Re: कतरनें
तुम्हारा प्यार, प्यार और हमारा प्यार लफ़डा?
एक बहुत करीबी मित्र से फोन पर बात हो रही थी. वो बोला की उसका साला अपनी पडोसन से प्रेम विवाह कर रहा है. घर वाले राजी खुशी मान गए हैं.
ये वो ही घर वाले हैं, जिन्होंने मित्र की साली की शादी उसकी पसंद लडके से नहीं होनें दी थी और जबरदस्ती कहीं और कर दी थी.
जब कन्या के प्रेम का ज़िक्र हमारे सामने किया गया था तब – ‘टांका भिड गया है’, ‘ईलू-ईलू का चक्कर है’, ‘लफ़डा चल रहा है’, ‘नैन-मटक्का हो गया है’ जैसे वाक्यांशों से उसके प्रेम में पड जाने का दबी ज़बान से इशारा किया गया था. कन्या की शादी कहीं और कर दी गई! आज उसकी गोद में एक पप्पू खेलता है. जबकि वहीं इन साले महाराज के प्रेम प्रकरण की परिणीति विवाह में हो रही है! लडका इकलौता है, उसने पिता का काम काज संभाल लिया है. पिता को डर होगा कहीं फ़िल्मी स्टाईल में बाग़ी ना हो जाए – जो दबाव बेटी पर चल गया बेटे पर ना चला. मैं सोचता हूं की क्या वो बहन अपने भाई (और पिता) से कभी पूछेगी कि जी “तुम्हारा प्यार, प्यार और हमारा प्यार लफ़डा?” शायद वो नहीं पूछेगी क्योंकि वो भी उसे एक लफ़डा मान कर भुला देने में ही समझदारी मानती होगी/दर्शाती होगी! यही होता है.
कमाऊ पुत्र का प्यार, प्यार हो गया! निरीह पुत्री का प्यार लफ़डा कह कर खारिज कर दिया गया! पुत्री का प्यार इसलिये खारिज कर दिया गया की उसे जो लडका पसंद था उसका सामाजिक स्तर यानी आर्थिक आधार कमजोर था. घटनाओं को परिपेक्ष्य विशेष में देखने की कोशिश करता हूं और एक लाठी से सबको हांकने से भी बचता हूं लेकिन बहुत हद तक क्या उपरोक्त घटना हमारे समाज के चलन की तरफ़ इशारा नहीं करती?
मैंने कहीं व्यंग्य किया था की “प्रेम के नुस्खे, नियम पत्र-पत्रिकाओं में उपलब्ध हैं. प्रेम के हर चरण में किए जाने वाले कार्य एक पूर्वनिर्धारित नीति के तहत किए जाने होते हैं. प्रेम अंधा नही होता, बाकायदा सोच-समझ कर उगता और ढलता है.”
विलुप्तप्राय:वस्था को प्राप्त हो चुका प्रेम इतना लाचार है की उसके अस्तित्व तो क्या उसकी भावनात्मक अस्मिता को भी घर/समाज वालों की स्वीकृत पर आश्रित होना होता है! अन्यथा वो बेचारा लफ़डा/चक्कर/टांका हो के रह जाता है! यदी कहीं अपवादस्वरूप दो लोग सचमुच प्रेम कर बैठें जो बाकयदा सोच-समझ कर उगाया गया तथाकथित प्रेम ना हो, तो उनके प्रेम को अधिक सक्षम ‘पार्टी’ द्वारा ‘लफ़डा’ करार दे दिया जाना आम है! ये प्रेम का लफ़डा या चक्कर करार दिया जाना बिल्कुल वैसा ही विसंगत है जैसा देवी की पूजा करने वाले समाज में कन्या भ्रूण-हत्याएं होना. ये दुष्कर्म इतना आम है की अखबारों और न्यूज़ पोर्टल्स की, रोज़मर्रा की भाषा में है!
आज ही का वेबदुनिया के लेख की भाषा पर गौर कीजिये जो हाल में सुर्खियों में आए किन्ही “दयानन्द पाण्डे” के बारे में है -
सुधाकर के नजदीकी लोगों की मानें तो शुरुआत से ही उसे बेहिसाब धन कमाने का भूत सवार था। उसके पिता उदयभानधर द्विवेदी पुलिस के सबइंस्पेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए। जब सुधाकर के पिता नवाबगंज में तैनात थे, उस समय सुधाकर का पड़ोस में रहने वाली एक लड़की दीपा के साथ चक्कर चल पड़ा।
कहा जाता है कि गैर बिरादरी की होने के कारण दीपा को सुधाकर के परिवार वालों ने स्वीकार नहीं किया। कुछ जानकार लोगों का कहना है कि इसी लड़की के साथ सुधाकर ने आर्य समाज विधि से शादी भी की, लेकिन उसके विवाह को परिवार वालों ने स्वीकृति नहीं दी। – वेबदुनिया
याद दिला दूं की यहां मैं दयानन्द पाण्डे के निजी जीवन की बात नहीं कर रहा. वेबदुनिया की भाषा पर ध्यान दिलवा रहा हूं जो हमारे समाज की सोच और मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है. ये वो ही समाज है जहां दुनिया में सर्वाधिक प्रेम कथाओं वाली फ़िल्में और गाने बनते हैं- “पलभर के लिये कोई हमें प्यार कर ले.. झूठा ही सही”!
हमारी आम भाषा से हमारी आम सोच का पता चलता है. अभी हम अपने आस-पास प्रेम पनपने दे सकने जैसे समाज नहीं बने – भयावह है, नहीं क्या?
(ई-स्वामी से साभार)
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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