किस्सागोई के आखिरी शहंशाह.....
किस्सागोई के आखिरी शहंशाह श्री विजयदान देथा जी को भावभीनी श्रधान्जली........... |
Re: किस्सागोई के आखिरी शहंशाह.....
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स्मृति शेष श्री विजयदान देथा, जो अपने चाहने वालों के लिए सिर्फ बिज्जी थे, सही मायनों में हिंदुस्तानी वाचिक परंपरा के किस्सागो थे. चेखव ने कहा था महान लेखक सिर्फ अपनी जुबान में लिखा करते हैं. विजयदान देथा ने ताउम्र अपनी जुबान राजस्थानी में ही लिखा...... |
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पिछले दो हफ्तों के भीतर राजेंद्र यादव, के.पी. सक्सेना, परमानंद श्रीवास्तव और अब बिज्जी का जाना. यूं तो उम्र के गणित और कुदरत के नियम के हिसाब से यह एक प्रक्रिया का हिस्सा भर है; लेकिन अगर इसे हिंदी भाषा और साहित्य की नजर से देखें तो दो हफ्तों के भीतर टूटी चार-चार बडी विपदाएं हैं. विजयदान देथा का 10 नवंबर को दिल का दौरा पडने से उनके पैतृक गांव बोरूंदा में निधन हो गया. जिस तरह बिज्जी ने कभी हिंदी में लिखने का मोह नहीं पाला, उसी तरह उन्होंने कभी अपने गांव को छोडकर जयपुर या जोधपुर जैसे शहरों में बसने का भी मोह नहीं पाला यह बिज्जी की अपनी ताकत ही थी कि उन्हें हिंदी की अनमोल धरोहर समझा जाएगा राजस्थान की लोक कथाओं को नई पहचान दिलाने वाले देथा को 800 से अधिक लघुकथाएं लिखने का श्रेय प्राप्त है...... |
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लेकिन यह तो वह आंकडा है जो उन्हें न जानने वालों के लिए है. उन्हें जो लोग जानते हैं, उन्हें पता है कि बिज्जी के पास कितनी कहानियां थीं, कितने प्लॉट थे. इन पंक्तियों के लेखक को खुद भी बिज्जी से दर्जनों कहानियां मुंह जुबानी सुनने का मौका मिला, जिन्हें उन्होंने कभी भी कागज में नहीं उतारा और शायद सैकडों ऐसे लोग होंगे जिन्हें इसी तरह बिज्जी ने न जाने कितनी कहानियां सुनाई होंगी. वह एक तरह से राजस्थानी फोक परंपरा के चलते फिरते कथाकोश थे. उनके करीबी रहे विनोद विट्ठल कहते हैं, 'बिज्जी ने राजस्थान की लोक कथाओं को दस्तावेजी स्वरूप दिया.' साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता देथा को लोक कथाओं में उनके योगदान के लिए सन 2011 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था; लेकिन यह विदेशी समझ की सीमा है कि उन्होंने कुदरत के इस नायाब कहानीकार को नोबेल के लायक नहीं पाया. हालांकि भारत में तमाम बडे. साहित्यिक पुरस्कार उन्हें हासिल हुए. पिछले साल ही उन्हें राजस्थान रत्न पुरस्कार से विभूषित किया गया था....... |
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बिज्जी ऐसे ललचाऊ कथाकार थे, जिनकी कहानियों पर हर बडा रचनाधर्मी फिल्मकार फिल्में बनाना चाहता था. यह अकारण नहीं है कि उनकी कई कहानियों पर कई-कई बार फिल्में बनीं. उनकी कहानी 'दुविधा' पर पहले मणिकौल ने इसी नाम से फिल्म बनाई और फिर अमोल पालेकर और शाहरुख खान ने साझे प्रोडक्शन में 'पहेली' नाम से फिल्म बनाई, जिसे ऑस्कर के लिए नामित किया गया. उनकी एक और कहानी 'चरणदास चोर' पर न सिर्फ श्याम बेनेगल ने सर्वकालिक महान फिल्मों में से एक बनाई बल्कि थिएटर के इंसाइक्लोपीडिया कहे जाने वाले हबीब तनवीर ने हिंदुस्तान सहित दुनिया के तमाम देशों में उनकी इस कहानी पर नाटक किया. हबीब तनवीर ने बिज्जी की इस कहानी का छत्तीसगढी में अनुवाद किया था और फिर उसे नाट्य स्वरूप में बदला, फिर उसके मंचन का उन्हें जो नशा सवार हुआ, वह गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज होने के बाद भी नहीं उतरा........ |
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हबीब तनवीर ने उनकी इस कहानी पर 20,000 से ज्यादा बार थिएटर किया. 2 सितंबर 1926 को पैदा हुए बिज्जी शुरू में कवि थे और एक तरह से अपनी विरासत को आगे बढा रहे थे. दरअसल बिज्जी राजस्थान की चारण जाति से ताल्लुक रखते थे, जो कभी राजा रजवाडों के जमाने में राज दरबारों में कविताएं किया करते थे. बिज्जी के पिता और उनके दादा अच्छे कवि थे और यही संस्कार व गुण बिज्जी में भी थे. लेकिन ये गुण उनमें अपने पिता या परिवार के दूसरे लोगों की बदौलत नहीं आए बल्कि उन्होंने खुद विकसित किया था. क्योंकि जब वह महज 4 साल के ही थे एक पारिवारिक कलह में उनके पिता और उनके दो बडे. भाइयों की हत्या कर दी गई थी. संभवत: इसी वजह से उनके जीवन में करुणा की जबर्दस्त जगह थी. बिज्जी अगर लोक कथाकार नहीं होते तो संभवत: वह बडे. मार्क्सवादी चिंतक होते. उनमें गजब का अनुशासन था और उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता हमेशा समाजवाद के साथ रही. वह स्त्रियों की आजादी के भी जबर्दस्त सर्मथक थे. लेकिन उनमें यह सब पश्चिमी गुणों की तरह नहीं था बल्कि खांटी हिंदुस्तानी परंपरा के रूप में था......... |
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Re: किस्सागोई के आखिरी शहंशाह.....
विजयदान देथा को श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत इस आलेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. विजयदान जी की ख्याति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत भर में साहित्य-प्रेमी पाठकों को उनका साहित्य अपनी-अपनी भाषा में उपलब्ध है. ऐसा सम्मान बहुत कम लेखको को प्राप्त होता है.
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हर क्षेत्र में कुछ दादा नुमा लोग होते हैं जिसका दखल उस क्षेत्र में भी होता है जिनका उन्हें ज्ञान नहीं। ऐसे ही माफियानुमा लोग ने विजयदान की राजस्थानी में लिखी रचनाओं को हिन्दी साहित्य का मानने से इनकार किया, परन्तु मानव करुणा से ओतप्रोत रचनाएं कालातीत होती हैं और पूरी मानवता का उन पर अधिकार होता है। संजय चौहान ने डॉ. नामवर सिंह के मार्गदर्शन में विजयदान पर शोध किया है। |
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यह सच है कि विजयदान ने राजस्थान की लोक कथाओं को ही लिखा है परन्तु उनकी मौलिक दृष्टि ने शताब्दियों से सुनी-सुनाई कथाओं को नया अर्थ प्रदान किया तथा वर्तमान से गुजश्ता सदियों को जोड़ दिया। मौलिकता मात्र एक दृष्टिकोण है और विजयदान का यह दृष्टिकोण ही राजस्थान की मिट्टी और रेत को पूरे संसार में ले जाता है, उनसे बड़ा राजस्थान का सांस्कृतिक राजदूत कोई नही हुआ। राजस्थान में प्रांतीय शोक घोषित किया जाना था और झंडे झुकाए जाने चाहिए थे।सबसे पहल हबीब तनवीर ने ‘चरणदास चोर’ का मंचन बस्तर के लोक कलाकारों के साथ किया, बाद में श्याम बेनेगल ने विजयदान की इस कथा पर फिल्म बनाई। इसी तरह मणिकौल ने उनकी ‘दुविधा’ बनाई और बाद में इसी कथा पर अमोल पालेकर ने शाहरुख खान और रानी मुखर्जी को लेकर ‘पहेली’ फिल्म बनाई। अगर विजयदान की एक ही कहानी पर कई बार फिल्में बनीं है तो स्वयं विजयदान ने भी अपनी लिखी कुछ कथाओं को दोबारा लिखा है और यह दोबारा लिखा जाना महज जुगाली नहीं थी वरन, नए दृष्टिकोण से लिखा जाना था जो यह सिद्ध करता है कि उनकी विचार प्रक्रिया सतत प्रवाहित थी और वे कभी मुतमइन नहीं थे कि उन्होंने अंतिम शब्द लिख दिया है- इसे मैं उनकी सबसे बड़ी विशेषता मानता हूं। प्रकाश झा की ‘परिणति’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और फिल्म देखकर राजकपूर इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने प्रकाश झा को अपने घर आमंत्रित किया तथा विजयदान की कुछ कथाएं सुनी। युवा पत्रकार उमाशंकर सिंह जो आजकल मुंबई में अरबाज खान के लिए फिल्म लिख रहे हैं भी विजयदान के मुरीद हैं और उनकी दिली इ'छा है कि विजयदान की ‘बैंडमास्टर इब्राहिम’ पर फिल्म बनाएं......... |
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