जिद्दी मन को और न भाये
हुस्न सदा से रहा खिलाड़ी , इश्क ने हरदम बाज़ी हारी .
बहुत सिकन्दर बने फटीचर , उजड़ गयीं जागीरें सारी .
थोड़े दिन कश्मीर भोग , अब भुगत रहे हैं कालाहारी .
आशिक बन्दर - माफ़िक नाचे , हुस्न भी है इक अज़ब मदारी .
जिद्दी मन को और न भाये , वरना दुनिया में भरमारी .
रूठा यार न माने फिर से , इससे बढ़कर क्या लाचारी .
दिल नन्हा सा होता है पर सारी दुनिया इससे हारी .
प्यार का कर्जा एक बार ले , चुका रहा ता उम्र उधारी .
प्रेम का सावन चार दिनों था , आँख की बरखा अब तक जारी .
बिन धूवें के आग धधकती , ऐसी है दिल की बीमारी .
मरते दम फीके न पड़ें रंग , यार ने मारी वो पिचकारी .
इश्क - पिटे का जीवन घिसटे , पर्वत ने ज्यों धूप उतारी .
ये दो मिल नेमत बनते हैं , पेट में हलुवा बाँह में नारी .
जिसकी शैली अलग सुखद हो , वो लूटेगा महफ़िल सारी .
रचयिता ~~डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड-२,गोमती नगर,लखनऊ .
(शब्दार्थ ~~ कालाहारी = प्रतिकूल परिस्थितियों वाला अफ्रीकी रेगिस्तान )
Last edited by Dr. Rakesh Srivastava; 02-10-2011 at 10:45 AM.
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