सुन्दरकाण्ड
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Re: सुन्दरकाण्ड
* शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं भावार्थ:-शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्*। रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्*॥1॥ |
Re: सुन्दरकाण्ड
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये भावार्थ:-हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा। भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥ |
Re: सुन्दरकाण्ड
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्*जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्*। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥ |
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जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥ भावार्थ:-जाम्बवान्* के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्*जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥ जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥ भावार्थ:-जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्*जी हर्षित होकर चले॥2॥यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥ सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥ भावार्थ:-समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्*जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान्* हनुमान्*जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥ जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥ भावार्थ:-जिस पर्वत पर हनुमान्*जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्*जी चले॥4॥जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥ जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥ भावार्थ:-समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात्* अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥ |
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दोहा : भावार्थ:-हनुमान्*जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥ |
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जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥ भावार्थ:-देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्*जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान्*जी से यह बात कही-॥1॥सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥ आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥ भावार्थ:-आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान्*जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ,॥2॥राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥ तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥ भावार्थ:-तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान्*जी ने कहा- तो फिर मुझे खा न ले॥3॥कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥ जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥ भावार्थ:-उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्*जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्*जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥4॥सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥ जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥ भावार्थ:-जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्*जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्*जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥ बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥ भावार्थ:-और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था॥6॥मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥ |
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दोहा : भावार्थ:-तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्*जी हर्षित होकर चले॥2॥राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥ |
Re: सुन्दरकाण्ड
मानस-पाठ को आगे बढायें ताराबाबू ....... प्रस्तुति के लिए आभार बन्धु।
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Re: सुन्दरकाण्ड
अति उत्तम बंधु ।कृपया इसे आगे बढ़ाएँ । इतनी सुंदर प्रस्तुति हेतु आभार स्वीकार करें ।
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