रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
मंगल-आह्वान
भावों के आवेग प्रबल मचा रहे उर में हलचल। कहते, उर के बाँध तोड़ स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान, तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को छा लेंगे हम बनकर गान। पर, हूँ विवश, गान से कैसे जग को हाय ! जगाऊँ मैं, इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की कौन रागिनी गाऊँ मैं? बाट जोहता हूँ लाचार आओ स्वरसम्राट ! उदार पल भर को मेरे प्राणों में ओ विराट्* गायक ! आओ, इस वंशी पर रसमय स्वर में युग-युग के गायन गाओ। वे गायन, जिनके न आज तक गाकर सिरा सका जल-थल, जिनकी तान-तान पर आकुल सिहर-सिहर उठता उडु-दल। आज सरित का कल-कल, छल-छल, निर्झर का अविरल झर-झर, पावस की बूँदों की रिम-झिम पीले पत्तों का मर्मर, जलधि-साँस, पक्षी के कलरव, अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन मेरी वंशी के छिद्रों में भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन। दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी, उठें प्रभाती-राग महान, तीनों काल ध्वनित हो स्वर में जागें सुप्त भुवन के प्राण। गत विभूति, भावी की आशा, ले युगधर्म पुकार उठे, सिंहों की घन-अंध गुहा में जागृति की हुंकार उठे। जिनका लुटा सुहाग, हृदय में उनके दारुण हूक उठे, चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति की कोयल रो कूक उठे। प्रियदर्शन इतिहास कंठ में आज ध्वनित हो काव्य बने, वर्तमान की चित्रपटी पर भूतकाल सम्भाव्य बने। जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में भर दो वहाँ विभा प्यारी, दुर्बल प्राणों की नस-नस में देव ! फूँक दो चिनगारी। ऐसा दो वरदान, कला को कुछ भी रहे अजेय नहीं, रजकण से ले पारिजात तक कोई रूप अगेय नहीं। प्रथम खिली जो मघुर ज्योति कविता बन तमसा-कूलों में जो हँसती आ रही युगों से नभ-दीपों, वनफूलों में; सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी विभा यहाँ फैलाते हैं, जिसके बुझे कणों को पा कवि अब खद्योत कहाते हैं; उसकी विभा प्रदीप्त करे मेरे उर का कोना-कोना छू दे यदि लेखनी, धूल भी चमक उठे बनकर सोना॥ |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने
व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने ! भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं, उड़ न सकते हम धुमैले स्वप्न तक, शक्ति हो तो आ, बसा अलका यहीं। फूल से सज्जित तुम्हारे अंग हैं और हीरक-ओस का श्रृंगार है, धूल में तरुणी-तरुण हम रो रहे, वेदना का शीश पर गुरु भार है। अरुण की आभा तुम्हारे देश में, है सुना, उसकी अमिट मुसकान है; टकटकी मेरी क्षितिज पर है लगी, निशि गई, हँसता न स्वर्ण-विहान है। व्योम-कुंजों की सखी, अयि कल्पने ! आज तो हँस लो जरा वनफूल में रेणुके ! हँसने लगे जुगनू, चलो, आज कूकें खँडहरों की धूल में। |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
तांडव
नाचो, हे नाचो, नटवर ! चन्द्रचूड़ ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर! नाचो, हे नाचो, नटवर ! आदि लास, अविगत, अनादि स्वन, अमर नृत्य - गति, ताल चिरन्तन, अंगभंगि, हुंकृति-झंकृति कर थिरक-थिरक हे विश्वम्भर ! नाचो, हे नाचो, नटवर ! सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन, उठे सृष्टि-हृंत्* में नव-स्पन्दन, विस्फारित लख काल-नेत्र फिर काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन । स्वर-खरभर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलास-शिखर । नाचो, हे नाचो, नटवर ! नचे तीव्रगति भूमि कील पर, अट्टहास कर उठें धराधर, उपटे अनल, फटे ज्वालामुख, गरजे उथल-पुथल कर सागर । गिरे दुर्ग जड़ता का, ऐसा प्रलय बुला दो प्रलयंकर ! नाचो, हे नाचो, नटवर ! घहरें प्रलय-पयोद गगन में, अन्ध-धूम हो व्याप्त भुवन में, बरसे आग, बहे झंझानिल, मचे त्राहि जग के आँगन में, फटे अतल पाताल, धँसे जग, उछल-उछल कूदें भूधर। नाचो, हे नाचो, नटवर ! प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल, विदलित अमित निरीह-निबल-दल, मिटे राष्ट्र, उजडे दरिद्र-जन आह ! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित-शोषण। पूछो, साक्ष्य भरेंगे निश्चय, नभ के ग्रह-नक्षत्र-निकर ! नाचो, हे नाचो, नटवर ! नाचो, अग्निखंड भर स्वर में, फूंक-फूंक ज्वाला अम्बर में, अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में, अभय विश्व के उर-अन्तर में, गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो, लगे आग इस आडम्बर में, वैभव के उच्चाभिमान में, अहंकार के उच्च शिखर में, स्वामिन्*, अन्धड़-आग बुला दो, जले पाप जग का क्षण-भर में। डिम-डिम डमरु बजा निज कर में नाचो, नयन तृतीय तरेरे! ओर-छोर तक सृष्टि भस्म हो चिता-भूमि बन जाय अरेरे ! रच दो फिर से इसे विधाता, तुम शिव, सत्य और सुन्दर ! नाचो, हे नाचो, नटवर ! |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल! युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, निस्सीम व्योम में तान रहा युग से किस महिमा का वितान? कैसी अखंड यह चिर-समाधि? यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान? उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नगपति! मेरे विशाल! ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! पल भर को तो कर दृगुन्मेष! रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल है तड़प रहा पद पर स्वदेश। सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना की अमिय-धार जिस पुण्यभूमि की ओर बही तेरी विगलित करुणा उदार, जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त सीमापति! तू ने की पुकार, 'पद-दलित इसे करना पीछे पहले ले मेरा सिर उतार।' उस पुण्यभूमि पर आज तपी! रे, आन पड़ा संकट कराल, व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। मेरे नगपति! मेरे विशाल! कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा कितना मेरा वैभव अशेष! तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? ओ री उदास गण्डकी! बता विद्यापति कवि के गान कहाँ? तू तरुण देश से पूछ अरे, गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग? अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी यह सुलग रही है कौन आग? प्राची के प्रांगण-बीच देख, जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल, तू सिंहनाद कर जाग तपी! मेरे नगपति! मेरे विशाल! रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर, पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। कह दे शंकर से, आज करें वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार। सारे भारत में गूँज उठे, 'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार। ले अंगडाई हिल उठे धरा कर निज विराट स्वर में निनाद तू शैलीराट हुँकार भरे फट जाए कुहा, भागे प्रमाद तू मौन त्याग, कर सिंहनाद रे तपी आज तप का न काल नवयुग-शंखध्वनि जगा रही तू जाग, जाग, मेरे विशाल |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
प्रेम का सौदा
सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो, एक पथ, बलि के लिए तैयार हो । फूँक दे सोचे बिना संसार को, तोड़ दे मँझधार जा पतवार को । कुछ नई पैदा रगों में जाँ करे, कुछ अजब पैदा नया तूफाँ करे। हाँ, नईं दुनिया गढ़े अपने लिए, रैन-दिन जागे मधुर सपने लिए । बे-सरो-सामाँ रहे, कुछ गम नहीं, कुछ नहीं जिसको, उसे कुछ कम नहीं । प्रेम का सौदा बड़ा अनमोल रे ! निःस्व हो, यह मोह-बन्धन खोल रे ! मिल गया तो प्राण में रस घोल रे ! पी चुका तो मूक हो, मत बोल रे ! प्रेम का भी क्या मनोरम देश है ! जी उठा, जिसकी जलन निःशेष है । जल गए जो-जो लिपट अंगार से, चाँद बन वे ही उगे फिर क्षार से । प्रेम की दुनिया बड़ी ऊँची बसी, चढ़ सका आकाश पर विरला यशी। हाँ, शिरिष के तन्तु का सोपान है, भार का पन्थी ! तुम्हें कुछ ज्ञान है ? है तुम्हें पाथेय का कुछ ध्यान भी ? साथ जलने का लिया सामान भी ? बिन मिटे, जल-जल बिना हलका बने, एक पद रखना कठिन है सामने । प्रेम का उन्माद जिन-जिन को चढ़ा, मिट गए उतना, नशा जितना बढ़ा । मर-मिटो, यह प्रेम का शृंगार है। बेखुदी इस देश में त्योहार है । खोजते -ही-खोजते जो खो गया, चाह थी जिसकी, वही खुद हो गया। जानती अन्तर्जलन क्या कर नहीं ? दाह से आराध्य भी सुन्दर नहीं । ‘प्रेम की जय’ बोल पग-पग पर मिटो, भय नहीं, आराध्य के मग पर मिटो । हाँ, मजा तब है कि हिम रह-रह गले, वेदना हर गाँठ पर धीरे जले। एक दिन धधको नहीं, तिल-तिल जलो, नित्य कुछ मिटते हुए बढ़ते चलो । पूर्णता पर आ चुका जब नाश हो, जान लो, आराध्य के तुम पास हो। आग से मालिन्य जब धुल जायगा, एक दिन परदा स्वयं खुल जायगा। आह! अब भी तो न जग को ज्ञान है, प्रेम को समझे हुए आसान है । फूल जो खिलता प्रल्य की गोद में, ढूँढ़ते फिरते उसे हम मोद में । बिन बिंधे कलियाँ हुई हिय-हार क्या? कर सका कोई सुखी हो प्यार क्या? प्रेम-रस पीकर जिया जाता नहीं । प्यार भी जीकर किया जाता कहीं? मिल सके निज को मिटा जो राख में, वीर ऐसा एक कोई लाख में। भेंट में जीवन नहीं तो क्या दिया ? प्यार दिल से ही किया तो क्या किया ? चाहिए उर-साथ जीवन-दान भी, प्रेम की टीका सरल बलिदान ही। |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
कविता की पुकार
आज न उडु के नील-कुंज में स्वप्न खोजने जाऊँगी, आज चमेली में न चंद्र-किरणों से चित्र बनाऊँगी। अधरों में मुस्कान, न लाली बन कपोल में छाउँगी, कवि ! किस्मत पर भी न तुम्हारी आँसू बहाऊँगी । नालन्दा-वैशाली में तुम रुला चुके सौ बार, धूसर भुवन-स्वर्ग _ग्रामों_में कर पाई न विहार। आज यह राज-वाटिका छोड़, चलो कवि ! वनफूलों की ओर। चलो, जहाँ निर्जन कानन में वन्य कुसुम मुसकाते हैं, मलयानिल भूलता, भूलकर जिधर नहीं अलि जाते हैं। कितने दीप बुझे झाड़ी-झुरमुट में ज्योति पसार ? चले शून्य में सुरभि छोड़कर कितने कुसुम-कुमार ? कब्र पर मैं कवि ! रोऊँगी, जुगनू-आरती सँजाऊँगी । विद्युत छोड़ दीप साजूँगी, महल छोड़ तृण-कुटी-प्रवेश, तुम गाँवों के बनो भिखारी, मैं भिखारिणी का लूँ वेश। स्वर्णा चला अहा ! खेतों में उतरी संध्या श्याम परी, रोमन्थन करती गायें आ रहीं रौंदती घास हरी। घर-घर से उठ रहा धुआँ, जलते चूल्हे बारी-बारी, चौपालों में कृषक बैठ गाते "कहँ अटके बनवारी?" पनघट से आ रही पीतवासना युवती सुकुमार, किसी भाँति ढोती गागर-यौवन का दुर्वह भार। बनूँगी मैं कवि ! इसकी माँग, कलश, काजल, सिन्दूर, सुहाग। वन-तुलसी की गन्ध लिए हलकी पुरवैया आती है, मन्दिर की घंटा-ध्वनि युग-युग का सन्देश सुनाती है। टिमटिम दीपक के प्रकाश में पढ़ते निज पोथी शिशुगण, परदेशी की प्रिया बैठ गाती यह विरह-गीत उन्मन, "भैया ! लिख दे एक कलम खत मों बालम के जोग, चारों कोने खेम-कुसल माँझे ठाँ मोर वियोग ।" दूतिका मैं बन जाऊँगी, सखी ! सुधि उन्हें सुनाऊँगी। पहन शुक्र का कर्णफूल है दिशा अभी भी मतवाली, रहते रात रमणियाँ आईं ले-ले फूलों की डाली। स्वर्ग-स्त्रोत, करुणा की धारा, भारत-माँ का पुण्य तरल, भक्ति-अश्रुधारा-सी निर्मल गंगा बहती है अविरल। लहर-लहर पर लहराते हैं मधुर प्रभाती-गान, भुवन स्वर्ग बन रहा, उड़े जाते ऊपर को प्राण, पुजारिन की बन कंठ-हिलोर, भिगो दूँगी अब-जग के छोर। कवि ! असाढ़ की इस रिमझिम में धनखेतों में जाने दो, कृषक-सुंदरी के स्वर में अटपटे गीत कुछ गाने दो । दुखियों के केवल उत्सव में इस दम पर्व मनाने दो, रोऊँगी खलिहानों में, खेतों में तो हर्षाने दो । मैं बच्चों के संग जरा खेलूँगी दूब-बिछौने पर , मचलूँगी मैं जरा इन्द्रधनु के रंगीन खिलौने पर । तितली के पीछे दौड़ूंगी, नाचूँगी दे-दे ताली, मैं मकई की सुरभी बनूँगी, पके आम-फल की लाली । वेणु-कुंज में जुगनू बन मैं इधर-उधर मुसकाऊँगी , हरसिंगार की कलियाँ बनकर वधुओं पर झड़ जाऊँगी। सूखी रोटी खायेगा जब कृषक खेत में धर कर हल, तब दूँगी मैं तृप्ति उसे बनकर लोटे का गंगाजल । उसके तन का दिव्य स्वेदकण बनकर गिरती जाऊँगी, और खेत में उन्हीं कणों-से मैं मोती उपजाऊँगी । शस्य-श्यामता निरख करेगा कृषक अधिक जब अभिलाषा, तब मैं उसके हृदय-स्त्रोत में उमड़ूंगी बनकर आशा । अर्धनग्न दम्पति के गृह में मैं झोंका बन आऊँगी, लज्जित हो न अतिथि-सम्मुख वे, दीपक तुरंत बुझाऊँगी। ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे, बूँद-बूँद बेचेंगे, अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे । शिशु मचलेंगे दूध देख, जननी उनको बहलायेंगी, मैं फाडूंगी हृदय, लाज से आँख नहीं रो पायेगी । इतने पर भी धन-पतियों की उनपर होगी मार, तब मैं बरसूँगी बन बेबस के आँसू सुकुमार । फटेगा भू का हृदय कठोर । चलो कवि ! वनफूलों की ओर । |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
बोधिसत्त्व
सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में, देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में । काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? चले ममता का बंधन तोड़ विश्व की महामुक्ति की ओर । तप की आग, त्याग की ज्वाला से प्रबोध-संधान किया , विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृषित विश्व को दान किया । वैशाली की धूल चरण चूमने ललक ललचाती है , स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है । वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें , बोधिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें । शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें , प्रभो ! पुकार रही व्याकुल मानवता की जंजीर तुम्हें । आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा ! धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा ! स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा ! दीन दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा ! आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं , देव ! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं ? धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई , दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई । धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं , मन्दिर का पट बन्द देख ‘जय’ कह निराश फिर जाते हैं । शबरी के जूठे बेरों से आज राम को प्रेम नहीं , मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं । पर, गुलाब-जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ? बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ? मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए ; कैसे बचे दीन ? प्रभु भी धनियों के गृह में बन्द हुए । अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं , जागो बोधिसत्त्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं । जागो विप्लव के वाक्* ! दम्भियों के इन अत्याचारों से , जागो, हे जागो, तप-निधान ! दलितों के हाहाकारों से । जागो, गांधी पर किये गए नरपशु-पतितों के वारों से , * जागो, मैत्री-निर्घोष ! आज व्यापक युगधर्म-पुकारों से । जागो, गौतम ! जागो, महान ! जागो, अतीत के क्रांति-गान ! जागो, जगती के धर्म-तत्त्व ! जागो, हे ! जागो बोधिसत्त्व ! |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
मैं पतझड़ की कोयल उदास,
बिखरे वैभव की रानी हूँ मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ। अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि, गरिमा की हूँ धूमिल छाया, मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, मैं मुरझी सुषमा की माया। मैं क्षीणप्रभा, मैं हत-आभा, सम्प्रति, भिखारिणी मतवाली, खँडहर में खोज रही अपने उजड़े सुहाग की हूँ लाली। मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि, मेरे पुत्रों का महा ज्ञान । मेरी सीता ने दिया विश्व की रमणी को आदर्श-दान। मैं वैशाली के आसपास बैठी नित खँडहर में अजान, सुनती हूँ साश्रु नयन अपने लिच्छवि-वीरों के कीर्ति-गान। नीरव निशि में गंडकी विमल कर देती मेरे विकल प्राण, मैं खड़ी तीर पर सुनती हूँ विद्यापति-कवि के मधुर गान। नीलम-घन गरज-गरज बरसें रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम अथोर, लहरें गाती हैं मधु-विहाग, ‘हे, हे सखि ! हमर दुखक न ओर ।’ चांदनी-बीच धन-खेतों में हरियाली बन लहराती हूँ, आती कुछ सुधि, पगली दौड़ो मैं कपिलवस्तु को जाती हूँ। बिखरी लट, आँसू छलक रहे, मैं फिरती हूँ मारी-मारी । कण-कण में खोज रही अपनी खोई अनन्त निधियाँ सारी। मैं उजड़े उपवन की मालिन, उठती मेरे हिय विषम हूख, कोकिला नहीं, इस कुंज-बीच रह-रह अतीत-सुधि रही कूक। मैं पतझड़ की कोयल उदास, बिखरे वैभव की रानी हूँ, मैं हरी-भरी हिमशैल-तटी की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ। |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
पाटलिपुत्र की गंगा से
संध्या की इस मलिन सेज पर गंगे ! किस विषाद के संग, सिसक-सिसक कर सुला रही तू अपने मन की मृदुल उमंग? उमड़ रही आकुल अन्तर में कैसी यह वेदना अथाह ? किस पीड़ा के गहन भार से निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह? मानस के इस मौन मुकुल में सजनि ! कौन-सी व्यथा अपार बनकर गन्ध अनिल में मिल जाने को खोज रही लघु द्वार? चल अतीत की रंगभूमि में स्मृति-पंखों पर चढ़ अनजान, विकल-चित सुनती तू अपने चन्द्रगुप्त का क्या जय-गान? घूम रहा पलकों के भीतर स्वप्नों-सा गत विभव विराट? आता है क्या याद मगध का सुरसरि! वह अशोक सम्राट? सन्यासिनी-समान विजन में कर-कर गत विभूति का ध्यान, व्यथित कंठ से गाती हो क्या गुप्त-वंश का गरिमा-गान? गूंज रहे तेरे इस तट पर गंगे ! गौतम के उपदेश, ध्वनित हो रहे इन लहरों में देवि ! अहिंसा के सन्देश। कुहुक-कुहुक मृदु गीत वही गाती कोयल डाली-डाली, वही स्वर्ण-संदेश नित्य बन आता ऊषा की लाली। तुझे याद है चढ़े पदों पर कितने जय-सुमनों के हार? कितनी बार समुद्रगुप्त ने धोई है तुझमें तलवार? तेरे तीरों पर दिग्विजयी नृप के कितने उड़े निशान? कितने चक्रवर्तियों ने हैं किये कूल पर अवभृत्थ-स्नान? विजयी चन्द्रगुप्त के पद पर सैल्यूकस की वह मनुहार, तुझे याद है देवि ! मगध का वह विराट उज्ज्वल शृंगार? जगती पर छाया करती थी कभी हमारी भुजा विशाल, बार-बार झुकते थे पद पर ग्रीक-यवन के उन्नत भाल। उस अतीत गौरव की गाथा छिपी इन्हीं उपकूलों में, कीर्ति-सुरभि वह गमक रही अब भी तेरे वन-फूलों में। नियति-नटी ने खेल-कूद में किया नष्ट सारा शृंगार, खँडहर की धूलों में सोया अपना स्वर्णोदय साकार। तू ने सुख-सुहाग देखा है, उदय और फिर अस्त, सखी! देख, आज निज युवराजों को भिक्षाटन में व्यस्त सखी! एक-एक कर गिरे मुकुट, विकसित वन भस्मीभूत हुआ, तेरे सम्मुख महासिन्धु सूखा, सैकत उद्भूत हुआ। धधक उठा तेरे मरघट में जिस दिन सोने का संसार, एक-एक कर लगा धहकने मगध-सुन्दरी का शृंगार, जिस दिन जली चिता गौरव की, जय-भेरी जब मूक हुई, जमकर पत्थर हुई न क्यों, यदि टूट नहीं दो-टूक हुई? छिपे-छिपे बज रही मंद्र ध्वनि मिट्टी में नक्कारों की, गूँज रही झन-झन धूलों में मौर्यों की तलवारों की। दायें पार्श्व पड़ा सोता मिट्टी में मगध शक्तिशाली, वीर लिच्छवी की विधवा बायें रोती है वैशाली। तू निज मानस-ग्रंथ खोल दोनों की गरिमा गाती है, वीचि-दृर्गों से हेर-हेर सिर धुन-धुन कर रह जाती है। देवी ! दुखद है वर्त्तमान की यह असीम पीड़ा सहना। नहीं सुखद संस्मृति में भी उज्ज्वल अतीत की रत रहना। अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में गंगे ! मन्द-मन्द बहना; गाँवों, नगरों के समीप चल कलकल स्वर से यह कहना, "खँडहर में सोई लक्ष्मी का फिर कब रूप सजाओगे? भग्न देव-मन्दिर में कब पूजा का शंख बजाओगे?" |
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
कस्मै देवाय ?
रच फूलों के गीत मनोहर. चित्रित कर लहरों के कम्पन, कविते ! तेरी विभव-पुरी में स्वर्गिक स्वप्न बना कवि-जीवन। छाया सत्य चित्र बन उतरी, मिला शून्य को रूप सनातन, कवि-मानस का स्वप्न भूमि पर बन आया सुरतरु-मधु-कानन। भावुक मन था, रोक न पाया, सज आये पलकों में सावन, नालन्दा-वैशाली के ढूहों पर, बरसे पुतली के घन। दिल्ली को गौरव-समाधि पर आँखों ने आँसू बरसाये, सिकता में सोये अतीत के ज्योति-वीर स्मृति में उग आये। बार-बार रोती तावी की लहरों से निज कंठ मिलाकर, देवि ! तुझे, सच, रुला चुका हूँ सूने में आँसू बरसा कर। मिथिला में पाया न कहीं, तब ढूँढ़ा बोधि-वृक्ष के नीचे, गौतम का पाया न पता, गंगा की लहरों ने दृग मीचे। मैं निज प्रियदर्शन अतीत का खोज रहा सब ओर नमूना, सच है या मेरे दृग का भ्रम? लगता विश्व मुझे यह सूना। छीन-छीन जल-थल की थाती संस्कृति ने निज रूप सजाया, विस्मय है, तो भी न शान्ति का दर्शन एक पलक को पाया। जीवन का यति-साम्य नहीं क्यों फूट सका जब तक तारों से तृप्ति न क्यों जगती में आई अब तक भी आविष्कारों से? जो मंगल-उपकरण कहाते, वे मनुजों के पाप हुए क्यों? विस्मय है, विज्ञान बिचारे के वर ही अभिशाप हुए क्यों? घरनी चीख कराह रही है दुर्वह शस्त्रों के भारों से, सभ्य जगत को तृप्ति नहीं अब भी युगव्यापी संहारों से। गूँज रहीं संस्कृति-मंडप में भीषण फणियों की फुफकारें, गढ़ते ही भाई जाते हैं भाई के वध-हित तलवारें। शुभ्र वसन वाणिज्य-न्याय का आज रुधिर से लाल हुआ है, किरिच-नोक पर अवलंबित व्यापार, जगत बेहाल हुआ है। सिर धुन-धुन सभ्यता-सुंदरी रोती है बेबस निज रथ में, "हाय ! दनुज किस ओर मुझे ले खींच रहे शोणित के पथ में?" दिक्*-दिक्* में शस्त्रों की झनझन, धन-पिशाच का भैरव-नर्त्तन, दिशा-दिशा में कलुष-नीति, हत्या, तृष्णा, पातक-आवर्त्तन! दलित हुए निर्बल सबलों से मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र जन, आह! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित-शोषण। क्रांति-धात्रि कविते! जागे, उठ, आडम्बर में आग लगा दे, पतन, पाप, पाखंड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे। विद्युत की इस चकाचौंध में देख, दीप की लौ रोती है। अरी, हृदय को थाम, महल के लिए झोंपड़ी बलि होती है। देख, कलेजा फाड़ कृषक दे रहे हृदय शोणित की धारें; बनती ही उनपर जाती हैं वैभव की ऊंची दीवारें। धन-पिशाच के कृषक-मेध में नाच रही पशुता मतवाली, आगन्तुक पीते जाते हैं दीनों के शोणित की प्याली। उठ भूषण की भाव-रंगिणी! लेनिन के दिल की चिनगारी! युग-मर्दित यौवन की ज्वाला ! जाग-जाग, री क्रान्ति-कुमारी! लाखों क्रौंच कराह रहे हैं, जाग, आदि कवि की कल्याणी? फूट-फूट तू कवि-कंठों से बन व्यापक निज युग की वाणी। बरस ज्योति बन गहन तिमिर में, फूट मूक की बनकर भाषा, चमक अंध की प्रखर दृष्टि बन, उमड़ गरीबी की बन आशा। गूँज, शान्ति की सुकद साँस-सी कलुष-पूर्ण युग-कोलाहल में, बरस, सुधामय कनक-वृष्टि-सी ताप-तप्त जग के मरुथल में। खींच मधुर स्वर्गीय गीत से जगती को जड़ता से ऊपर, सुख की सरस कल्पना-सी तू छा जाये कण-कण में भू पर। क्या होगा अनुचर न वाष्प हो, पड़े न विद्युत-दीप जलाना; मैं न अहित मानूँगा, चाहे मुझे न नभ के पन्थ चलाना। तमसा के अति भव्य पुलिन पर, चित्रकूट के छाया-तरु तर, कहीं तपोवन के कुंजों में देना पर्णकुटी का ही घर। जहाँ तृणों में तू हँसती हो, बहती हो सरि में इठलाकर, पर्व मनाती हो तरु-तरु पर तू विहंग-स्वर में गा-गाकर। कन्द, मूल, नीवार भोगकर, सुलभ इंगुदी-तैल जलाकर, जन-समाज सन्तुष्ट रहे हिल-मिल आपस में प्रेम बढ़ाकर। धर्म-भिन्नता हो न, सभी जन शैल-तटी में हिल-मिल जायें; ऊषा के स्वर्णिम प्रकाश में भावुक भक्ति-मुग्ध-मन गायें, "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्*, स दाधार पृथिवीं द्यामुतेर्माम्* कस्मै देवाय हविषा विधे म?" |
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