ग़ज़ल गा के देखो
जो हकीक़त में मिली ना , मिल गयी कल ख़्वाब में ;
लड़ के वो मासूम बोली , आते हो क्यों ख़्वाब में . कुछ दिनों तक और ज़िन्दा रहने की सूरत बनी ; खेल कर ज़ख्मों से , ताज़ा कर गई वो ख़्वाब में . पहले भी लड़ती थी ख़ुब , लड़ने के ढँग में प्यार था ; प्यार अपने ढँग से वो छलका गई फिर ख़्वाब में . आग मुद्दत से जुदाई की दहकती दिल में थी ; गरज कर , फिर बरस कर उसने बुझाई ख़्वाब में . इक कश्मकश उसके पूरे जिस्म से थी झाँकती ; पाँव थे उससे ख़फ़ा , रुखसत हुई जब ख़्वाब में . आँख से ओझल हुई फिर भी दिखी वो देर तक ; ये करिश्मा भी मुझे दिखला गई वो ख़्वाब में . मुझको लगता था महज़ मेरे ही ख़्वाबों में है वो ; मैं भी दिखता हूँ उसे जतला गई वो ख़्वाब में . उस हकीक़त का करूँ क्या जिसमें वो ना मिल सके ; काश पूरी ज़िन्दगी कट जाए यूँ ही ख़्वाब में . रचयिता ~~~डॉ . राकेश श्रीवास्तव विनय खण्ड -2,गोमती नगर ,लखनऊ . |
Re: ग़ज़ल गा के देखो
एक और ख़ूबसूरत कविता के लिए धन्यवाद राकेश जी.
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Re: ग़ज़ल गा के देखो
Quote:
बहुत ही खूब राकेश जी तहेदिल से दाद क़ुबूल करें | |
Re: ग़ज़ल गा के देखो
Abhisays जी ,
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया . |
Re: ग़ज़ल गा के देखो
Sikandar जी ,
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया . |
Re: ग़ज़ल गा के देखो
Quote:
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Re: ग़ज़ल गा के देखो
n.dhebar जी ,
आपने पसन्द किया , आपका शुक्रिया . |
Re: ग़ज़ल गा के देखो
एक और...बहुत शानदार है। बधाई...
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Re: ग़ज़ल गा के देखो
अनूप जी ,
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया . |
Re: ग़ज़ल गा के देखो
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