डेढ़सौसालपहलेकीसंस्कृति
इसको भाषा इतनी जीवंत है कि आज के साहित्याकारों को भी दिशा दिखा देती है ..और अपने लेखन से नए समय के आने की आहट देती है | यदि डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति को जानना हो तो इस उपन्यास से बेहतर कोई साधन नही हैं ..| पंडित गौरी दत्त के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिन्दी के प्रचार प्रसार में अपनी सारी जायदाद तक लगा दी थी |इस के लिए उनकी समानता मालवीय जी .महावीर प्रसाद दिवेद्धी.बाल कुमुन्द गुप्त तक से की जाती है |
५००प्रतियाँप्रकाशितहुईऔरमूल्यकेवल१२आने
प्रथम हिन्दी उपन्यास देवरानी जेठानी की कहानी १८७० में मेरठ के एक
लीथो प्रेस छापाखाना ऐ जियाई में प्रकाशित हुआ था |तब इसकी ५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने था | कुछ समय तक इस उपन्यास को नारी शिक्षा विषयक कह कर उसके समुचित गौरव से इसको वंचित रखा गया किंतु अपनी गहरी सामाजिक दृष्टि और मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यह एक ऐसा उपन्यास बन गया जिसकी तुलना किसी से नही की जा सकती है | छोटे आकार की सिर्फ़ पैंतीस पृष्ठों की यह कृति उस वक्त के सामाजिक समस्याओं को इतने अच्छे तरीके से बताती है कि प्रथम उपन्यास में ही यह कमाल देख कर हैरानी होती है | उस वक्त के इन समस्याओं के साथ साथ जीवन के चटख रंगों में पूरे प्रमाण के साथ लिखा गया है | इसकी भाषा उस वक्त की जन भाषा से जुड़ी हुई है | किस्सागोई का अनूठा प्रयोग है और लोक भाषा के अर्थ गर्भित शब्दों के सचेत प्रयोग किए गए हैं .जैसे ..
""जब वह सायंकाल को सारे दिन का थका हारा घर आता ,नून तेल का झींकना ले बैठती | कभी कहती मुझे गहना बना दे ,रोती झींकती ,लड़ती भिड़ती |उसे रोती न करने देती |कहती कि फलाने की बहू को देख ,गहने से लद रही है |उसका मालिक नित नई चीज लावे है |मेरे तो इस घर में आ के भाग फूट गए | वह कहता ,अरी भगवान् ,जाने भगवान रोटियों की क्यों कर गुजारा कर रहे हैं ,तुझे गहने -पाते की सूझ रही है?"