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soni pushpa 18-09-2014 07:22 PM

प्रेम.. और... त्याग...
 
आजकल प्रेम शब्द को बड़े ही गलत अर्थ में लिया जाता है ... जबकि ये तो बहुत व्यापक शब्द है . ये एक eisa शब्द है, जो यदि मानव मन में बस जाय तो सारे समाज का कल्याण हो जाय और आज जो रंग भेद , आतंकवाद , और दुश्मनी जैसे शब्द हैं वो मानवता की डिक्शनरी से निकल ही जाये और हर कोई प्रेम की वजह से एकदूजे का मान रखे, और स्नेह से दूसरो के लिए जिए , स्वार्थ की भावना भी न हो और ये पृथ्वी स्वर्ग की तरह सुन्दर बन जाये. स्वर्ग की तरह सुन्दर ही क्यों अपितु ये कहना चहिये की धरती पर ही स्वर्ग बन जाये . ये एकतरफ हो गई प्रेम की बात अब दूजी रही त्याग की बात सो मै आप सबसे जानना चाहूंगी की त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे ... क्यूंकि मैंने अक्सर देखा है की प्रेम हमेशा त्याग की मांग करता ही है या फिर मांग न भी हो किन्तु जहाँ प्रेम है वहां लोग आपनो के लिए सब कुछ कुर्बान कर देते हैं ... अब आप सब अपनी अपनी राय देंगे क्या इस विषय

Rajat Vynar 19-09-2014 10:57 AM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
वीनतम विद्युत देशों और ‘सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए बने मंच ‘तर्क-वितर्क’ में आपके एक शक्तिशाली सूत्र को देखकर अतीव प्रसन्नता का अनुभव हुआ. आपके सूत्र पर अभी तक किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की. अतएव यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि आपका सूत्र कितना सशक्त है. हार्दिक बधाई. वस्तुतः इस सूत्र पर टिप्पणी करना कोई साधारण बात नहीं है. निःसंदेह यह विषय ‘आर्थिक-सामाजिक’ समस्या से सम्बन्धित है. अतः इसके लिए इस क्षेत्र में माहिर ‘वैज्ञानिकों’ की राय लेनी होगी. इस शक्तिशाली विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए आगे भी वार्ता जारी रहेगी.

soni pushpa 19-09-2014 07:26 PM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
[QUOTE=Rajat Vynar;528346]वीनतम विद्युत देशों और ‘सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए बने मंच ‘तर्क-वितर्क’ में आपके एक शक्तिशाली सूत्र को देखकर अतीव प्रसन्नता का अनुभव हुआ. आपके सूत्र पर अभी तक किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की. अतएव यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि आपका सूत्र कितना सशक्त है. हार्दिक बधाई. वस्तुतः इस सूत्र पर टिप्पणी करना कोई साधारण बात नहीं है. निःसंदेह यह विषय ‘आर्थिक-सामाजिक’ समस्या से सम्बन्धित है. अतः इसके लिए इस क्षेत्र में माहिर ‘वैज्ञानिकों’ की राय लेनी होगी. इस शक्तिशाली विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए आगे भी वार्ता जारी रहेगी.[/Q

बहुत बहुत धन्यवाद के साथ आपका अभिवादन करते हुए प्रसन्नता व्यक्त करतीहू की आपने इस सूत्र की शक्ति को पहचाना समझा और आपने मंतव्य व्यक्त किये ... प्रेम शब्द ही एक अथाह सागर है रजत जी जिसमे गहरे में जाकर मोती निकालने पड़ते हैं और ,इसके लिए विचार की जरुरत पड़ेगी ही ... रही बात त्याग की तो त्याग तो आज के ज़माने में बहुत कम लोगो में मिलता है क्यूंकि हरेक को आपने स्वार्थ का मायाजाल बांधे हुए है किसी को पैसा बांध रखे है और किसी को अपनी उन्नति के लिए सिरफ़ खुद को देखना है .. अब इन बन्धनों से हटकर जो आगे निकले निस्वार्थ होकर, सबकी सोचे एइसे तो इस समाज में विरले ही पाए जाते हैं ....

बाकि हाँ अपना ये छोटा सा मंच कहूँ या परिवार कहूँ (माय हिंदी फोरम ) जो है वो शायद निस्वार्थ लोगो से ही बना हुआ है यहाँ एक पारिवारिक वातावरण बन जाता है जब लोग दुसरो को आगे बढ़ता देखते हैं और खुश होते हैं.

rajnish manga 19-09-2014 11:57 PM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
सोनी जी, आपके सूत्र का फलक सीमित होते हुये भी असीमित है. प्रेम अनादि है और अनंत भी. हमने अनेक स्थानों पर महापुरुषों के कथन पढ़े व सुने हैं जो मानते हैं कि प्रेम ईश्वर का ही विस्तार है. जहां प्रेम है वहाँ ईश्वर है. भारतीय दर्शन व संस्कृति में कण कण में ईश्वर होने की अवधारणा रखी गयी है अतः यह हमारा कर्तव्य है कि हम प्राणिमात्र से प्रेम करें, किसी का जी न दुखायें.

संत कबीर का दोहा भी तो इसी प्रेम का संदेश देता है:

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ भया न पंडित कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

प्रेम के विषय पर फोरम पर अन्यत्र भी चर्चा की गयी है. उसके बारे में और इस चर्चा के "त्याग" पक्ष पर विचार विमर्श को कुछ अंतराल के बाद आगे बढ़ायेंगे. तब तक अलविदा.

Pavitra 20-09-2014 12:18 AM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
आपने सही कहा कि प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द।
प्रेम किसी भी वस्तु से जीव से हो सकता है। प्रेम के अनेक रूप हैं।
त्याग भी प्रेम का ही रूप है , सबसे शुद्ध रूप। त्याग वहीँ होता है जहाँ प्रेम अपनी चरम सीमा पर हो। जहाँ प्रेम नहीं वहां त्याग नहीं होता वहां समझौता होता है। जैसे कि मुझे कोई चीज़ छोड़नी पड़ रही हो ना चाहते हुए भी , तो वो त्याग नहीं होगा। त्याग वहां होता है जहाँ व्यक्ति ख़ुशी से कोई चीज़ छोड़े। और किसी वस्तु के छूटने पर भी जब हमें दुःख न हो अपितु ख़ुशी हो तब वो त्याग बनता है। क्यूंकि ये ख़ुशी उस वस्तु के हमारे पास से चले जाने की नहीं बल्कि जिसके लिए हमने वो वास्तु छोड़ी उसके लिए कुछ भी कर सकने की होती है।

Rajat Vynar 20-09-2014 09:06 AM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
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Originally Posted by Rajat Vynar (Post 528346)
वीनतम विद्युत देशों और ‘सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए बने मंच ‘तर्क-वितर्क’ में आपके एक शक्तिशाली सूत्र को देखकर अतीव प्रसन्नता का अनुभव हुआ. आपके सूत्र पर अभी तक किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की. अतएव यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि आपका सूत्र कितना सशक्त है. हार्दिक बधाई. वस्तुतः इस सूत्र पर टिप्पणी करना कोई साधारण बात नहीं है. निःसंदेह यह विषय ‘आर्थिक-सामाजिक’ समस्या से सम्बन्धित है. अतः इसके लिए इस क्षेत्र में माहिर ‘वैज्ञानिकों’ की राय लेनी होगी. इस शक्तिशाली विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए आगे भी वार्ता जारी रहेगी.

च्छा हुआ- किसी का ध्यान इस हास्यास्पद हिंदी अनुवाद की ओर नहीं गया. माफ कीजियेगा. मेरी खोपड़ी का संचार परिसेवक (server) एकाएक बैठ (down) हो जाने के कारण यह त्रुटि (error) हुई. वस्तुतः विदेश मंत्रालय के वेबसाईट के अंग्रेज़ी संस्करण (version) में लिखा है-Ministery of External Affairs. इसलिए मैं समझा कि यदि External Affairs का अर्थ ‘विदेश’ है तो Affairs का अर्थ ‘देश’ होना चाहिए. इसके अतिरिक्त मैं समझा कि current का तात्पर्य बिजली से है क्योंकि देश में बिजली की समस्या बहुत है. इसलिए currentaffairs का हास्यास्पद अनुवाद ‘विद्युत देशों’ हो गया जबकि यह ‘वर्तमान प्रसंगों’ होना चाहिए था! ऐसी गलतियाँ आप अक्सर google translation में देख सकते हैं. Google translation के अनुसार currentaffairs का अर्थ ‘सामयिकी’ है, किन्तु यह सटीक नहीं है क्योंकि इसका अर्थ होता है- ‘नियतकालिक घटनाओं की चर्चा से सम्बन्धित कोई भी चीज़’. जैसे- मनोरमा इयर बुक एक सामयिकी है. इस विषय पर आपके विचार/सुझाव सादर आमंत्रित हैं.

soni pushpa 20-09-2014 11:06 AM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
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Originally Posted by rajnish manga (Post 528435)
सोनी जी, आपके सूत्र का फलक सीमित होते हुये भी असीमित है. प्रेम अनादि है और अनंत भी. हमने अनेक स्थानों पर महापुरुषों के कथन पढ़े व सुने हैं जो मानते हैं कि प्रेम ईश्वर का ही विस्तार है. जहां प्रेम है वहाँ ईश्वर है. भारतीय दर्शन व संस्कृति में कण कण में ईश्वर होने की अवधारणा रखी गयी है अतः यह हमारा कर्तव्य है कि हम प्राणिमात्र से प्रेम करें, किसी का जी न दुखायें.

संत कबीर का दोहा भी तो इसी प्रेम का संदेश देता है:

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ भया न पंडित कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

प्रेम के विषय पर फोरम पर अन्यत्र भी चर्चा की गयी है. उसके बारे में और इस चर्चा के "त्याग" पक्ष पर विचार विमर्श को कुछ अंतराल के बाद आगे बढ़ायेंगे. तब तक अलविदा.

धन्यवाद रजनीश जी , आपने आपने अमूल्य विचार प्रगट किये ,.. और आपने संत कबीर के दोहे को लिखकर प्रेम के अपार महत्व को भी समझाया . जी हाँ भगवान भी प्रेम के बस में हैं . जहाँ मीरा, नरसी मेहताऔर विदुर शबरी के प्रेम के बस होकर ही जूठे बेर खाय ., मीरा की रक्षा की और विदुर घर भाजी पाई ., और eise हजारो उदहारण है हमारे एतिहासिक ग्रंथों में जैसे की द्रौपदी के चीर बढ़ाये , सुदामा आदि .और हाँ रजनीश जी कभी अलविदा न कहना हम सबको यही रहकर, और यू ही साहित्यिक, सामाजिक चर्चाएँ करनी है ...

soni pushpa 20-09-2014 11:18 AM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
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Originally Posted by lavanya (Post 528437)
आपने सही कहा कि प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द।
प्रेम किसी भी वस्तु से जीव से हो सकता है। प्रेम के अनेक रूप हैं।
त्याग भी प्रेम का ही रूप है , सबसे शुद्ध रूप। त्याग वहीँ होता है जहाँ प्रेम अपनी चरम सीमा पर हो। जहाँ प्रेम नहीं वहां त्याग नहीं होता वहां समझौता होता है। जैसे कि मुझे कोई चीज़ छोड़नी पड़ रही हो ना चाहते हुए भी , तो वो त्याग नहीं होगा। त्याग वहां होता है जहाँ व्यक्ति ख़ुशी से कोई चीज़ छोड़े। और किसी वस्तु के छूटने पर भी जब हमें दुःख न हो अपितु ख़ुशी हो तब वो त्याग बनता है। क्यूंकि ये ख़ुशी उस वस्तु के हमारे पास से चले जाने की नहीं बल्कि जिसके लिए हमने वो वास्तु छोड़ी उसके लिए कुछ भी कर सकने की होती है।

जी लावण्या जी , आज समाज में प्रेम शब्द का ये ही अर्थ लगाया जाता है .और इस शब्द की विशालता को कहीं गुम कर दिया है इसलिए ही मेरे मन में ये सवाल आया की क्यों न इस बारे में हम सब चर्चा करे ,आज जो इंसानी समाज के हालात है ., वो कही कही जानवरों से बदतर हैं और उसकी एक वजह ये ही है की हम अपने इंसानी प्रेम को भूलते जा रहे है और स्वार्थ ने प्रेम का स्थान ले लिया है . और इसी कुण्ठा की वजह से हमारे समाज में मानवताके साथ प्रेम की कमी आ गई है,

और आपने जो उदहारण दिया वो बिलकुल सही है ..प्रेम सिर्फ अपने परिवार तक या अपनो तक सीमित न होकर हरेक के लिए हो तो वसुधेइव कुटुम्बकम का सपना सच हो जय

soni pushpa 20-09-2014 11:24 AM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
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Originally Posted by Rajat Vynar (Post 528439)
च्छा हुआ- किसी का ध्यान इस हास्यास्पद हिंदी अनुवाद की ओर नहीं गया. माफ कीजियेगा. मेरी खोपड़ी का संचार परिसेवक (server) एकाएक बैठ (down) हो जाने के कारण यह त्रुटि (error) हुई. वस्तुतः विदेश मंत्रालय के वेबसाईट के अंग्रेज़ी संस्करण (version) में लिखा है-Ministery of External Affairs. इसलिए मैं समझा कि यदि External Affairs का अर्थ ‘विदेश’ है तो Affairs का अर्थ ‘देश’ होना चाहिए. इसके अतिरिक्त मैं समझा कि current का तात्पर्य बिजली से है क्योंकि देश में बिजली की समस्या बहुत है. इसलिए currentaffairs का हास्यास्पद अनुवाद ‘विद्युत देशों’ हो गया जबकि यह ‘वर्तमान प्रसंगों’ होना चाहिए था! ऐसी गलतियाँ आप अक्सर google translation में देख सकते हैं. Google translation के अनुसार currentaffairs का अर्थ ‘सामयिकी’ है, किन्तु यह सटीक नहीं है क्योंकि इसका अर्थ होता है- ‘नियतकालिक घटनाओं की चर्चा से सम्बन्धित कोई भी चीज़’. जैसे- मनोरमा इयर बुक एक सामयिकी है. इस विषय पर आपके विचार/सुझाव सादर आमंत्रित हैं.

धन्यवाद रजत जी अपने परिवेश संचार को beithe ही रहने दीजिये और बस इस चर्चा को यु ही आगे बढाइये ... मनोरमा बुक हमे यहाँ नही मिलती., हाँ नेट के माध्यम से शायद में इसे पढूंगी और आपके साथ इस ईयर बुक के बारे में चर्चा करुँगी ..

Rajat Vynar 20-09-2014 08:43 PM

Re: प्रेम.. और... त्याग...
 
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Originally Posted by Lavanya (Post 528437)
आपने सही कहा कि प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द।
प्रेम किसी भी वस्तु से जीव से हो सकता है। प्रेम के अनेक रूप हैं।
त्याग भी प्रेम का ही रूप है , सबसे शुद्ध रूप। त्याग वहीँ होता है जहाँ प्रेम अपनी चरम सीमा पर हो। जहाँ प्रेम नहीं वहां त्याग नहीं होता वहां समझौता होता है। जैसे कि मुझे कोई चीज़ छोड़नी पड़ रही हो ना चाहते हुए भी , तो वो त्याग नहीं होगा। त्याग वहां होता है जहाँ व्यक्ति ख़ुशी से कोई चीज़ छोड़े। और किसी वस्तु के छूटने पर भी जब हमें दुःख न हो अपितु ख़ुशी हो तब वो त्याग बनता है। क्यूंकि ये ख़ुशी उस वस्तु के हमारे पास से चले जाने की नहीं बल्कि जिसके लिए हमने वो वास्तु छोड़ी उसके लिए कुछ भी कर सकने की होती है।

लावण्या जी, आपका मत महत्वपूर्ण है. वैसे तो आपके मत के प्रत्येक पंक्तियों पर चर्चा आवश्यक है किन्तु मैं कुछेक पंक्तियों को ही चर्चा के लिए यहाँ पर ले रहा हूँ. आप लिखती हैं कि ‘प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात होतो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तकसीमित हो जाता है ये शब्द’. आप यहाँ पर आश्चर्य व्यक्त कर रही हैं कि ऐसा क्यों है? दूसरी ओर ‘सामाजिक-आर्थिक’ मामलों की विशेषज्ञ एक विख्यात लेखिका अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखती हैं कि-

...मैं आश्चर्य करती हूँ कि लोग उस क्षण जब वे किसी का ‘पुरुषमित्र’ या ‘महिलामित्र’बनते हैं तो वे ‘मित्र’की भूमिका को क्यों भूल जाते हैं?आप अपने मित्रों से निरन्तर मुँह चढ़ाकर व्यवहार नहीं करते क्योंकि आप जानते हैं कि वे आपको एक क्षण में छोड़ देंगे. मात्र इसलिए कि आपका पुरुषमित्र ऐसा नहीं करेगा- इसका अर्थ यह नहीं होता कि आपने उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है।

वैसे तो लेखिका का कथन न्यायसंगत ही प्रतीत होता है किन्तु मुझे इस बात पर भी आश्चर्य है कि लेखिका इस विषय में प्रकाश क्यों नहीं डाल पा रही हैं?यहाँ पर प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है?इसका कारण यह है कि निःसंदेह प्रेम-सम्बन्ध का दर्जा अन्य सम्बन्धों से बड़ा होता है.इसलिए जब दो लोगों के बीच में प्रेम-सम्बन्ध स्थापित होता है तो प्रेमी युगल एक-दूसरे पर अपना विशेष अधिकार समझते हैं। यदि इनके बारे में कोई दूसरा कुछ अनर्गल (absurd)बातें करता है तो ये उतना बुरा नहीं मानते और एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं किन्तु जब यही अनर्गल बात उनसे उनका प्रियजन (loved one) कहता है तो अपने इस विशेष अधिकार के कारण ही ये असहज (abnormal) होकर तनावग्रस्त (tension) हो जाते हैं और बहुत बुरा मान जाते हैं। यहाँ पर बस समझ का फेर है। इसलिए जो जितना अधिक तनावग्रस्त होता है,वह उतना ही अधिक अपने उस प्रियजन से प्रेम करता है। प्रेम की यह पराकाष्ठा (pinnacle)बहुत ही हानिकारक (dangerous)होती है। हिंदी कवि कबीरदास ने भी कहा है- ‘अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना,अति की भली न धूप।।‘संक्षेप में- अति हर चीज़ की हानिकारक होती है। प्रेम के इस पराकाष्ठा को आधार बनाकर तमिल् फ़िल्मों के विख्यात निर्माता-निर्देशक के॰ बालचन्दर वर्ष 1989 में एक सफल तमिल् फ़िल्म ‘पुदु-पुदु अर्थङ्गल्’ (नए-नए अर्थ) भी बना चुके हैं।

निःसंदेह सभी प्रकार के सम्बन्धों (relationship) में प्रेम (love) की पवित्र (holy) भावना (spirit) विद्यमान (exist) रहती है। एक भाई का बहन के प्रति (towards)और सन्तान (offspring) का अपने माता-पिता (parents) के प्रति जो प्रेम विद्यमान रहता है उसकी तुलना (comparison) प्रेमी-युगल (couple) के मध्य विद्यमान प्रेम से नहीं की जा सकती,क्योंकि प्रेमी-युगल के बीच जो प्रेम की भावना विद्यमान रहती है उसका स्थान (degree) श्रेष्ठतम (precious) है। कुछ लोग प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना को अन्य (Other) प्रकार (Kind) के सम्बन्धों में विद्यमान पे्रम की भावना के समतुल्य (equivalent) समझते हैं किन्तु यह धारणा (notion) सिरे से गलत है। क्या आपको वर्ष 1997 में लोकार्पित अंग्रेज़ी फ़ीचर फ़िल्म टाइटैनिक (Titanic) का वह मर्मस्पर्शी दृष्य याद है जब टाइटैनिक जहाज़ के डूबने के बाद कहानी का नायक नायिका की जान बचाने के लिए एक छोटे से लकड़ी के तख्ते पर नायिका को चढ़ा देता है और जब स्वयं उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता है तो लकड़ी का तख़्ता पलट जाता है। यह देखकर नायक नायिका को तख़्ते पर चढ़ाकर स्वयं तख़्ते का सिरा पकड़कर बर्फ़ीले समुद्री पानी में तैरता हुआ खड़ा रहता है। बर्फ़ीले ठण्डे समुद्री पानी के कारण नायक का बदन अकड़ जाता है और शरीर का तापमान (temperature) कम होने से हाइपोथर्मिया (hypothermia) के कारण उसकी दर्दनाक (painful) मृत्यु हो जाती है। ’हाँ-हाँ,हमें वह दृष्य याद है किन्तु ऐसा प्रेम तो सिर्फ़ फ़िल्मों में दिखाया जाता है.’-कहने वालों के लिए उत्तर यह है कि समाचार-पत्रों (newspapers) में प्रेमी-युगल के धर छोड़कर भागने की घटनाओं और विश्वासघात (perfidy) की दशा (condition) में प्रेमी-युगल द्वारा अपनी जान देने या एक-दूसरे की जान लेने अथवा अन्य किसी प्रकार से एक-दूसरे से बदला (revenge) लेने की घटनाओं का प्रकाशित (publish) होना इस बात का अकाट्य (cogent) प्रमाण (proof) है कि प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना श्रेष्ठतम (precious) है।

यह निर्विवाद कटु सत्य है कि आपके अच्छे दुश्मन दोस्तों से ही पैदा होते हैं. कैसे? आप अपने दोस्तों को अपना समझकर अपना हर राज़ उन्हें बता देते हैं. जब तक दोस्ती रही तो ठीक है, लेकिन दोस्ती का कोई भरोसा नहीं. पता नहीं किस बात पर मतभेद हो जाए और दोस्ती टूट जाए. दोस्ती टूटने के बाद ऐसे लोग आपके सभी राज़ और आपकी कमज़ोर नस के बारे में जानने के कारण आपको सबसे अधिक नुकसान पहुँचा सकते हैं. आपने वह मुहावरा तो सुना ही होगा- ‘घर का भेदी लंका ढाए’. आप मुझसे एक साल या दो साल तक बात करिये. आपके पास मुझसे सम्बन्धित किसी भी व्यक्तिगत जानकारी का स्तर शून्य ही रहेगा. जबकि मेरे पास आपसे सम्बन्धित व्यक्तिगत जानकारी का स्तर सौ प्रतिशत रहेगा. प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है. मित्रता में भी एक प्रकार की प्रेम की भावना ही निहित होती है और जहाँ पर प्रेम की भावना होती है वहाँ पर त्याग की भावना होती है. ऐसा कभी सम्भव नहीं कि आप किसी से प्रेम करें और उसके लिए त्याग करने से इन्कार कर दें. यदि आप त्याग करने से इन्कार करते हैं तो इसका सीधा सा अर्थ यह होता है कि आपने किसी स्वार्थवश प्रेम किया था. इसलिए प्रेम और त्याग एक दूसरे के पर्याय हैं. संक्षेप में, यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसके लिए त्याग करेंगे और यदि किसी के लिए त्याग करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप उससे प्रेम करते हैं. यह त्याग किसी भी प्रकार का हो सकता है. मित्रता में निहित प्रेम की भावना यदि सत्य है तो आप मित्र के हित को सर्वोपरि मानेंगे. कौन किससे कितना प्रेम करता है, यह मापने के लिए आज तक कोई पैमाना नहीं बना किन्तु कौन आपकी कितनी गलतियों को खुले हृदय से क्षमा कर देता है- इस आधार पर प्रेम के परिमाण का आकलन किया जा सकता है. यही कारण है कि माता-पिता अपनी सन्तान की प्रत्येक गलतियों को बिना किसी शर्त के क्षमा कर देते हैं. यहाँ पर यह हमेशा याद रखें कि गलती करना इन्सान के गुणों में शुमार है और यह कदापि सम्भव नहीं कि कोई बिलकुल गलती न करे. इसलिए कम गलती करने वाले को ही श्रेष्ठ समझ लेना चाहिए. छोटी सी गलती होने पर भी यदि मित्रता में निहित प्रेम का परिमाण कम है तो ऐसी मित्रता सदैव दुश्मनी में परिवर्तित हो जाती है और यह कटु सत्य है कि बदला लेने की तीव्र भावना में लोग यह भूल जाते हैं कि जो जानकारी उनके पास है वह उन्हें कैसे मिली? निश्चित रूप से यह जानकारी उन्हें तब मिली जब वे ‘मित्रता’ जैसे उच्च पद पर विराजमान थे, क्योंकि अपने दुश्मनों से कोई अपना राज़ नहीं बताता, लेकिन अपने दोस्तों से बता देता है. यद्यपि बदला लेने की लालसा में भूतपूर्व मित्र के पद में निहित प्रेम की भावना को किनारे कर देना किसी हालत में न्यायसंगत नहीं है, किन्तु मेरे इस विचार पर कोई भी किसी भी हालत में अमल नहीं करेगा. इसलिए ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते हुए अपने दोस्तों को अनावश्यक रूप से जानकारी न बाँटना ही श्रेयस्कर होगा. मुझे तो आज तक एक अभूतपूर्व ‘वैज्ञानिक’ के अतिरिक्त कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो इस तरह अपने बारे में जानकारी न बाँटता हो. आज तक उस वैज्ञानिक ने मुझे कोई जानकारी नहीं दी, न मैंने उसे दी. ऐसे लोगों को मैं बहुत पसन्द करता हूँ जो ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते चलते हुए ‘मौन-व्रत’ धारण किए रहते हैं… aww.. aww..


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