रूसी काव्य जगत हिन्दी में
इस सूत्र में मैं रूसी भाषा की श्रेष्ठ काव्य-कृतियों का हिन्दी भावार्थ क्रमशः प्रस्तुत कर रहा हूं ! यदि मनभावन लगे, तो सराहें और न लगे तो दुत्कारें, किन्तु प्रतिक्रिया अवश्य करें, क्योंकि इसी से अपने कार्य के गुणावगुण का अनुमान होता है तथा आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है ! धन्यवाद ! |
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अनातोली परपरा की सात छोटी कविताएं
1 हे सुन्दरता आख़िर इस धरती पर छोड़ी नहीं तूने अपनी मस्ती बदमस्ती वह... 2 रात का पतंगा हूं अन्धा मैं तेरी विकट नील आभा से 3 देखो...बर्फ़ वह कपासी उड़ रही धरती के संग-साथ 4 पतझड़ में उदास वह बागीचा डूबा है आकंठ बारिश के प्यार में... 5 दुख तो यह है दोस्त ! कि अभिमान होता है पैदा बुद्धि से पहले... 6 सुनो ! सुन रहे हो तुम बारिश से डरकर भाग रहे हैं पेड़... 7 अरे ! यह क्या कह रहे हो देखो, बुद्धि बड़ख़ूब जानती है प्यार के बारे में |
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रूस के जाने-माने दार्शनिक, चित्रकार और कवि निकोलाई रोरिक का जन्म 9 अक्टूबर 1874 को रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ ! वे लम्बे समय तक भारत में रहे और भारत में ही हिमाचल प्रदेश में कुल्लू के पास 'नगर' नामक कस्बे में 13 दिसंबर 1947 को उनका देहान्त हुआ ! उन्होंने भारत की प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री देविका रानी से विवाह किया था ! यहां प्रस्तुत है उनकी एक प्रख्यात कविता !
तुम्हारी मुस्कराहट तट पर हम गले मिले और अलग हुए, सुनहरी लहरों में छिप गई हमारी नाव ! द्वीप पर हम थे, हमारा पुराना घर था मन्दिर की चाबी हमारे पास थी हमारे पास थी अपनी गुफ़ा अपनी चट्टानें, देवदार और समुद्री चिड़ियां हमारी अपनी थी दलदल और हमारे ऊपर तारे भी अपने। हम छोड़ देंगे द्वीप निकल जाएंगे अपने ठिकाने की तरफ़ हम लौटेंगे, पर सिर्फ़ रात में। बन्धुओ कल हम जल्दी उठेंगे सूर्योदय से पहले जब चमकीली आभा छाई होती है पूरब में जब नींद से सिर्फ़ पृथ्वी उठ रही होती है लोग अभी सो रहे होंगे, उनकी चिन्ताओं के सीमान्त से बाहर हम मुक्त होकर जान सकेंगे अपने आप को । दूसरे लोगों से निश्चित ही भिन्न होंगे । सीमान्त के पास पहुंचने पर चुप्पी और ख़ामोशी में हम देखेंगे- मौन बैठा हुआ वह, उत्तर में हमें कुछ कहेगा । ओ सुबह, बताओ किसे ले गई थीं तुम अन्धकार में और किसका स्वागत कर रही है तुम्हारी मुस्कराहट ? |
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पूर्व सोवियत गणराज्य के उक्राइना में 11 जून 1889 को जन्मी अन्ना अख्मातोवा रूस की प्रख्यात कवयित्री हैं ! उनका निधन मॉस्को में 5 मार्च 1966 को हुआ ! नारी समुदाय की वैश्विक पीड़ा उनके काव्य का मूल स्रोत है और उनकी अधिकांश रचनाओं में इसे घनीभूत होते सहज ही देखा जा सकता है ! यहां प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं !
मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूं, सखी ! धधकते दावानल के बीच - मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूं, सखी ! तुम्हारी आंखों की ज्योति मन्द पड़ गई है आंसू भाप बन कर उड़ गए हैं बादल सरीखे और बालों से झलकने लगा है उम्र का भूरापन ! तुम समझ नहीं पा रही हो चिड़िया का गाना न तो सितारों की सरगोशियां और न ही दामिनी की द्युति का दर्प ! जब कोई स्त्री बजा रही हो खंजड़ी तो मत सुनो और कुछ और मत डरो कि टूटेगा सन्नाटे का साम्राज्य ! धधकते दावानल के बीच - मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूं, सखी ! - मुझे दफ़्न करने वालो बताओ कहां हैं तुम्हारी कुदालें और बेलचे ? अरे ! तुम्हारे पास तो है फक़त एक बांसुरी कोई गिला नहीं कोई इल्जाम आयद नहीं बहुत दिन हो गए मेरी वाणी को मूक हुए ! आओ, मेरे वस्त्र धारण करो मेरे डर का खामोशी से दो जवाब बहने दो बयार जो तुम्हारे बालों को सहलाती हो बकायन की गंध का मजा लो तुमने बहुत लम्बे पथरीले रास्ते तय किए यहां तक पहुंचने की खातिर और इस आग से उजाले का उत्खनन करने में ! दूसरे के लिए जगह त्यागकर कोई है जो चला गया है आत्मनिर्वासित भटकता-अटकता अब तो जैसे कोई अंधी स्त्री निरख-परख रही हो अनचीन्हे- संकरे रास्ते के मार्गदर्शक चिन्ह ! और अब भी उसके हाथों में थमी है खंजड़ी जो लपटों की तरह लहराने को है बेताब कभी वह हुआ करती थी श्वेत परचम की मानिन्द और वह अब भी है प्रकाश स्तम्भ से प्रवाहित उजाले की ऊर्जस्वित कतार ! धधकते दावानल के बीच - मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूं, सखी ! जब कोई स्त्री बजा रही हो खंजड़ी तो मत सुनो और कुछ और मत डरो कि टूटेगा सन्नाटे का साम्राज्य ! |
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अन्ना अख्मातोवा की एक और कविता !
शाम शॉल के पीछे अपने हाथों को मज़बूती से जकड़ लेती हूं मैं इतनी ज़र्द क्यों दिख रही हूं आज की शाम ... शायद मैंने ज़्यादा ही पिला दी थी उसे दुःख और हताशा की कड़वी शराब कैसे भूल सकती हूं ! -- वह बाहर चला गया था, दर्द की रेखा में खिंचे हुए थे उसके होंठ पगलाई सी मैं दौड़ती चली गई थी सीढ़ियां उतर कर उसके पीछे, सड़क तक मैं चिल्लाई : "मैं तो मज़ाक कर रही थी, सच्ची ! मुझे ऐसे छोड़कर मत जाओ, मैं मर जाऊंगी" - और एक भयानक, ठंडी मुस्कान अपने चेहरे पर लाकर उसने हिदायत दी मुझे : "बाहर हवा में मत खड़ी रहो !" |
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28 नवम्बर 1880 को सेंट पीटर्सबर्ग में जन्मे अलेक्सान्दर ब्लॉक रूस के प्रतिष्ठित कवि हैं ! उनकी कविताएं अपनी मानवीय दृष्टि और भाव-प्रवणता के कारण न केवल संसारभर की अधिकांश भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं, अपितु सराही भी गई हैं ! अनेक सम्मानों से विभूषित किए गए इस कवि का 10 अगस्त 1921 को निधन हो गया ! आइए, रसास्वादन करें रूसी के इस महत्वपूर्ण कवि की कुछ सर्वकालिक कविताओं का !
रात सड़क लैम्प... रात सड़क लैम्प कैमिस्ट की दुकान धुंधली और अर्थहीन रोशनी और अगर जिओ तुम एक चौथाई शताब्दी तब भी सभी कुछ होगा ऎसा ही इससे निकलने का रास्ता नहीं मर जाओगे नए सिरे से फिर से शुरू करोगे और पुराने जैसा सब कुछ दोहराओगे रात सड़क लैम्प कैमिस्ट की दुकान ! |
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सीथियाई/अलेक्सान्दर ब्लॉक
माना तुम हो लाखों लेकिन हम प्रचंड धारा अटूट हैं वेग हमारा रोक नहीं पाओगे हम हैं सीथिआई ! सोचो रक्त एशिया अपना सामूहिक भूखें वक्र बनाती हैं अपनी भ्रकुटि को धीमे-धीमे शब्द तुम्हारे अपने लिए मात्र घंटे से चाटुकर गर्हित दासों सा है यूरोप तुम्हारा मंगोल दलों से जिसे बचाता पर्वताकार विस्तृत अपार पौरुष अपना सदियों रोक षड्यंत्रों को तुमने हिम दरकन सा सुनी पुकारें अनहोनी अनजान कथा सी लिस्बन और मसीना की सदियों स्वन तुम्हारे सीमित थे पूरब तक लूटा माल, चुराए मोती, छिपा लिया सब धोका देकर घेरा हमको बन्दूकों से आ पहुंचा है समय कयामत ने अपने डैने फैलाए बहुत कर चुके तुम अपमानित अब अपनी भ्रकुटि तनती है घंटा बजा कि हमने तोड़ा अहं तुम्हारे का दुखदायी घेरा ढेर लगाया दुर्बल पैस्तमों का अत: वद्ध जग ठहरो वरना जो अन्तिम आशा है उसका अन्त निकट है लो प्रज्ञा से काम तुम्हारे चमत्कार अब श्रान्त-क्लान्त हैं वद्ध ईडिपस स्फिंक्स खड़ा है अब भी इसके सम्मुख आओ पढ़ो दृगों में गूढ़ पहेली ! |
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पेत्रोग्राद में 28 नवम्बर 1915 को जन्मे कोंस्तान्तिन सीमानोव गद्य और पद्य दोनों विधाओं में समान महारत रखते थे ! सुदीर्घ काल तक सैन्य सेवा करने के कारण उनका अधिकतर रचना-कर्म इसी से सम्बंधित है ! उनका मानवीय दृष्टिकोण उन्हें रूसी साहित्य के वरिष्ठ रचनाकारों की पंक्ति में अग्रिम स्थान प्रदान करता है ! यही कारण है कि उनकी रचनाओं पर आठ फिल्मों का निर्माण हुआ ! इनमें 'कोई फौजी बन कर पैदा नहीं होता' सर्वाधिक सराही गई कृति है ! उनका निधन 28 अगस्त1979 को हुआ ! यहां प्रस्तुत है उनकी एक कविता !
इंतज़ार करो मैं लौटूंगा इंतज़ार करो मैं लौटूंगा इंतज़ार करो तुम मेरा इंतज़ार करो पीली बारिश में जब दुख का हो डेरा इंतज़ार करो जब गर्मी हो तेज़ जब बर्फ़ गिरे भारी इक-दूजे को जब भूलें सब ग़म ही ग़म हो तारी जब ख़त आने भी बंद हो जाएं और थकें सब लोग इंतज़ार करो तब तुम मेरा महसूस करो वियोग इंतज़ार करो मैं लौटूंगा जब सब भूलेंगे मुझको उस घड़ी मैं लौटूंगा मेरी जां जब कहेंगे-भूलो उसको जब बच्चे ये विश्वास करेंगे और मां कहेगी-वो नहीं रहा जब दोस्त कहेंगे-थक चुके हम तो अब वो आएगा कहां फिर खिड़की के बैठ किनारे सब मुझको याद करेंगे और याद कर-करके मुझको सब अपना जाम भरेंगे तुम तब भी मत घबराना न पीना जाम तुम मेरा इंतज़ार करो मैं लौटूंगा इंतज़ार करो तुम मेरा जब लौटूंगा दे मौत को धोखा सब दंग रह जाएंगे कैसे मैं ज़िंदा लौट आया आख़िर बस ये समझ न पाएंगे तेरे कारण ही लौटा मैं तूने मुझे बचाया है बस तू और मैं यह जानेंगे तूने मुझे जिलाया है बस तेरे कारण ही ज़िंदा मैं बस तूने दिया मौत को फेरा बस तूने सोचा था लौटेगा बस इंतज़ार किया तूने ही मेरा ! |
Re: रूसी काव्य जगत हिन्दी में
अति श्रेष्ठ बन्धु ! आप तो बिलकुल मेरी भाषा में बात करते हैं ! श्रेष्ठ सूत्र के लिए बधाई स्वीकार करें !
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Re: रूसी काव्य जगत हिन्दी में
धन्यवाद बन्धु ! यद्यपि आपका कथन एक सीमा तक उचित ही है, तथापि अंतर यह है कि आप अन्य भाषाओं के शब्दों का उपयोग करते हैं, किन्तु मैं ऐसा नहीं करता ! आपने मेरे सूत्र का भ्रमण किया, अपने बहुमूल्य विचार प्रकट किए, आभार आपका !
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