प्रणय रस
वासना के चषक छलके ________________________ज्योति के अलोक झलके व्योम में द्युति हर्ष कौँधा मूर्छना मेँ सफर डूबा भोग के आयाम से ही सर्जना मेँ सत्य डूबा सृष्टि के वरदान झलके ज्योति के अलोक झलकेँ सत्य का स्थान ले जब अहम बोला श्रृष्टि ने जब संयमी आयुध के बोध झलके ज्योति के आलोक झलके मै , सहित पर भी यहां है द्वैत का संभ्रम तना है दृष्टि पर पर्दे पड़े हैँ सत्य पर संशय घना है नौ रसोँ के सेतू झलके ज्योति के अलोक झलकेँ साभारः ऋतुपर्णा द्वाराः शशि भूषण अवस्थी |
रूप प्यास की बदरी छाई
रूप प्यास की बदरी छाई _________________________ मन आंगन मेँ झड़ी लगाई धुली विरह की काली राख स्नेहिल मन कतकी की रात मन बौराया तन ललचाया बांकी छावि ने धूम मचाया आज वर्जता प्रश्न नया रव किरन किरन कतकी की रात बदरी के घूंघट मेँ चंदा लुकछिप खिले चांदनी फंदा अरमानोँ का उजाला पाख महक रही कतकी की रात मन का चोर निकल कर भागा सोया अपनापन फिर जागा फिर से जगी प्रीति की साख सुरासिक्त कतकी की रात साभारः ऋतुपर्णा द्वाराः शशि भूषण अवस्थी |
दृगोँ का घूंघट उघारो
दृगोँ का घूंघट उघारो
मधुमिलन के इन क्षणोँ को; ह्रदय के पट पर उघारो, दृगोँ का घूंघट उघारो, शर्म को देकर तिलांजलि; आज प्रिय उन्मुक्त होओ आज अलिंगन सुरा; छककर पियो उन्मत्त होओ हम पढ़ेँ संस्पर्श आखर; जो मिलन की आदि भाषा कामना का संसार धरती पर उतारो दृगोँ का घूंघट उघारो रह न जाये आज कोई प्यास या ख्वाहिश अधूरी बांध लो आकाश मुटठी मे मिटायेँ आज दूरी इस अनंगी यज्ञ मे; हर द्वैत का हम दहन कर देँ युग्म बन अद्वैत जीवन मे उतारो दृगोँ का घूंघट उघारो ________________________ साभारः ऋतुपर्णा द्वाराः शशि भूषण अवस्थी |
बहुत सुन्दर सूत्र है अनुज सिकंदर. बहुत बहुत साधुवाद !
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सिकन्दर भाई मैं यहाँ आपको स्पष्ट कर दूँ की ऐसा हो सकता की आपके इस सूत्र में जवाब कम आये
पर इससे विचलित मत होना मेरे भाई इसका कारन है की बहुत कम लोग ऐसे विषयों में रूचि रखते हैं पर कुछ लोग जो इसे पसंद करते हैं उनके लिए आपका ये सूत्र अमृत कलश स्वरुप हैं और उन्ही लोगों के लिए सूत्र की निरन्तरता बनाये रखना |
Quote:
आपका हार्दिक आभार हमारा प्रयास जारी रहेगा |
बेहद मादक और उत्तेजक,
भाई सिकंदर सूत्र तुम्हारा. जारी रखना यूँही हमेशा, कीमती ये प्रयास तुम्हारा. बेहद बेहतरीन सूत्र और आपकी रचनाएं. धन्यवाद |
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सूत्र भ्रमण और सुझाव के लिए आपका हार्दिक आभार |
कामना की पलक हिलते
कामना की पलक हिलते
ह्रदय के पट बंद खुलते स्वांस मेँ रस छंद घुलते सृष्टि मेँ नव स्वप्न खिलते रूप मेँ श्रृंगार मचले सर्जना का भावना संगीत बनती अर्चना मे ज्योति घुलती वंदना मे प्रीति बहती दृगोँ को नव सृष्टि मिलती बोध मे सत्कार मचले व्यंजना का अक्षरोँ के बंध खुलते छंद के मीड़न सम्हलते रसोँ के मकरंद खिलते सर्जना को व्योम मिलते गान मे उल्लास मचले कामना का ________________________ साभारः ऋतुपर्णा द्वाराः शशि भूषण अवस्थी |
बजे वासना भी शहनाई
बजे वासना भी शहनाई
मन डोले, तन बोले कोष कोष मे सूत्र लिखे हैँ आखर ब्रह्रा के रूपोँ के रूपाकारोँ मेँ भाव भंगिमा के रचे गीत नूतन तरूणाई मन बोले, तन डोले भाव भाव संवेग सुहावन स्नेहिल बंधन के अंतहीन रूपक जीवन की रचना गंगा के मौसम लेते हैँ अंगड़ाई मन डोले तन बोले अथक, अनगिनत,रामकथा मे प्रहसन लीला के सद सौ असद भाव रूपोँ के शिवकी करूण के सांस करे सुर की पहुनाई मन डोले, तन बोले |
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