Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
खैर, ग्यारहवें दिन मेरा हौसला चुक गया। अभी तक दोनों ने एक दूसरे को आमने-सामने से नहीं देखा था। फिर भी सावधानीवश मैने प्रेम पत्र का सहारा लेने का निर्णय लिया। रात एक से दो बजे के बीच जाग कर प्रेम पत्र में दिल की कई बातों को रखा जिसमे प्रेम की बातें कम और उपदेश की बातें अधिक थी। उपदेश का अपना तर्क था। जिसमें बचपन की अटखेलियों से निकल कर जीवन की तल्ख सच्चाईयों का सामना करने की बात थी। जिसमें आर्थिक विषमता और पारिवारिक विषमता का मार्मिक चित्रण था। जिसमें प्रेम को सिनेमा के पर्दे से निकल कर जमीन की सच्चाई पर कदम रखने और पत्थरीले रास्ते पर चलने की कठिनाईयों का जिक्र था। कुल मिला कर चार पन्ने का प्रेम पत्र तैयार हुआ तो उसको उस तक पहूंचाने की मुश्किल सामने आ गई। पर अपना पुराना फार्मूला तो था ही। एक खाली डिब्बे में उसे पैक कर लिया। अगली सुबह चार बजे जब वह नित्य कर्म के लिए निकलेगी तो दे दिया जायेगा।
मेरी खिड़की हालांकि अब अमूमन सावधानीवश बंद रहने लगी थी पर आज सुबह के इंतजार में शाम से ही खोल रखी थी और जानता था कि उसे इस बात का आभास तो जरूर होगा कि कई माह से बंद पड़े दिल की बात को सांझा करने का प्रयास हो रहा है। सुबह वह निकली तो सही घर से पर दो अन्य महिलाओं के साथ। श्याम पक्ष का पखवाड़ा था सो सुबह चार बजे के आस पास भी अंधेरा था। फिर भी मैंने हौसला किया और गली के मुहाने पर उसके गुजरने का इंतजार करने लगा। वह सबसे पीछे थी। जब वह थोड़ी दूर गई तो मैंने प्रेमपत्र के डिब्बे को फेंक कर दे मारा। उसने भी क्या स्थान चुना। डिब्बा उसकी कमर के नीचे जाकर लगा। >>> |
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‘‘अरे साला’’, रीना के मुंह से निकला। वही उसका चिरपरिचित अंदाज। लगा जैसे जान बाकी है। चहकना, फुदकना गलियाना सब कुछ उसका अपना था।
‘‘की होलो रीना।’’ ‘‘कुछ नै, कांटा है।’’ इतना कहते हुए उसने प्रेमपत्र के डिब्बे को उठा लिया। इस घटना के कई दिन बीत गए पर मामले मे किसी प्रकार का कोई बदलाव नहीं आया। मुझे चिंता होने लगी। लगा जैसे कहीं कुछ बात है जो बिगड़ गई है। आज वृहस्पतिवार का दिन है। रीना के उपवास का दिन। आज के दिन वह उपवास करती है और भगवान से मुझे पाने की कामना से। अमूमन गर्मी की वजह से कम लोग ही घर से बाहर गली मे नजर आ रहे थे। रीना के घर के पिछवाडें एक दलान था। दलान में गाय-गोरू के रखने की जगह थी और आगे का एक कमरा अतिथियों के लिए था। मैं यूं ही टहलता हुआ उधर से गुजर रहा था कि उस पर नजर पड़ गई। मुझे देखते ही वह कमरे के अंदर चली गई। मेरा मन बेचैन हो उठा। क्या वह मुझसे गुस्सा है? मैने आव देखा न ताव उसके दलान में प्रवेश कर जिस कमरे में वह गई थी चला गया। महीनों बाद आज वह मेरे सामने थी। दोनों के मुंह से बोल नहीं फूटे। क्षण मात्र भी नहीं बीता होगा की दोनों एक दूसरे की बाहों में थे। रीना आकर मुझसे लिपट गई, जैसे मां से बिछड़ा हुआ बच्चा। मैंने भी उसे अपनी आगोश में ले लिया। लगा जैसे वह मेरे सीने में समा जाना चाहती हो, समग्र। >>> |
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‘‘काहे ऐसे करो हीं यार, छोड़ के भाग गेलहीं।’’
‘‘की करीए, जे कहीं उ करे ले तैयार हिए। हमरा पर की बितलै से तों नै ने समझमहीं।’’ ‘‘चल कहीं भाग चलिए।’’ ‘‘जब कोई नै सुनतै तब की करबै।’’ और फिर उसके गुलाबी अधरों की पंखुड़ी का एक कोमल स्पर्श मेरे गालों पर हुआ। मन तृप्त हो गया। ‘‘मिलन नै होतै यार।’’ ‘‘हां हो, भगवान जब चाहथिन तब जुदा के करतै।’’ मैने कहा। तभी देखा कि उसका भाई दिल्लिया भैंस को हांकता हुआ उधर ही आ रहा था। क्षण मात्र गंवाए मैं यूं निकला जैसे तार से होकर करंट दौड़ती हो। बगल की गली से होता हुआ मैं घर आ गया। इस छोटी सी मुलाकात मंे रीना ने अपने मन के जिस उद्गार को पन्नों पर उकेरा था, मुझे थमा दिया था। घर आकर सबसे पहला काम उसे पढ़ने का किया। उसने भी मेरे पत्र का उसी अंदाज में जबाब दिया था। और उसमें प्रेम की बातें कम, शादी, परिवार और आगे का भविष्य इसी सब विषय पर ज्यादा चर्चा थी। जलते हुए अंगार को हथेली पर रखने की तरह प्रेम को सीने में रख लिया है। सब एक खलनायक की तरह मुझे देखने लगे। दोस्तों का साथ घीरे घीरे छूटने लगा या कम हो गया। लगा जैसे दूध से मख्खन की तरह मेरे प्रेम को जुदा करने की कोशिश सब ने मिल कर शुरू कर दी हो। >>> |
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गांव में कई तरह के लोग है जिसमें से कुछ अति सीधा, जिसे गांव की भाषा में लोग गौ-महादेव कहते तो कई धुर्त-सियार। थाना कचहरी आने जाने वालों की काफी कद्र और लोगों में उसका भय भी। गौ-महादेव की श्रेणी मे मेरे फूफा आते थे और धुर्त-सियार में गोयनका सिंह। गोयनका सिंह की पुलिस और हकीम से जान पहचान थी और किसी प्रकार का मुकदमा अथवा बैंक से ऋण बगैरह की बात हो तो लोग उसी के पास जाते। गोयनका, रीना का चचेरा भाई। अहले सुबह फूफा को गोयनका सिंह का बोलहटा आ गया। गोयनका बोला रहलखुन हें। फूआ के कान खड़े हो गए। फूआ कड़क मिजाज थी सो किसी तरह की धुर्तई करने वाले लोग उससे दूर ही रहते थे। खैर फूफा गए तो वहां उनके चचेरे भाई भी मौजूद थे। शराब का दौर चल रहा था। दोनो ने इनको बैठाया और फिर एक धुर्तई की कहानी सुनाई।
‘‘सुनलहो सुराज दा, इ साला चौकीदरबा बड़ी बाबा बनो हो, साला पर मुकदमा कर देलिओ हो, तोरा गबाह बना देलिओ हें, साथ देना है।’’गोयनाका ने कहा। ‘‘तब, पहले पुछबो नै कइलहो, हमरा तो पुलिस से बड़ी डर लगो हो।’’ ‘‘इ मे डरे के की बात है, हम सब हिए ने।’’ यह आश्वासन उनके भाई ने दिया था। अपने भाई की वे बहुत कद्र करते थे, सो ज्यादा विरोध न कर सके। बास्तव में पुलिस से वे भारी डरते थे और गांव में कहीं पुलिस आ जाए तो वह वहां से खिसक लेते थे। ‘‘अच्छा केसाबा की कलहों हे।’’ >>> |
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‘‘इहे की चौकीदराब अपने भौजाई से फंस हलै औ जब भेद खुल गेलई तो ओकरा जहर देके मार देलकै।’’
सुन कर वे अबाक रह गए-‘‘मर्दे इ सब की कहों ही तों, इस सब हमरा से नै होतई, इ सब तो झूठ है।’’ ‘‘हां, झूठ त हइए है, पर साला चौकीदरबा के ठंढा करेके के चाही ने सुराज दा, देखो हो केतना उड़ो हो।’’ ‘‘पर बेचारी मरलका के कहे ले घसीटों हीं हो, हमरा से यह सब नै होतो।’’ कह कर फूफा घर आ गए। फूआ जब सब बात जानी तो कोहराम मचा दिया।-‘‘तोरा बुरबक जान के सब फंसाबे ले चाहो हो। होशियार रहीहा।’’ कई दिनों तक इस पर बहस होती रही। फूफा अपने बड़े भाई से बहुत लिहाज करते थे या यूं कहें की डरते भी थे, इसलिए उनके काफी मान-मनौअल और दबाब के बाद वे मान गए, एक झूठा मुकदमा करने के लिए। मान मनौअल के इस दौर में बड़े भाई ने साथ नहीं देने पर गाली गलौज भी दी और मारने पीटने की बात भी कही, जो उनके लिए असाह्य था। सो बात बन गई। चौकीदार की भाभी की बिमारी से मौत हो गई थी, कम उर्म में ही और चौकीदार से दुश्मनी सधाने का यह एक अच्छा मौका था। सो सब ने मिलकर उसे हत्या के मुकदमें में फंसा दिया। बाद में गोतिया की बात होने की दुहाई देकर फूआ को भी मना लिया गया। >>> |
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फिर कई दिनों का दौर चला जिसमे फूफा को झूठ बोलना सिखाया गया। कैसे दुकान से आलू लाने गए और आवाज सुन कर खिड़की से झांका और नाजायज संबंध की बात सुनी बगैरह, बगैरह। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा। मैंने इसका विरोध भी किया पर बात जब गोतिया की हो तो कौन सुनता है। सो पुलिस आई और सभी गांव की भीड़ में फूफा के मुंह से एक मृत महिला को कलंकित कर दिया गया। कई लोग थे जिन्होंने इस बात की गवाही दी और नजायज संबंध की बात कही। मेरा मन व्यथित होता रहा पर यह सब बड़ों की बात थी।
पर, यह सब हो क्यों रहा था। बजह बिल्कुल साफ थी। चौकीदार का गांव में दबदबा था। किसी से उलझ जाना और तंरंत मुरेठा बांध कर पुलिस को बुलाने के लिए निकल पड़ना, फिर विरोधियों के द्वारा उसके पैर पर गिर कर गिड़गिड़ाना। यह सब अक्सर होता रहता जैसे चौकीदार न होकर, लाट साहब हो। गांव के कुछ लोग, जो गांव में अपना वर्चस्व जमाना चाहते, वे इसका तोड़ निकालने की जुगाड़ में रहते। और चुनाव के समय वह सत्ता पक्ष बालों के साथ खड़ा रहता, जिससे भी लोगों में नाराजगी थी। खैर बात चाहे जो हो, पर इस सब बातों से मन दुखी होता और लगता कि गांव में कुछ चालू लोगों के द्वारा कैसे सीधे साधे लोगों को फँस लिया जाता है। खैर, मुझे इन सब चीजों से कोई खास मतलब तो था नहीं, सो मैं अपने में मगन रहने लगा। आज देर शाम छत पर जाकर बैठ गया। चुपचाप। फिर थोड़ी देर के बाद छत पर टहलने लगा। इसलिए की शायद वह मेरी बेचैनी को समझेगी। इस वक्त रात्री के दस बज गए थे और मैं छत पर चुपचाप बैठा हुआ था। एक एहसास के सहारे, शायद आज रात वह मिलने आए.... >>> |
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रात्री मिलन के बात कुछ दिनों तक उसका दर्शन नहीं हो सका। पता नहीं क्यूं। पर इन सारी बातों में से मुझे जो बात सबसे अधिक भाती थी वह था रीना का साहसी होना। मिलने-बिछुड़ने, रूठने मनाने के खेल में उसने कई बार अपने साहस का परिचय दिया। कितनी ही बार उसने जताया कि मैं जितना उसे चाहता हूं वह उससे कहीं अधिक मुझको चाहती है। हलांकि प्रेम को कम या ज्यादा नहीं नापा जा सकता पर इसके साथ साहस का होना उसे सुदृढ़ बनाता है।
शाम का समय होने लगा था और सूरज देवता ने आहिस्ते आहिस्ते पश्चिम को ओर अपने छुपने की तैयारी करते हुए आकाश को सिंदूरी रंग से आच्छादित कर दिया है। मैं भी अपनी तन्हाई का दामन छुड़ने के लिए खेत की मेड़ों से दोस्ती का निर्णय लिया और खंधे की ओर निकल गया। घान के खेत अपने शबाब पर थे और घान की फसल से बाली निकलनी अभी शुरू हुई थी। मैं यूं हीं उसी के साथ खेलता-छूमता जा रहा था। तन्हाई में भी मन में एक अजीब सा सुकून था, एक खुशी थी। यह दिवानगी ही थी जो कि आज धान की बालियों से बतिया रहा था। उसके साथ ही अपनी खुशी, अपना गम बांट रहा था। खंधे में दूर दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था। मैं था और मेरी तन्हाई थी और साथ था धान के खेत, मेड़ पर उग आये हरे भरे घांस। आज सबसे अपनापा सा हो गया। >>> |
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कई दिनों से मैंने चांद का दीदार नहीं किया था। तीन चार दिनों से वह दिखाई नहीं दे रही थी। मैं जानता था इसका कारण नाराजगी नहीं, शर्म है। यही सब सोंचता विचारता मैं घर की ओर लौट रहा था। गांव के करीब पहूंचने पर मकई के खेतों के बीच से होकर गुजरना पड़ता था। पतली सी पगदंडी से चुपचाप सर झुकाए जा रहा था की तभी एक खनकती हुई आवाज सुनाई दी-
‘‘साला, मुड़िया गोंत के केकर याद में खोल जा रहलहीं हें।’’ यह रीना थी। शायद उसने मुझे जाते हुए देख लिया होगा और इस उम्मीद से की इसी रास्ते से लौटूंगा अपने भतीजे को गोद लिए वह उसी पर चहलकदमी कर रही थी। मैं उसे देखने लगा। आज वह कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रही थी। आज वह साधारणतः फ्रॉक में रहने की जगह सलवार समीज में थी। आज वह कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रही थी। मैं उसे प्यार भरी नजरों से देखने लगा। ‘‘देख, ऐसे मत देख।’’ वह शर्माने लगी। ‘‘काहे अब काहे डर लगो है।’’ ‘‘डर तो हमर जूत्ती के भी नै लगो है।’’ ‘‘और की हाल।’’ मैंने थोड़ी तंज लहजे में कहा। >>> |
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‘‘मतलब?’’
‘‘तोरा नै पता?’’ ‘‘देख, जादे बौख नै।’’ तभी देखा की उसी रास्ते पर गांव का संजीव चला आ रहा है पर आज दोनों में से किसी ने वहां से हटने की या छुपने की कोशिश नहीं की। यह साहस था सच्चे प्रेम का। दो आपस में बतियाते रहे, हां बातचीत का विषय बदल गया। और सिनेमा की चर्चा होने लगी। फिर मैं जिधर से आया था उधर ही लौट गया और वह अपने घर की ओर चली गई। अब किशोर मन अपने भविष्य की भी परवाह नहीं करते हुए प्रेम में पागल था पर अर्न्तद्वंद साथ साथ चल रही थी। खास कर अपनी निर्धनता को लेकर परेशान था। कहीं किसी कोने से यह आवाज आती कि उज्ज्वल भविष्य को लेकर यह प्रेम का चक्कर सबसे बड़ी बाधा है पर कहीं कोई इसका विरोध करते हुए नियती को प्रबल मानने की बात कहते हुए तर्क दे रहा था- सच्चाई और प्रेम ही उज्ज्वल भविष्य की निशानी है और इस अनमोल मोती को खोकर कंकड़-पत्थर मिले भी तो किस काम का....! >>> |
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खैर इस सबके बीच गांव के चौक चौराहे पर अभी चुनावी माहौल था। गांव में अभी तक लोकतंत्र की धमक नहीं पड़ी थी और गांव में दबंगों का ही राज चलता था। गांव के नरेश सिंह, महेसर सिंह, काको सिंह सहित अन्य लोगों की एक जमात थी जिसकी राजनीति पर पकड़ थी और गांव में मंत्री से लेकर संत्री तक सबसे पहले उनके द्वार पर ही आकर मथ्था टेकते। गांव बड़ा था और यहां के बोट का महत्व भी सर्वाधिक था। अभी तक सभी जानते थे कि गांव मे वोट देने का अधिकार किसी को नहीं है। गांव में सवर्णो के वनिस्पत दलितों और पिछड़ो की आबादी अधिक थी पर किसी को अपने वोट का महत्व नहीं पता ?
मतदान के दिन गांव में सुबह से ही फरमान सुना दिया जाता कि कोई स्कूल में बोट देने के लिए नहीं जाएगा जो जाएगा उसे विरोधी माना जाएगा। आजादी के पांच दशक हो जाने के बाद भी गांव के सर्वाधिक लोग वोट देने नहीं जाते। वही जाते जो दबंगों के समर्थक होते। ऐसी बात नहीं थी कि सारा गांव उनके आगे नतमस्क था। विरोध की चिंगारी भी जल रही थी। गांव के ही सूटर सिंह समाजवादी पार्टी का झंडा लेकर समूचे गांव में अकेले घूमते और इसका विरोध करने के लिए लोगों को जगाते पर दिन के उजाले मे कोई उनका साथ नहीं देता। हां, रात गहराने पर सूटर सिंह लोगों के घर जाते और अपना अपना वोट सब दें इसके लिए सबको समझाते पर किसी में हौसला नहीं पनपता। पनपता भी कैसे। जब-जब किसी ने हौसला किया उसे मूंह की खानी पड़ी और बूथ पर या तो उसकी पिटाई की गई या फिर पुलिस ने उसे झूठे मुकदमें में फंसा कर अंदर कर दिया। गांव में इस असमानता के विरूद्ध जली चिंगारी आज रात मुझ तक पहूंच गई। रात करीब नौ बजे अपने दोस्त कमल, चिंटू सहित अन्य के साथ नहर पर बैठे बतिया रहे थे। >>> |
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