My Hindi Forum

My Hindi Forum (http://myhindiforum.com/index.php)
-   Debates (http://myhindiforum.com/forumdisplay.php?f=29)
-   -   हर धर्म के लोग सांप्रदायिकता के शिकार रहे  (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=11141)

dipu 01-11-2013 12:12 PM

हर धर्म के लोग सांप्रदायिकता के शिकार रहे 
 
भारतीय क्रिकेट टीम को 1996 में शारजाह में पाकिस्तान को हराने पर टोयोटा कारें देने का प्रस्ताव रखने वाला अंडरवल्र्ड डॉन क्यों कराची का निवासी बनकर 1993 में भारत का मोस्ट वांटेड अपराधी बन गया? भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान दिलीप वेंगसरकर ने जो रहस्य उजागर किया ((हालांकि कैमरे के सामने ऐसा कहकर बाद में वे मुकर गए)) वह उसी बात की पुष्टि करता है, जो निजी बातचीत में 1980 के दशक के कई खिलाड़ी कबूल कर चुके हैं : किसी वक्त दाऊद इब्राहिम उनकी जिंदगी में था और वह भारतीय क्रिकेट टीम का जबर्दस्त समर्थक था।
1993 के मुंबई बम विस्फोटों के तत्काल बाद एक लेख में ऐसा लिखने के कारण मुझे निशाना बनाया गया था। इन सीरियल बम विस्फोटों को ऐसा ‘मुस्लिम षड्यंत्र’ समझा जाता था, जिसका मास्टरमाइंड दाऊद था। उस वक्त राजनीतिक माहौल ऐसा था कि एक पूरे समुदाय को ही दोष दिया जा रहा था। तब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि भारतीय मुस्लिम के लिए ‘देशभक्ति’ की वास्तविक परीक्षा यह है कि वह भारत-पाक मैच में तिरंगा फहराए। मैंने ध्यान दिलाया था कि इस गलत परिभाषा से तो दाऊद इब्राहिम को भी देशभक्त मानना चाहिए, क्योंकि वह शारजाह में भारतीय टीम का समर्थन करता नजर आया था।
दाउद को लेकर यह टिप्पणी उत्तेजित राजनीतिक माहौल में अल्पसंख्यकों को देशभक्ति के ऐसे ‘प्रमाणपत्र’ बांटने में निहित खतरे की ओर इशारा करने के लिए की गई थी। किंतु इससे ऐसा विवाद उठा कि ठाकरे ने आमसभा में मेरी आलोचना कर दी, मुझे जान से मारने की धमकियां दी गईं और पुलिस सुरक्षा मुहैया कराने की पेशकश की गई। भाजपा के एक सांसद ने तो यह मामला संसद में भी उठाया और मेरे उस लेख को राष्ट्र विरोधी बताकर उसकी प्रतियां वहां बांटी। आज भी सोशल मीडिया पर हिंदुत्व आर्मी वक्त-वक्त पर इस मुद्दे को यह कहकर ताजा करती रहती है कि मैंने दाऊद को ‘राष्ट्रवादी’ घोषित किया था, जो सच नहीं है।
बहुत कम लोग यह मानने को राजी थे कि इसमें तो सवाल भर उठाया गया है कि जब अक्टूबर-नवंबर 1992 में दाऊद भारतीय टीम का उत्साह बढ़ा रहा था, तब और मार्च 1993 के बीच ऐसा क्या हो गया कि उसने अपने बचपन के शहर को उड़ा देने का निर्णय ले लिया। आज तक किसी ने भी ((सिर्फ पत्रकार हुसैन जैदी की किताब के आधार पर साहसी फिल्म ‘ब्लैक फ्रायडे’ बनाने वाले अनुराग कश्यप को छोड़कर)) इस असुविधाजनक सत्य को टटोलने की कोशिश नहीं की कि सोने की तस्करी और पैसे लेकर हत्याएं करने वाले दाऊद ने खुद को सिर्फ मुस्लिम सदस्यों वाली गैंग का सरगना और आईएसआई का आतंकी क्यों बना लिया, जबकि पहले उसकी डी कंपनी में कई हिंदू भी थे?
इसका जवाब शायद दिसंबर और जनवरी
1992-93 की यंत्रणादायक घटनाओं में छिपा है। तब बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद हुए भयावह दंगों के कारण मुंबई का कॉस्मोपोलिटन चरित्र छिन्न-भिन्न हो गया था। जब महानगर का उ"ा व मध्य वर्ग धार्मिक आधार पर बंट गए तो वैसा ही विभाजन अंडरवल्र्ड में भी हो गया। फर्क यही था कि अंडरवल्र्ड के पास ध्रुवीकरण को खौफनाक मोड़ देने के लिए एके-47 और आरडीएक्स था।
बेशक ऐसे कई असुविधानजक सच हैं; जिनका हम सामना नहीं करना चाहते, खासतौर पर सांप्रदायिक दंगों के संदर्भ में। मसलन, क्या यह सही नहीं है कि 1984 के दंगों में 3000 सिखों की हत्या के बाद में खालिस्तानी आतंकवाद बढ़ा? क्या यह सच नहीं है कि 2002 के गुजरात दंगे इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकी गुट बनने का बहाना बने। हिंसा से और हिंसा ही भड़कती है, यह बहुत पुराना सच है, जिसने धर्म के नाम पर गुस्से और बदले के दुश्चक्र में बस्तियां बर्बाद होती देखी है। इंदौर के भाषण में शायद राहुल गांधी इसी बात का जिक्र कर रहे थे जब उन्होंने बताया कि खुफिया अधिकारियों ने उन्हें बाताया कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद 10 से 15 युवाओं को आईएसआई अपने यहां भर्ती करना चाहती है। यह विशुद्ध रूप से अकादमिक दलील थी। दंगों व आतंकवाद का संबंध जोड़ते वक्त राहुल को कुछ आधार देना था। किंतु राहुल न तो पत्रकार है और न कोई विश्लेषक, जो हिंसा की जड़ें समझने में लगा हुआ हो। वे राजनेता हैं तथा कांग्रेस के उत्तराधिकारी हैं और एक सार्वजनिक शख्सियत के रूप में उनसे तोल-मोलकर बोलने की अपेक्षा रहती है। बिना कोई ठोस सबूत दिए यह संकेत देना कि मुजफ्फरनगर के युवाओं को ‘शत्रु’ लुभाने की कोशिश कर रहा है, पीडि़त लोगों को संदेहास्पद बनाना है। इससे खराब बात तो यह है कि इससे उन लोगों के संदेह व पूर्वग्रह पुष्ट होंगे, जो बार-बार भारतीय मुस्लिम की वतनपरस्ती पर सवाल उठाते रहते हैं।
मुजफ्फरनगर का यथार्थ राजनीतिक रणभूमि से बहुत दूर है। दंगों के हफ्तों गुजरने के बाद भी सैकड़ों परिवार राहत शिविरों में दयनीय दशा में रहने के लिए अभिशप्त हैं। वे इतने डरे हुए हैं कि घर लौटना ही नहीं चाहते। एक अर्थ में उनकी दुर्दशा देश भर में कहीं भी हुई सांप्रदायिक हिंसा के किसी भी शिकार से भिन्न नहीं हैं। आप चाहें तो अहमदाबाद के बाहरी इलाके के सिटीजन नगर में कचरे के डम्पिंग ग्राउंड के पास रह रहे 2002 के दंगों के पीडि़तों से मिलने चले जाएं या तिलक विहार के बजबजाते नाले के पास पहुंच जाएं, जहां 1984 के दंगों में मारे लोगों की विधवाएं रहती हैं अथवा जम्मू में कश्मीरी पंडितों के अस्थायी घरों में पहुंच जाएं। एक समान तथ्य इन सबको जोड़ता है कि उनकी हालत कानून का राज लागू करने में भारतीय रा'य की नाकामी दर्शाती है।
बात मुस्लिम, सिख या हिंदुओं की नहीं है। बात एक ऐसे भारतीय समाज की है, जो अपने ही लोगों की रक्षा नहीं करता और उसके साथ हुई गलत घटनाओं में न्याय नहीं देता। क्या नरेंद्र मोदी कभी सिटीजन नगर गए हैं या यह वायब्रेंट गुजरात के नक्शे के बाहर पड़ता है? क्या कभी राहुल तिलकविहार की विधवाओं को न्याय दिलाने के लिए लड़े हैं? क्या उमर अब्दुल्ला कश्मीरी पंडितों के घावों पर मरहम लगाएंगे? और क्या उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार मुजफ्फरनगर के बेघरों को सुरक्षा का अहसास दे पाएगी? शायद ये सवाल कभी नहीं उठाए जाएंगे, क्योंकि बड़े पैमाने पर हुई हिंसा के शिकार लोगों के पुनर्वास के मुद्दे पर किसी भी राजनीतिक दल का रिकॉर्ड साफ नहीं है। इसकी बजाय हम तो 1984 बनाम 2002 का शोर-शराबे वाला निरर्थक खेल ही खेलेंगे, क्योंकि असुविधाजनक सवालों का सामना करने की बजाय यह आसान है।


All times are GMT +5. The time now is 08:17 PM.

Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.