हाईवे पर संजीव का ढाबा
हाईवे पर संजीव का ढाबा
(कथाकार: कैलाश चंद चौहान) [टिप्पणी: इस कहानी में इतनी सरलता से जातिप्रथा की समस्या को उजागर किया गया है कि आश्चर्य होता है. लेखक न सिर्फ अपने उद्देश्य में सफल हुआ है बल्कि पाठक को बांधे रखने में भी पूरी तरह कामयाब रहा है. मैं कथाकार को इस सौद्देश्य कहानी के लिए बधाई देता हूँ और शुभकामनायें व्यक्त करता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यह कहानी अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचे. अतः यहां अविकल दे रहा हूँ.] |
Re: हाईवे पर संजीव का ढाबा
मेरा गांव दिल्ली से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूरी पर पड़ता है, यह केवल अंदाजा है। कम या ज्यादा भी हो सकता है। हाथरस जिले में गांव है उचावना। बड़ा ही मनोहर गांव है। जिस तरह साहित्यकार गांव का वर्णन करते हैं, ठीक उसी तरह का है। आम के पेड़ भी हैं, कोयल की “कूह… कूह… कूह…” भी है तो मोर नाचते भी दिखाई देते हैं। लेकिन मेरा यहां दम घुटता, इसलिए मैं गांव छोड़कर दिल्ली चला आया।
गांव से दिल्ली में रहने के लिए आया तो मेरे पास खाने के भी लाले थे। गांव में बेरोजगारी से जूझते हुए मैंने गांव को करीब दस बरस पहले छोड़ दिया। गांव में दो चीजों से मुकाबला कर रहा था। बीए पास करने के बावजूद गांव के लोगों के द्वारा की जाने वाली छुआछूत बर्दाश्त न होती। इस पर कई बार गांव के लोगों से बवाल भी हो जाता। गांव में मेरे कई दोस्त थे। ऐसा नहीं था कि सभी केवल दलित थे। कुछ उनमें गैर दलित भी थे। उनसे मैं अक्सर हंसी ठिठौली भी कर लेता था। खाली बैठा मैं हमेशा अपने मां बाप की नजरों में चुभता रहता। इसलिए कई बार मुझे खेतों में काम करने जाना पड़ता। घर में दो भैंसे थीं। वो भी ठाकुरों से बटाई पर ली हुई। अक्सर उन्हें नेहालने का काम करना पड़ता। ऊपर से उनके लिए चारा भी डालो। कुछ उम्र तो पढ़ाई में बीत गयी, अब रही सही उम्र भैंसों को चारा डालने व उन्हें नेहलाने में बीत जाएगी, यह सब तो मैं बर्दाश्त कर भी लूं, लेकिन गांव के लोग मुझे नीच समझकर जो भेदभाव करते हैं, उसका क्या करूं? यह बात मुझे कई बार चुभ जाती। मैंने अक्सर सुन रखा था कि अगर कोई दलित जाति के लोगों को जाति सूचक शब्द से पुकारे तो उसे सजा हो सकती है। शहर में तो जाति सूचक शब्द के इस्तेमाल के कारण कई अफसरों की नौकरी जा चुकी है। लेकिन गांव के लोग अपमान करने के उद्देश्य से मेरे लिए खुलकर जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल करते। मेरे लिए ही क्यों, गांव की हर दलित जाति को उसी की जाति से कई बार बोलते हैं, चूडे के, भंगी के, चमार के आदि आदि। लेकिन किसी को बुरा भी नहीं लगता। बुरा लगता, मुझे। |
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इन सब बातों को देखते हुए गांव छोड़ने का मेरा बड़ा मन था। एक दिन अपने बैग में कपड़े भरकर और अपनी पढ़ाई के सर्टिफिकेट रखकर दिल्ली आ गया। दिल्ली में मेरी बुआ की लड़की सोनल ब्याही हुई थी। कुछ दिन मैं वहीं ठहरा। सोनल थी तो अनपढ़, लेकिन जिससे ब्याही गयी, वह लड़का दसवीं पास था। वह यहां की नगर निगम में क्लर्क के पद पर कार्यरत था। उसने मुझे एक कॉल सेंटर की राह दिखा दी। रात की नौकरी, दिन में आराम।
नजदीक ही एक मकान किराये पर ले लिया। रिश्तेदारों के पास ज्यादा समय तक भी तो ठहरना ठीक नहीं होता। कॉल सेंटर में तनख्वाह मिलती दस हजार रुपये। बाद में और बढ़ा देने का उन्होंने आश्वासन दिया। पांच हजार मां-बाप को भेज देता, पांच हजार अपने लिए रख लेता। मेरी योग्यता के हिसाब से जहां भी नौकरी के लिए जगह निकलती, मैं फार्म जरूर भर देता। यह सब अब मेरी दिनचर्या में शामिल हो चुका था। अभी छः सात महीने ही दिल्ली में आये हुए थे कि मां का फोन आ गया कि पिताजी बहुत सख्त बीमार हैं। मुंह देखना हो तो देख लो। यह खबर सुनकर मैं अचंभित नहीं हुआ। वह अक्सर बीमार रहते ही थे। खाना कम और काम अधिक तो शरीर अंदर से खोखला होगा ही। दमा उनको मेरे सामने ही हो गया था। पिताजी के ज्यादा बीमार होने की खबर मिलने के दूसरे दिन मैं आनंद विहार बस अड्डे से हाथरस की बस में बैठा। यह बस यूपी रोडवेज की थी। बस देखने में बूढ़ी थी। चलते समय कमजोर शरीर की तरह कांपने की उसकी शायद आदत बन चुकी थी। किसी बुजुर्ग की तरह बीच-बीच में खांसने लग जाती। इस स्थिति में बस हिलने लग जाती, जैसे कोई कमजोर बुजुर्ग खांसते समय पूरी तरह हिल जाता है। हर जगह से बस के डेंट और पेंट की बुरी हालत। दूसरी उपमा का प्रयोग करूं तो उसकी हालत ऐसी थी जैसे भूखे व्यक्ति को कई दिन से खाना न मिला हो। जगह जगह से बस का बाहरी आवरण पिचका हुआ था, जैसे किसी कमजोर बुजुर्ग की खाल सुकुड़ कर जगह जगह से पिचक जाती है। |
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बैठने की सीट भी उधड़ी, उधड़ी। मैं बैठ तो गया, लेकिन बैठने की सीट देखकर यही सोचता रहा कि इतनी दूर के सफर में बैठे बैठे पीछे का हिस्सा (समझ तो आप गये ही होंगे, संस्कारी होने का कारण वह शब्द इस्तेमाल नहीं कर पा रहा हूं) बुरी तरह दुखने लगेगा। परंतु क्या करता, दूसरी बस पता नहीं कब मिलती। मिलती भी तो, संभव है उसकी भी हालत ऐसी होती।
खैर छोड़ो, यह भारत है। यहां समस्याओं का अंबार है। हर जगह भ्रष्टाचार है। और कहते हैं उत्तर प्रदेश रोडवेज की हालत खराब है। यह सब बताने का मेरा उद्देश्य नहीं नहीं। अब मैं आगे बढ़ता हूं। बस चल पड़ी है। ठंड का मौसम है। दिसंबर का महीना। बस भरने के बावजूद कोई दिक्कत नहीं। हां, गरमी का मौसम होता तो जरूर उमस बस में हो जाती और सभी के पसीने की बदबू बस में फैल जाती। मैंने बाहर की हवा खाने के लिए खिड़की खोली ही थी कि लोगों ने बंद करा दी। असल में मेरे शरीर में कमी है कि बस में फैली पेट्रोल की बदबू मेरे दिमाग में चढ़ जाती है, जिससे मुझे भयंकर सिर दर्द हो जाता है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि बस में मेरा कभी कभार ही जाना होता है। मैंने खिड़की तो बंद कर दी, लेकिन हल्की सी खुली छोड़ दी, ताकि मेरे नथुनों में बाहरी हवा जाती रहे। “आपको कहां जाना है?” साथ में बैठे एक सज्जन बोले। चमकदार चेहरा। उनके माथे पर चंदन का तिलक था। वह कुर्ता और धोती पहने हुए थे। देखने से ही मालूम पड़ गया कि यह महाशय पंडित हैं। “हाथरस उतरना है। वहां से गांव के लिए बस पकड़नी है।” मैंने भी तुरंत जवाब दिया। क्यों पूछा, यह मुझे मालूम नहीं। हो सकता है कि उनके किसी साथी को सीट न मिली हो। यह भी हो सकता है कि उनकी पत्नी दूसरी सीट पर बैठी हो। मेरी सीट बीच में कहीं खाली होने पर वह अपने पास बैठाना चाहते हों। एक और कारण हो सकता है। कुछ लोगों की समय पास करने के लिए कुछ न कुछ बात करने की आदत होती है, इसलिए शुरुआत करने के लिए इस तरह के सवाल कर बैठते हैं। कई बार जिज्ञासु स्वभाव के कारण भी इस तरह के सवाल कर देते हैं कि जानूं तो सही यह सज्जन कहां तक जाएंगे। कारण कुछ भी हो सकता है। केवल कयास ही लगाये जा सकते थे। “शादी-वादी होगी गांव में?” उनका अगला सवाल था। |
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“शादी तो नहीं है भैया जी। पिताजी की अचानक तबियत खराब हो गयी। उन्हें देखने जाना पड़ रहा है।”
“ओह! क्या हुआ उन्हें?” “अब तो पता नहीं क्या हुआ। दमे के मरीज हैं। मां ने फोन पर बताया कि पिताजी की तबीयत ज्यादा खराब है। जल्दी पहुंचो।” “सीरियस हैं?” “हां, शायद!” अब तक मैं समझ चुका था कि यह महाशय बातूनी हैं। केवल समय बिताने के लिए बातें कर रहे हैं, और कोई इनकी समस्या नहीं है। “एक बार हाथ दिखाना।” यह पक्का हो गया कि यह महाशय पंडित हैं, और ज्योतिष का भी ज्ञान रखते हैं। “नहीं पंडित जी, मैं इन बातों को नहीं मानता। बुरा न मानें।” “इसमें बुरा मानने की क्या बात है। अच्छी बात है। पर मेरी रोजी रोटी तो यही है।” “पर मुझसे हाथ देखने की दक्षिणा भी नहीं मिलती।” मैंने हंसकर कहा। “अरे नहीं नहीं, तुमसे इस तरह की कोई इच्छा नहीं थी।” “गांव में रहते होंगे।” “हाथरस से कुछ पहले ही रमणिया गांव है। वहां और आस पास के गांव वाले मुझे पंडित रामप्रसाद ज्योतिषी के नाम से जानते हैं।” “तो इससे गुजारे लायक आमदनी हो जाती है?” मैंने जिज्ञासा जाहिर की। “हां, बच्चे पल रहे हैं। गांव में ही अपना एक मंदिर भी है।” “फिर तो आपके मजे हैं पंडित जी!” मैं मुस्काराया। “मजे तो क्या, हां गुजारा हो जाता है। खैर छोड़ो, कल का क्रिकेट मैच देखा?” “नहीं।” |
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“बड़े बदनसीब निकले। आस्ट्रेलिया की टीम के रनों का स्कोर था तीन सौ पच्चपन।”
“यह स्कोर पहाड़नुमा था। फिर तो यह मैच इकतरफा हुआ!” उस महाशय उर्फ पंडित की बातों में मेरी रुचि बनने लगी। “क्या बात करते हैं भाई साहब। भारत की टीम भी कौन सा कम है। सचिन के बिना ही कल हमारी टीम जीत गयी।” “अच्छा!” मैं चौंका, “सचिन बीमार था क्या?” मैंने सवाल किया। “नहीं सचिन खेला जरूर था। उसने बॉलिंग भी की थी।” “फिर क्या पंडित जी बॉलिंग करते समय उसके चोट लग गयी थी?” “अरे नहीं भाई। असल में सचिन इस बार जीरो पर ही आउट हो गया था।” “दबाव वाले मैच में सचिन चल ही नहीं पाता। मैं बहुत बार देख चुका हूं।” यह बोलने वाले महाशय हमारी ही सीट के पास खड़े थे। एक हाथ से बस की छत से लटका हैंडल पकड़ा हुआ था, दूसरे हाथ से हमारी सीट का पाईप पकड़े हुए थे। “सचिन के बाद लगातार चार विकट उखड़ चुकी थी। रन बने कुल अस्सी। ओवर भी बीस फैंके जा चुके थे।” “यानी हार के पूरे पुख्ता इंतजाम हो गये। फिर क्या हुआ?” “होना क्या था भाई मेरे, राहुल द्रविड़ और महेंद्र सिंह धोनी ने ऐसी कमान संभाली कि आस्ट्रेलिया चारों खाने चित्त। बहुत ही रोमांचक मैच था कल का।” कुछ लोगों को कितनी बातें करने की आदत होती है। बातें करने के लिए दूसरों के परिवारों तक में घुस जाएंगे। मैं उनसे पहली बार मिला था। उनके साथ बस तक का सफर है, परंतु बातें ऐसी करेंगे कि जैसे वह सामने वाले के घरेलू सदस्य हों या गहरे दोस्त हों। “शादी, अभी कहां पंडित जी! अभी तो मैंने बीए किया है। इन दिनों दिल्ली के एक कॉल सैंटर में नौकरी कर रहा हूं।” “कॉल सैंटर में? फिर तो तनख्वाह अच्छी होगी?” वह पंडित जी ऐसे पूछ रहे थे जैसे मेरा रिश्ता उन्हें करवाना हो। “दूसरों का तो मुझे पता नहीं, पर मेरे लिए बहुत अच्छी है।” “तनख्वाह कितनी मिल जाती है?” “यही कोई दस हजार।” |
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“दस हजार! बहुत कम है।” उन्होंने अफसोस की मुद्रा में मुंह बनाकर कहा।
“पर काल सैंटर की नौकरी है बड़ी मजेदार! रात की शिफ्ट में लड़के लड़कियां खूब इंजाय कर लेते हैं।” “पंडित जी, आपकी बात ठीक है। लेकिन वही इंजॉय कर पाते हैं, जो संस्कारी नहीं हैं। हम गांव के लोग हैं, हम लोगों में इतनी हिम्मत कहां!” “अरे छोड़ो, गांव के लोगों में दिल नहीं होता। वह बिना भावना के होते हैं? हम कौन सा तुम्हारी निजी लाइफ पूछ रहे हैं?” पंडित जी के चेहरे पर शरारती हंसी फैल गयी थी। आवाज में भी शरारतीपन था। उनकी बातें सुनकर मुझपर पर शर्मिंदगी का असर हो गया था। कहते हैं गुम सुम बैठे रहने की अपेक्षा बातों ही बातों में सफर और समय दोनों का पता नहीं चलता। बस ढाबे के पास रुकी। ढाबा क्या था, आधुनिक भारत के ढाबे का विकसित रूप था। अच्छा, साफ सुथरा और पक्का। चारपाई की जगह पर कुर्सियां पड़ी हुई थी। टूटी फूटी लंबी टेबल की जगह पर गोल टेबल थी। गोल गप्पे, टिक्की, भल्ले पापड़ी, सब्जी, रोटी, चाय, कॉफी आदि सब इंतजाम था। यह ढाबा शायद अलीगढ़ और खुर्जा के बीच में कहीं था। मैं बस से उतरा तो वह सज्जन भी मेरे साथ ही चल दिये। “क्या खाइयेगा!” उन्हीं पंडित जी का सवाल था। “वैसे तो बाहर का खाना नुकसानदायक होता है। लेकिन देखने में ढाबा साफ सुथरा है, कुछ खा लेना ही अच्छा है।” “क्यों, घर से कुछ खाकर नहीं आये।” “नहीं। जल्दी जल्दी में चार ब्रेड स्*लाइस और चाय ही पी।” |
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बातें करते हुए दोनों ढाबे के एक कमरे में घुस गये। वैसे सर्दी के मौसम में चाय पीने की इच्छा थी, लेकिन पहले खाने के बारे में सोचा।
मैंने छः रोटी, दाल फ्राई और कड़ी का आर्डर दिया और पंडित जी ने शाही पनीर और केवल चार रोटी का ऑर्डर दिया। कंडक्टर और बस ड्राइवर दोनों ही हमसे दो तीन टेबल की दूरी पर बैठे थे। शायद यही खाने का लालच इन्हें ढाबे पर रुकने के लिए मजबूर करता है। बस से उतरने से पहले पीछे की सीट पर बैठे यात्री मुझे यह जानकारी दे रहे थे कि बस के कंडक्टर और ड्राइवरों को इन ढाबों पर खाना तो फ्री मिल ही जाता है, साथ ही कमीशन भी मिलता है। वरना चार घंटे के सफर में क्या जरूरत है, इन ढाबों पर बस रोकने की। कमीशन का ही लालच है, वरना लोगों को ‘हल्का’ करवाना हो तो कहीं भी बीच रास्ते में रोक सकते हैं। दस मिनट में काम खत्म। खाना तो लोग अपने साथ लाते ही हैं। जितने लोग उतनी बातें। मेरे विचार अपने अलग है। लंबे सफर में आदमी बैठे बैठे बोर हो जाता है। उसे कुछ ‘रीलीफ’ मिल जाता है। यानी वो कुछ हल्का महसूस करने लगता है। वह ‘हल्का’ भी हो जाता है। सबसे बड़ा फायदा यह कि ‘पिछवाड़े’ को भी कुछ राहत मिल जाती है। इतनी दूर के सफर में बैठे-बैठे उसकी हालत खराब हो जाती है। अब आप यह सोच रहे होंगे कि यह शब्द पहले क्यों नहीं इस्तेमाल किया है। असल में यह शब्द पहले मुझे याद नहीं आ रहा था। अब मुझे ध्यान आया कि इस शब्द का इस्तेमाल करू तो ज्यादातर लोग समझ लेंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं। स्वाभाविक भी लगेगा। मैंने जल्दी जल्दी खाना खाया। कहीं बस के चलने का समय न हो जाए। फिर हाथ साफ कर पैसे देने के लिए काउंटर पर पहुंचे। पहुंचे इसलिए कहा कि वह बस वाले सज्जन उर्फ पंडित जी भी मेरे ही साथ थे। मैं काउंटर पर पैसे देही रहा था कि पीछे कमर पर लगी जोरदार थपकी से मैं चौंक गया। मुड़कर देखा, चेहरा कुछ जाना पहचाना लगा। वह मुझे देखकर मुस्करा रहा था। |
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“क्या हुआ… पहचाना नहीं।” उसके चेहरे पर शरारत झलक रही थी।
“नहीं।” मैंने उसके चेहरे को काफी देर गौर से देखा। “मैं संजीव जिसे तू संजू कहकर पुकारता था।” मैं उसे काफी देर तक फटी आंखों से देखता रहा। कहां वह संजीव कंधे पर अंगोछा, चेहरे पर बिखरी दाढ़ी। जवानी में भी चेहरे पर रंगत नहीं। कहां यह संजीव – चेहरे पर चमक, भरे हुए गाल, साफ-सुथरे कपड़े। अक्सर संजीव का गांव में किसी न किसी झगड़ा होता रहता है। कहता, हमारे में और इन गैर दलितों में क्या अंतर हैं? वो भी इंसान, हम भी इंसान। उनके शरीर में भी लाल खून और हमारे शरीर में भी। फर्क यही तो है न कि वह अमीर हम गरीब। उनके पास बहुत बड़े बड़े खेत हैं, हमारे पास नाम मात्र को एक दो बीघा खेत। उनके खेतों पर काम करना हमारी मजबूरी, लेकिन हम मेहनत तो उनसे ज्यादा करते हैं। ऊपर से कहेंगे हम नीच हैं। कुओं का पानी सूख गया। अब पूरे गांव में हैंड पंप लग गये। एक बार ठाकुरों का हैंडपंप खराब हो गया। ठाकुर हमारे यहां लगे हैंड पंप से ही पानी भरते और अपनी भैंसों को नेहलाते। उनका हैंड पंप ठीक होने में पूरा महीना लग गया। जिद्दी किस्म का संजीव अपनी बाल्टी लेकर ठाकुरों के हैंड पंप पर पानी भरने पहुंच गया। अभी वह हैंडपंप चलाकर बाल्टी भर ही रहा था कि एक ठकुराइन ने आकर विरोध कर दिया। कुछ और ठाकुर भी जमा हो गये। ठाकुरों के आगे हमारा वश कहां चलता? गांव ठाकुरों का ही था। लेकिन संजीव भी पानी भरकर ही हटा, जिद्दी जो ठहरा। बाद में ठाकुरों ने उस हैंडपंप को डिटर्जेंट पाउडर से धोया। एक दिन तो संजीव ने हद ही कर दी। एक ठाकुर के यहां अपने मां बाप की मजदूरी लेने गया। घर में कुछ रिश्तेदार आ गये थे। उसके मां बाप ने ठाकुर के खेतों पर काम किया था। गरमी तेज थी, जून का महीना। शाम के तीन बजे का समय। सूर्य पश्चिम दिशा की ओर बढ़ रहा था, लेकिन अब भी आग ही उगल रहा था। |
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एक दिन उसने ठाकुर की लड़की से पीने का पानी मांगा। उस लड़की की उम्र शायद उन्नीस बीस वर्ष की रही होगी। उस लड़की ने पानी तो दिया, लेकिन वह एक लौटे में पानी लायी और हाथ से औक बनाने को कहा ताकि संजीव की औक में वह लड़की पानी उड़ेल सके। संजीव को बड़ा गुस्सा आया। पढ़ी लिखी होकर भी इस लड़की में जातिवाद! लड़की बाहरवीं पास करके बीए कर रही थी।
“मैं भी इन्सान हूं। दूर से काहे पानी पिलाएगी। लौटा ही पकड़ा दो।” उस लड़की ने लौटा पीछे खिसका लिया। इतने में ठाकुर साहब भी आ गये। उस लड़की ने यह बात ठाकुर साहब को कह दी। ठाकुर साहब ने भी संजीव की खूब फजीहत की। संजीव को अपना सा मुंह लेकर वापस लौटना पड़ा। घर में भी उसे मां बाप ने खूब डांट पिलायी। कुछ इस तरह की घटनाओं ने उसे भी शहर का रास्ता दिखा दिया। वह कहां है, क्या करता है – मुझे नहीं पता था। बाहरवीं पास करके वह पढ़ाई छोड़ चुका था। मेरी पढ़ाई आगे तक जारी थी। “हां, इस चमकदार चेहरे में कहीं संजीव झलक रहा है।” मैंने उसके चेहरे को देखते हुए कहा। जैसे उसके चेहरे में कोई खोयी हुई चीज पा ली हो। संजीव मेरी इस बात पर जोरदार हंस दिया। “यहां कैसे? तेरा रुख गांव की तरफ है क्या?” मेरा अगला सवाल था। “नहीं। यह ढाबा मेरा ही है।” कुछ देर में बस का होर्न बज गया। वह अपनी सवारियों को पुकार रही थी, जैसे कह रही हो, जल्दी आ जाओ मैं चलने वाली हूं। मैंने बस वाले पंडित जी को जाने के लिए कह दिया। अब मैं संजीव से कुछ बातें करके ही अगली बस से जाऊंगा। |
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