ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए.
हम उजाले के कण ढूँढते रह गए. मोतियों की तरह रास्ते भर कहीं, खो गए थे जो क्षण ढूँढते रह गए. ज़िंदगी जब जटिलताओं से घिर गयी, कायरों का मरण ढूँढते रह गए. नंगे लोगों की बस्ती में अपने लिये, हम धवल आवरण ढूँढते रह गए. अपने होने का परचम हिलाते हुये, इक निरापद शरण ढूँढते रह गए. खिल सके मुस्कराहट अनायास जब, ऐसे दो चार क्षण ढूँढते रह गए. |
Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
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Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
अति श्रेष्ठ सृजन है, रजनीशजी। सम्पूर्ण ग़ज़ल में भाव-भूमि जितनी सशक्त है, शब्द-विन्यास भी उतना ही प्रवहमान और सहज है। शुद्ध हिन्दी के अत्यंत कठिन अनेक शब्द आपके प्रयोग-कौशल से इस ग़ज़ल के पाठक को चिर-परिचित लगते हैं, यह आपकी बड़ी उपलब्धि है। कृपया इस अनुपम सृजन के रसास्वादन का सुख-भोग करने के लिए मेरा आभार स्वीकार करें। :bravo:
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Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
बहुत ही अच्छी रचना है रजनीश जी। :bravo::bravo::bravo:
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Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
खिल सके मुस्कराहट अनायास जब,
ऐसे दो चार क्षण ढूँढते रह गए. बहुत ही शानदार ....... |
Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
रजनीश जी, अत्यंत मनोहारी पंक्तियाँ प्रस्तुत की हैं आपने। पढ़ते पढ़ते मन मुग्ध हो गया। इस मुक्तामणि के लिए हार्दिक अभिनन्दन बन्धु।
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Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
बहुत ही अच्छी रचना है
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Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
बहुत ही सार्थक, शानदार और धारदार ग़ज़ल . इस रचना विशेष हेतु हार्दिक बधाई .
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Re: ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
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