जो भी मिलता था, उसे खाकर भी बेहद प्रसन्न और संतुष्ट रहते थे। चूंकि वे काफी विख्यात थे, इसलिए रोजाना उनके पास ढेरों लोग आते थे और अपनी विभिन्न समस्याएं उनके सामने रखते थे। संत इबादीन बड़े ध्यान से उन सबकी बातें सुनते और सलाह मशविरा करके समस्या का समाधान करने की कोशिश करते। कई लोगों की समस्या बड़ी जटिल होती थी, तो वे उससे उबरने का रास्ता भी बताया करते थे। जो भी उनके पास समस्या लेकर आता, समाधान होने पर संतुष्ट होकर घर लौटता था। धीरे-धीरे उनकी शोहरत पूरे इलाके में फैलने लगी। उनकी शोहरत के किस्से फारस के शाह तक जा पहुंचे। जब कई लोगों ने शाह से संत इबादीन की उदारता और उनकी विद्वता की चर्चा की, तो शाह भी उनसे बेहद प्रभावित हो गए। वह संत इबादीन से मिलने के लिए उत्सुक हो उठे। शाह ने संत से मिलने का विचार किया। एक दिन वह ढेर सारे उपहार, खाने का सामान और कीमती कपड़े लेकर संत इबादीन की कुटिया में पहुंच गए। उन्होंने संत के चरणों में कीमती शॉल रखा और उनसे कहा कि वे पुराने शॉल को उतार कर नया शॉल ओढ़ लें। इस पर संत ने पूछा - तुम्हारे यहां तो बहुत से स्वामीभक्त सेवक होंगे? शाह इस सवाल पर कुछ देर के लिए तो हैरत में पड़ गए, फिर संत की तरफ देखते हुए 'हां' कहा। संत ने फिर पूछा - और अगर कोई नया आदमी नौकरी मांगने आ जाए, तो क्या तुम पुराने वफादार सेवकों को नौकरी से हटा दोगे? शाह ने कुछ सोचते हुए कहा नहीं - नहीं उन्हें क्यों हटाऊंगा। वे पहले की तरह मेरी सेवा करते रहेंगे। इस पर संत ने समझाया - इसी तरह तुम्हारे नए और कीमती कपड़े मिलने पर क्या पुराने कपड़ों को छोड़ देना ठीक होगा? कभी नहीं। आखिर ये वफादार सेवक की तरह हैं। तुम अपने ये कपड़े छोड़कर जा सकते हो, मगर पुराने कपड़े तो अपना समय पूरा करके ही हटेंगे। संत की सादगी के सामने शाह नतमस्तक हो गए। वे सारा सामान वहां छोड़कर चले गए।

Dark Saint Alaick 27-07-2012 04:04 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
संयमित जीवन से मिलता है लक्ष्य

अगर आपके जीवन में लक्ष्य होता है, तभी आप खुद को जीवंत महसूस करते हैं। लक्ष्य तय करने का मतलब सिर्फ पढ़ाई और केरियर में मुकाम हासिल करना नहीं होता। लक्ष्य तय करने का मतलब एक संयमित सफल जीवन जीना भी होता है। संयमित सफलता का मतलब है, अपनी सेहत का ध्यान रखना, अपने रिश्तों को मजबूत बनाना और मानसिक शांति बनाए रखना। एक खुशहाल जीवन के लिए यह बहुत जरूरी है। अगर आपकी पीठ में चोट लगी हो, तो क्या आप कार ड्राइविंग का मजा ले पाएंगे? अगर आपका दिमाग तनाव से भरा हो, तो क्या आपको शॉपिंग करने में मज़ा आएगा ? सच्ची खुशी तभी महसूस होती है, जब जीवन में शांति और प्यार हो। अगर जीवन में सौहार्द नहीं होगा, तो आपके अंदर का उत्साह और जोश खत्म होने लगेगा। अपने अंदर की चिनगारी को बनाए रखने के लिए एक और बात जरूरी है। वह यह है कि जीवन में बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होना चाहिए। जीवन में सीरियस नहीं, सिंसियर होना चाहिए। बेवजह की गंभीरता ओढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। बेहतर है कि हम अपने काम और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति ईमानदार बनें। बहुत ज्यादा गंभीर होने की जरूरत नहीं है। बस, अपने अंदर की चिनगारी को निराशा और अन्याय से बचाकर रखें। विफलता को स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। कई बार आपको लगेगा कि दूसरे आपसे ज्यादा भाग्यशाली हैं, लेकिन बेहतर यह है कि जो आपको मिला है, उसे लेकर आप खुश रहें और जो नहीं मिला, उसे स्वीकार करने की हिम्मत रखें। उम्र बढ़ने के साथ भी अपने प्रिय शौक बनाए रखें। गैरजरूरी त्याग न करें। ऐसा करने से आपके अंदर की ऊर्जा खत्म होने लगती है। खुद से प्रेम करना भी जरूरी है। हम एक तरह से लिमिटेड वैलिडिटी वाले प्रीपेड कार्ड की तरह हैं। अगर हम भाग्यशाली रहे, तो अगले पचास साल तक जीवित रहेंगे। पचास साल का मतलब है 2,500 वीकेंड। इस समय को आनंद से गुजारें।

Dark Saint Alaick 27-07-2012 04:07 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
बीज का सही उपयोग

किसी गांव में एक बहुत धनवान व्यक्ति रहता था। उसके पास काफी धन संपदा थी और उसके चर्चे भी दूर दूर तक हुआ करते थे, लेकिन उसके पास जो धन संपदा थी, वह उसने खुद की मेहनत से अर्जित नहीं की थी। जो कुछ भी था, वह सब उसे पिता से पैतृक सम्पति के रूप में मिला था। वह दिन-रात यही सपने देखता रहता था कि किस तरह उसकी सम्पति बढ़ती चली जाए। वह और अधिक संपत्ति पाने की लालसा ही पाले रहता था, लेकिन उसके लिए न तो मेहनत और न ही किसी प्रकार की कोशिश करता था। एक दिन उसने सोचा कि धन कमाने के लिए क्यों न किसी साधु-महात्मा से राय ली जाए। एक दिन वह एक संत के पास पहुंचा। उसने संत को प्रणाम कर कहा - महात्मा जी, आप तो जीने की कला जानते हैं। कृपया कोई ऐसी युक्ति बताइए, जिससे मेरी संपत्ति में लगातार वृद्धि हो। संत ने उसे कुछ बीज देते हुए कहा - ये बीज बड़े चमत्कारी हैं। तुम इन्हें अपने आंगन के किसी कोने में नमी वाली जगह पर बो देना। तुम्हारे धन में बढ़ोतरी होने लगेगी। वह धनी व्यक्ति बीज ले आया और उसने उन्हें आंगन के एक कोने में बो दिया। कुछ दिनों के बाद पौधे उग आए। पौधे बड़े हुए। उसमें फल आने लगे, पर उसकी संपत्ति नहीं बढ़ी। वह फिर संत के पास पहुंचा और दुखी होकर बोला - महाराज, मैंने तो बीज बो दिए, पर मेरी संपत्ति में थोड़ी भी बढ़ोतरी नहीं हुई। संत ने मुस्कराकर कहा - मैंने सोचा था कि तुम मेरी बात समझ जाओगे, पर तुम तो कुछ समझ ही नहीं पाए। तुमने बीजों का सही उपयोग किया। उन्हें बोया और अब वे फल दे रहे हैं। तुम ही नहीं तुम्हारा सारा परिवार उनका सुख ले रहा है। तुमने बीज बोया, पौधों को पानी दिया, तभी तो फल मिला। उसी तरह अपने धन को भी किसी उद्यम में लगाओ। इससे तुम्हें भी लाभ होगा और अनेक लोगों के लिए रोजी-रोजगार की व्यवस्था होगी। फिर उससे जो पैसे मिलें, उन्हें जनकल्याण में लगाओ। बिना उद्यम के संपत्ति कैसे बढ़ सकती है। धन का उपयोग बीज की तरह करो, नहीं तो जो धन है, वह भी नष्ट हो जाएगा। उस व्यक्ति को बात समझ में आ गई।

Dark Saint Alaick 29-07-2012 12:44 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
अंधेरे में पड़ी रस्सी

बाबा फरीद अपने स्वभाव के अनुसार हमेशा शांत भाव से रहते थे। अक्सर वे चलते-चलते ही मनन भी करते रहते थे। लोगों को उनकी इस आदत के बारे में जानकारी थी, इसलिए वे मनन के समय बाबा फरीद को टोकते नहीं थे। एक बार बाबा फरीद मनन करते हुए ही कहीं जा रहे थे। तभी एक व्यक्ति उनके साथ चलने लगा। हालांकि वह बाबा के स्वभाव को जानता नहीं था, लेकिन उसकी जिज्ञासा ने उसे बाबा के साथ कर दिया था। कुछ देर तक साथ चलने के बाद व्यक्ति ने बाबा से पूछा - क्रोध को कैसे जीता जा सकता है? काम को कैसे वश में किया जा सकता है? अक्सर ऐसे प्रश्न लोग बाबा से पूछते रहते थे। बाबा ने बड़े स्नेह से उस व्यक्ति का हाथ पकड़ा और बोले - तुम मेरे पीछे आते आते और चलते चलते थक गए होगे। चलो किसी पेड़ की छाया में विश्राम करते हैं। वहां बैठकर ही मैं तुम्हारे सवालों का जवाब दूंगा। दोनों ने एक छायादार पेड़ देखा और उसके नीचे बैठ गए। बाबा बोले - बेटा, दरअसल समस्या क्रोध और काम को जीतने की नहीं, इन दोनों को जानने और समझने की है। वास्तव में न हम क्रोध को जान पाते हैं और न काम को समझ पाते हैं। हमारा यह अज्ञान ही हमें बार-बार हराता है। इन्हें जान लो, तो समझो आपकी जीत पक्की है। जब हमारे अंदर क्रोध प्रबल होता है अथवा काम प्रबल होता है, तब हम नहीं होते हैं। हमें होश ही नहीं होता है कि हम क्या कर रहे हैं। इस बेहोशी में जो कुछ होता है, वह मशीनी यंत्र की भांति हम करते चले जाते हैं। बाद में केवल पछतावा बचता है। बात तो तब बने, जब हम फिर से सोयें नहीं। अंधेरे में पड़ी रस्सी सांप जैसी नजर आती है। इसे देख कर कुछ तो भागते हैं, कुछ उससे लड़ने की ठान लेते हैं, लेकिन गलती दोनों ही करते है। ठीक तरह से देखने पर पता चलता है कि वहां सांप तो है ही नहीं। बस, जानने की बात है। इस तरह इंसान को अपने को जानना होता है। अपने में जो भी है, उससे ठीक से परिचित भर होना है। बस, फिर तो बिना लड़े ही जीत हासिल हो जाती है। उस व्यक्ति को अपने सवाल का जवाब मिल गया।

Dark Saint Alaick 29-07-2012 12:48 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
मूल्यों से समझौता नहीं करें

खुद पर भरोसा रखिए। ठान लीजिए कि आपके अंदर प्रतिभा है और आप चुनौतियों का बखूबी सामना कर सकते हैं। बस, आपको अपने अंदर यह विश्वास पैदा करना होगा कि आप अपने लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं। हो सकता है कि कई बार आपको यह समझ में नहीं आ रहा होता है कि आप क्या करें। खुद को साधारण मान कर पीछे भी हटने लगते हैं। कभी खुद को साधारण न मानें। आप यह महसूस करें कि अन्य लोगों की तरह आपके अंदर भी प्रतिभा है। मैं किसी से कम नहीं हूं। मैं भी वह सब कर सकता हूं, जो मेरे साथ वाले लोग कर सकते हैं। अपने मन में कभी यह ख्याल नहीं आने दें कि हालात की वजह से आप आगे नहीं बढ़ पाएंगे। परिस्थितियों को कभी बाधा नहीं बनने दें। हो सकता है, आपका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ हो। माता-पिता भी साधारण नौकरी करते हों। जाहिर है कि वे अमीर लोगों की तरह आपको बड़ी-बड़ी सुविधाएं नहीं दे सकते, लेकिन वे हमें जीवन के मूल्य सिखाते हैं। इन्हीं मूल्यों की मदद से आप आगे बढ़ सकते हैं। अपने मूल्यों से समझौता मत कीजिए। विनम्र रहें। कृतज्ञ होना सीखें। हमें हर स्थिति में सच्ची कोशिश जारी रखनी चाहिए। आप कभी मत यह सोचें कि बहुत देर हो चुकी है। न कभी बहुत देर होती है और न कभी बहुत जल्दी। अच्छा काम आप कभी भी शुरू कर सकते हैं। सपने देखें, बड़े सपने देखें। अपने सपनों पर भरोसा रखें। आप अपनी किस्मत खुद लिख सकते हैं। कोशिश करनी होगी। बिना देर किए। हार से कभी मत डरिए। खतरा लेने से मत डरिए। खुद से सवाल पूछिए। यह बेवकूफी भरे सवाल भी हो सकते हैं। यह सोचकर मत डरिए कि कहीं वापस न आना पड़े। हार के भय से कोशिश करना मत छोड़िए। जैसे-जैसे आप जिंदगी में आगे बढ़ेंगे, मुश्किलें आएंगी। चुनौतियां आएंगी। कई बार भ्रम की स्थिति आएगी। हो सकता है कि कई बार आपकी बनाई योजनाएं विफल हो जाएं। आपके बेहतरीन विचारों में गलतियां निकाली जाएं। आपको इन सबसे निपटना होगा। बस, खुद को तैयार कीजिए।

Dark Saint Alaick 29-07-2012 12:59 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
नकली लड़ाई, नकली जीत

हर किसी के भीतर खुद को विजेता समझने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए कि मानव ने कई स्तरों पर लड़कर ही सभ्य जीवन हासिल किया है। कोई भी व्यक्ति अपने को कमजोर नहीं मानना चाहता। वह हर समय एक ताकतवर पहचान से खुद को जोड़े रखना चाहता है। इसके लिए वह अपने को एक ताकतवर समुदाय का वंशज बताने में लगा रहता है। यह प्रवृत्ति दूसरे रूप में भी सामने आती है। हम खुद को श्रेष्ठ तो बताते ही हैं, दूसरों को कमजोर भी ठहराते हैं। यहां तक कि हम बहुत सफल व्यक्ति की भी जड़ें खोजने लगते हैं और उसे किसी कमतर समुदाय का ठहराकर एक मनोवैज्ञानिक संतोष प्राप्त करते हैं। यह एक तरह की जीत होती है यानी एक लड़ाई हमारे मन में चल रही होती है सभ्यता के आरंभिक दिनों की तरह। इस नकली लड़ाई में हम नकली जीत पाकर प्रसन्न होते हैं। अपने अहम् से बाहर निकलने और खुद को तुच्छ समझने की बात कहने वाले महापुरुष हमें इसी नकली संघर्ष से बाहर निकालना चाहते थे। दरअसल एक दुनिया सबके भीतर होती है। कई बार किसी गली से गुजरते हुए लगता है, हम उस गली में पहले रहा करते थे। इसी तरह जब हम किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तो उसकी तुलना किसी पुराने शख्स से या किसी रिश्तेदार या किसी दोस्त से करने लग जाते हैं। हम हमेशा नई चीजों में पुरानी चीजों को खोजते रहते हैं। दूसरी तरफ हमेशा वर्तमान से ऊबे रहते हैं और बदलाव चाहते हैं, लेकिन जब नई चीजें आती हैं, तो हम पुरानी चीजों से उन्हें मिलाने की कोशिश करने लग जाते हैं। जब हमारा किसी एक चीज से रिश्ता बनता है, तो वह कभी टूटता नहीं है। हम कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते, चाहे वह कितना अप्रिय क्यों न हो। शायद हमारी यही बात हमें इंसान बनाती है। हम खुद भी एक सृष्टि कर रहे होते हैं। हर किसी के जेहन में अपनी एक दुनिया बसी होती है, जिसका रूप वह अपने हिसाब से तय करता है। शायद इसलिए हम नयों को पुरानों से और पुरानों को नयों से जोड़ते रहते हैं।

Dark Saint Alaick 29-07-2012 01:05 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
सच्चे संत की भलाई

सिखों के छठे गुरु हरगोविंद ने सबसे पहले सिखों के शस्त्रीकरण की बात कही थी। उनका मानना था कि मजबूत शरीर में ही सबल मन का निवास होता है। सभी लोग उनकी इस बात से सहमत थे। किन्तु जहां गुरु हरगोविंद की ख्याति चारों ओर फैलती जा रही थी, वहीं उनके दुश्मनों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। कुछ समय बाद सम्राट जहांगीर ने अपने एक दीवान चंदूलाल की शिकायत पर गुरु हरगोविंद को ग्वालियर के किले में कैद कर लिया। दरअसल चंदूलाल भी गुरु हरगोविंद की बढ़ती ख्याति को पचा नहीं पा रहा था। जब गुरु हरगोविंद को कैद करने की खबर फैली पर चारों तरफ हंगामा मच गया। सभी को जहांगीर के इस कदम पर आश्चर्य हुआ और नाराजगी भी हुई। तब लाहौर के मशहूर फकीर मियां मीर ने जहांगीर को चेतावनी दी कि एक दुष्ट दीवान के कहने पर एक सच्चे तपस्वी को बंदी बनाने का परिणाम उसे भुगतना होगा। यदि उसने गुरु हरगोविंद को मुक्त नहीं किया, तो भारी गड़बड़ी फैल सकती है। यह सुनकर जहांगीर घबरा गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने तुरंत गुरु हरगोविंद को मुक्त करने का हुक्म दिया। शाही हरकारे बादशाह का हुक्मनामा लेकर ग्वालियर के किले में पहुंचे, लेकिन गुरु हरगोविंद ने कैद से छूटने से इंकार कर दिया। सब चकित हो उठे। जब उनसे इसका कारण पूछा गया, तो वे बोले - मैंने इस कैदखाने में तमाम बेगुनाहों को जुल्म सहते देखा है। साधु हमेशा बंधन मुक्त होता है। जो आजाद है, वह दूसरों के बंधन को भी नहीं झेल सकता। गुरु हरगोविंद ने चेतावनी देते हुए हरकारे से कहा - बादशाह जहांगीर से कह दो कि या तो सभी बेगुनाह कैदियों को छोड़ दें या फिर मुझे भी यहीं कैद रखा जाए। गुरु हरगोविंद की बात का इतना असर था कि जहांगीर ने सभी बेगुनाह कैदियों को रिहा कर दिया। सिख परंपरा आज भी गुरु हरगोविंद के नाम के आगे बंदी छोड़ का विशेषण लगाती है। गुरु हरगोविंद ने अपनी जान की परवाह न करते हुए भी एक सच्चे संत की तरह पहले दूसरों की भलाई के बारे में सोचा।

Dark Saint Alaick 31-07-2012 04:25 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
रंगीन पत्थरों के सहारे इलाज

कहते हैं कई बार आदमी के शरीर के अंदर कोई बीमारी होती ही नहीं, फिर भी वह अक्सर यह सोचने लगता है कि वह किसी न किसी बीमारी से जरूर पीड़ित है। दरअसल यह कोई बीमारी नहीं होती, केवल आदमी की मानसिकता ही इसका बड़ा कारण बन जाती है। आदमी की सोच भी फिर वैसी ही बनती चली जाती है। ब्राजील के एक बहुत ही अनुभवी डॉक्टर थे डॉ.सिमोन। पूरे देश में उनका काफी नाम था। वह असाध्य बीमारियों का उपचार तो करते ही थे, इसके अलावा मानसिक समस्याओं का समाधान भी बखूबी किया करते थे। वह आदमी को देख कर ही भांप लेते थे कि उसका किस पद्धति से इलाज करना बेहतर है। उनके मधुर स्वभाव और स्नेहपूर्ण संवाद से मरीज उनसे बेहद आत्मीयता महसूस करते थे। एक दिन उनकी कार का ड्राइवर डॉ. सिमोन के पास अपने एक रिश्तेदार जीमर को लेकर आया। जीमर को शराब की लत थी। वह नशा किए बगैर एक दिन भी नहीं रह पाता था। डॉ. सिमोन को उसने बताया कि वह शराब छोड़ना तो चाहता है, पर चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहा है। उसने बहुत कोशिश की, पर उसे सफलता मिल ही नहीं रही है। जब रोज शाम को उसे तलब लगती है, तो वह शराब के लिए पागल जैसा हो उठता है। डॉ. सिमोन समझ गए कि यह शराबी कोरे उपदेशों से या जबर्दस्ती शराब छोड़ने वाला नहीं है। वह अंदर जाकर रंगीन पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़े ले आए और जीमर को देते हुए बोले - देखो, ये पत्थर दवा हैं। आज से ग्लास में शराब डालने से पहले इनमें से एक पत्थर उसमें डाल लेना। इसी तरह हर रोज एक - एक पत्थर बढ़ाते रहना। इन पत्थरों के प्रभाव से तुम्हारे नशे की आदत कम होते-होते एक दिन पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। जीमर ने वैसा ही किया। दिनों दिन उसके गिलास में पत्थर बढ़ते रहे और शराब कम होती रही। एक वक्त ऐसा भी आया, जब वह एकदम कम पीने लगा। फिर शराब में उसकी रुचि ही समाप्त हो गई। इस प्रकार जीमर जान भी नहीं पाया कि शराब छुड़ाने में पत्थरों ने नहीं, सिमोन की मनोवैज्ञानिक युक्ति ने कमाल दिखाया था।

Dark Saint Alaick 31-07-2012 04:40 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
समय को बरबाद क्यों करें

अक्सर हम यह कह देते हैं कि समय कम है। ऐसा कह कर हम बच नहीं सकते। यह तो जीवन की एक सच्चाई है। अगर समय कम है, तो फिर समझदारी इसी बात में दिखती है कि हम इसे जरा भी बर्बाद न करें। दरअसल जिंदगी में सफल वही होते हैं, जो जीवन से आखिरी बूंद की संतुष्टि और ऊर्जा भी निचोड़ लेते हैं। वे इसी सरल नियम पर अमल करके ऐसा करते हैं। वे अपने जीवन में उन चीजों पर ही ध्यान देते हैं, जिन पर उनका नियंत्रण होता है और फिर वे बस, मितव्ययिता से (समय की दृष्टि से) बाकी चीजों की चिंता छोड़ देते हैं। अगर कोई आपसे सीधे मदद मांगता है, तो आप मदद कर सकते हैं या इनकार भी कर सकते हैं। चुनाव आपका है, लेकिन अगर सारी दुनिया आपसे मदद मांगने लगे, तो आपके वश में कुछ खास नहीं होता। इस बात पर खुद को कोसने से कोई फायदा नहीं होगा, सिर्फ समय ही बर्बाद होगा। कई ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिनमें आप व्यक्तिगत फर्क डाल सकते हैं और बाकी क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहां आप सुई की नोक बराबर भी फर्क नहीं डाल सकते। अगर आप किसी ऐसी चीज को बदलने में वक्त बर्बाद कर रहे हैं, जो कभी नहीं बदलने वाली, तो जिंदगी आपके पास से फर्राटे से गुजर जाएगी और आप मौके चूक जाएंगे। दूसरी ओर, अगर आप खुद को ऐसी चीजों या क्षेत्रों में समर्पित करते हैं, जिन्हें आप बदल सकते हैं या जहां आप फर्क डाल सकते हैं, तो जिंदगी ज्यादा समृद्ध और सार्थक बन जाएगी। जाहिर है, अगर हममें से ज्यादातर लोग मिलकर कोशिश करें, तो हम कुछ भी बदल सकते हैं। खुद से शुरू करें और फिर इसे बाहर की ओर फैलने दें। इस तरह उन लोगों को उपदेश देने में हमारा वक्त बर्बाद नहीं होगा, जो सुनना ही नहीं चाहते। हम उन चीजों में अपनी कोशिश, ऊर्जा या संसाधन बर्बाद नहीं करेंगे, जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है या जहां किसी भी तरह की सफलता तय नहीं है। जहां तक खुद को बदलने का सवाल है, परिणाम तय है। बेहतरीन परिणाम।

Dark Saint Alaick 02-08-2012 12:47 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
सपने को हकीकत में बदलें

अक्सर लोग अपने सपनों को बहुत सीमित कर लेते हैं, लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए। आप अपने सपनों को बख्श दें। उन पर कोई सीमा न लादें। यथार्थवादी तो योजनाओं को होना चाहिए, सपनों को नहीं। दरअसल लोग अपने सपनों को उसी तरह सीमित कर लेते हैं, जिस तरह वे अपनी जीत को कर लेते हैं। यह तय मानें कि बुरी से बुरी स्थिति में भी सपने हानिरहित होते हैं, इसलिए उन्हें सीमित न करें। आपको यह भी पूरी छूट है कि आप जितने चाहें उतने ऊंचे, लंबे-चौड़े, बड़े, असंभव, अतिरंजित, अजीबोगरीब, अनोखे या अयथार्थवादी सपने देखें। आपको इस बात की भी छूट है कि आप अपने दिल में कोई भी हसरत रख सकते हैं। हरसतें और सपने निजी मामले हैं। हसरतों पर पुलिस निगरानी नहीं करती है, न ही सपनों के डॉक्टर होते हैं, जो अयथार्थवादी मांगों के लिए इंजेक्शन लगा देंगे। यह आपके और सपनों के बीच का निजी मामला है। आपके अलावा कोई और है ही नहीं। हां, इस बारे में बहुत सतर्क रहें कि आप किस तरह की इच्छा करते हैं या सपने देखते हैं। ध्यान रहे कि आपकी इच्छा या सपना साकार हो सकता है। फिर आपका क्या होगा? बहुत से लोग सोचते हैं कि उन्हें सिर्फ यथार्थवादी सपने ही देखने चाहिए। यह गलत बात है। यथार्थवादी तो योजना होनी चाहिए और वह बिलकुल अलग चीज है। हर समझदार शख्स योजनाएं बनाता है और उन्हें पूरा करने के लिए तार्किक कदम उठाता है, लेकिन सपने तो असंभव हो सकते हैं। उन्हें इतना असंभव बनने की छूट है कि उनके साकार होने की रत्ती भर भी संभावना न हो और यह न सोचें कि आप खुली आंखों से सपने देखकर कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे। सबसे सफल लोगों में से कई ऐसे थे, जिन्होंने सबसे ज्यादा सपने देखने का जोखिम लिया। यह महज संयोग नहीं है। इसलिए सपने देखें और उन्हें पूरा करने की भी ठानें। यह तय मानिए कि अगर आपने सपने को हकीकत में बदलने की ठान ली, तो आप कामयाब भी होंगे।

Dark Saint Alaick 02-08-2012 12:50 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
एक मां की अनूठी शिक्षा

एक बार व्यापार के लिए निकले एक अफगान व्यापारी बशीर मुहम्मद ने मालदा शहर के एक बड़े बगीचे में रात बिताई। सवेरे अपना सामान समेटकर वह वहां से आगे कि लिए चल पड़ा। कई मील दूर पहुंचने पर जब उसने अपना सामान देखा, तो याद आया कि रुपयों से भरी थैली तो उस बगीचे एक पेड़ की डाली पर ही लटकी रह गई है। यह जानकर वह काफी दुखी हुआ। उसने सोचा कि थैली तो मिलने से रही। उसे तो कोई ले ही गया होगा। फिर रुपयों के बिना व्यापार के लिए भी आगे नहीं जाया जा सकता। दुखी मन से वह वापस उसी ओर चल पड़ा। संयोगवश वीरेश्वर मुखोपाध्याय नामक एक बालक बगीचे में पहुंचा। खेलते - खेलते वह उस पेड़ के पास पहुंच गया, जिस पर रुपयों से भरी थैली टंगी थी। बालक ने उत्सुकतावश थैली को नीचे उतारा। उसके अंदर सोने की मुद्राएं देखकर वह हैरान रह गया। उसने बगीचे के रखवाले से पूछा कि यहां कौन आया था? रखवाले ने बताया कि काबुल का व्यापारी रात गुजारकर यहां से दक्षिण की ओर रवाना हुआ है। यह सुनते ही बालक थैली लेकर दक्षिण की ओर दौड़ चला। तभी उसे बशीर मुहम्मद उस ओर आता हुआ नजर आया। बालक ने उसकी पोशाक देखकर अंदाजा लगा लिया कि यही काबुली व्यापारी है। उधर बशीर मुहम्मद ने भी बालक के हाथ में अपनी थैली देखी। बालक बोला - महाशय शायद यह थैली आपकी ही है। मैं इसे आपको लौटाने के लिए आ रहा था। एक नन्हे बालक के मुंह से यह सुनकर बशीर मुहम्मद दंग होकर बोला - क्या तुम्हें रुपयों से भरी थैली देखकर लालच नहीं आया? यह सुनकर बालक सहजता से बोला - मेरी मां मुझे कहानियां सुनाते हुए बताया करती है कि दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझना चाहिए। चोरी करना घोर पाप है। थैली देखकर मेरा मन जरा भी नहीं डगमगाया। बालक की बात पर बशीर मुहम्मद बोला - धन्य है तुम्हारी मां। अगर हरेक मां अपने बच्चे को ऐसी ही शिक्षा दे, तो समाज से बुराई पूरी तरह खत्म हो जाएगी। इसके बाद बशीर मुहम्मद बालक को आशीर्वाद देकर चला गया।

Dark Saint Alaick 03-08-2012 12:15 AM

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अतीत को भूल वर्तमान में जिएं

अतीत चाहे जैसा भी हो, जा चुका है। जो बीत चुका है, उसे बदलने के लिए आप कुछ नहीं कर सकते। इसलिए आपको अपना ध्यान वर्तमान की ओर मोड़ना चाहिए। जो गुजर गया, उसमें अटके रहने के प्रलोभन को छोड़ना मुश्किल होता है, लेकिन अगर आप जिंदगी में सफल होना चाहते हैं, तो आपको अपना ध्यान उस ओर मोड़ना होगा, जो इस वक्त हो रहा है। अतीत में फंसे रहना आपको इसलिए रास आ सकता है, क्योंकि वह या तो भयंकर था या फिर अद्भुत था। दोनों ही मामलों में आपको उसे पीछे छोड़ना होगा, क्योंकि सही तरह से जीने का इकलौता तरीका वर्तमान में है। अगर आप पश्चाताप की वजह से अतीत की यात्राएं कर रहे हैं, तो आपको यह समझना चाहिए कि आप पलटकर वहां नहीं जा सकते और अपनी की हुई चीज को पलट नहीं सकते। अपराध बोध का शिकार होकर आप सिर्फ खुद को नुकसान पहुंचा रहे हैं। हम सभी ने अपने अतीत में बुरे निर्णय लिए हैं, जिनकी वजह से हमारे आस-पास के लोगों को नुकसान हुआ है। जिनसे हम प्रेम करने का दावा करते हैं, उनके साथ हमने जाने-अनजाने में शर्मनाक बर्ताव किया है। आप स्लेट साफ करने के लिए कुछ नहीं कर सकते। आप तो सिर्फ यह संकल्प कर सकते हैं कि दोबारा इस तरह के बुरे निर्णय नहीं लेंगे। हमसे कोई इससे ज्यादा क्या उम्मीद कर सकता है कि हम यह मान लें कि हमने गड़बड़ की और हम उस चीज को न दोहराने की अपनी सबसे अच्छी कोशिश कर रहे हैं। अगर आपको अतीत बेहतर लगता था और आप पुराने सुनहरे दिनों के लिए लालायित हैं, तो उन यादों को सुहानी मानें, लेकिन आगे बढ़ जाएं और अपनी ऊर्जा वर्तमान की दिशा में लगाएं, ताकि अब आपको अलग तरह का अच्छा समय मिल सके। हर दिन जागने पर हमारी नई शुरुआत होती है और हम इसे जैसा चाहें, वैसा बना सकते हैं। इस पर खाली कैनवास की तरह जो चाहें, लिख सकते हैं। यहीं पर जिएं, अभी जिएं, वर्तमान पल में जिएं।

Dark Saint Alaick 03-08-2012 12:19 AM

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एक वैज्ञानिक की उदारता

प्रसिद्ध वैज्ञानिक वॉटसन अक्सर अपने अनुसंधानों के लिए घर से बाहर रहते थे। इसके अलावा उन्हें कई देशों में व्याख्यानों के लिए भी जाना पड़ता था। वे जहां भी जाते थे, लोगों को विज्ञान से जुड़े बारीक से बारीक विषयों पर पूरी जानकारी भी दिया करते थे। इसके चलते लोगों में उन्हें सुनने और उनसे विज्ञान से जुड़ी जानकारियां हासिल करने की लालसा बनी ही रहती थी। इसी के चलते उन्हें कई-कई दिनों तक घर से बाहर रहना पड़ता था। उनकी पत्नी उनके लौटने का इंतजार ही करती रहती थी। एक बार लंबे विदेश दौरे से स्वदेश वापसी से पहले वॉटसन ने अपने घर पत्नी को संदेश भिजवाया कि मैं अमुक तारीख को वापस घर आ रहा हूं। तुम मुझे लेने गाड़ी लेकर जरूर स्टेशन पहुंच जाना। यह संदेश पाकर वॉटसन की पत्नी काफी प्रसन्न हुईं। उन्होंने अपने पति के स्वागत की तैयारी शुरू कर दी। निश्चित दिन वह नौकर को साथ लेकर गाड़ी से रेलवे स्टेशन पहुंच गईं। उन्होंने गाड़ी में बैठे-बैठे ही नौकर को अपने साहब को लेकर आने को कहा। नौकर नया था। उसे कुछ दिन पहले ही काम पर रखा गया था। वह वॉटसन को नहीं पहचानता था। उसने मालकिन से साहब की पहचान पूछी। वॉटसन की पत्नी ने कहा - तुम्हें सूट-बूट में कोई अधेड़ व्यक्ति अपने ब्रीफकेस के अलावा किसी और का भी सामान उठाया हुआ दिखाई दे, तो समझ लेना वही तुम्हारे साहब हैं। नौकर सुन हैरान रह गया। जब प्लेटफॉर्म पर पहुंचा, तो देखा कि शालीन कपड़े पहने, हैट लगाए एक सज्जन एक हाथ में ब्रीफकेस और दूसरे हाथ में एक वृद्धा का बड़ा ट्रंक उठाए चले आ रहे हैं। उनके चेहरे के हाव-भाव और सेवा भावना से नौकर समझ गया कि जरूर वही उसके साहब होंगे। वह उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा। उसका अनुमान सही था। वही वॉटसन थे। उसने अपने मालिक को अपना परिचय दिया और उन्हें लेकर आ गया। वॉटसन इसी तरह हर मौके पर दूसरों की मदद का कोई अवसर नहीं चूकते थे। अनेक लोगों ने इसी कारण उन्हें अपना आदर्श माना था और वे उन्हीं के जैसा आचरण करने की कोशिश करते थे।

Dark Saint Alaick 03-08-2012 08:40 PM

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जीवन का हर क्षण आनंददायक

आज के भौतिकवादी युग में धन, सुख, प्रतिष्ठा, अच्छा परिवार और ओहदा होने के बावजूद भी न जाने क्यों अधिकांश लोगों के चेहरे प्रफुल्लित नहीं दिखाई देते। एक खिंचाव और तनाव बना रहता है। थोड़ी सी भी प्रतिकूलता असहनीय हो जाती है और मन चिंतित और तन शिथिल होने लगता है। असमंजस का शिकार होते देर नहीं लगती। न जाने क्यों भूल जाते हैं कि मन के जीते जीत है और मन के हारे हार। दरअसल जीवन का हर क्षण एक दैवी आनंद, स्फूर्ति और प्रेरणा से भरपूर होता है। शायद हम उसे ही जीना चाहते हैं। सच मानिए, हम उस आनंदमय जीवन के ही अधिकारी हैं। बस, अपने कर्तव्य पथ पर चलते हुए तपस्वी बनना होगा। यही आदेश है करुणासागर, महान पथ प्रदर्शक एवं योगेश्वर भगवान कृष्ण का, जिन्होंने मोहग्रस्त अर्जुन को कर्तव्याभिमुख करने के लिए गीता का उपदेश देते हुए कहा था कि सफल और संतुष्ट जीवन जीने के लिए मानव को तीन तप करते रहना होगा। वे तीन तप हैं - शारीरिक, वाणी का तथा मानसिक तप। वस्तुत: तपाचरण का अर्थ मात्र शारीरिक उत्पीड़न नहीं होता, अपितु इसका प्रायोजन तो अपनी शक्तियों का संचय करके और फिर उन्हें रचनात्मक कार्यों में प्रयोग करके आत्मविकास एवं आत्म साक्षात्कार करना होता है। अपने नैतिक विकास के लिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने आराध्य, आदर्श अथवा इष्ट या लक्ष्य के प्रति श्रद्धा, भक्ति, आदर एवं सम्मान भाव रखें तथा जिन सत्पुरुषों ने इस आदर्श को प्रस्तुत किया, उन विद्वानों, गुरुओं तथा इस आदर्श के अनुमोदक ज्ञानीजन के प्रति भी सदैव दिल से कृतज्ञ रहें। शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ हम अपने व्यवहार को भी सरल बनाने का यथासंभव प्रयास करते रहें, क्योंकि हमारा कुटिल व्यवहार हमारे व्यक्तित्व को विभाजित करके हमारे मानसिक संतुलन और शारीरिक सामर्थ्य के लिए खतरा बन सकता है। इन्द्रिय नियंत्रण और अहिंसा में निष्ठा आदि को शारीरिक तप की संज्ञा दी गई है। ज़ाहिर है कि इसी में आत्म-कल्याण निहित है।

Dark Saint Alaick 03-08-2012 08:43 PM

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लालची वैद्य का इलाज

एक शहर में एक मशहूर वैद्य रहता था। उसकी दवाएं अचूक होती थीं। वह जिस भी रोगी का इलाज करता, वह कुछ समय बाद स्वस्थ हो जाता था। इसके चलते उस वैद्य की ख्याति दूर-दूर तक हो गई थी, लेकिन उसमें एक खराबी थी कि वह लालची बहुत था। एक बार एक महिला अपने बच्चे को लेकर वैद्य के पास आई। उसने कई जगहों पर जाकर कई वैद्यों से अपने बच्चे को दिखाया और इलाज करवाया था, किन्तु कोई भी बच्चे के मर्ज को न तो सही तरीके से समझ पाया था और न ही मर्ज के अनुसार इलाज कर पाया था। थक हार कर वह महिला काफी उम्मीद लेकर इस वैद्य के पास आई थी। वैद्य ने बच्चे को देखकर दवाई दी। संयोगवश दवा ने ऐसा असर दिखाया कि बच्चा कुछ समय बाद बिल्कुल ठीक हो गया। हर बार वह औरत वैद्य को कुछ नकद रुपए देती थी, लेकिन इस बार बच्चे के बेहतर होते स्वास्थ्य के बारे में जानकर उसे बहुत खुशी हुई और उसने उपहार में वैद्य को रेशम का एक कीमती बटुआ दिया। बटुआ देखकर वैद्य नाक - भौं सिकोड़ने लगा और बोला - बहनजी, मैं इलाज का केवल नकद रुपया ही लेता हूं। ऐसे उपहार मुझे स्वीकार नहीं हैं। कृपया आप आज के इलाज का शुल्क भी उपहार रूप में नहीं, बल्कि नकद देकर ही चुकाइए। वैद्य के मुंह से यह सुनकर महिला दंग रह गई और बोली - आप के आज के इलाज के कितने रुपए हुए? वैद्य बोला - तीन सौ रुपए। महिला ने झट से उस रेशमी बटुए में से तीन सौ रुपए निकाले और वैद्य की ओर बढ़ा दिए। इसके बाद वह महिला वैद्य से बोली - अच्छा हुआ तुमने अपनी लालची प्रवृत्ति मेरे सामने उजागर कर दी। दरअसल मैंने खुश होकर इस बटुए में पांच हजार रुपए रखे थे। ये रुपए मैं तुम्हें अपनी श्रद्धा से देना चाहती थी। मेरा बच्चा तुम्हारे इलाज से सही हुआ था, इसलिए मैंने अतिरिक्त इनाम तुम्हें देना चाहा था, किंतु तुमने नहीं लिया। यह सुनकर वैद्य लज्जित हो गया और उसने उसी क्षण निश्चय किया कि आगे से वह कभी लालच नहीं करेगा और प्रत्येक व्यक्ति का इलाज सेवा-भावना से करेगा।

Dark Saint Alaick 07-08-2012 03:55 PM

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संयम की सूचक है वाणी

दरअसल हमारे पास स्वयं को अभिव्यक्त करने का जो सबसे सशक्त माध्यम है, वह है हमारी वाणी। यह हमारी बौद्धिक पात्रता, मानसिक शिष्टता एवं शारीरिक संयम की सूचक होती है। यही कारण है कि वाणी के सतत क्रियाशील रहने से हमारी शक्ति का सबसे अधिक अपव्यय होता है और इसके संयम से ही एक बड़ी मात्रा में अपनी शक्ति का संचय भी किया जा सकता है, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम मौन रहकर आत्मनाश या पर-उत्तेजन का कारण बनते रहें। वाक्शक्ति के सदुपयोग द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को सुगठित कर सकते हैं, इसलिए जरुरी है कि हम बोलते समय सावधान रहें, ताकि हम जो बोलें वह सत्य, प्रिय और हितकारी हो। सत्यवाणी हमारी शक्ति को व्यर्थ नष्ट होने से बचाती है। शब्दों की कटुता का मोल हमें कई बार अपने जीवन में या तो असफलता अथवा अपने मित्र-बंधुओं को खो कर चुकाना पड़ता है। निरर्थक भाषण से तो हमें केवल थकान ही हुआ करती है। सत्य, प्रिय और हितकारी वाणी द्वारा सुरक्षित की गई अपनी शक्ति का सदुपयोग हम ज्ञानवर्धक साहित्य का अध्ययन करने में, उसके अर्थ को ग्रहण करने में और यथासंभव अपने जीवन को बेहतर बनाने में कर सकते हैं। यही होता है वाणी का तप, जिसके आधार पर एक मनुष्य केवल श्रेष्ठतर आनंद की प्राप्ति ही नहीं करता, बल्कि अपने वचनों से किसी निराश अथवा जीवन से हार मान चुके हुए व्यक्ति को फिर से जीवन के प्रति सकरात्मक बनाकर सम्मान के साथ जीने की प्रेरणा देने जैसा पुण्य कर्म करने से कभी भी पीछे नहीं हटता। मन की शांति से बढ़कर इस संसार में कुछ है ही नहीं और जब इस दुनिया के साथ हमारा संबंध स्नेह, प्रेम, समझ, ज्ञान, क्षमा और सहिष्णुता जैसे स्वस्थ मूल्यों पर आधारित होता है, तब हमारा मन सदैव एक दिव्य शांति का आभास किया करता है। इसी शांत मन में सौम्यत्व का निवास होता है अर्थात बिना मानसिक शांति के मानव प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और कल्याण की भावना की अनुभूति नहीं कर सकता।

Dark Saint Alaick 07-08-2012 03:57 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
उज्ज्वल वेषधारी बगुला

एक बड़े संत की यह आदत थी कि वे चलते-चलते भी अपने शिष्यों को उपदेश देते थे और रास्ते में जो भी घटित होता था, उसको उदाहरण के साथ पेश कर अपने उपदेश से जोड़ कर उसका हल भी बतलाया करते थे। एक बार एक वे संत अपने शिष्यों के साथ वन में चले जा रहे थे। संत आगे-आगे चल रहे थे और शिष्य पीछे-पीछे। तभी रास्ते में एक विशाल सरोवर आ गया। उस सरोवर के पास से गुजर रहे एक पक्षी पर संत की नजर पड़ी। वह एक बगुला था। बगुला बड़ी मंद गति से चल रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे कोई साधु काफी संभल-संभल कर अपना पथ देखते हुए चल रहा हो। यह देख कर संत ने शिष्यों से कहा - देखो तो, ये पक्षी कैसे संभल-संभल कर चल रहा है। मानो वह परम धार्मिक हो। चलते समय वह अपने पांव भी कितनी सावधानी से रख रहा है। ऐसा लग रहा है कि कहीं उसके पांव के नीचे दबकर कोई जीव मर न जाए। वास्तव में यह कोई बड़ा साधु हृदय पक्षी लगता है। बगुले की प्रशंसा में संत अपने शिष्यों से कुछ न कुछ कहे जा रहे थे। अचानक तभी सभी को सरोवर से एक आवाज आती सुनाई दी। आवाज आने पर संत और उनके शिष्यों का ध्यान उस ओर जाना स्वाभाविक था। दरअसल सरोवर से आने वाली वह आवाज एक मछली की थी। वह कह रही थी - अरे ओ दुग्ध हृदय संत। जैसा आपका दिल दूध जैसा सफेद है, वैसा ही आप उस बगुले को भी देख रहे हो, जबकि हकीकत तो यह है कि बगुले की उज्ज्वलता तो ऊपरी है। उसके भीतर की रहस्य भरी बातें आप क्या जानो। यह भले ही सफेद दिख रहा है, लेकिन इसके मन में तो कालापन भरा हुआ है। आप इसके पास नहीं रहते और पहली बार आपने इसे देखा है। ये बातें तो वे ही जान सकते हैं जो इस बगुले के आसपास ही रहते हैं। आपके इस उज्जवल वेषधारी बगुले ने मेरा वंश चुन-चुन कर समाप्त कर दिया है। उसकी इस साधना का रहस्य जानना हो, तो मुझसे जानिए। ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाएंगे, जो अपने पाप ढंकने के लिए धार्मिक काम करते रहते हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए।

Dark Saint Alaick 10-08-2012 08:32 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
जज्बे और क्षमता पर भरोसा रखें

महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना किसी धार्मिक परंपरा का हिस्सा नहीं हो सकता। महिला अधिकार ही मानवाधिकार है और मानवाधिकार ही महिला अधिकार है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा किए बगैर आप मानवाधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते। एक महिला जब तरक्की करती है, तो सच मानिए पूरा समाज तरक्की करता है। अब तो शिक्षा ने महिलाओं के विकास के नए दरवाजे खोले हैं। आज महिलाएं बड़ी कंपनियों का नेतृत्व कर रही हैं, बेहतरीन खिलाड़ी हैं, शिक्षा और राजनीति में भी उन्हें उच्च पद हासिल हुए हैं। महिलाएं सामाजिक कार्यों में भी पीछे नहीं हैं। शिक्षा महिलाओं के विकास के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के विकास के लिए बेहद जरूरी है। अगर किसी समाज को आगे बढ़ाना है तो सबसे पहले इसकी महिलाओं को शिक्षित करना होगा। महिलाओं को पीछे धकेलकर कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता। शिक्षा केवल महिलाओं को किताबी ज्ञान नहीं प्रदान करती बल्कि उनके अंदर आत्मविश्वास पैदा करती है। महिलाओं का आत्मविश्वास ही समाज की ताकत है। दुनिया के सामने इस समय कड़ी चुनौतियां हैं। आर्थिक मंदी, आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग, यौन उत्पीड़न, बीमारियों का प्रकोप और बहुत कुछ। महिलाएं इन समस्याओं से निपटने में अहम भूमिका अदा कर सकती हैं। महिलाएं खुद अपने आदर्शो व विचारों की दूत हैं। उनको दुनिया का नेतृत्व करना है, इन तमाम चुनौतियों से निपटने के लिए। उनकी भूमिका केवल घर व समाज तक सीमित नहीं है। महिलाओं में समाज और दुनिया को चलाने की क्षमता है, कठिनाइयों से जूझने का जज्बा है। महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं। हर क्षेत्र में उनका दखल होना चाहिए, हर क्षेत्र में उनका वजूद होना चाहिए, परंतु तरक्की के नए अवसरों के साथ ही महिला की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। वे अपने समाज का भविष्य तय कर सकती हैं और नई मिसाल कायम कर सकती हैं। महिलाओं को अपने जज्बे और क्षमता पर पूरा भरोसा करना चाहिए।

Dark Saint Alaick 10-08-2012 08:33 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
सिपाही की उदारता

एक बहादुर फ्रांसिसी सिपाही लेफायेटे ने अमेरिकी क्रांति के दौरान जंग में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। जंग काफी लंबी चली। जंग की समाप्ति के बाद उसने सेनापति से घर जाने की अनुमति मांगी। जंग में उसकी बहादुरी देख सेनापति ने तत्काल उसको घर जाने के लिए अवकाश भी स्वीकृत कर दिया। वह काफी खुश हुआ क्योंकि वह अरसे बाद अपने घर जा रहा था। जब अपने गांव वापस पहुंचा तो वहां लोगों की हालत देख काफी परेशान हो गया। उन दिनों उसके और उसके आसपास के गांवों में गेहूं की फसल पूरी तरह से खराब हो गई थी। गांव के सभी लोग फसल खराब होने के कारण बेहद दुखी थे। बच्चे व बूढ़े भूख से तड़प रहे थे। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस आकस्मिक आपदा से किस तरह से निपटा जाए। लेफायटे जब अपने घर में दाखिल हुआ तो यह देखकर हैरान रह गया कि उसके घर के गोदाम गेहूं से भरे हुए हैं। उसे पता चला कि उसके परिवार वालों ने पिछले कुछ सालों में दिन-रात मेहनत कर गेहूं इकट्ठा करके गोदाम में रख दिया था। गांव का जो प्रधान था वह अवसर का लाभ उठाने में माहिर माना जाता था। जब प्रधान को पता चला तो वह लेफायटे के पास आकर बोला- आपके यहां तो गेहूं के गोदाम भरे हैं। मेरे ख्याल से यह अच्छा अवसर है। कम समय में ज्यादा कमाई का इससे बेहतर जरिया कोई हो ही नहीं सकता। आपको अपने गोदाम में जमा गेहूं को भूखे मर रहे लोगों को ऊंचे दाम पर बेचकर काफी मुनाफा कमा लेना चाहिए। लेफायेटे प्रधान की बात सुनकर दंग रह गया। वह बोला-आपको ऐसा कहना शोभा नहीं देता। गांव के लोग भूखे मर रहे हैं और आप कह रहे हैं कि मैं गेहूं ऊंचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाऊं। इससे बड़ी शर्मनाक बात कोई हो ही नहीं सकती। यह वक्त तो गेहूं सबको बांटने का है ताकि विपदा से सहजता से जूझा जा सके। विपदा का लाभ उठाकर लोगों को मौत के मुंह में धकेल कर कमाई का पाप मैं नहीं कर सकता। प्रधान शर्मिंदा हो गया। उसने भी अपने गोदामों में जमा गेहूं बांटने का फैसला कर लिया।

abhisays 11-08-2012 06:57 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
अलैक जी, इस सूत्र से काफी प्रेरणा मिल रही है और अच्छी अच्छी बातें पता चल रही है। इस मंच के मेरे पसंदीदा सूत्रों में से एक यह बन गया है। इस शानदार सूत्र के लिए आपको बहुत बहुत आभार :bravo:

Dark Saint Alaick 14-08-2012 03:50 PM

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एकता आज की सबसे बड़ी जरूरत

तेरह मई 1952 को भारतीय संसद का पहला सत्र शुरू हुआ। इसके बाद 22 मई को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए जो ऐतिहासिक भाषण दिया, वह आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है। साथ ही वह देश में संसदीय परंपरा की शुरुआत के बौद्धिक स्तर को भी दिखाता है। पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा था कि हमें अंग्रेजों से आजादी मिल चुकी है। अच्छी बात यह है कि हमें यह आजादी शांतिपूर्वक मिली लेकिन उसके बाद देश में भारी उथल-पुथल हुई है। देश में सामूहिक आक्रमण और कई हिंसक घटनाएं घटीं। साम्यवादी और सांप्रदायिक तत्वों ने समझा कि नई सरकार देश में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन करेगी, लेकिन वे ऐसा नहीं चाहते थे। इसलिए भारत में सांप्रदायिक उथल-पुथल की आड़ में हिंसक आंदोलन हुए। ये आंदोलन राष्ट्रीय खतरे के रूप में सामने आए। सांप्रदायिक गुटों ने देश भर में अलग-अलग तरीकों से परेशानी पैदा करके इस राष्ट्रीय संकट से अनुचित लाभ उठाने की कोशिश की। इस दौरान कुछ ऐसी घटनाएं घटीं, जिनसे भारत की एकता भंग हो सकती थी और इसके खंड-खंड हो जाते। ऐसे समय में कांग्रेस ने वे फैसले किए जो देश की अखंडता के लिए जरूरी थे। जहां तक भाषावार राज्यों के गठन का मसला है तो मैं कहना चाहता हूं कि अगर जनता भाषावार राज्यों का निर्माण चाहती है तो सरकार बाधा नहीं बनेगी, लेकिन इस समय सबसे बड़ी चिंता देश की एकता और अखंडता बनाए रखने की है। ऐसे किसी भी कार्य को जिसकी वजह से देश की एकता भंग होती है टाला जाना चाहिए। याने पंडित नेहरू ने उसी वक्त भविष्य को पढ़ लिया था और वे जानते थे कि इस विशाल देश के सामने आने वाले समय में किन तरह की समस्याएं सामने आ सकती हैं। इसीलिए उन्होंने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया था।

Dark Saint Alaick 14-08-2012 03:51 PM

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चित्रकार का देश भक्ति पाठ

श्रीपाद दामोदर सातवलेकर वैदिक विद्वान होने के साथ कुशल चित्रकार भी थे। उनके चित्रों को लोग काफी रूचि के साथ देखते थे और जो चित्र उन्हें पसन्द आ जाते थे, उन्हें खरीद भी लिया करते थे। उन्होंने अपनी तूलिका से बड़े-बड़े धनपतियों तथा अन्य लोगों के चित्र बनाए थे। चित्रकला में वे इतने गुणी थे कि दूर दूर तक उनका नाम काफी लोकप्रिय हो रहा था। चित्रकला के माध्यम से ही वह अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। उस वक्त उन्हे अपने चित्रों से इतने रूपए तो मिल ही जाते थे कि घर का खर्च आसानी से चल जाता था। वह अपनी उतनी कमाई से काफी खुश भी रहते थे। उन दिनों भारत गुलाम था। एक दिन सातवलेकर के मन में ख्याल आया कि अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए उन्हें वेद-ज्ञान के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में योगदान करना चाहिए। उसी दिन से उन्होंने चित्र बनाने का काम बंद कर दिया और अपना अधिकतर समय वेदों के प्रचार-प्रसार में लगाना शुरू कर दिया। वह लोगों को इकट्ठा कर उन्हें वेद-ज्ञान के साथ-साथ देश को आजाद कराने के लिए एकता का पाठ पढ़ाने लगे। अनेक लोग उनके साथ जुड़ते चले गए और सभी स्वतंत्रता के स्वप्न देखने लगे, लेकिन इससे उनके परिवार के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया। एक दिन एक व्यक्ति उनके परिवार पर आर्थिक संकट की बात सुनकर उनके पास आया और उनके सामने ढेर सारे रुपये रखकर बोला- पंडितजी आप हमारे नगर के रायबहादुर का चित्र बना दीजिए और इन रुपयों को एडवांस समझ कर रखिए। चित्र पूरा होने पर आपको और अधिक रुपए दिए जाएंगे, जिससे आपका संकट दूर हो जाएगा। व्यक्ति की बात सुनकर सातवलेकर बोले-अंग्रेजों से रायबहादुर की उपाधि प्राप्त किसी अंग्रेजपरस्त व्यक्ति का चित्र बनाकर उससे मिले अपवित्र धन को मैं स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप इन रुपयों को उठाइए और इन्हे लेकर यहां से चले जाइए। वह व्यक्ति आर्थिक संकट में भी सातवलेकर की देशभक्ति की भावना को देखकर उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा।

Dark Saint Alaick 15-08-2012 01:30 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
महत्व खो बैठेगा विपक्ष

(बाईस मई 1952 को भारतीय संसद के पहले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के जवाब में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण का अंश)


देश के सदन में शक्तिशाली विपक्ष का होना अच्छा है, ताकि सरकार हमेशा अधिक सतर्क होकर देश की तरक्की के लिए काम करे। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि विपक्ष सरकार के सभी कामों की आलोचना करे। यदि विरोधी दल ऐसा ही करते रहे, तो वे महत्व खो बैठेंगे। मैं यहां पर अपने पुराने साथियों को देख रहा हूं जो अब विरोधी पार्टियों के सदस्य हैं। मैं यह कतई नहीं मानता कि जिन लोगों के साथ पहले हमारा सहयोग का रिश्ता रहा हो अब हम उनके साथ सहयोग नहीं कर सकते। मैं मानता हूं कि उनके साथ सहयोग के तरीके खोजे जा सकते हैं। मतभेदों के बावजूद हम विपक्ष से सहयोग की अपेक्षा करते हैं। मणिपुर के एक सम्मानित सदस्य ने जनजातीय समुदाय के लोगों के बारे में कुछ सवाल उठाए थे। मैं कहना चाहता हूं कि देश के जनजातीय समुदाय से जुड़ा मुद्दा बेहद अहम है केवल इसलिए नहीं कि देश में बड़ी संख्या में जनजातीय समुदाय के लोग हैं बल्कि इसलिए कि उनकी विशेष संस्कृति है। मैं मानता हूं कि उनकी संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए। हमें यह भी देखना होगा कि जनजातीय समुदाय की संस्कृति का किसी प्रकार से शोषण न हो। अंत में मैं शरणार्थियों के पुनर्वास के बारे में बात करूंगा। हम इस बात को लेकर पूरी तरह से सजग हैं। हम जानते हैं कि बड़ी संख्या में देश में मौजूद शरणार्थी खासकर पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों का पुनर्वास किया जाना है। मैं इस बात को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह रहा, लेकिन सच यह है कि इस क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय कार्य किया है। दुनिया में हम अकेले ऐसे देश नहीं हैं जिसने शरणार्थियों के पुनर्वास पर काम किया है। हमने बाहर से मिलने वाली आर्थिक मदद के बिना ही पुनर्वास क्षेत्र में काम किया है। अगर विस्थापितों ने खुद आगे बढ़कर सहयोग नहीं किया होता तो हम यह नहीं कर पाते।

Dark Saint Alaick 15-08-2012 01:32 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
बापू के उपदेश ने बदली सोच

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश को आजाद करवाने के लिए जो जंग लड़ी वह अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही लड़ी थी । वो मानते थे कि अहिंसा में इतनी ताकत होती है कि बड़े से बड़ा आदमी भी उसके आगे झुकने को मजबूर हो जाता है। बात उन दिनों की है जब महात्मा गांधी अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष कर रहे थे। इस कड़ी में जनसंपर्क कर अधिकाधिक लोगों को अपने अभियान में शामिल करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। इसके लिए महात्मा गांधी कई शहरों व गांवों में जाते थे और लोगों को राष्ट्र-हितकारी कार्यों से जुड़ने के लिए प्रेरित करते थे। इसी सिलसिले में एक बार महात्मा गांधी दिल्ली के किसी मोहल्ले में रुके हुए थे। एक दिन वे अपने कमरे में कोई आवश्यक कार्य कर रहे थे कि उन्हें किसी की बातचीत सुनाई दी। बातचीत एक लड़के और लड़की के बीच हो रही थी और अंग्रेजी में हो रही थी। महात्मा गांधी ने दोनों को भीतर बुलाकर पूछा-आप कौन हैं? दोनों अचकचा गए और कुछ बोल ही नहीं पाए क्योंकि महात्मा गांधी उन्हें भली-भांति जानते थे। महात्मा गांधी ने फिर पूछा- बोलो, आप कौन हो? दोनों ने कहा-बापू हम सगे भाई.बहन हैं। महात्मा गांधी ने अगला प्रश्न किया- तुम कहां के रहने वाले हो? उत्तर मिला- पंजाब के। महात्मा गांधी बोले- तुम तो पंजाबी और हिंदी दोनों भाषाएं जानते हो फिर बातचीत में इनका प्रयोग क्यों नहीं करते? अंग्रेजी के गुलाम बनकर अपने देश की भाषाओं पर तुम अत्याचार कर रहे हो। अंग्रेजी को मैं बुरी भाषा नहीं मानता, किंतु उसके लिए मातृभाषा का तिरस्कार करना उचित नहीं है। ऐसे लोगों से अंग्रेजी में जरूर बात करो जो हमारी भाषाएं नहीं समझते। विश्व की सभी भाषाएं सम्मान के योग्य हैं किंतु स्वदेश में मातृभाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। राष्ट्र के प्रति निष्ठा व्यक्त करने का यह एक माध्यम है। दोनों भाई-बहनों ने बापू से क्षमा मांगी और उन्हे वचन दिया कि वे दोनो तो अब आपस में मातृभाषा में बात करेंगे ही, अपने परिचितों से भी ऐसा ही करने का आग्रह करेंगे।

Dark Saint Alaick 18-08-2012 02:41 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
कामयाबी के लिए प्रयास जरूरी

कामयाबी उसी को मिलती है जिसके भीतर उसे पाने की इच्छा होती है। कामयाबी पाने की इच्छा के साथ-साथ कामयाबी पाने की रीति मालूम होनी चाहिए। इसके बाद आपको तब तक निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए जब तक कामयाबी न मिले। कामयाबी पाने की चाह ही काफी नहीं है। उसके लिए प्रयत्न करना अनिवार्य है। ऐसा भी नहीं है कि आप प्रयत्न नहीं करते हैं। प्रयत्न करते हैं, करते ही जाते हैं, लेकिन फिर भी सफल नहीं हो पाते हैं। दरअसल होता यह है कि हम बेतहाशा प्रयत्न करते जाते हैं लेकिन अपने दोषों और कमियों को दूर करना नहीं भूलते हैं। अतीत को विस्मरण कर बैठते हैं। उसकी जांच-पड़ताल करना ही नहीं चाहते हैं। अतीत की जांच-पड़ताल हमें बहुत कुछ सिखाती है। प्रत्येक नाकामयाबी एक नया पाठ सिखाती है यानि कामयाबी का एक सूत्र देती है। किसी भी योजना को पूर्ण करने के लिए दो प्रकार होते हैं। एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। कहने का तात्पर्य यह है कि धनी बनने के लिए या तो आय बढ़ाएं या व्यय घटाएं। आप उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं तो आपको कार्य की अवधि बढ़ानी होगी या फिर कार्य के समस्त विघ्न या व्यर्थ के विलम्ब को दूर करना होगा। कामयाबी के प्रदेश की यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व अपने समस्त दुर्गुणो, कमियों और समस्त नकारात्मक विचारों व पछतावों को आपको त्यागना होगा। मन में कामयाबी पाने का दृढ़ विश्वास होना चाहिए। आपको कामयाबी मिले इसलिए परमात्मा को अपना सहयोगी अवश्य मानें क्योंकि ऐसा करने से आपमें एक विश्वास उत्पन्न होता है। जब आपके मन में होगा कि मुझे कामयाबी अवश्य मिलेगी और प्रयत्न भी योजनाबद्ध होगा तो ईश्वर आपका अपने आप सहयोगी बन जाएगा और आपको कामयाबी के प्रदेश की यात्रा कराकर ही मानेगा। इसलिए जो भी काम करें या कामयाबी के लिए जो भी कदम उठाएं पूरे विश्वास के साथ उठाएं।

Dark Saint Alaick 18-08-2012 02:42 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
धूल समान है प्रशंसा और निंदा

एक पर्वत पर एक पहुंचे हुए संत रहते थे। एक दिन एक भक्त उन संत के पास आया और बोला-महात्मा जी, मुझे कुछ समय के लिए तीर्थयात्रा के लिए जाना है। मेरी यह स्वर्ण मुद्राओं की थैली अपने पास रख लीजिए। इसमें काफी संख्या में स्वर्ण मुद्राएं हैं। संत ने कहा-भाई,हमें इस धन-दौलत से क्या मतलब? भक्त बोला-महाराज, आपके सिवाय मुझे और कोई सुरक्षित एवं विश्वसनीय स्थान नहीं दिखता जिसके पास मैं अपनी यह कीमती थैली रख दूं। कृपया इसे यहीं कहीं अपने पास रख लीजिए। यह सुनकर संत बोले-ठीक है,इस थैली को यहीं गड्ढा खोदकर उसमें दबा कर रख दो। भक्त ने वैसा ही किया और गड्ढा खोदकर उसमें थैली इत्मिनान से दबा कर रख दी। वह तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ा। लौटकर आया तो महात्माजी से अपनी थैली मांगी। महात्मा जी ने कहा-जहां तुमने रखी थी वहीं खोदकर निकाल लो। भक्त ने थैली निकाल ली। प्रसन्न होकर भक्त ने संत का खूब गुणगान किया लेकिन संत पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भक्त घर पहुंचा। उसने पत्नी को थैली दी और नहाने चला गया। पत्नी ने पति के लौटने की खुशी में लड्डू बनाने का फैसला किया। उसने थैली में से एक स्वर्ण मुद्र्रा निकाली और लड्डू के लिए जरूरी चीजें बाजार से मंगवा लीं। भक्त जब स्रान करके लौटा तो उसने स्वर्ण मुद्र्राएं गिनीं। एक स्वर्ण मुद्रा कम पाकर वह सन्न रह गया। उसे लगा कि जरूर उसी संत ने एक मुद्रा निकाल ली है। वह तत्काल संत के पास पहुंच गया। वहां पहुंचकर उसने संत को भला-बुरा कहना शुरू किया। अबे ओ पाखंडी, मैं तो तुम्हें पहुंचा हुआ संत समझता था पर स्वर्ण मुद्रा देखकर तेरी भी नीयत खराब हो गई। संत ने कोई जवाब नहीं दिया। तभी उसकी पत्नी वहां पहुंची। उसने बताया कि एक मुद्र्रा उसने निकाल ली थी। यह सुनकर भक्त लज्जित होकर संत के चरणों पर गिर गया। उसने रोते हुए कहा-मुझे क्षमा कर दें। मैंने आपको क्या-क्या कह दिया। संत ने दोनों मुट्ठियों में धूल लेकर कहा,ये है प्रशंसा और ये है निंदा। दोनों मेरे लिए धूल के बराबर है। जा, तुम्हें क्षमा करता हूं।

Dark Saint Alaick 18-08-2012 03:38 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
अपने नजरिए का विस्तार करें

कहते हैं नजरिया अपना अपना होता है। आप जिस नजर से जो वस्तु देखेंगे वह आपको वैसी ही लगने लगेगी। दरअसल जो मकड़ी की तरह जीते हैं वे ही परेशान और दुखी रहते हैं। आपने देखा होगा मकड़ी स्वयं जाला बुनती है और स्वयं ही उसमें उलझी रहती है। व्यक्ति भी स्वयं परिस्थितियों का जाला बुनता है और फिर उसमें उलझता और निकलता रहता है। इसी ऊहापोह में उसका जीवन दुखी बना रहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य का निर्माता स्वयं है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो अस्वस्थ होते हुए भी रोग का बहाना बनाकर घर नहीं बैठते हैं और काम में संलग्न रहते हैं या अपना कष्ट भूलकर दूजों के हित में सक्रिय रहते हैं और ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो छींक आने पर या हल्का बुखार आ जाने पर कठिन रोग का बहाना बनाकर बिस्तर पर लेट जाते हैं और लम्बा आराम करते हैं। दुख, कष्ट या अभाव कभी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करते हैं वह तो आपकी बुद्धि और आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करते हैं। जब तक आप अपने अन्तर में समाए इस अज्ञान को नहीं छोड़ेंगे तब तक आप इससे मुक्त नहीं हो सकेंगे। जब आप अपने दृष्टिकोण का विस्तार करके संसार को देखने लगेंगे तो आप इस परिस्थिति जन्य दुख को पास ही नहीं आने देंगे। आपके पास आपकी हर समस्या का हल होगा। परिस्थितियां आपको उलझा कर मकड़ी बना ही नहीं पाएगी। फिर कोई भी यह नहीं कहेगा कि आप तो हर समय अपने में ही उलझे रहते हैं। ऐसी भी क्या उलझन जो हर समय उसी में उलझे रहो, मकड़ी बने बैठे रहो। ऐसा भी क्या जीना जो मकड़ी ही बन गए। से नहीं मुक्त हो सकेंगे। मन में व्याप्त संकीर्णता और हीनता को त्याग करके जब आप विस्तृत दृष्टि से अपने आस-पास या संसार को देखते हुए सदाचार का पालन करेंगे तो मकड़ी नहीं बनेंगे और आपके समक्ष होगा परिस्थितियों से मुक्त ऐसा संसार कि सहसा आप कह उठेंगे कि दृष्टि क्या बदली सब कुछ ही बदल गया।

Dark Saint Alaick 18-08-2012 03:39 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
दान और व्यापार में अंतर

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पास रोजाना अनेक व्यक्ति अपनी विभिन्न प्रकार की समस्याएं लेकर पहुंचते थे। वहां जो भी आता था उसे यही उम्मीद रहती थी कि महात्मा गांधी उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनेंगे और उसका निराकरण भी बताएंगे। चूंकि महात्मा गांधी का स्वभाव काफी उदार था और वे सबके साथ सहयोगपूर्ण रवैया रखते थे इसलिए आम जनता से लेकर खास लोगों तक सभी को यह लगता था कि महात्मा गांधी उसके अपने हैं और उसकी बात को बड़े ध्यान से सुनेंगे। इसी कारण कोई भी उनके पास आने में कतई संकोच नहीं करता था। वे जब भी अपने नियमित कार्यों से फुरसत पाते,लोगों से भेंट-मुलाकात का उनका सिलसिला चल पड़ता। ऐसे ही एक बार महात्मा गांधी के पास एक सेठ आए। वह सेठ काफी सम्पन्न थे और दूर-दूर तक उनका नाम भी था। उस सेठ को लोग दानदाता सेठ के नाम से भी जानते थे क्योंकि वे हर अच्छे काम के लिए मोटी रकम दान में देते थे। महात्मा गांधी उनका चेहरा देखकर समझ गए कि वह काफी परेशानी में हैं। उन्होंने सेठ से बड़े स्नेह से समस्या के विषय में पूछा तो वे शिकायती लहजे में बोले-देखिए न बापू,दुनिया कितनी कपटी है। मैंने पचास हजार रुपए लगाकर एक धर्मशाला बनवाई। धर्मशाला बनने पर मुझे ही उसकी प्रबंध समिति से अलग कर दिया गया। जब तक वह नहीं बनी थी तब तक वहां कोई नहीं आता था और अब बन जाने पर पचासों उस पर अधिकार जताने आ गए है। महात्मा गांधी ने मुस्कराकर समझाया-दान का सही अर्थ न समझ पाने के कारण आपको दुख है। किसी चीज को देकर कुछ पाने की इच्छा दान नहीं, व्यापार है और जब व्यापार किया है तो लाभ और हानि के लिए आपको तैयार रहना चाहिए। व्यापार में लाभ भी हो सकता है और हानि भी। दान तभी फलितार्थ होता है जब वह प्रतिदान की इच्छा से रहित हो। निस्वार्थ और निरपेक्ष भाव से किया गया दान सही मायने में दान है। इसके बगैर दान का कोई अर्थ नहीं है। महात्मा गांधी की बात सुनकर सेठ को अपनी गलती का अहसास हुआ।

Dark Saint Alaick 22-08-2012 12:44 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
सच्चे दोस्त होते हैं माता -पिता

कई बार खुशी को लेकर भ्रम हो जाता है। कई बार आपको लगता है कि भौतिक चीजों से मिलने वाली संतुष्टि आपको सच्ची खुशी दे सकती है, लेकिन यह सच नहीं है। जैसे-जैसे आप जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव से गुजरेंगे, आपको लगेगा कि भौतिक चीजों से मिलने वाली संतुष्टि आपको सच्ची खुशी नहीं दे सकती। हो सकता है कि आज आपके पास सब कुछ हो। सफलता, शोहरत और दौलत भी। सुख-आराम की तमाम चीजें, लेकिन कभी आजमा कर देखिए। इन चीजों से आपको वह खुशी नहीं मिलती, जो आपको किसी से मिले प्यार के कारण मिलती है। वे लोग भाग्यशाली होते हैं, जिनके माता-पिता उनके साथ रहते हैं। जब वे साथ रहेंगे, तो आपको अपने आप यह अहसास होने लगेगा कि आपके पास ऐसे लोग हैं, जो आपसे प्यार करते हैं। यह प्यार ही सबसे बड़ी खुशी है। सच्ची खुशी उन चीजों में छिपी होती है, जिन्हें आप अपनी दौलत में नहीं गिनते। बच्चों के साथ खेलना, उनके साथ वक्त बिताना सबसे बड़ी खुशी है। जीवन के वे पल सबसे बेहतरीन क्षण होते हैं, जब आप अपने ऐेसे लोगों के साथ होते हैं, जो आपसे प्यार करते हैं। इसलिए आपको इस पल में मिलने वाली खुशी को समझना होगा। माता-पिता जीवन भर आपके लिए बहुत कुछ करते हैं, लेकिन बदले में वे आपसे कुछ नहीं मांगते। आप चाहे जो गलती करें, आप चाहे जैसी शरारतें करें, आपके माता-पिता हर हाल में आपके सच्चे दोस्त होते हैं। जब भी आप मुसीबत में होते हैं, सबसे पहले आपके माता-पिता आपके पास होते हैं, क्योंकि वे आपके दर्द को बेहतर समझते हैं। जो लोग बचपन में अपने माता-पिता को खो देते हैं, वही समझ सकते हैं कि उनके न होने का गम क्या होता है। उन्हें जीवन भर उनकी कमी बहुत खलती है। माता-पिता ही एकमात्र आपके ऐसे दोस्त हैं, जो आपको बिना शर्त प्यार करते हैं। इसलिए भरपूर कोशिश करो कि उनका साथ आपको मिले। वही सबसे बड़ी खुशी है।

Dark Saint Alaick 22-08-2012 12:47 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
धर्म का आचरण

कवि कनकदास का जन्म विजय नगर साम्राज्य के बंकापुर प्रांत में एक गड़रिया परिवार में हुआ था। वह अपना अधिकांश समय ईश्वर की भक्ति साधना तथा अपने इष्टदेव तिरुपति के प्रति पदों की रचना में व्यतीत करते थे। गरीबों की सेवा करने के लिए वह हमेशा तत्पर रहते थे। एक बार उन्हें सोने की मुद्राओं से भरा एक बड़ा घड़ा प्राप्त हुआ। उन्होंने यह बात जब अपने सभी मिलने वालों को बताई तो सभी ने घड़े के मालिक को खोजने के प्रयास किए, पर अथक प्रयासों के बाद भी घड़े का कोई मालिक सामने नहीं आया। आखिरकार घड़ा कनकदास को सौंप दिया गया। कनकदास उस धन को अपने ऊपर खर्च करना पाप समझते थे। काफी सोच - विचार करके उन्होंने उस धन में से आधा हिस्सा निर्धनों के कल्याण पर खर्च कर दिया तथा आधे से कुलदेवता आदि केशव का मंदिर बनवाया। इसके बाद भी थोड़ा बहुत धन बच गया। वह यह विचार करने लगे कि इस धन को कहां खर्च किया जाए, तभी उनके परिवार के एक सदस्य ने कहा कि इसका कुछ अंश क्यों न परिवार की आवश्यकताओं पर खर्च किया जाए। यह सुनकर वह अपने घर के सदस्यों से बोले - बिना परिश्रम के प्राप्त हुए कोई भी धन का अपनी सुख-सुविधाओं के लिए उपयोग करना तो सरासर धर्म के विरुद्ध है। मैं अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों को धर्माचरण का उपदेश देता हूं, फिर स्वयं अधर्म का आचरण कैसे कर सकता हूं? मैं अपने परिवार की आवश्यकता के लिए परिश्रम से धन अर्जित कर सकता हूं। आप सभी जानते हैं कि मुझे लेखन तथा काव्य से अत्यंत प्रेम है। मुझे अपनी इस प्रतिभा को निखारकर धन अर्जित करना चाहिए। उसी धन का उपयोग मेरे लिए सही है। कनकदास की बात सुनकर उनके परिवार के सदस्य चुप हो गए। कनकदास ने बचे धन को अपंगों में बांट दिया। इसके कुछ समय बाद ही कनकदास के साहस, निकलंक छवि और समर्पण भाव को देखते हुए बंकापुर राज्य का सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया।

Dark Saint Alaick 23-08-2012 12:01 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
हार के पीछे ही छिपी होती है जीत

कामयाबी एक खूबसूरत अहसास है। हर कोई सफलता चाहता है लेकिन सफलता आपको बुद्धिमान नहीं बनाती। आप अपनी सफलता किसी और को नहीं दे सकते। अगर आप सफल हैं तो जरूरी नहीं है कि आपके बच्चे भी सफल हों। सफलता के सूत्र पर बात करना समय की बरबादी है। कई बार लोग इसलिए भी सफल हो जाते हैं कि क्योंकि उन्हे असफलता से बहुत डर लगता है। कई लोगों को जीत की खुशी से ज्यादा हार का डर सताता रहता है। ऐसा तब होता है जब या तो मनुष्य कमजोर हो या ऐसे हालात में होता है वह कुछ कर नहीं पाता। ये हालात मनुष्य के भीतर तनाव और निराशा पैदा करते हैं। कई बार मनुष्य मैंने अपने आस पास के वातावरण को देख कर भी हतोत्साहित हो जाता है। ऐसे में उसके अंदर हार और नाकामयाबी का डर बढ़ जाता है। ऐसा नही होना चाहिए। प्रयास तो जारी रखने ही चाहिए। पहले भले ही कोई काम छोटा नजर आता हो लेकिन यह तय मानिए कि कोई भी काम छोटा नहीं होता। छोटे काम के साथ ही मनुष्य आगे बढ़ता है और एक दिन ऐसा भी आता है जब वह उसी छोटे काम के दम पर बड़ा काम कर जाता है। बस, यहीं से कामयाबी के दरवाजे खुल जाते हैं। हार के पीछे ही जीत का रहस्य छिपा है। हार आपको खुद को सुधारना सिखाती है। असफलता आपको संघर्ष करना सिखाती है। विफलता आपको हकीकत से रूबरू कराती है। नाकामयाबी आपको सच्चे दोस्तों की पहचान करना सिखाती है क्योंकि जो लोग हार के बाद आपका हौसला बढ़ाने आते हैं वही आपके सच्चे दोस्त होते हैं। कई असफलताओं के बाद आपको खुद को यह अहसास होने लगेगा कि आपके अंदर और बेहतर करने की क्षमता है। हारने बाद आपको यह भी अहसास होने लगेगा कि आपके अंदर जबर्दस्त आत्मविश्वास है। इसलिए हार से मत डरो। कहा भी जाता है कि हार को आत्मविश्वास से जीत में बदला जा सकता है। खुद को पहचाने तो जीत तय है।

Dark Saint Alaick 23-08-2012 12:01 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
सामूहिकता में विश्वास

बात उस समय की है जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। आजाद हिंद फौज के जवानो के साहस और उनकी एकता से अंग्रेज भी खौफ खाया करते थे। सभी जवानो में आपस में ऐसा तालमेल था कि कोई चाहकर भी उन्हे अलग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज में सभी संप्रदायों के लोगों को शामिल होने का न्यौता दिया था। उनका विचार था कि भारत में रहने वाले सभी हिंदु, मुस्लिम, सिख आदि पहले भारतीय हैं फिर कुछ और। इसलिए वे आजाद हिंद फौज के दरवाजे सभी के लिए खुले रखते थे। जिसके भी सीने में देश को आजाद करने की आग हो और जो फौज के सभी जवानो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर सके वह उनकी फौज में शामिल हो सकता था। इसलिए आजादी की इस सेना में सभी तरह के लोग थे। उन्ही में से कैप्टन शाहनवाज खान भी आजाद हिंद फौज में शामिल हुए थे। एक बार अंग्रेजों ने उनकी किसी गतिविधि को लेकर उन पर मुकदमा दायर किया। कैप्टन के वकील बने भूलाभाई देसाई। इस बीच मुहम्मद अली जिन्ना ने कैप्टन शाहनवाज खान को संदेश भिजवाया कि यदि आप आजाद हिंद फौज के साथियों से अलग हो जाएं तो मुस्लिम भाई होने के नाते मैं आपका मुकदमा लड़ने को तैयार हूं। शाहनवाज खान ने तत्काल जवाब भिजवाया-हम सब हिंदुस्तानी कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे कई साथी इसमें शहीद हो गए और हमें उनकी शहादत पर नाज है। आपकी पेशकश के लिए शुक्रिया। हम सब साथ-साथ ही उठेंगे या गिरेंगे, परंतु साथ नहीं छोड़ेंगे। उनके इस सटीक जवाब से उनके सभी साथी बहुत प्रसन्न हुए। उन्हीं में से एक बोला-धर्म और जाति की संकीर्णता से ऊपर रहने वाला देश ही उन्नति करता है। इसलिए हमें समानता की दृष्टि से सबको देखते हुए सामूहिकता में विश्वास रखना चाहिए।

Dark Saint Alaick 27-08-2012 05:53 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
अच्छी पहल खुद करनी पड़ेगी

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस ने अपने माइक्रो फाइनेंस से न केवल बांग्लादेश बल्कि पूरी दुनिया के गरीबों को एक नई राह दिखाई है। यूनुस ने एक अमेरिकी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री हासिल की और वहां की मिडिल टेनिसी यूनिवर्सिटी में बतौर अस्टिस्टेंट प्रोफेसर काम किया। बाद में उन्होंने स्वदेश लौटकर गरीबों के लिए बैंकिंग प्रणाली शुरू करने का फैसला किया। उनकी यह पहल कारगर साबित हुई। ड्यूक यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित करते हुए प्रोफेसर यूनुस ने युवाओं को सामाजिक कारोबार की प्रेरणा दी। उन्होने कहा,आप खुशनसीब हैं कि आपकी पीढ़ी को सूचना तकनीक की सुविधाओं का लाभ मिला है। हमारे जमाने में यह सुविधा नहीं थी। तब हमें संदेश भेजने के लिए पत्र लिखना पड़ता था और इसमें लंबा समय लगता था। आज समय बदल गया है। अब आप कुछ सेकंड में दुनिया में किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति को ई-मेल के जरिए संदेश भेज सकते हैं। आप हर पल एक दूसरे के संपर्क में रह सकते हैं। संचार और संवाद आसान हुआ है। इंटरनेट के जरिए आपके पास सूचनाओं का अंबार है। तकनीक ने आपके लिए रास्ते आसान किए हैं। सब कुछ अब आपके हाथ में है। अब फैसला आपको करना है कि इस तकनीक का इस्तेमाल कैसे करते हैं। क्या आप तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ पैसा कमाने के लिए करेंगे या फिर तकनीक के जरिए इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश भी करेंगे? मर्जी आपकी है, फैसला आपका है। आप चाहें तो दुनिया को बदल सकते हैं। आप चाहें तो इस तकनीक की मदद से तमाम जरूरतमंद लोगों की मदद कर सकते हैं। रास्ते खुले हैं। हम पहल कर सकते हैं। आज आपके हाथ में तकनीक नाम का अलादीन का चिराग है। डिजिटल डिवाइस नामक जिन्न है। इसकी मदद से आप सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। तकनीक का इस्तेमाल समाज के विकास में होना चाहिए।

Dark Saint Alaick 27-08-2012 05:54 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
महत्वाकांक्षा ने खोली आंखें

किसी जमाने में एक बौद्ध मठ में सुवास नामक एक भिक्षु रहता था। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी था। इस महत्वाकांक्षा के चक्कर में वह ऐसी बातें भी सोचने लगता था जो उसके वश में नहीं होती थी। वह हमेशा यही सोचता रहता था कि बुद्ध की तरह वह भी नव भिक्षुओं को दीक्षित करे और उसके शिष्य उसकी नियमित चरण वंदना करें। मगर वह यह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी इस इच्छा की पूर्ति कैसे करे। अपनी इस आदत के कारण वह मठ में रहने वाले दूसरे भिक्षुओं से आम तौर पर कटा-कटा सा रहता था। कई बार जब दूसरे भिक्षु उसे कुछ कहने का प्रयास करते तो वह उनसे दूरी बनाने की कोशिश करता या ऐसा कुछ कहता जिससे उसकी श्रेष्ठता साबित हो। दूसरे भिक्षु इस कारण उससे नाराज रहते थे लेकिन उसकी आदत को समझ कर उससे ज्यादा तर्क-वितर्क नहीं करते थे। एक दिन बुद्ध ने जब प्रवचन समाप्त किया और सारे शिष्यों के जाने के बाद सभा स्थल खाली हो गया तो अवसर देख सुवास ऊंचे तख्त पर विराजमान बुद्ध के पास जा पहुंचा और कहने लगा- प्रभु,आप मुझे भी आज्ञा प्रदान करें कि मैं भी नव भिक्षुओं को दीक्षित कर उन्हे अपना शिष्य बना सकूं और आपकी तरह महात्मा कहलाऊं। यह सुनकर बुद्ध खड़े हो गए और बोले- जरा मुझे उठाकर ऊपर वाले तख्त तक पहुंचा दो। सुवास बोला-प्रभु इतने नीचे से तो मैं आपको नहीं उठा पाऊंगा। इसके लिए तो मुझे आपके बराबर ऊंचा उठना पड़ेगा। बुद्ध मुस्कराए और बोले-बिल्कुल ठीक कहा तुमने। इसी प्रकार नव भिक्षुओं को दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरे समकक्ष होना पड़ेगा। जब तुम इतना तप कर लोगे तब किसी को भी दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मगर इसके लिए प्रयास करना होगा। केवल इच्छा करने से कुछ नहीं होगा। सुवास को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने बुद्ध से क्षमा मांगी। उस दिन से उसका व्यवहार और सोच पूरी तरह बदल गई और उसमें विनम्रता आ गई।

Dark Saint Alaick 28-08-2012 10:48 AM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
जब गूंजा भारत माता की जय

भारत के स्वतंत्र होने के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पिलानी के एक स्कूल में मुख्य अतिथि बनकर पहुंचे। स्कूल में विद्यार्थियों ने ऐसे विविध रंगारंग कार्यक्रम पेश किए कि पंडित नेहरू मंत्रमुग्ध होकर देखते ही रहे। हर रंगारंग प्रस्तुति के बाद वे जोर-जोर से तालियां बजाकर विद्यार्थियों का खूब उत्साह बढ़ा रहे थे। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद अपने विचार प्रकट करने के लिए पंडित नेहरू को मंच पर आमंत्रित किया गया। पंडित नेहरू मंच पर आकर बोले-आज मुझे इस स्कूल में आकर बेहद गर्व का अनुभव हो रहा है। हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चों ने काफी मेहनत से विविध रंगारंग कार्यक्रम पेश किए और मंच पर अपने काम को पूरी कुशलता के साथ अंजाम दिया है। इन्हीं बच्चों को आने वाले समय में हमारे देश की नींव को मजबूत करना है। भारत माता का नाम रोशन करना है। तभी उत्सुकतावश एक छोटे विद्यार्थी ने पंडित नेहरू से पूछा- भारत माता कौन हैं? उस छोटे विद्यार्थी के मुंह से निकले इस सवाल को सुनकर पंडित नेहरू के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। उन्होंने उस विद्यार्थी से कहा-बेटा, सोचो भारत माता कौन हैं? बालक कुछ देर तो सोचता रहा फिर बोला-हमारा देश भारत है। उसकी माता भारत माता हुई। इस पर पंडित नेहरू बोले-बच्चों, हमारा पूरा देश, इसके पहाड़, पवित्र नदियां, गांव, शहर,उद्योग सभी भारत माता हैं। हम सभी भारत माता की संतान हैं। हमारा फर्ज है कि हम अपनी भारत माता की सेवा करें, उसे विकास की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाएं। संतान का कर्त्तव्य अपनी माता की देखभाल करना है, उसका नाम रोशन करना है। इसलिए हमें ऐसे कार्य करने होंगे कि हमारा देश विश्व के भाल पर मणि की तरह चमके। यह सुनकर वहां उपस्थित स्वाधीनता सेनानी-उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला के साथ अध्यापक-अध्यापिकाएं भाव-विभोर हो उठे और विद्यालय का प्रांगण भारत माता की जय के उद्घोष से गूंज उठा।

Dark Saint Alaick 28-08-2012 04:21 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
सच्ची कोशिश से मिलती है कामयाबी

सफलता का मतलब जीतना नहीं बल्कि जीतने की सच्ची कोशिश करना है। अगर पूरी कोशिश करने के बाद भी आप सफल नहीं होते हैं तो दिल में यह सुकून होता कि चलो मैंने सच्ची कोशिश की। यह सुकून ही आपकी सफलता है। आप सफल हैं या नहीं यह तय करने का अधिकार सिर्फ आपको है। अधिकांश माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे को क्लास में ए या बी ग्रेड मिले। अगर किसी बच्चे को सी ग्रेड मिले तो कोई मानने को तैयार नहीं होता। उन्हें लगता है कि सी ग्रेड तो उनके बच्चे के लिए बना ही नहीं है। माता-पिता किसी हालत में अपने बच्चों को रैंकिंग में पिछड़ता नहीं देखना चाहते हैं। उनके लिए सफलता का मतलब ऊंची रैंक हासिल करना था। यह सोच सही नहीं है। ईश्वर ने हर इंसान को अलग-अलग प्रतिभा और भिन्न-भिन्न शक्ल-सूरत दी है। सभी लोग एक जैसे नहीं हो सकते। हर बच्चे को क्लास में ए या बी ग्रेड मिले यह जरूरी तो नहीं। जीत का मतलब नंबर वन बनना नहीं है। किसी विषय में अच्छे अंक पाकर या फिर किसी प्रतियोगिता में ऊंची रैंक हासिल करके आप सफल नहीं बन सकते। कहा जाता है कि दूसरों से बेहतर बनने की कोशिश मत करो। दरअसल उनका आशय यह होता है कि दूसरों से होड़ लेने की बजाय बेहतर यह है कि उनकी अच्छी आदतें सीखो। हमें वह कार्य करना चाहिए जो हम कर सकते हैं , जो हमारी क्षमता में है। अगर आप ऐसा कुछ भी करने की कोशिश करेंगे जो आपकी क्षमता से बाहर है तो यह आपके उन लक्ष्यों को भी प्रभावित करेगा जो आप हासिल कर सकते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप सफल हुए या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि आपने लक्ष्य को पाने के लिए कितनी मेहनत की। अगर आपने लक्ष्य हासिल करने के लिए भरपूर कोशिश की है, तो निश्चित रूप से आप सफल हैं। अब अगर आपने किसी काम को करने की कोशिश ही नहीं की है और आप सफल होने की उम्मीद करें, तो यह कदापि संभव नहीं है।

Dark Saint Alaick 30-08-2012 02:07 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
परिणाम जो भी हो, धैर्य जरूर रखें

अगर आपने कोई काम सच्ची कोशिश के साथ किया लेकिन अगर आपको सफलता न मिले तो मन में एक आत्मसंतोष रहता है कि चलो मैंने पूरी कोशिश की। यह अहसास आपके दिल को सुकून देता है। यह सुकून ही आपकी सफलता है। अगर आप किसी चीज को हासिल करने के लिए सच्ची कोशिश करते हैं और अगर आपको लगता कि आपने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी तो यह आपकी जीत है। सफलता का मतलब पा लेना नहीं बल्कि पाने की सच्ची कोशिश करना है। आप सफल हैं या नहीं इसे तय करने का अधिकार सिर्फ आपको है किसी और को नहीं क्योंकि सिर्फ आप जानते हैं कि आपने सच्ची कोशिश की है। अक्सर लोग अपनी छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। आपकी छवि इस बात पर निर्भर है कि आप खुद को कैसे देखना चाहते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कैसे दिखना चाहते है। महत्वपूर्ण यह है कि आप वाकई कैसे हैं। इसी हकीकत पर आपका चरित्र निर्भर है। कई बार हम यह महसूस करते हैं कि मैं वह नहीं बन पाया जो मैं बनना चाहता था लेकिन आपको यह मान कर चलना चाहिए कि आज आप जो भी हैं वही आपके लिए बेहतर है। सफलता के लिए जरूरी है कि जो काम करो उसकी समय सीमा बांधो। समय बहुत कीमती है। हमें इसकी अहमियत समझनी चाहिए। हर इंसान को समय का पाबंद होना चाहिए। आप समय पर काम शुरू करिए और समय पर खत्म भी। इसके अलावा सफलता के लिए मेहनत और उत्साह तो जरूरी है साथ ही आपके अंदर विश्वास और धैर्य भी होना चाहिए। आज जो काम कर रहे हैं उसे पूरे मन से करिए ताकि आपको काम का मजा आए। परिणाम चाहे जो हो धैर्य बनाए रखिए। हम अक्सर बात करते हैं कि युवाओं में धैर्य की कमी है। वे सब कुछ बदलना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि बदलाव ही तरक्की है। जरूरी नहीं है कि जैसा हम चाहते हैं वैसा ही हो। हमें भरोसा होना चाहिए कि जो उचित है उसके लिए हमें हर मुमकिन कोशिश करेंगे।

Dark Saint Alaick 30-08-2012 02:10 PM

Re: डार्क सेंट की पाठशाला
 
एक पद ने सिखाया दायित्व

एक भिक्षुक एक बार एक राजा के पास पहुंचा और कहा- राज्य के संचालन का उत्तरदायित्व ऐसे व्यक्ति पर हो जो भगवान बुद्ध के संदेशों को फैला कर उनके अनुसार राज्य व्यवस्था चला सके। इसके लिए हम दोनों में से कौन उपयुक्त है? राजा ने कहा-भंते! आप योग्य हैं। अच्छा हो कि इसका उत्तरदायित्व आप संभालें। आपने त्रिपिटकों का गहरा अनुशीलन किया है पर मेरा निवेदन है कि अगर आप एक बार त्रिपिटकों का अध्ययन और करें तो...। भिक्षुक बोला-इसमें क्या है! अभी मैं त्रिपिटकों का अध्ययन कर लौटता हूं। भिक्षुक कुछ महीने बाद राजसभा में लौटा। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा- राजन! राजसत्ता अब मुझे सौप दें। राजा बोले- क्षमा करें एक बार आप फिर त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का कष्ट करें। भिक्षुक की आंखों में क्रोध उतरा, परंतु उसने एकांत में समग्र त्रिपिटकों का शीघ्रता से अध्ययन किया, फिर राजसभा में लौटा सत्ता की बागडोर लेने। राजा शांत थे। भिक्षुक का सम्मान करते हुए एक बार फिर उससे त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का आग्रह किया। भिक्षुक ने रोष भरे शब्दों में कहा- राजन, यदि तुम राज नहीं देना चाहते तो व्यर्थ मुझे इतना परेशान क्यों किया। राजा विनम्र बने रहे। बोल-भंते! मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता। मेरा उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि त्रिपिटकों का पारायण ढंग से हो, ताकि आप सभी कार्य सुगमतापूर्वक कर सके। भिक्षुक कुटिया में लौटा। गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने लगे। सहसा एक पद आया-अप्प दीपोभव (अपने लिए दीपक बनो) इस बार भिक्षुक के सामने इसका अर्थ खुला। उसने सोचा, यदि उसने इस बात को ठीक से समझा होता, तो विरक्त भाव में रमण करने वाला फिर इस संसार में लौटने का प्रयत्न नहीं करता। वह फिर राजसभा में नहीं गया। राजा कुटिया में पहुंचे। प्रार्थना की- भंते पधारें, सत्ता संभालें। भिक्षु ने एक ही वाक्य कहा- राजन, मैंने अपनी सत्ता संभाल ली है। किसी अन्य सत्ता की अब मुझे कतई अपेक्षा नहीं है।


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