Re: उल्लुं शरणं गच्छामि…उल्लू की खिदमत में खड&
उसकी नजर ज़रा टेढ़ी हुई कि रौनक अफरोज़ गुलिस्तान भी हो जाता वीरान है। इस उल्लू के तुफैल से ही आबाद हिंदुस्तान का हर श्मशान है। आजादी से पहले,गुलामी के दरख्त में बनी कायरता की कोटर में ये उल्लू चुपचाप दुबके बैठे रहे क्योंकि उल्लू होकर भी ये वाकई उल्लू नहीं थे। देशभक्तों को इन उल्लुओं ने हमेशा उल्लू माना जो कि राष्ट्राभिमान के कारण अंग्रेज सरकार के आगे टेढ़े हो जाने के कारण अपना उल्लू सीधा नहीं कर पाए। जो दर-दर जान लेकर भटकते रहे और वंदेमातरम कहकर फांसी के फंदों पर लटकते रहे। और जो आजादी के बाद बचे रहे गए, तो वे सपरिवार अपमान और उपेक्षा का जहर गटकते रहे। उल्लू समझदार थे,उन्हें मालुम था कि उलुल अल्बाब,वतनपरस्त,आजादी के ये परवाने उल्क की उल्फत में मुल्क को आजाद कराने के बाद भी उसूलों और उलूलों के कारण बेचारे उल्लू ही बने रहेंगे। इसलिए यह तो तय हो गया कि आदमी,अच्छा-खासा आदमी होने के बावजूद उल्लू ही बनना चाहता है। अब इसमें भी आदमी की दो नस्लें हैं- एक जो उल्लू बनाती है और दूसरी जो उल्लू बनती है। अब जो पहले से ही उल्लू है उसे कौन उल्लू बना सकता है। वह तो पैदाइशी उल्लू है। हां दूसरों को उल्लू बनाने का महत्वपूर्ण काम उसे करना था,इसलिए आजादी के बाद उल्लू अपने विश्वस्त उलूकों के साथ अपने घोंसलों से बाहर आए। वातावरण भी उनके अनुकूल था।
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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