Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
तृतीय प्रकरण / श्लोक 8-14
विरत नित्यानित विवेचक, भोग हैं निरपेक्ष में,
आश्चर्य ! है यद्यपि मुमुक्षु, भय तथापि मोक्ष में. [8]
ज्ञानी जन तो भोग पीडा, भाव में समभाव हैं,
हर्ष क्रोध का आत्मा, पर कोई भी न प्रभाव है. [9]
देह में वैदेह ऋत अर्थों में, है ज्ञानी वही,
हों भाव सम निंदा प्रशंसा में कोई अन्तर नहीं. [10]
अज्ञान जिसका शेष, ऐसा धीर इस संसार को,
मात्र माया मान, तत्पर मृत्यु के सत्कार को. [11]
इच्छा रहित मन मोक्ष में भी, महि महिम महिमा महे,
उस आत्म ज्ञानी से तृप्त जन की, साम्यता किससे अहे. [12]
धीर ज्ञानी जानता है, जगत छल है प्रपंच है,
ग्रहण त्याग से मन परात्पर, न रमे कहीं रंच है. [13]
वासना के कषाय कल्मष, जिसने अंतस से तजे,
निर्द्वंद दैविक सुख या दुःख, पर शान्ति अंतस में सजे. [14]
|