16-10-2011, 10:54 AM
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
Quote:
Originally Posted by dr. Rakesh srivastava
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया .
जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ;
यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया .
इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ;
कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया .
जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ;
मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया .
आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ;
एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया .
जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ;
दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया .
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .
रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव
विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ.
शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली )
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बहुत ही खूब माशा अल्लाह क्या लाजवाब लिखते हैं आप
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