क़ैद
किस क़ैद में जकड़ता जा रहा हूँ
मैं खुद से ही बिछड़ता जा रहा हूँ जो ओझल हो गए आँखों से उन ख्वाबों को पकड़ता जा रहा हूँ दुनिया के सामने फ़ैलने की चाह में कितना खुद में सिमटता जा रहा हूँ मुठ्ठी भर ख़ुशी पर हक क्या जता दिया दर्द से रिश्ता बनाता जा रहा हूँ एक दिन तो फूल मिलेंगे राहों में बस यूँ ही पत्थर हटाता जा रहा हूँ तुम्हारा ये कहना कि आओगे लौटकर साँसों से भी रिश्ता निभाता जा रहा हूँ |
Re: क़ैद
भाव बहुत नाजुक चुने हैं आपने . कुल मिला के अच्छी रचना . महफ़िल में रौनक की उम्मीद जगाने हेतु आभार आपका अनिल कृति जी .
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Re: क़ैद
बहुत सुंदर रचना अनिल जी।
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Re: क़ैद
बहुत अच्छे अनिल जी :bravo:
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Re: क़ैद
बहुत खूबसूरत रचना है |:fantastic:
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Re: क़ैद
खूबसूरत रचना..................
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Re: क़ैद
बहुत सुदर .......
खुद से बीछुड़ता जा रहा हूँ .....:clapping: |
Re: क़ैद
[QUOTE=anilkriti;179747]
तुम्हारा ये कहना कि आओगे लौटकर साँसों से भी रिश्ता निभाता जा रहा हूँ :cheers: अनिल कृति जी, आह से उपजी कविता अत्यन्त शक्तिशाली बन पड़ी है. उम्मीद की एक भी किरण दिल में बाकी हो तो सपने पूरे होने में विलम्ब नहीं होता. भावों का सम्प्रेषण श्रेष्ठ है. धन्यवाद. |
Re: क़ैद
[QUOTE=rajnish manga;180786]
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